पाँच नवगीत
डॉ अनिल मिश्र
गा
न गा कोकिल!
गा
न गा कोकिल!
तुम्हारी
कौन सुनता।
मुड़
चुका है युग
तिमिर
की ओर
अब
तो छोड़
पावन
दीप जलता।
गा
न गा कोकिल!
तुम्हारी
कौन सुनता।
क्या
नहीं तुम जानती
दौर
है यह तो
मशीनी
शोर के सम्मान का ?
तीब्र
पश्चिम की हवा में
फ़िक्र
करता कौन है अब
मधुर
कोकिल गान का ?
बस
बचाती जा तू
अपनी
अस्मिता ।
गा
न गा कोकिल!
तुम्हारी
कौन सुनता।
युग
बदलते देर लगती क्या ?
प्रकृति
में पुनः
तेरा
मान होगा।
जब
थकेंगी ये मशीनें
पुनः
तेरे मधुर स्वर का
सृष्टि
मे सम्मान होगा॥
देखती
बस जा तू कोकिल!
युग
बदलता।
गा
न गा कोकिल!
तुम्हारी
कौन सुनता।
छोड़ो
तुम भी अरी फलानी !
धीरे
धीरे
शाम
सुहानी
उतर
रही है भू पर ।
फिर
अम्मा के ताने
सुन
सुन
घायल
होंगे बापू ।
गति
उनकी
पहले
से ही है
काला
पानी टापू ॥
बिटिया
जब से
हुई
सयानी
नींद
हुई छू मंतर।
धीरे
धीरे
शाम
सुहानी
उतर
रही है भू पर ।
कुछ
ऐसे भी
किस्मत
वाले
खुलेगी
जिनकी बोतल।
पायल
बाजेगी
छम
छम छम
पाँच
सितारा होटल॥
सब
की अपनी
राम
कहानी
सब
का अपना मंज़र।
धीरे
धीरे
शाम
सुहानी
उतर
रही है भू पर ।
कोई
रोये
कोई
गाये
कोई
मौज मनाये ।
दुखिया
का
दुधमुहा
दुलेरुआ
दवा
बिना मर जाये॥
छोड़ो
तुम भी
अरी
फलानी !
क्या
पड़ता है अंतर।
धीरे
धीरे
शाम
सुहानी
उतर
रही है भू पर ।
छोटी
सी यह बात
जीवन
के
चौराहे
से हाँ
हम
उस ओर मुड़े ।
धूल
भरा
गलिआरा
छूटा
छूटी
दीया बाती ।
अपना
बूढ़ा
बरगद
छूटा
छूटी
गाय रँभाती ।।
छूट
गये सारे
जो
न्यारे
खुद
से भी बिछड़े ।
जीवन
के
चौराहे
से हाँ
हम
उस ओर मुड़े ।।
आ
पहुँचे
उस
जगह जहाँ की
दुनियाँ
निपट निराली।
जहाँ
भाव संवेदन
पर
भी
रहती
है रखवाली॥
अर्थ
जहाँ
पुरुषार्थ
चतुष्टय
धर्म
जहाँ झगड़े ।
जीवन
के
चौराहे
से हाँ
हम
उस ओर मुड़े ।।
आँगन
के
मटके
का जल
जो
छोड़ होड़ मे भागा।
जीवन
भर
सागर
के तट पर
प्यासा
रहा अभागा ।।
छोटी
सी
यह
बात न समझे
हम
थे बहुत बड़े ।
जीवन
के
चौराहे
से हाँ
हम
उस ओर मुड़े ।
चौराहे
पर
नहीं
रहा अब
अपने
अंदर
कोई
अंतर्द्वंद्व।
भाव
जगत् मे
अपने
को
मैं
आज अकेला पता।
लगता
है जैसे
सबसे
ही
टूट
गया हो नाता ॥
जीवन
से
कृतकार्य
हो चुके
आँसू
औ’ आनंद ।
नहीं
रहा अब
अपने
अंदर
कोई
अंतर्द्वंद्व।।
इस
युग से
उस
युग तक
यों
ही खड़ा रहूँगा मैं।
चौराहे
पर
शिला
पट्ट सा
गड़ा
रहूँगा मैं।
कोई
मुझको
देखे
या वह
रक्खे
आँखें बंद ।
नहीं
रहा अब
अपने
अंदर
कोई
अंतर्द्वंद्व।
गोरी
गोरी धूप
आँगन
मे
आ
गई हमारे
गोरी
गोरी धूप।
नभ
मे
कोई
जान न पाया।
नज़र
बचा
सूरज
उग आया॥
कहते
है
काले
मेघों से
हुई
अचानक चूक।
आँगन
मे
आ
गई हमारे
गोरी
गोरी धूप।।
लगता
है
अब
युग बदलेगा।
धरती
से
आकाश
डरेगा ॥
तिमिर
तिरोहित
कर
देगा
यह
उजला उजला रूप।
आँगन
मे
आ
गई हमारे
गोरी
गोरी धूप।
-
ईमेल-
dranilkmishra@gmail.com
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