Thursday, 31 December 2015

आरती तिवारी की तीन कविताएँ


हारना दुःख का

दुःख तपाता था
तपाता जाता था
अपने चरम बिंदु तक

जताता था कि
अब गया, अब गया
बैठ जाता था
छुप के कहीं
अँधेरे कोने में मन के

कुंडली मार के बैठा दुःख
मुस्कुराता मुझे देख देख के

मैं चिढ़ा,रोया
यहाँ तक कि चिल्लाया भी
पर न पसीजना था दुःख को
न पसीजा वो

और फिर एक दिन
हरा ही दिया दुःख को मैंने
उसके साथ ही
सीख गया,खुश रहना



सुख खिलखिलाता

सुख खिलखिलाता
बैठ कर बीच
हीरे जवाहरात के

दुःख चटाई पे बैठ
देखता तमाशा 
चुपचाप
कहता कुछ नही

सुख ने शुरू किया
  लुटाना....और
खाली हो गया खजाना

नंगे पैर ..कराहते सुख को
दुःख ने दे दी
थोड़ी सी जगह
चटाई पे अपने साथ

अब सुख दुःख
साथ-साथ रहते है
चटाई के
दोनों सिरों पर


उसका न होना भी

उसका न होना भी
उसका होना है
धूल-रहित दर्पण
ज़िन्दगी के राग सा
जताता है,उसका होना

शिकवे-नसीहत
उलाहनों के मीठे स्वर
गूंजते ज्यूँ गीत से
सर्द रातों का नरम गरम कम्बल
उसका होना

खोई रसीद और चाबी का
यकबयक मिल जाना
उसका होना

कविता की नदी में जमे शब्द
ग़ज़ल की रवानगी में बयां होना
उसका होना
कैसे कहूँ,क्या कहूँ
खाने में नमक होना
उसका होना
--

नाम- आरती तिवारी
पति- रवीन्द्र तिवारी
जन्म- 08 जनवरी
जन्म स्थान- पचमढ़ी
शिक्षा- बीएससी, एम ए बी-एड
अध्यापन अनुभव--लगभग 15 वर्ष, पूर्व शिक्षिका
प्रकाशन---विगत 15 16 वर्षों से मध्य-प्रदेश के प्रमुख समाचार पत्रों में विभिन्न विधाओं पे रचनाएँ प्रकाशित
नई दुनिया,दैनिक भास्कर,राज एक्सप्रेस,नवभारत व् सरस्वती साहित्य,शब्द-प्रवाह,सृजन की आँच,व् अन्य प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशन
सम्मान __2014 में नागदा की साहित्यिक ,सामाजिक,सांस्कृतिक संस्था "अभिव्यक्ति विचार मंच" द्वारा प्रदत्त
राष्ट्रीय विष्णु जोशी (अंशु) सम्मान से सम्मानित
पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में विशेष सक्रिय संस्था__"अनुराग" से जुड़ाव व् मन्दसौर विकास समिति से संलग्न
मुख्य विधा-नई कविता
आकाशवाणी इंदौर से कविताओं का प्रसारण
संबंधित संस्थायें-प्रगतिशील लेखक संघ,म प्र हिन्दी साहित्य सम्मेलन व् अन्य सांस्कृतिक सामाजिक संस्थायें
संप्रति-स्वतन्त्र लेखन
वर्तमान पता- आरती तिवारी, dd/05 चम्बल कॉलोनी मन्दसौर 458001 म प्र
मोबाइल--09407451563
ईमेल--arti.tiwari15@yahoo.com

Saturday, 26 December 2015

तीन कवि : तीन कविताएँ – 18

विनोद कुमार शुक्ल, रतीनाथ योगेश्वर और आरसी चौहान
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सब संख्यक / विनोद कुमार शुक्ल 


लोगों और जगहों में
मैं छूटता रहा
कभी थोड़ा कभी बहुत
और छूटा रहकर
रहा आता रहा.

मैं हृदय में जैसे अपनी ही जेब में
एक इकाई सा मनुष्य
झुकने से जैसे जब से
सिक्का गिर जाता है
हृदय से मनुष्यता गिर जाती है
सिर उठाकर
मैं बहुजातीय नहीं
सब जातीय
बहुसंख्यक नहीं
सब संख्यक होकर
एक मनुष्य
खर्च होना चाहता हूँ
एक मुश्त.


रोटी / रतीनाथ योगेश्वर 


-1-

बड़े-सबेरे जल उठा
काली ईंटों वाला चूल्हा
सिकने लगी रोटियाँ
खुले-आकाश के नीचे

नमक मिर्च
लहसुन औ धनिया
पिसकर आ गई रोटी पर

काम पर जाना है
पहूँचना है आट से पोहले
मूंसी काट लेगा मजूरी
लगा देगा अपसेन्ट

अबेर हो जाई
जल्दी करा भाई
सात मील जाना है...

हिल रही है पीठ पर
गमछे में बंधी रोटी ।


-2-

रोटी की घनात्विक शक्ति
कम कर दी है तुमने

रोटी हमारे कद से
दुगनी  ऊँचाई की छत से
टेढी़ चिपक गई है
गैस के गुब्बारे की तरह

चूल्हे में आग है
आग पर तवा है
रोटी पक रही है
चिपक रही है छत से

हमारे बौने हाथ
रोटी तक नहीं पहुँच रहे हैं
पर मुझे मालूम है
रोटी कैसे मिलेगी
मैं तवे पर चढ़कर
रोटी पा लूंगा ..

