1)
"सुनो ज्ञानरंजन"
सुनो ज्ञानरंजन
आतंकित है
पूरा हिन्दी का संसार तुम्हारी आक्रामकता से
और दबी है हिन्दी की कहानी तुम्हारी कहानियों से
पूरा हिन्दी का संसार तुम्हारी आक्रामकता से
और दबी है हिन्दी की कहानी तुम्हारी कहानियों से
जाता हूँ किसी
भी जलसे में साहित्य या कि
आन्दोलन के कामरेडों या कार्यकर्ताओं के बीच तो
निकल ही आता है प्रसंग तुम्हारा या पहल का
आन्दोलन के कामरेडों या कार्यकर्ताओं के बीच तो
निकल ही आता है प्रसंग तुम्हारा या पहल का
देवास के
मानकुण्ड गाँव में प्रकाशकांत से सुना था
पहली बार तुम्हारा नाम सन सत्तासी में और देखी थी पहल
फिर इंदौर में विनीत तिवारी से बात की तुम्हारे बारे मे
छपे हुए लोगों को भी अकड़ते देखा है कि
हम पहल में छपे है मानो एक विभाजन रेखा हो
ना छपने वालों और पहल में छपने वालों के बीच
पहली बार तुम्हारा नाम सन सत्तासी में और देखी थी पहल
फिर इंदौर में विनीत तिवारी से बात की तुम्हारे बारे मे
छपे हुए लोगों को भी अकड़ते देखा है कि
हम पहल में छपे है मानो एक विभाजन रेखा हो
ना छपने वालों और पहल में छपने वालों के बीच
फिर सुना कि
तुम्हारी दो चार पांच लिखी कहानियां ही
अमर हो गयी हिन्दी के मुक्ताकाश में
बांची गयी हर जगह, और अनुदित हुई कई कई भाषाओं में
उदाहरण सुनकर मै हैरत में हूँ कि एक जबलपुर का आदमी जो
आधारताल के किसी राम नगर में रहता है और
दुनिया भर में जिसके किस्से सुनाई देते है,
कैसे घूमता होगा यह आदमी और फिर इस पर भी
पहल छापने का मुकम्मल काम ?
अमर हो गयी हिन्दी के मुक्ताकाश में
बांची गयी हर जगह, और अनुदित हुई कई कई भाषाओं में
उदाहरण सुनकर मै हैरत में हूँ कि एक जबलपुर का आदमी जो
आधारताल के किसी राम नगर में रहता है और
दुनिया भर में जिसके किस्से सुनाई देते है,
कैसे घूमता होगा यह आदमी और फिर इस पर भी
पहल छापने का मुकम्मल काम ?
पहल सम्मान और
वो भी लेखक के शहर में जाकर
उसके घर परिवार को बुलाकर, अपने विरोधियों के बीच
सीना ठोंककर सौंप आता है, कैसा आदमी है ज्ञानरंजन
कहते है एक कागज़ का पन्ना मुफ्त नहीं दिया किसी को
आज जबकि अपनी किताबें और महाग्रंथ लोग बाँट रहे है
ज्ञानपीठ से लेकर मोहल्ले के सस्ते पुरस्कार के लिए
उसके घर परिवार को बुलाकर, अपने विरोधियों के बीच
सीना ठोंककर सौंप आता है, कैसा आदमी है ज्ञानरंजन
कहते है एक कागज़ का पन्ना मुफ्त नहीं दिया किसी को
आज जबकि अपनी किताबें और महाग्रंथ लोग बाँट रहे है
ज्ञानपीठ से लेकर मोहल्ले के सस्ते पुरस्कार के लिए
नाम आता है
हरनोट का या विंदा करंदीकर का तो जिक्र
पहले पहल का और उससे पहले भी ज्ञानरंजन का आता है
कि ज्ञान जी ने पहल में छापा था 'गांधी मला भेंटला'
वैचारिक बहस के मुहावरे और प्रतिबद्ध लोगों को हांक कर
एक समूचा आन्दोलन कैसे खडा कर लिया तुमने
जबलपुर से लेकर दुनियाभर में कहते है तेजेंद्र भी
पहले पहल का और उससे पहले भी ज्ञानरंजन का आता है
कि ज्ञान जी ने पहल में छापा था 'गांधी मला भेंटला'
वैचारिक बहस के मुहावरे और प्रतिबद्ध लोगों को हांक कर
एक समूचा आन्दोलन कैसे खडा कर लिया तुमने
जबलपुर से लेकर दुनियाभर में कहते है तेजेंद्र भी
सुनो ज्ञानरंजन
ये बताओ कैसे पढ़ लेते हो बहादुर पटेल की कविता
छत पर अकेले बैठकर जोर जोर से और फिर धीरे से अपनी
नजरें उठाकर ताक लेते हो खाली पडी छतों पर सुने मकान
उस आधारताल के रामनगर वाले मकान में जहां से नर्मदा भी दूर है
कैसे हिम्मत कर लिख देते हो लम्बी चिट्ठी आज भी
जबकि शब्दों को विकृत कर दिया है एस एम एस और इंटरनेट ने
छत पर अकेले बैठकर जोर जोर से और फिर धीरे से अपनी
नजरें उठाकर ताक लेते हो खाली पडी छतों पर सुने मकान
उस आधारताल के रामनगर वाले मकान में जहां से नर्मदा भी दूर है
कैसे हिम्मत कर लिख देते हो लम्बी चिट्ठी आज भी
जबकि शब्दों को विकृत कर दिया है एस एम एस और इंटरनेट ने
सुनो ज्ञानरंजन
कैसे जुटे रहे इतने साल जबलपुर में रहकर
