Friday, 17 May 2013

सत्यम शिवम् सुन्दरम्



जो शाश्वत है वही सत्य है और वही सम्पूर्ण सृष्टि के लिए कल्याणकारी है तो निश्चित रूप से सबसे ज्यादा सुन्दर भी वही कहा जा सकता है | यह भारतीय दर्शन की आदि मान्यता रही है | प्रश्न यह है की सत्य है क्या ? गहनता के साथ जब हम विचार करते है कि तो हमें यही दिखाई पड़ता है कि जिसका कभी भी किसी भी काल में क्षरण न हुआ हो अर्थात वह तो अक्षर ही हो सकता है | अक्षरित भाव यानी जो शाश्वत है और जो किसी काल में न तो नष्ट हुआ है और न तो नष्ट होने की सम्भावना ही है | अस्तित्व में बराबर बना रहने वाला, समय की सीमा से परे तब तक वह वर्तमान है अर्थात मैं ही आत्मा से परिबद्ध परमसत्ता हूँ | यहाँ पाठकगण यह कतई न समझ बैठें की मैं उन्हें सांख्य दर्शन की सैर करने ले चल रहा हूँ |
मैं तो सिर्फ तत्व की बात कर रहा हूँ और उसी पर आप सबका ध्यानाकर्षण करना चाहता हूँ | जन चिंतन की आँखों से देखता हूँ तो हमें दो सत्ताएं साफ़-साफ़ दिखाई पड़ती हैं | पदार्थ और तत्व | जैन दर्शानावलम्बियों ने पदार्थ को अस्तित्वहीन बताया तथा बिना तत्व के वह कालजयी हो भी नहीं सकता या यूँ कह लें कि वे एक ही सत्ता के दो पहलू हैं | पदार्थसत्ता निर्धारित समयसीमा के अन्दर ही है | भारतीय साहित्य हमें यह बताता है कि सत्य मिथ्या से अधिक रहस्य समेटे हुए है अर्थात प्रकाश अन्धकार से अधिक प्रभावशाली है, इसीलिए ‘सत्यमेव जयते’ कहा जाता है | जब जहाँ पर अन्धकार होता है वहां पर हम कुछ देख ही नहीं पाते और जब हमें कुछ दिखाई ही नहीं देगा तो हमारी प्रगति स्थिर हो जाएगी | सत्य अर्थात तत्व में ही उजाला है|
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को ही लें, यदि भगवान् भाष्कर अपने आलोक की किरणें धरती पर न भेजें तो क्या हमारा मानवजीवन सुरक्षित रह सकेगा ? उत्तर में हमें नहीं ही मिलता है | सम्पूर्ण शून्य  के साथ उसकी सहधर्मिणी प्रकृति सदैव साथ रहकर जीवन की शाश्वत लीला करने वाली, पौराणिक भाषा में महामाया कहकर विद्वानों ने परिभाषित किया है | महामाया अर्थात पराप्रकृति जिसके चिंतन के धरातल पर तीन अंग हो जातें है- रज, तम, सत | तीनों अंग एक महाशक्ति की कृपा हैं |
कुल मिलकर सत्य (तत्व) का भाव अक्षुण्ण है | इस ‘मैं’ की बात जब हम करतें हैं तो अहम् का बोध होता है लेकिन जब ‘मैं’ के साथ आत्मीयता स्थापित कर दी जाती है तो मैं का अहम् भाव नष्ट हो जाता है और परमात्मा उपस्थित हो जाता है क्योंकि ईश्वर अंश जीव अविनाशी.....!! जीव उसी अविनाशी तत्व का एक अंश है |
जो पूर्णतया सत्य है और समस्त सृष्टि का संचालक है | साधक को चाहिए कि वह स्वयं को अपने अन्दर के परमात्मा को समर्पित करके जीवन समुद्र की लहरों को निरखकर आध्यात्मिक आनंद के साथ भौतिकता के रस का पान करें |
