Monday, 20 January 2014

अक्स में ‘मैं’ और 'मेरा शहर'!



ठहर जाता है समय
कभी-कभी
ठहरे हुए पानी की तरह
तो कभी फिसल जाता है वह
मुट्ठी मेँ बंधी रेत की तरह
जब आँखे बन्द रहती हैँ
और दिमाग जागा करता है
तब सोचता हूँ...

करता हूँ कोशिश सोने की
करवट बदलता हूँ
सुविधा,सुविधा-'दुविधा'
हाय रे 'सुविधा'!
मैँ अपने खोखलेपन पर हँसता हूँ
खालीपन को भरने की
करता हूँ एक नाकाम कोशिश

दोहरेपन के साये मेँ
दोराहे सी जिँदगी का
अन्जान राही बन
आगे-पीछे चलता
फीकी हँसी-फीकी नमी
उन खट्टे-मीठे पलोँ की यादेँ
गूँजती आवाजेँ;

अपने पैदा होने के कुछ ही वर्षो बाद
मैँने जान लिया था
क्या है जीवन-
जीवन संघर्षो का नाम है
जिस पर चलते रहना
आदमी का काम है !

कल यूँ ही
बाजार टहलने निकला
तो देखा-
ठेले पर धर्म,शांति और मानवता
थोक के भाव में बिक रही थी
फिर भी कोई नहीँ था
उसे लेने वाला
दूसरी ओर भ्रष्टाचार का च्यवनप्राश
सबको मुफ्त बँट रहा है
जिसे लेने के लिए
धक्कामुक्की मची है
जिन्हे मिल गया वे
दोबारा हाथ फैलाए हैँ
कुछ आदमी पीछे लटककर
बाँटने वालोँ से
साँठ-गाँठ कर रहें हैं..

आँख उठाता हूँ तो
दूर-दूर तक दिखते हैँ
कच्चे-पक्के चौखटे
और ऊपर भभकता सूरज
जिसकी तपिश से झोपड़े आग उगल रहे हैँ
इसी शहर मेँ कहीँ दूर नैतिकता
ए.सी. मेँ आराम कर रही है
दूसरी तरफ कुछ ईमानदार
सच्चाई के बोझ से थककर
बेईमानी की चादर तानकर सो गए हैँ

आगे नुक्कड़ पर भूले बिसरे सज्जन
दुर्जनोँ को
अपने पैसोँ की चाय पिला रहेँ हैँ
यह इस शहर में आम है
क्रिकेट में चौका, दीवानेखास में मौका
प्लस बेईमानी का छौँका
यह इस तीन सूत्रीय कार्यक्रम का
अपना एक अलग इतिहास है
पंचसितारा होटलोँ की सेफ मेँ बन्द है
'परिश्रम' की डुप्लीकेट चाभी
सिक्सर्स हँस-हँस कर ताली पीट रहें हैं

समाधान,समाधान
समाधान !
हे. हे.. हे...
सौ प्रतिशत मतदान
बन्द हो गई राष्ट्रीयता की दूकान
आमतौर पर यहाँ हर दूसरा आदमी
'बाई पोलर डिसआँर्डर' से ग्रसित होता है
हर दुनियावी प्राणी का अक्स
उसकी परछांई से छोटा होता है !

-राहुल देव

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