संसार से और अक्षर, वर्ण और वाक्यों से जोड़ जाड़कर एक
पूरा लेखक वृन्द बना दिया हिन्दी में जो बहस में रहता है हर दम
और हर बात के समाधान के लिए तुम्हारी ओर तकता है
मै आतंकित हूँ ज्ञानरंजन कि कहानी की दुनिया में नाम है
और मै बिलकुल प्रवेशद्वार पर खडा हूँ अभी अभी कोरा पन्ना लिए
संसार से और अक्षर, वर्ण और वाक्यों से जोड़ जाड़कर एक
पूरा लेखक वृन्द बना दिया हिन्दी में जो बहस में रहता है हर दम
और हर बात के समाधान के लिए तुम्हारी ओर तकता है
मै आतंकित हूँ ज्ञानरंजन कि कहानी की दुनिया में नाम है
और मै बिलकुल प्रवेशद्वार पर खडा हूँ अभी अभी कोरा पन्ना लिए
दिनेश कुशवाह
से पूछता हूँ ,
कमला प्रसाद से भी पूछा था
सबने कहा कि वो सांगठनिक आदमी है और पहल का पहरेदार
भोपाल में कुमार अम्बुज जिक्र करते है तो सुभाष पन्त देहरादून में
अर्नाकुलम में संतोष, तो मेरठ में मनोज शर्मा, बडौदा में रमेश भाई
हैरत होती है जब कोई कहता है कि अभी ज्ञानरंजन की चिठ्ठी आई थी,
कल ही फोन पर बात हुई या कि अभी हैदराबाद में है परसों लौटेंगे
कैसे कर लेते हो, ये तो बताओ ज्ञानरंजन इतना सब और फिर समय
सबने कहा कि वो सांगठनिक आदमी है और पहल का पहरेदार
भोपाल में कुमार अम्बुज जिक्र करते है तो सुभाष पन्त देहरादून में
अर्नाकुलम में संतोष, तो मेरठ में मनोज शर्मा, बडौदा में रमेश भाई
हैरत होती है जब कोई कहता है कि अभी ज्ञानरंजन की चिठ्ठी आई थी,
कल ही फोन पर बात हुई या कि अभी हैदराबाद में है परसों लौटेंगे
कैसे कर लेते हो, ये तो बताओ ज्ञानरंजन इतना सब और फिर समय
चंद्रकांत
देवताले भी किस्से सुनाते है और प्रभाकर माचवे भी कहते थे
हिन्दी के जगत में इतना आतंक एक आदमी का, डरता हूँ मै
अब कहाँ होंगे ऐसे ज्ञानरंजन और कैसे होंगे क्योकि समय निकलता जा रहा है
अब गुर भी नहीं सिखा रहे अपने होने के, बस अपने में मगन हो
और गुनगुना रहे हो, जोर से बुदबुदाकर क्या कहना चाहते हो क्या यह कि
अभी हिन्दी को एक नहीं हजारों ज्ञानरंजन चाहिए
हिन्दी के जगत में इतना आतंक एक आदमी का, डरता हूँ मै
अब कहाँ होंगे ऐसे ज्ञानरंजन और कैसे होंगे क्योकि समय निकलता जा रहा है
अब गुर भी नहीं सिखा रहे अपने होने के, बस अपने में मगन हो
और गुनगुना रहे हो, जोर से बुदबुदाकर क्या कहना चाहते हो क्या यह कि
अभी हिन्दी को एक नहीं हजारों ज्ञानरंजन चाहिए
(ज्ञानरंजन जी के लिए सादर)
2) “जहां घर है वहाँ पेड़ है”
अगर आप मेरे घर का पता पूछे
तो मै आपको पूरा पता बताउंगा
और यह भी कहूंगा कि घर के बाहर
एक पेड़ है बड़ा गुलमोहर का पेड़
यह पेड़ नहीं मेरा सहयात्री है
सन उनअस्सी में जब इस घर आये
तो कही से एक पौधा रोप दिया था
और देखते देखते बड़ा हो गया बन गया पेड़
मैंने इसको नहीं, इसने मुझे
बड़ा होते देखा और सराहा
कई मौकों पर यह मेरा साथी बना
अपनी जवानी में जब उठा मेरे जीवन से
पिता का साया तो इसे पकड़ कर
रोया और ढाढस बंधाया माँ को
फिर भाई की शादी में इस पर की
रोशनी और लगाया टेंट को टेका
इसी से हरापन बचा रहा घर में मेरे
ठण्ड, गर्मी
और बरसात में इसी के
पत्तों से आती रही छाया और बहार
इस बीच हर बार छांटता रहा
डगालियाँ इसकी कि कही बेढब
या दूसरों की जद में ना बढ़ जाए
और बीनता रहा पत्तों के ढेर अक्सर
कि जीवन फिर आता है पत्तों सा बार बार
माँ को अस्पताल जाते समय विदाई दी
इसने कि जल्दी लौट आना गृह स्वामिनी
पर जब लौटें लाश लेकर तो एक
पंछी भी नहीं बैठा था और सारे पत्ते सन्न थे
चुपचाप झर गया माह अगस्त में यह पूरा
फिर इसने एक नया आसमान खोला
सम्भावनाओं का, हरा
हुआ पूरा एक बार फिर
हम सब जीवन में लौट आये थे
उबर रहे थे सदमे से कि एक बार फिर सचेत किया
इसने इस तरह कि यह सूखने लगा जड़ों से
गुलमोहर के मोटे और ऊँचे तने में
एक बरगद कही से उग आया था
सुना था बरगद के नीचे कोई नहीं पनपता
पर यह दुनिया का अनूठा गुलमोहर है
जो बरगद को अपनी शिराओं से पाल रहा है.