यही परमात्मभाव हमारा एवं समाज का कल्याण करने में सक्षम है | संसार की मानव प्रवृत्तियां दो भागों में विभाजित हैं | आध्यात्मवादी और पदार्थवादी | आज का भौतिकवादी समाज, पदार्थ के सौन्दर्य एवं सुख की तलाश करता है जो कि यूरोपीय सभ्यता की देन है | पदार्थ का जब कोई अस्तित्व ही नहीं है तो उसमें शांति कैसे मिल सकती है? और जब शांति नहीं तो सत्य का स्पर्श नहीं | आज के मानव की सबसे बड़ी भूल यही है कि वह शरीर को सत्य मान बैठा है और इन्द्रियों के भोग-विलास में सौन्दर्य की तलाश करता भागा चला जा रहा है |
मेरे कहने का आशय यह नहीं कि भोग-विलास का त्याग कर दिया जाये | यहाँ पर में यह कहना और समझाना चाहता हूँ कि सत्य जो सम्पूर्ण प्रकार से पूर्णता से आबद्ध है; और सनासर भी सभी प्रकार से यथार्थ है फिर उस परमसत्ता से ही यह शरीरसत्ता उत्पन्न है | पूर्ण से पूर्ण घटाने पर पूर्ण ही शेष बचता है ऐसा विद्वानों का मत है | प्रश्न उठता है कि क्या यह दोनों वास्तव में विरोधी हैं? चेतन और अचेतन (जड़) दो भिन्न सत्ताएं जरूर है  परन्तु एक दूसरे से पूर्णतया भिन्न नहीं हैं | भिन्नता इतनी जरुर है कि परस्पर एक दूसरे से अलग हैं | अतः दोनों के बारे में ज्ञान प्राप्त करना अनिवार्य है | ज्ञान प्राप्त होने पर जो करणीय है वह है भेदविज्ञान |
सत्य साधना का महत्त्वपूर्ण सूत्र है भेद रहस्य | मैं पदार्थसत्ता नहीं हूँ या मैं शरीर नहीं हूँ | भौतिक चेतना ने चेतन और अचेतन में अभेद स्थापित कर दिया है | आज का मानव जो पूर्णतया भौतिकवादी हो गया है मानता ही नहीं कि वह शरीर से भिन्न है | वह कहता है जो शरीर है वह मैं हूँ और जो मैं हूँ वह शरीर है | सत्य का रहस्य न जानने के कारण ही शरीर मालिक बन गया है | चेतना (सत्य) दास/पदार्थवादी दृष्टिकोण की जो समस्या है वह यही है कि चेतना को नकारा गया है | प्रतिपक्ष में जो परिणाम सम्मुख देखने को मिला वह यह है कि इन्द्रियों की उच्छ्रखलता बढ़ गयी और हमारी शांति छिन गयी | ब्रह्मवाद या आध्यात्मवाद केवल मुक्ति की साधना ही नहीं वरन मानव समाज के व्यावहारिक जीवन के क्षेत्र में भी उपयोगी है |
ईशावास्यामिदं सर्वं यत किंच जगत्यां जगत |
तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्य स्विद धनं ||
ईशावास्योपनिषद के प्रथम श्लोक का सन्देश भी यही है कि इस ब्रम्हांड में जो कुछ भी जड़ चेतन स्वरुप है वह समस्त ईश्वर से ही व्याप्त है | इस प्रकार उस ईश्वरभाव का साथ रखते हुए त्यागपूर्वक भोगते रहें- उसमे आसक्त मत हों, क्योंकि भोग्य पदार्थ किसका है ? अर्थात किसी का नहीं, इसलिए पदार्थ का भोग करो उसके साथ योग मत हो | अभिन्न मत हो | अभिन्न बनाने वाला तत्व हो | जहाँ राग उत्पन्न होता है वहां भेद ख़त्म हो जाता है | आध्यात्मवाद में चेतनावादी दृष्टि का योग है और भोगवाद में पदार्थों की प्रधानता है | सत्य की उपासना करने वाला व्यक्ति इन दोनों वादों में सक्षम हो सकता है |
