जमा हुआ हरापन : जीवन से साक्षात्कार करती हुई कवितायेँ
राहुल देव
मायामृग हिंदी साहित्य का एक जाना-पहचाना नाम है | वे एक रचनाकार होने के साथ साथ एक प्रतिष्ठित प्रकाशक भी हैं | एक प्रकाशक का एक कवि भी होना सुखद है और व्यावसायिकता भरे इस बाजारवादी दौर में एक आश्चर्य भी | इनकी कवितायेँ मैं अक्सर फेसबुक पर पढ़ता रहता था जो हमेशा से मुझे उनके रचनाकर्म को नजदीक से जानने- समझने के लिए आकर्षित करती रहती थी |
‘जमा हुआ हरापन’ शीर्षक उनके इस कविता संग्रह में संग्रहीत अट्ठासी कविताओं के माध्यम से इस कवि के सीधे सरल व्यक्तित्व-कृतित्व का परिचय सहज ही मिल जाता है | इन कविताओं पर कुछ लिखना मेरे लिए थोड़ा चुनौतीपूर्ण भी रहा क्योंकि वह अपनी कविताओं में अपने विशिष्ट दर्शन के साथ बहुत दूर की सोचते हैं | मायामृग समकालीन काव्यधारा में अपनी मौलिक चिंतन दृष्टि के साथ आगे आये हैं | ‘सपनों की डायरी में’ शीर्षक संग्रह की पहली ही कविता देखें तो, ‘सपनों की निजी डायरी में/ एक शब्द लिखा/ प्यार.../...अगली सुबह/ मोहब्बत के क़त्ल की खबर/ अख़बार की सुर्ख़ियों में थी |’ इसे पढ़कर कहा जा सकता है कि मायामृग की काव्ययात्रा कल्पना से यथार्थ की ओर की अनथक यात्रा है | उनकी कविताओं के अर्थ व्यापक हैं |
मायामृग गहरे अर्थों वाली सार्थक कवितायेँ रचते हैं | मसलन उनकी कविता ‘प्रेम को प्रेम कहना’ का यह अंश दृष्टव्य है, ‘यह कुछ होगा अलग सा/कुछ अनकहा सा/ कुछ हाथ में लेकर छिटक जाने सा/कि जैसे रेलगाड़ी का आख़िरी डिब्बा/ठीक उस क्षण निकल गया/ जब हाथ उसे लगभग छू पा रहे थे...|’ मायामृग अपनी कविता में प्रेम को जिस तरह परिभाषित करते हैं, अद्वितीय है | उनकी कवितारुपी यह भावाभिव्यक्तियाँ उनकी संवेदनाओं का मार्मिक और अनन्य शब्द चित्र प्रस्तुत करती हैं | उन्हें अपने समय का प्रेम भी याद आता है जो कवि की स्मृतियों में कहीं बचा रह गया है, ‘दिन बीतते...रात रीतते.../अपने से ऊबे, वक़्त से उकताए, संबंधों से चिढ़े हुए/ उम्र पर खीझते हैं और/ खालीपन में बतियाते हैं भरे गले से/ कभी वक़्त अपना था...|’ (अपने वक़्त में प्यार शीर्षक कविता) लेकिन आज लोगों के अंतर से सच्ची प्रेमभावना की ऊष्मा ख़त्म होती जा रही है | यह देखकर कवि चिंतित होता है |
प्रेम वही है जो कवि समझ रहा है या कुछ और ही है | इस बात पर कवि कविता में अपनी अनभिज्ञता भी जाहिर करता है, अपनी ‘मुझे नहीं पता’ शीर्षक कविता में वह कहता है, ‘छुपी-छुपी सी आपसदारियां/ छोटी छोटी सी साझेदारियां/ क्या इत्ती सी बात को प्रेम कहते हैं...मुझे नहीं पता’ (प्रेम जरूर किसी बड़ी चीज़ का नाम होगा...