सोचा तो कई बार कि उखाड़ फेंकू बरगद को
माँ ने मना किया कि बरगद में ईश्वर का वास है
यह कैसा इश्वर था जो हरेपन को सूखा रहा था
बरगद फूल रहा था और पेड़ सूख रहा था
धीमे से परन्तु कुछ नहीं बोला गुलमोहर
अभी जब गुजरा भाई तो यह फिर सूखा था
शाखें भी टूट गयी थी, झर गयी थी पत्तियाँ
दीमक लगने लगी है इसके तने में
पुराना पड़ता जा रहा है ठीक मेरी तरह
और अब सिर्फ हरापन बाकी है ऊपर से
गुलमोहर का यह पेड़ अब हो गया है
सभ्यता और इतिहास में दर्ज कि
एक परिवार को इसने बढ़ते और ख़त्म होते
देखा है, अब
नई शाखें जो बिखर रही है
बरगद और गुल मोहर गडमड है आपस में
सब ख़त्म हो रहा है, हरापन पत्तियाँ, शाखें
बरगद अपने पाँव गुलमोहर में रहकर
पसार चुका है और ख़त्म कर रहा है इसे
फिर भी कमजोर तने और कुतरती दीमकों के
साथ खडा है पेड़ अपनी पुरी ताकत के साथ
फिर सामने है गर्मियां और कड़ी धुप
फिर आयेंगे राहगीर बैठ जायेंगे इसकी छाँव में
मांगेंगे पानी मुझसे और मै उन्हें पानी देकर
ताकता रहूंगा इसके हरेपन को, निहारूंगा
और आपको कहूंगा कि जहां पेड़ है वहाँ घर है.
3)
"भगोरिया के बीच जीवन की आस
ढून्ढती तरुणियों के लिए"
वे मुस्कुरा
रही है कि
फाग आ गया और अब जीवन की,
चैत्र प्रतिपदा भी आ जायेगी
आहिस्ता आहिस्ता साँसों में.
फाग आ गया और अब जीवन की,
चैत्र प्रतिपदा भी आ जायेगी
आहिस्ता आहिस्ता साँसों में.
वे मुस्कुरा
रही है कि
जीवन के रंगों के बीच से,
फीके पड़ रहे बसंत फिर
यवनिका से उभरेंगे.
जीवन के रंगों के बीच से,
फीके पड़ रहे बसंत फिर
यवनिका से उभरेंगे.
वे मुस्कुरा
रही है कि
अब जीवन की लम्बी दोपहरों से,
शाम के साथ लौट आयेगी
लालिमा उनकी साँसों में.
अब जीवन की लम्बी दोपहरों से,
शाम के साथ लौट आयेगी
लालिमा उनकी साँसों में.
वे मुस्कुरा
रही है कि
अब इकठ्ठे होकर लड़ लेंगी,
अपने पतझड़ से मिलकर
और जीत लेंगी लड़ाई इकठ्ठे.
अब इकठ्ठे होकर लड़ लेंगी,
अपने पतझड़ से मिलकर
और जीत लेंगी लड़ाई इकठ्ठे.
वे मुस्कुरा
रही है कि
अब पीलापन कपड़ों से नहीं,
जीवन से नहीं बल्कि दुनिया से
एक दिन विदा होगा मुस्कुराकर.
अब पीलापन कपड़ों से नहीं,
जीवन से नहीं बल्कि दुनिया से
एक दिन विदा होगा मुस्कुराकर.
वे मुस्कुरा
रही है कि
अब अपनी अस्मिता को बचाकर,
पुरी दुनिया में शंखनाद कर देंगी
कि अब वे दुनिया की नागरिक है.
अब अपनी अस्मिता को बचाकर,
पुरी दुनिया में शंखनाद कर देंगी
कि अब वे दुनिया की नागरिक है.