सत्य साधक को चिंतन करना चाहिए कि उसका अपना जीवन मंगलमय हो | मंगलमय होने का अर्थ है कि शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य ठीक हो |
प्रायः देखा जाता है कि मनुष्य को जो वर्तमान में प्राप्त होता है उस पर ध्यान न देकर भविष्य में प्राप्तव्य की कल्पना करने लगता है | ऐसी स्थिति में वह शिवता से पूर्णतया वंचित होकर भाग्य को कोसने का केवल कारण बनकर रह जाता है और वास्तविक सौन्दर्य की प्राप्ति से कोसों दूर चला जाता है | सत्य हमें शिवता तभी प्रदान कर सकता है जब चेतना के सभी स्तरों को समझ लें | सहृदय (चेतना) के तीन स्तर हैं- नैतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक | नैतिक चेतना का आधार होना चाहिए धर्मचेतना और धर्मचेतना का आधार होना चाहिए आध्यात्मिक चेतना | यही सत्य साधक की साधना के विकास के सोपान हैं | संसार का प्रत्येक मानव दो आयामों में जीता है | वह न तो पूर्ण रूप से स्वतंत्र होता है और न ही पूर्ण रूप से परतंत्र |
सत्य धेय्य का चुनाव करने में व्यक्ति स्वतंत्र है और वाहन या साधन के लिए भी वह पूर्ण तथा स्वतंत्र है | जब वह साधन का प्रयोग करता है तब उसे सम्बंधित वाहन या साधन का अनुशासन मानना पड़ता है | साधन अपनी गति से गतिमान हो और साधक अपनी गति से, यह असंभव है | अनुशासन और कुछ नहीं बल्कि धेय्य की या उद्देश्य की पूर्ति मात्र हो | व्यावहारिक भाषा में अनुशासन का अर्थ है नियंत्रण और आध्यात्मिक भाषा में इसे संयम कह सकते हैं | सत्य साधना के सम्बन्ध में सामान्य प्राणी की मान्यता है की वह उसके वश में कर्त नहीं जिसका कारण शास्त्रों में वर्णित सूत्रों को आधुनिक सन्दर्भ में प्रचारित न करना समझ में आता है | ऐसा विद्वानों का मत है | प्रदूषित मन के साधन के लिए विचारों की शुद्धता स्वयं में औषधि है |
सत्य और उसकी शिवता स्पष्ट करने के पश्चात अब हम सौन्दर्य पर कुछ चर्चा करना चाहेंगे | सत्य का वास्तविक पक्ष ही वास्तविक, कल्याणकारी हो सकता है जो पूर्ण तथा निरपेक्ष होता है और वही हमारे जीवन के कल्याणकारिता करता है और हमें वास्तविक और सौंदर्याभूति करने में सक्षम होता है |
इस प्रकार हम विश्वास के साथ कह सकते है की सत्य ही शिव है और वही सर्वश्रेष्ठ एवं सुन्दर है | इसमें किंचित मात्र का संदेह नहीं है क्योंकि यह हमारे भारतीय दर्शन की परिपक्व मान्यता है |

-श्री प्रकाश 

Tuesday, 14 May 2013

प्रेम,ईश्वर और मनुष्य


मानवता की विकास यात्रा आदि से वर्तमान तक जिस रूप में प्रारंभ हुई थी उसका स्वरुप विभिन्न कालखण्डों में घटता-बढ़ता देखा जाता रहा है | कहाँ तो अतीत का भाव प्रधान मनुष्य वर्तमान में बुद्धिप्रधान बन बैठा है | यही कारण है की आज मनुष्य मानव कम दानव अधिक है | महाकवि प्रसाद ने ठीक ही कहा है- “उनको कैसे समझा दूँ तेरे रहस्य की बातें, जो खुद को समझ चुकें हैं अपने विलास की घातें |”