कोई तो होगा जो बता पाए) यों कहकर वह प्रेम के सच्चे स्वरुप को खोलकर सामने रख देता है | पाठक मन उद्वेलित होता है | ऐसा भी लगता है कि संबंधों के खोखलेपन को कवि ने गहरे से महसूस किया है | दुनियादारी की तमाम सारी बातें उसके अन्दर के कविमन को रास नहीं आतीं | उसे नहीं मालूम कि प्रेम के लिए बनाई गयीं हैं सीमायें, मापदंड और कुछ कायदे | उसका मासूम हृदय तब इस विषय पर कविता लिखने के लिए विवश हो जाता है | वह प्रेम के सच्चे स्वरुप को जानना चाहता है | इसके लिए वह अपने आप से पूछता है तो वहीँ बाह्यजगत के लोगों से भी पूछना चाहता है- ‘जो दिखकर भी नहीं दिखता/ वह/ कुछ तो होगा जरूर...वह जो/ जो गिरते को थामने जैसा है...’ (‘शायद तुम्हें पता हो’ शीर्षक कविता) | उसे प्रेम पहली छुअन की तरह लगता है |
संग्रह की ‘शब्दों की जरूरत’, ‘तुम्हारी किताब में मेरा हिसाब’, ‘सुई-धागा’, ’फूलों की चादर’ जैसी कवितायेँ संवेदना के स्तर पर गहरे तक छूती हैं | ‘सुई-धागा’ में वह कहते हैं, ‘तुमने/ जो सुई-धागा दिया था/ सितारे टांकने को.../ उससे मैंने अपनी उदासी की उधड़ी चादर/ टांक ली/ कोई क्योंकर जान पाए/ उदासियों के पीछे कौन रहता है...’ यहाँ कवि पाठक को साथ लेकर उसे अपनी कविता से जोड़ लेता है | ‘आज फिर एक कविता : प्रेम के किस्से’ शीर्षक में कवि ने कथात्मक शैली का प्रयोग अपनी कविता में किया है | इस कविता में कवि ने विवाहेत्तर प्रेम के कुछ किस्से बयां किये हैं साथ ही कई सामाजिक चित्रों को भी बखूबी कविता के सांचे में ढाला है | ताजमहल को प्रेम का ऐतिहासिक प्रतीक माना जाता है, इस परिप्रेक्ष्य में भी कवि ने कुछेक महत्त्वपूर्ण कविताएं लिखी हैं |
जहाँ उनकी कविता ‘भविष्य की चर्चा’ को पढ़कर भवितव्य की रूहानी कविता का आस्वाद मिलता है | वहीँ कविता शीर्षक ‘इस सुहाने मौसम में’ शाइर एहतराम इस्लाम के कुछ अशआर स्मरण हो आते हैं कि, ‘अग्नि-वर्षा है तो है, हाँ ! बर्फ़बारी है तो है | मौसमों के दरमियाँ इक जंग जारी है तो है |’ इस संग्रह की बहुत सी कवितायेँ अपने कथ्य की मजबूती के कारण काफी सशक्त बन पड़ी हैं | ‘रात को देखे सपने से’ शीर्षक कविता में कवि लिखता है, ‘रात को देखे सपने से/ सुबह तक लड़ता रहा...’ या फिर ‘बिना धार के चाकू से’ शीर्षक कविता को ही ले लें | दरअसल इनके यहाँ प्रेम के साथ प्रेम का प्रतिपक्ष भी कविता का स्याह लेकिन महत्त्वपूर्ण पहलू के रूप में शामिल होता है | जिसके बगैर प्रेम की व्याख्या एकांगी ही मानी जाएगी | इस प्रतिपक्ष के पीछे की व्यथा-कथा भी कई कविताओं में अपने नियंत्रित स्वरुप में मुखर हुई है | वह अपनी कविता में यत्र-तत्र प्रश्न भी खड़े करते चलते हैं जैसे की ‘सूरज’ शीर्षक एक कविता की अंतिम दो पंक्तियों को ही देखें, ‘सवाल उतने ही जलते थे जितनी सूरज में आग.../सूरज जले तो जले.../तुम्हें रोशनी से मतलब...’