4)
निष्कर्ष (माँ और हाल ही में गुजरे छोटे भाई को
याद करते हुए)
याद है मुझे अच्छे से
वो जुलाई दो हजार आठ का
छब्बीसवां दिन था और
भोपाल से सीधा पहुंचा था अस्पताल में,
माँ के आप्रेशन का बारहवां दिन था
भाई ने बताया कि आज सारे दिन बोलती रही है
माँ,बहनों
को याद किया और अपने नौकरी की पहली
हेड मास्टरनी को भी, खूब बोली है सबसे आज
और घर जाने की भी, जिद
की है कि मरना घर ही है.
पुरी शाम और रात बोलती रही मुझसे
और अचानक भोर में पांच बजे मशीनो पर
थम गयी धडकनें माँ की और मै देखता रहा
उन बेजान मशीनों को, जो एक इंसान में प्राण डाल रही थी,
ख़त्म हो गयी थी दुनिया मेरी सत्ताईस तारीख
को माँ के बिना,
ठीक छह बरसो और दो माह बादभाई को भी अस्पताल में
रखा था
शुरू में तो बेहोश था पर चौथे दिन बोलने लगा था
बड़ी जांचों और इलाज के बाद,खूब बोला,
इतना कि ना जाने किस किसको याद किया
उस दिन उसने,
सारे आईसीयु में खुशी की लहर थी,
सारे रिश्तेदारों से बोला, बेटे को दी हिदायत,
जीवन भर स्वस्थ रहने की, पत्नी को समझाया
और मुझे देने लगा निर्देश कि थोड़ा स्वाभाव बदलूँ
नौकरी करूँ ढंग से अपने सिद्धांतों को ना
त्यागूँ
आईसीयू के बाहर आकर मैंने बड़े भाई से जब कहा
तो हम दोनों को मौत दिखने लगी थी
उन दिनों जब माँ बोली थी तो भाई ने माँ को एक
दिए की उपमा दी थी
कि बुझने के पहले बहुत तेजी से भभकता है दिया
आज फिर अन्दर छोटा भाई बोल रहा थाऔर हम दोनों
बड़े होकर भी अशांत थे बेहद
फिर आखिर वो शांत हो गया बेहोश सा
तीन दिन बाद उठा वो नीम अँधेरे से
फिर बोला वो उस डायलेसिस मशीन पर
खूब बोला,
यहाँ तक कि डाक्टर को भी झिड़क दिया
कि हटा यार हाथ गले से क्या जान लेगा?
हम डरते रहे और सहम गए थे बुरी तरह से
हम दोनों बड़े सशंकित से देख रहे थे उसे बड़े सदमे
से मानो
इंतज़ार कर रहे हो कि मौत कब आ जाए और ले जाए
आहट तेज हो रही थी, मौत आ रही थी दबे पाँव
भाई की आवाज जैसे जैसे तेज़ हो रही थीहमारी
बेचैनी बढ़ रही थी,
मौत का रूप सामने थाऔर फिर अचानक थम गयी साँसे
वही हुआ जिसका डर था, माँ की तरह चुप था भाई
सदा के लिए खामोश था और आँखे खोज रही थी
व्योम में खुली आँखे और कुछ कहने से रह गया
खुला मुंह मेरे लिए कई सारे सवाल छोड़ गया था
एक दिया और बूझ गया था तेज भभक कर
एक सीख हमने माँ और भाई की मौत से ली है
ज्यादा बोलना अपनी मौत को बुलावा देना है।
5)
ये जो दो जेब है
पैंट में
सर्दी के ठिठुरते मौसम में दोनों हाथों को छुपा
लिया
ना जाने कितने मौकों पर लजाते हुए या डरते हुए
हाथों को दी पनाह कि शर्मिंदगी ना उठानी पड़े
किसी के सामने
जब हाथ डाला किसी ने या खुद ने भी
जरुर कुछ ना कुछ लौटाया है जेबों ने-
चाहे मैले कुचेले टिकिट हो,
या धोबी की पर्ची या चक्की पर डाले गये डिब्बे
की रसीद
जेब से कभी निकले नहीं खाली हाथ
एक सिगरेट या माचिस या बीडी के अद्दे भी निकले
मुफलिसी के दिनों में
कितना कुछ समेटा इन दो जेबों ने मेरे जीवन को
एक जेब में गन्दा सा रूमाल और दूसरे में लगभग
फटा बटुआ
जिसमे होने को माशुका की धुंधली पडती जा रही
तस्वीर
और चंद सिक्कों के अलावा कुछ नहीं था
घर से मिलें जेब खर्च को इन्ही जेबों की सतह से
चिपकाकर रखा करता थाऔर अक्सर चोरी के डर से
इस जेब से उस जेब और उस जेब से इस जेब में वही
चीकट
बटुआ बदला करता था
उसकी
लिखी चिठ्ठियां
कई बार धूल गई जेब मे
जब माँ ने निचोड़ दिए दोनों जेब पैंट के साथ
पर फ़िर भी आश्वस्त करती थी कि
अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है
इन्ही जेबों मे रखे कई पुर्जों और सामान से
रंगे हाथों पकड़ा गया मै घर मे, दोस्तों मे
पर
वही हाथों को डालकर जेब मे
मुँह नीचेकर पछता लिया और फ़िर धीरे से मुस्कुराकर
फ़िर
से तैयार हो गया कि एक बार फ़िर
छोडूंगा नहीं किसी को
कभी निकला ऐसा भी सामान जिसने तार-तार कर दी
इज्जत बाप-माँ की समाज मे
और सबके सामने भदेस बनकर
रोता रहा घंटों,
पर इन्ही दो जेबों मे हाथ डालकर
फ़िर
आई हिम्मत
इस तरह मैंने पूरा किया जेबों से जीवन का
असहनीय
दर्द और सीखा जीना मुँह उठाकर
बरसात में भीगते हुए कई बार जब कांपने लगता बदन
तो
इन्ही जेबों में डालकर हाथ कुडकुडा लेता और पैदल
लौट आता था घर को
कि कभी तो माँ बाप को अपनी जेबों से निकालकर
दूंगा दुनिया की अप्रतिम चीजें
गर्मी में डालकर हाथ, हथेली पर बासते पसीने को इन्ही जेबों के
अस्तर से पोछा है अपने और फ़िर निकाला वही रूमाल
जिसने माथे की सलवटों पर
चुहाते पसीने को भी निथारा था.