अर्थात प्रेम का रहस्य साधारण मनुष्य से परे है इसमें मुझे किंचित मात्र भी संदेह नहीं लगता | प्रश्न यह नहीं कि की मानव प्रेमस्वरूप ईश्वर बन सकता है | उत्तर में हमें यही मिलता है की मनुष्य प्रेम का स्वरुप अपनाता कहाँ है? प्रेम के भाव प्रधान होने के कारण उसमें न तो श्रद्धा की कमी होती है और न तो विश्वास का अभाव | प्रेम अँधा होता है जिसे दिखाई नहीं देता वह अपने पात्र में सबकुछ सकारात्मक ही दृष्टिगोचर करता है |
अब आप ही देखिये कि भगवान् राम को अतिशय प्रेमवश शबरी ने जूठे बेर ही खिला डाले और ईश्वरावतार प्रभुराम ने उसे सहर्ष खा भी लिया- प्रेम जोड़ता है अलगाव नहीं उत्पन्न करता | इसीलिए विवेकानंद ने प्रेम को ईश्वरीय संज्ञा देने में कोई संकोच नहीं किया |
प्रेम ही ईश्वर है | इस जगत में प्रेम को विद्वानों ने दो भागों में बांटा है, लौकिक और आध्यात्मिक, पारलौकिक प्रेम श्रद्धास्पद है | लौकिक प्रेम के कई अर्थ हो जाते हैं जैसे अनुराग,राग,स्नेह आदि |
यहाँ पर हम प्रेम के विराट स्वरुप की चर्चा करना चाहेंगे जिसे कवि प्रसाद ने प्रेम पथिक में स्वीकार किया है – “इस पथ का उद्देश्य नही है; श्रांत भवन में टिक रहना |”
प्रेम में गति है, निरंतरता है,हलचल है, जीवन है, प्राण है तभी वह ईश्वर के निकट रह लेता है |
प्रकृति और पुरुष की संलग्नता जीवन को जन्म देती है | अकेली प्रकृति अस्तित्वहीन है | इसी प्रकार अकेला पुरुष शक्तिविहीन है | जब तक प्रकृति के साथ प्रेम स्थापना नहीं करता निष्प्राणता ही देखी जा सकती है |                                                                                                                         
अब प्रश्न उठता है की प्रेम है क्या ? उत्तर मिलता है एक प्रकार का भाव जो मानव/जीव के अंतर्जगत में स्वाभाविक पनपता है | आध्यात्मिक प्रेम ईश्वरीय आभा से परिपूर्ण होता है तथा इसमें नष्ट होने की कोई गुंजाईश नहीं होती है |
‘सीय राममय सब जग जानी’ कहकर संतकवि तुलसी ने विश्वप्रेम का परिचय दिया है वहीँ पर ‘ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होए |’ कहकर कबीर ने प्रेम की विराटता का सन्देश विश्व में प्रसारित किया है | मानव ह्रदय का यही प्रेम भाव जब विराट फलक ले लेता है तब वह ईश्वर का स्वरुप बन जाता है जैसे भगवान बुद्ध, महावीर, कृष्ण आदि |
अब प्रश्न यह उठता है की क्या साधारण मनुष्य के ह्रदय में यह विश्वप्रेम उपज सकता है ? उत्तर में हमें यही प्राप्त होता है- क्यों नहीं ! आप उस स्थिति तक तो पहुँचिये | फिर प्रश्न उठता है कैसे पहुंचा जा सकता है ? श्री मद्भगवदगीता में इसका योग साधना द्वारा स्पष्ट हल है |