आग; बाँस के पिंजरे में
कैद नहीं होती।



लोगों की नज़र में / आरसी चौहान 

लोगों की नजर में
तुमने मुझे पेड़ कहा
पेड़ बना
टहनी कहा
टहनी बना
पत्तियाँ कहा
पत्तियाँ बना
फूल कहा
फूल बना
तुमने कहा
काँटा बनने के लिए
काँटा भी बना
जबसे लोगों की नजर में
बना हूँ काँटा
नहीं बन पा रहा हूँ अब
लोगों की नजर में
फूल पत्ती टहनी और पेड़। 

Saturday, 19 December 2015

गिरीश पंकज की पांच ग़ज़लें

गिरीश पंकज मूलतः व्यंग्यकार है. लम्बे समय तक पत्रकारिता में अपने अवदान  के बाद अब स्वतन्त्र लेखन करते हुए ''सद्भावना दर्पण'' नामक  अनुवाद-पत्रिका का संपादन कर रहे हैं. 14 व्यंग्य संग्रहसात उपन्यास समेत अन्यान्य विधाओं में उनकी कुल 48 पुस्तके प्रकाशित हो चुकी हैं.  साहित्य और पत्रकारिता की जुगलबंदी की परम्परा के वाहक गिरीश पंकज व्यंग्य के साथ-साथ सा-सामयिक विषयों पर गंभीर लेखन भी करते हैं। उनकी एक विशेषता यह भी है कि वे ग़ज़लें भी कहते हैं. उनके दो ग़ज़ल संग्रह  प्रकाशित हो चुके हैं. शायरी की दुनिया में 'साहिर', 'दुष्यंत' और 'अदम गोंडवी' को अपना आदर्श मानते हैं. यहाँ प्रस्तुत है उनकी पांच ग़ज़लें.
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1 
जो लड़ने निकले हैं तम से 
जीतेंगे वे अपने दम से

इस दुनिया क़ी रौनक होगी 
आखिर तुमसे और कुछ  हम से 

कितने बड़े -बड़े ग़म सबके 
मत घबरा तू अपने ग़म  से

सुख का फंडा उसने जाना 
काम चला लेता जो कम से

बदनामी वो सह न पाया 
जां दे दी उफ़ लाज-शरम से 

जो कहता है खून बहाओ 
धर्म नही वो कहूँ कसम से 

बात प्यार से बनती पंकज
कभी बनी न न गोली - बम से

2  

दौलत- फौलतशोहरत-गद्दी इस पर क्या इतराना है
लगता साहेब भूल गए हैं इक दिन इनको जाना है

किसकी खातिर जोड़ रहे हो इतनी दौलत बोलो तो 
अंत समय में केवल अपना मिट्टी से याराना है 

जिसको कोई तोड़ सके ना और बाद भी रह जाए 
सत्कर्मो का घर हैं सुन्दर हमको वही बनाना है 

जीवन क्या है चढ़ता सूरज फैलाएगा उजियारा 
लेकिन सच्चाई है उसको शाम हुए ढल जाना है

कर लो प्राणायाम बहुत से, मगर प्राण भी है जिद्दी 
जाने कब ये चल देगा इसका नहीं ठिकाना है 

रत्ती-सी इक बात ने
तोड़ दिया हालात ने
टूटे दिल को बहलाया
यादो की बारात ने

दिन भर तो मशगूल रहा
मगर रुलाया रात ने 

खुशिया भर दी झोली में
प्रेमभरी सौगात ने

हमें डुबाया है अक्सर
अपने ही ज़ज़्बात ने

जीत गए तो हँसते थे
दुःख पहुंचाया मात ने

4
जो खरा है वह कभी दुर्बल नहीं होगा
टूट जाए स्वर्ण पर पीतल नहीं होगा

मैं चलूँगा ज़िंदगी में बस चलूँगा मैं 
गर किसी का भी मुझे सम्बल नहीं होगा

माँ तुम्हारे बिन मेरी ये ज़िंदगी क्या है
क्या करुंगा जब तेरा आँचल नहीं होगा

हर तरफ धोखाधड़ी है, इक छलावा है 
कैसे कह दूँ इक भला पागल नहीं होगा

जो लगन से काम करते हैं सफल होंगे
काम सच्चा है तो फिर निष्फल नहीं होगा 

कोई भी रिश्ता कभी टिकता नहीं ज़्यादा 
मन हमारा गर कहीं निर्मल नहीं होगा


कुछ के वारे न्यारे हैं 
कुछ किस्मत के मारे हैं 

मौज यहाँ उनकी है जो 
सपनो के हत्यारे हैं

जो छलिया हैं वे सब ही 
क्यों लोगों को प्यारे हैं

धोखेबाज़ी में माहिर 
चंद सियासी नारे हैं 

गैरों से तो जीत गए
कुछ अपनों से हारे हैं 

जितनी थी चादर अपनी 
उतने पैर पसारे हैं 

जो वंचित हैं 'पंकज' के 
अपने राजदुलारे हैं
-- 

गिरीश पंकज
संपादकसद्भावना दर्पण
*२८ प्रथम तल, एकात्म परिसर
रजबंधा मैदान रायपुर. छत्तीसगढ़. 492001*
*मोबाइल* : 09425212720
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*पूर्व सदस्य, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली (2008-2012)*
उपन्यास, 14  व्यंग्य संग्रह सहित 44  पुस्तके 

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1-
 
http://sadbhawanadarpan.blogspot.com
2 -
 
http://girishpankajkevyangya.blogspot.com
3 -
http://girish-pankaj.blogspot.com

गाँधी होने का अर्थ

गांधी जयंती पर विशेष आज जब सांप्रदायिकता अनेक रूपों में अपना वीभत्स प्रदर्शन कर रही है , आतंकवाद पूरी दुनिया में निरर्थक हत्याएं कर रहा है...