कितना कुछ रखा मैंने यदि हिसाब लगाऊं आज तो शायद
दुनिया की संदूकें छोटी पड जायेगी
पेन,
पर्चियां,
रेवड़ी,
चाकलेट,
और माँ के हाथ बने लड्डू
से लेकर दोस्तों के कई राज इन्ही जेबों में छुपे
है
और अगर आज ये जेबें खुल जाये तो सच में टूट
जाएगा
सदियों का विश्वास और आस्था
पैंट में दो जेब होना एक आश्वस्ति है
जीवन के सच का सामना करने
और सारे रहस्य छुपा लेने की अदभुत कला है
जिसने भी बनायी होगी पैंट सोचा तो होगा
उसने तन और इज्जत के लिए पर
जेब लगाकर उसने सच में बचा ली
पूरी दुनिया की इज्जत
और एक विशाल संसार खोल दिया
सारी प्रकृति की संपदा रखने का
यह
ईजाद एक अदभुत ईजाद है
जिसे समझ
ना पायेगा
कोई भी बस सहजता से
करता रहेगा इस्तेमाल और
बारम्बार छुपाता रहेगा दुनिया के रहस्य
अपनी मुफलिसी,
छोटी छोटी पर्चियां जिनमे से
आती
रहेगी प्रेम की खबरें
जो इस दुनिया को बदलने के लिए काफी है
6)
रंग बिरंगी अलबम
घर छोडकर शहर आते हुए
जरूरी सामान के साथ रख लेते है
अपनी यादे,
अतीत और जड़ो से जुड़े होने के एहसास
छोटे से कमरे में नीम अँधेरे के साथ
या कि खूब बदी सी हवादार बैठक में
या लाकर वाले बड़ी सी अलमारी में
रख देते है रंग बिरंगे अलबम
काम से लौटकर अवसाद के क्षणों में
दर्द भरे विरोधाभास और तनावों में
जीवन मूल्यों और संवेदनाओं को आहत होते देख
खोल देते है हम रंग बिरंगे अलबम
परिचित- अपरिचित के सामने
बिखेर देते है तस्वीरो का पुलिंदा
हर तस्वीर के साथ जुडी स्मृतिया
यकायक भावो,
शब्दों
और टींस के
साथ निकल पडती है
कमरे में बिखर जाती है माँ
पिता,
चचेरे ममेरे भाई- बहन
जिंदगी के विभिन्न सोपानो पर बने दोस्त
साथ में पढ़ी हुई लडकिया
जीवंत हो उठते है सब
कमरे के फर्श पर अवतरित होने लगते है सब
जयपुर,
सूरत,
गौहाटी,
त्रिवेंदृम,
बद्री,
केदार,
रामेश्वरम और वैष्णो देवी
ताज महल,
कुतुबमीनार और लाल किले
के साथ खिचाईतस्वीरो के साथ खीज
उठती है अजंता एलोरा ना देख पाने की
खेत कूए और बड़े से दालान वाला घर
तस्वीरो में देखकर लगता है यह
कमरा कितनी छोटी और ओछी कर देगा
जिंदगी को ?
दर्द भरी मुस्कराहट होठो पर आकार गम हो जाती है
बोलते रहते है हम
परिचितों अपरिचितो के सामने
कभी एकालाप करते है मन्नू की तस्वीर
देखकर कि क्यों नहीं लिखता बंबई से चिठ्ठी ?