मायामृग ने पारिवारिक संबंधों पर भी काफी अच्छी कवितायेँ रची हैं | अपनी इन कविताओं में उन्होंने मानवीय अंतर्संबंधों की गहन पड़ताल करते हुए पाठक को सोचविचार करने पर विवश कर देते हैं | अपनी ‘पिता चुप रहते हैं’ शीर्षक कविता में वह इन सब बातों को क्रमवार रखते हैं कि हम क्या से क्या होते जा रहे हैं | आज परिवार नामक संस्था बिखर रही है | पहले घर-परिवार में पिता का अनुशासन होता था | पारिवारिक वातावरण में आत्मीयता झलकती थी | आज उन्हीं पिता का चुप रहना कवि को अखरता है | घरों की जीवन्तता न जाने कहाँ चली गयी है | हर कोई यंत्रवत जी रहा है बस | इस कविता में वह लिखते हैं, ‘घर के सबसे छोटे सदस्य आके मांगते हैं उनसे/ टाफियां और चाकलेट/ वे चुपचाप थमा देते हैं/ नहीं देते एक शब्द भी साथ/ जैसे शब्द तभी देंगें, जब मांगें जायेंगें...’ या इसके तुरंत बाद आने वाली कविता ‘बड़ा होता बेटा’ जहाँ वह कहते हैं, ‘स्वतंत्रता के लिए लड़ा नहीं जो कभी/ जानता है स्वतंत्रता से जीना अपने में/ नहीं जानता वे गुलाम दिन/ जिनमें पिता ने काता एक एक सूत/ इस दिन को बुनने के लिए...’ इन पंक्तियों को पढ़ने के बाद कहा जा सकता है कि स्वतंत्रता के बाद जन्मी पीढ़ी स्वतंत्रता के पहले की पीढ़ी की भावनाओं को क्या समझेगी | इसीलिए कहा भी गया है कि जब बेटे की लम्बाई पिता के बराबर हो जाए तो उससे मित्रवत व्यवहार करना चाहिए | आज आधुनिकता की चकाचौंध में सब अंधे हो चले हैं | अपनी ‘जिद बनाये रखने की जिद’ शीर्षक कविता में कवि कहता है, ‘जीना, होने और दिखने के बीच/ सच और सच की लड़ाई नहीं.../ अपने-अपने हिस्से को/ जी लेने की ज़िद है...’ इस कविता में कवि ने कुछ नवीन और गर्भित बिम्ब लिए हैं जैसे- ‘रोशनी की रस्सियों पर लटकते हुए/ अँधेरे से गुज़रना’ इससे कविताओं का अर्थवत्ता विस्तार में ध्वनित होती है | या ‘बस दस्तखत’ शीर्षक कविता में, ‘आग्रह आदेश की तरह आए और/ बात शिकायत की तरह/ निलंबित संबंधों में धीरे-धीरे/ संवाद सूली चढ़ गए...’ इस तरह कविताओं में अन्तर्निहित विचार बहुत परिपक्व हैं और पाठक के मन-मस्तिष्क को आंदोलित करते हैं और हमें रूककर सोचने पर विवश करते हैं |
मायामृग अपनी कविताओं के विषय की खोज़ में जीवन के भीतर बहुत दूर तक चले जाते हैं | उनके भीतर का कविमन अंतर्जगत में रूककर ठहरता भी है वहीँ बाह्यजगत की विसंगतियों को देखकर बाहर आकर विचलित भी होता है, चीखता भी है | इन कविताओं में कवि की मौलिक चिंतनधारा के दर्शन सहज ही हो जाते हैं | संग्रह की कई कवितायेँ अपने कथात्मक विस्तार को आगे लेकर बढ़ती दिखाई देती हैं | इसमें आपको जीवन के कई सारे विमर्श देखने को मिलेंगें | ‘खुश रहो स्त्री’ शीर्षक कविता में एक स्त्री के जीवन की विडंबना चित्रित की गयी है | कविता सामाजिक विसंगतियों पर भी भरसक प्रहार करती है | स्त्री विमर्श को केंद्र में रखकर कवि ने कई अच्छी कवितायेँ लिखी