रंग बिरंगे अलबम स्मृतयो की गुफा से ढूंढ लाते
है
घटनाये,
प्रसंग,
रिश्तों की व्याख्या, दोस्ती की परिभाषा
आँखों की पोर से जब रिस जाते है आंसू
कमरे में छा जाती है नमी
आवाजो का शोर घुमडने लगता है तो
अलबम रंग बिरंगे नहीं रह जाते
धुल जाते है नमी से
कठोर हाथो की उंगलियों से स्पर्श पाते है मीठा
सन्नाटा छा जाता है कमरे में
माँ-पिता के प्रश्न, दोस्तों से किये वादे
खेत,
गांव,
घर को दिए गए उत्तर
सब उलझ जाता है आपस में
अलबम कब बंद हो जाता है पता नहीं चलता
देखने,
सुनने ,
समझने और महसूसने के बाद
मौन सबसे बड़ी भाषा है जैसा दर्शन उभरता है
वास्तव में अल्बम का रोज खुलना बंद होना
जिंदगी,
मौन,
भाषा और दर्शन को समझने के लिए
जरूरी है
अलबम का रंग बिरंगी होना
हर जरूरी सामान के साथ होना
बहुत जरूरी है.......
(अपने
उन सभी दोस्तों, रिश्तेदारों, भाईयो,
बेटो और माँ पिताजी को समर्पित जो आज भी मेरे
साथ मेरे रंग बिरंगे अलबम में है)
7)
आखिरी दिनों में
पिता
आखिरी दिनों में बिना आँखों के भी
जिंदगी को पढ़ -समझ लेते थे
कापते हाथो से भी बताई जगह पर
हस्ताक्षर कर देते थे
छुट्टी की अर्जी
मेडिकल के बिल
बैंक का लोन
ज्वाइंट अकाउंट
का फ़ार्म
आखिरी दिनों में पिता की
आँखें काम नहीं कर पाती थी
में,
माँ भाई उन्हें देखते थे
और पिता देखते थे हमारी आँखों में आशा, जीवन,
उत्साह
अस्पताल के कठिन जांच प्रक्रिया
लेसर की तेज किरणे
पर आँखों का अन्धेरा गहराता गया
पिता
तुम आखिरी दिनों में कितना ध्यान रखते थे हमारा
स्कूल से आने पर पदचाप पहचान लेते थे
हमारे साथ बैठकर रोटी खाते
और हाथों से टटोलकर हमें
परोसते
माँ के आंसू की गंध पहचानकर
डपट देते थे माँ को
पिता का होना हमारे लिए आकाश के मानिंद था
ऐसा आकाश जिसके तले
हम अपने सुख दुःख
ख्वाब,
उमंगें
उत्साह और साहस
भय और पीड़ा
भावनाए और संकोच
रखकर निश्चित होकर
सो जाते थे
पिता हर समय माँ से हमारे बारे में ही बाते करते
थे
हमारी पढाई,
हिम्मत
तितली पकडना
पतंग उड़ाना
कंचे खेलना
बोझिल किताबे
टयुशन
और परीक्षाए
नौकरी और शादी
माँ कुछ भी नहीं कहती
तिल-तिल मरता देख रही थी
घर से अस्पताल
अस्पताल से प्रयोगशाला
प्रयोगशाला से घर
एक दिन रात के गहरे अँधेरे में
आँगन की दीवार को
पकड़ कर खड़े हो गए
पिता की ज्योति लौट रही थी
हड्बड़ाहट सुनकर
माँ जाग गयी थी
एक लंबी उल्टी करके गिर गए थे
पिता
माँ कहती थी
आखिरी समय में
नेत्र ज्योति लौट आई थी
पिता तुमने कातर
निगाहों से माँ को देखा था
माँ के पास हममे से किसी को
ना पाकर तुम्हारी आँखों से
दो आंसू भी गिरे थे
लेसर की किरणे
मानो उस अंधेरी रात में
आँखों में चमक रही थी
जिंदगी भर आंसू पोछने वाला आदमी
उम्र के बावनवे साल में आंसू बहा रहा था
लोग कहते है वो खुशी के
आंसू थे- ज्योति लौट आने के
में कुछ भी नहीं कहता
क्योकि बाद में मैंने ही तो
आँखे बंद करके रूई के फोहे
रखे थे
पिता - तुम सचमुच हमें ज्योति दे गए .........
आज शायद कोई जानता भी ना हो
तुम्हारी दूकान को या कि उस कोने को
जिस मीरा बावडी के किनारे
चिमनाबाई कन्या शाला के बाहर एक खोमचे मेंलगती
थी
अदभुत चीजों की दूकान
जिसमे कभी टोटा नहीं पडा उन चीजों का
जो किशोरावस्था की दहलीज पर कदम रखते हम
जैसो के लिए किसी वरदान से कम नहीं थी
इमली की चटनी,
खट्टे बैर,
अमचूर की चटनी,
करौंदे
ढेर सारे कबीट,
पेमली बोर,
मांडव की इमली भी दिख जाती थी
कभी कभी उस दूकान में अनेक अचारों के साथ,
उस चौराहे से गुजरते हुए खटास की महक
और खिलखिलाती हंसी अक्सर एक दूसरे के पूरक लगते
थे
तीन पैसों से जेब में चार अठन्नी होना
दुनिया के किसी अम्बानी से कम ना होता था
दस पैसे के एक कबीट से लड़कियाँ पटा लेने का हूनर
हमसे भला कौन अच्छा जानता था
कब बड़े हो गए और कहाँ खो गयी खटास जीवन की
जो मिठास घोल देती थी रंगीन सपनों में भी
एक दिन दूकान बंद हो गयी खो गया कुंदन सेठ
मोहल्ले के लोगों ने बताया कि पाकिस्तान चला गया
था
कभी पूछ ना पाए उससे कि कुंदन सेठ कहाँ और क्यों
जा रहे हो
अब नहीं दिखते कबीट, करौंदे,
चारोली,
इमली,
बैर,
याकि मांडव की इमली
लड़की पटाने के लिए अब बाजार में साधन बहुत आ गए
है
जेब भी इधर भरी रहती है रूपयों से और उंगलिया
शातिरी से घूम जाती है फटाक से मोबाईल पर
महंगे चमकदार चश्मे से हरी दिखती है सब ओर की
घास
पैदल चले हुए सालों हो गए और
भाषा की बाजीगरी के भी सिद्धहस्त खिलाड़ी हो गए
हम
पर कहाँ खो गयी है खटास, वो कबीट,
वो लड़कियाँ
कहाँ हो कुंदन सेठ
जीवन की मिठास गायब है तुम्हारी दूकान की तरह .
9)
आपने सिक्कों की खनक सुनी है?
वो सिक्के ही थे दस, पांच, तीन और दो पैसों के
जिन से दो चार होकर बड़ा हुआ मै
जवाहर चौक पे खडा होकर दिया था भाषण
जब तुतलाती जुबान से तो माँ ने
हाथ में धर दिया था तीन पैसे का सिक्का
सड़क पर जाते मैयत से उठाया था
एक पांच पैसे का सिक्का
उस्ताद रज्जब अली खां साहब मार्ग, देवास
के
किसी सेठ के मरने पर तो
बहुत मार खाई थी पिता से
महेश टाकीज़ में पतिता फिल्म के गाने पर भी
भर गई थी जेब सिक्कों से
जिन्हें बीन लिया था जमीन से
उस भीड़ भरे टाकीज़ में
और फ़िर घर आकर गर्व से बताया
तो फ़िर मार खाई पिता से
कितना कुछ आ जाता था उन छोटे सिक्कों में
चाय की पुड़िया, मीठा तेल, मेहमानों के लिए पर्याप्त शक्कर
दूध,
हर इतवार की जलेबियाँ, एक पॉलिश की डिब्बी,
बुखार की गोली, भगवान के लिए
हार
शायद पूरा संसार उन दिनों
इन्ही छोटे सिक्कों से खरीदा जा सकता था
बात पुरानी तो जरुर है पर सच है
धीरे धीरे बड़े सिक्के आये
चार आने,
आठ आने के तो भाषा ने
भी अपने अर्थ बदले और सिक्कों में ढली
कहावतें बनी कि सोलह आना सच
चवन्नी की औकात वाला आदमी
आमदनी अठन्नी खर्चा रूपया
खरे सिक्के वाला आदमी
खोटा सिक्का और ना जाने क्या-क्या
आज सोचता हूँ तो दिखाई नहीं पड़ते
वो पीतल के चमकते सिक्के
शुभ्र धातु में ढले दमकते सिक्के
वो सिक्के जिन्हें माँ चांदी के भुलावे में
हर लक्ष्मीपूजा के समय धर देती थी और
बुदबुदाती थी कि इस घर से और
हमारे पुरे बाड़े में रहने वालों के घर से दलिदर
का कलंक मिटें
और लक्ष्मी अपने वरद हस्त के साथ टिकी रहे
इस हजार रूपये के दौर में
उन सिक्कों की खनक कही नहीं सुनाई देती
जिनके होने पर मन शांत रहता था
और एक आश्वस्ति बनी रहती थी जीने की
जेब में सिक्के खनखनाते तो लगता कि
जीवन संगीत में बसंत - बहार है
और सारे सुर सधे हुए है
सिक्के बजते तो लगता कि जीवन की गाड़ी
बिलकुल सीधी है और कही क्लेश नहीं
आज जेब में नोटों के पुलिंदे होते है कई बार
दुनिया की एक छोटी सी चीज़ भी नहीं खरीद पाता हूँ
मै
कितना बेबस पाता हूँ कि इन ढेर सारे नोटों से
एक छोटी सी चीज नहीं ले पा रहा किसी के लिए
बढती और विराट होती दुनिया के लिए
भारी और बड़े नोट कितने छोटे हो गये है
कोई कहता है नोटों की कीमत कम हो गई है
यह
कोई नहीं कहता कि इन नोटों के नीचे
दबा
आदमी भी किसी लायक नहीं रहा बाजार में
सब बिक रहा है, सब खरीद रहे है, सब बिकाऊ है
कही से सुनाई नहीं देती गूँज उन सिक्कों की
जिन्हें देखते ही मन प्रफुल्लित हो जाता था
इस समय में आज भी खोजता हूँ उन सिक्कों को
अनथक प्रयास जारी है , बहुत मन है एक बार फ़िर
लौट जाऊं बचपन में और खोज लूं अपने सारे सिक्के
और फ़िर खरीद लूं चाँद सितारे आसमान और वो सब
जो आज इन भारी नोटों से नहीं खरीदा जा सकता है.