हैं | मायामृग अपनी कविताओं में उन स्त्रियों की बात करते हैं जो अभी भी तमाम रूढ़ियों की जकड़न में जकड़ी हुई हैं | वे अपने घर की चारदीवारी की ओट से बड़ी उम्मीद भरी नज़रों से अपने कल को देखना चाहती हैं | कवि भी उनके जीवन के इस बदलाव के प्रति आशान्वित है | उनकी ‘लकड़ियाँ बीनती लड़की’ शीर्षक एक छोटी सी कविता को देखें तो, ‘उम्र भर लकड़ियाँ बीनती लड़की/ धीरे-धीरे कब/ खुद लकड़ी हो गयी/ पता नहीं चला | / पहचान भी न पाता/ अगर/ सब लकड़ियाँ जलकर बुझने के बाद/ एक सुलगती ना रह जाती...|’ इस प्रकार वे अपनी कविता में कई बार स्थितियों के शब्दचित्र खींचते हैं और जहाँ जरूरी लगता है वहां प्रश्न भी खड़े करते हैं |
संग्रह की कुछ कविताओं में कवि कहीं-कहीं पर सपाटबयानी का शिकार हो गया है जहाँ पर कविता की आंतरिक लय खंडित होती सी दिखती है और प्रवाह बाधित होता है | हालांकि यह उनकी निजी शैली भी हो सकती है | फिर भी भाव, विचार व कथ्य का सधापन इन रचनाओं में कविता को बचा ले जाता है | ‘मां की आदत’ या फिर ‘भाई की कहानी’ शीर्षक कविता को देखें तो यह मां और भाई जैसे रिश्तों कवि की उदात्त भावनाएं व्यक्त हुई हैं इन दोनों कविताओं के माध्यम से | ‘छोटी-छोटी बातें’ शीर्षक कविता का भाव और विचार पक्ष सबल है | कवि मानवीय संवेदनाओ का पक्षधर है | अक्सर हम बड़ी-बड़ी खुशियों की खातिर छोटी-छोटी खुशियाँ छोड़ देते हैं | जीवन में छोटी- छोटी बातें भी कितनी महत्त्वपूर्ण हो सकती हैं इसको इस कविता में दिखाया गया है | संग्रह की कुछेक छोटी कविताओं में कहीं-कहीं कुछ वाक्य सूक्तियों की तरह भी आते हैं जैसे ‘यादें’ शीर्षक कविता में, ‘यादें तरतीब से नहीं आतीं...बेतरतीबी कितनी गहरी है...’ मानो ये सूक्तियां यथार्थ व विशद जीवनदृष्टि से संपृक्त होने के कारण अनायास ही प्रतिफलित हुई हों | या फिर ‘तुम लिखो’ जैसी छोटी सी कविता पढ़कर एकदम स्पष्ट हो जाता है कि इस कवि के लिए कवितायेँ लिखना जीवन से साक्षी होना है |
‘जब भी मिलेंगें’ शीर्षक कविता हो या फिर ‘सीढ़ियाँ उतरते हुए’ शीर्षक कविता या फिर इस तरह की उनकी कई कविताओं को पढ़ते हुए यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि समकालीन हिंदी कविता के परिदृश्य में मायामृग की कवितायेँ अपना एक अलग मुहावरा रचती हैं | अपने टेस्ट और विशिष्ट शिल्प के कारण उनकी पहचान भीड़ से अलग है | प्रकाशन सम्बन्धी तथा अपनी अन्यान्य व्यस्तताओं के बीच आज भी वे लगातार कवितायेँ लिख रहे हैं | वह अपनी कविता में साधारण से लगने वाले सरल शब्दों का प्रयोग करते हुए वाक्यों का ऐसा क्रम देते हैं कि कविता में जान आ जाती है | यह उनकी कविताओं का सशक्त पहलू है जिससे पाठक उनकी कविता की ओर आकर्षित होता है |
--
संपर्क- 9/48 साहित्य सदन, कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध) सीतापुर (उ.प्र.) 261203
ईमेल- rahuldev.bly@gmail.com