10) अपने अवगुणों को ढकते हुए
फिर रख दूंगा
अखबारों में तह करके
यह शाल किसी आलमारी में
अगले बरस तक याद ना आयेगी
और फिर एक दिन ढूंढून्गा किसी
कंपकपा देने वाली सर्दी में अगले बरस
यह शाल किसी आलमारी में
अगले बरस तक याद ना आयेगी
और फिर एक दिन ढूंढून्गा किसी
कंपकपा देने वाली सर्दी में अगले बरस
सालों से जारी
है सिलसिला शाल का
इस तरह से कितनी ही शालें आती रही
गुमती रही, कभी कोई ले गया और
लौटाई नहीं भलमानसहत में पूछा नहीं
कभी ट्रेन में, कभी शादी में गुम गयी
इस तरह से कितनी ही शालें आती रही
गुमती रही, कभी कोई ले गया और
लौटाई नहीं भलमानसहत में पूछा नहीं
कभी ट्रेन में, कभी शादी में गुम गयी
हर बार एक शाल
के लिए दुनिया घूमा
कभी तिब्बती से, कभी रेडीमेड वाले से
पर हर बार झिक झिक करके नई खरीदी
कभी कोई दे गया माँ को तो
हड़प ली झपटकर कि अच्छी है
कभी तिब्बती से, कभी रेडीमेड वाले से
पर हर बार झिक झिक करके नई खरीदी
कभी कोई दे गया माँ को तो
हड़प ली झपटकर कि अच्छी है
ओढ़ा तो लगा हर
बार गुमने का खटका था
जतन से सम्हालता और सहेजता
कभी एक बार तो कभी दो बार
धो लिया सीजन में शाल को हलके से
जतन से सम्हालता और सहेजता
कभी एक बार तो कभी दो बार
धो लिया सीजन में शाल को हलके से
कभी शाल को
अपने रोज की जिन्दगी में
वह स्थान नहीं दे पाया जिसका हक़
वह रखती थी, एक अदद स्थान जीवन में
शाल के रेशे यहाँ वहाँ गड़ते रहते और
उधड़ते रहते जीवन के ख़्वाबों की तरह
वह स्थान नहीं दे पाया जिसका हक़
वह रखती थी, एक अदद स्थान जीवन में
शाल के रेशे यहाँ वहाँ गड़ते रहते और
उधड़ते रहते जीवन के ख़्वाबों की तरह
शाल के रंगों
की तरह बदलता रहा यार दोस्त
हर बार या तो गुम गए या ले गया कोई
मंजिलों और रास्तों के बीच मेरे सारे अवगुण
छुपाती रही शाल और बचाती रही सर्द हवाओं से
धुल और गुबार से, कोहरे और ओंस की बूंदों से
हर बार या तो गुम गए या ले गया कोई
मंजिलों और रास्तों के बीच मेरे सारे अवगुण
छुपाती रही शाल और बचाती रही सर्द हवाओं से
धुल और गुबार से, कोहरे और ओंस की बूंदों से
आज याद करता
हूँ फीकी पड़ी हुई शालों को
एक गठरी निकल आती है संसार के कोनों-कोनों से
और शालों के बीच से आवाजें रेंगती है आहिस्ते से
यह अवगुणों की दास्तान है या सदियों की गर्द
अपने आपसे पूछता हूँ तो एक झूठ बोल लेता हूँ
एक गठरी निकल आती है संसार के कोनों-कोनों से
और शालों के बीच से आवाजें रेंगती है आहिस्ते से
यह अवगुणों की दास्तान है या सदियों की गर्द
अपने आपसे पूछता हूँ तो एक झूठ बोल लेता हूँ
शाल को एक बार
फिर से समेटने का वक्त है
और मेरे सामने फिर से यह लाल शाल पड़ी है
एक प्रश्न, एक विचार और एक अवागर्द की भाँती
सवाल यह है कि अब इसे सहेजने की हिम्मत नहीं है
लगता है अब उधेड़ दूं रेशा-रेशा और आने दूं हवाओं को.
और मेरे सामने फिर से यह लाल शाल पड़ी है
एक प्रश्न, एक विचार और एक अवागर्द की भाँती
सवाल यह है कि अब इसे सहेजने की हिम्मत नहीं है
लगता है अब उधेड़ दूं रेशा-रेशा और आने दूं हवाओं को.
यह सही समय है
शाल समेटने का क्योकि अब
चिंता नहीं है कि आगे मौसम में शाल कैसे आयेगी
शाल का एक ढेर देख रहा हूँ, देख रहा हूँ ढेर और ढेर
अफसोस यह है कि इतने शालों का इस्तेमाल नहीं होगा.
चिंता नहीं है कि आगे मौसम में शाल कैसे आयेगी
शाल का एक ढेर देख रहा हूँ, देख रहा हूँ ढेर और ढेर
अफसोस यह है कि इतने शालों का इस्तेमाल नहीं होगा.
संदीप नाईक, सी- 55,
कालानी बाग़, देवास, मप्र
Blog- sandipnaik.blogspot.com