दरअसल शरीर में स्थित स्व के दो पक्ष उद्घाटित हैं- एक मन दूसरा आत्मा | जब तक आत्मा पर मन का शासन होगा तब तक हमारा दृष्टिकोण संकुचित रहेगा और जब मन पर आत्मा का शासन होगा तब दृष्टिकोण विराट होगा | यहीं से विश्वप्रेम की यात्रा प्रारंभ होती है | वेद कहता है कि यह शरीर एक रथ है, इसमें स्थित इन्द्रियां घोड़े हैं | मन-बुद्धि सारथी हैं और आत्मा सवार है |
मन को ड्राईवर न बन्ने दें | यदि मन ड्राईवर बनता है तो खंदक में गाड़ी जाना निश्चित है | जब आपके शरीर का ड्राईवर आत्मा होगी तो दिशा-निर्देश सही होगा, दृष्टिकोण बड़ा होगा | यहाँ इस जगत में जो कुछ भी दिखाई देता है इन भौतिक आँखों से, वह सब नश्वर है जो अंतर्जगत की आँखें देखती हैं वही ईश्वर है | आप अकेले हैं किन्तु आपका भावजगत विराट है | जो स्थूल है उसी में सूक्ष्म तलाश कीजिये निश्चित ही आप मानव से इश्वर बनने की क्षमता उत्पन्न कर लेंगे |
जब आप स्वार्थी होंगे तब प्रेम का संकुचित रूप आपके साथ होगा जब आप परमार्थी होंगे तब प्रेम के विराटस्वरुप से आपका परिचय होगा जो जीवन और प्राणवत्ता की सम्पन्नता का सन्देश बिखेरेगा |
इस मामले में भारतीय दर्शन और वैदिक साहित्य हमें ज्यादा शिक्षा प्रदान करता है | अब एक प्रश्न पुनः उभरता है | आखिर मानव जीवन का उद्देश्य क्या है? भोग-विलास करके मृत्यु को प्राप्त होना या फिर योग-विलास करके मुक्ति को प्राप्त करना |
आप हसेंगे मुक्ति ! कैसी मुक्ति ! जी हां मुक्ति, गीता कहती है- न मैं अतीत में हूँ, न भविष्य में | में सिर्फ वर्तमान में हूँ | मुझे वर्तमान में ही इस कार्यक्षेत्र में लड़ना है | वर्तमान, कैसा? वर्तमान अर्थात जो सदा विद्यमान रहे वही सत्य है जिसका स्वरुप हमें सदा देखने को मिले | वह क्या है? वह आत्मा के अंतर्जगत में स्थित परमात्मा है | उसके साथ प्रेम करना जीवन की सार्थकता है | आप कहेंगे कर्म में शून्यता आएगी | नहीं, कर्म करना तो शाश्वत सत्य है | परमात्मा भी निरंतर जीव को कर्म करवा रहा है | इसलिए परमात्मसत्ता के साथ में लगाव (प्रेम करना) ही जीवन का सर्वोच्च प्रेम कहा जायेगा | यह प्रेम साकार में वात्सल्य, भक्ति के क्षेत्र में सेवक और मालिक | तुलसी का राम के प्रति, ज्ञान के क्षेत्र में निराकार के प्रति लगाव |
किसी योगी को प्रकृति की लीला जब साफ़ समझ में आने लगती है तो यह उसका आध्यात्म प्रेम ही कहा जायेगा | हिंदी साहित्य में भी आदिकाल से आज तक प्रेम को अनुराग के रूप में विभिन्न रूपों में भोगा है |
ऊपर कहा जा चुका है कि प्रेम के मुख्यतः दो रूप होते हैं- लौकिक और आध्यात्मिक लेकिन लौकिक प्रेम के माध्यम से जब पारलौकिकता की अनुभूति हो जाती है तभी वह पूर्ण प्रेम माना जायेगा जैसे- लैला-मंजनू, शीरीं-फरहाद, भगवान् कृष्ण और राधा | सच्चे प्रेम में भोग नगण्य है, वह विराट होता है तभी मनुष्य ईश्वर बन जाता है और समाज को नयी दिशा प्रदान करने लगता है | कृष्ण और राधा का प्रेम प्रकृति और पुरुष का प्रेम है, शक्ति और शिव का प्रतीक है| पीछे कहा भी जा चुका है कि शक्ति के बिना शिव मात्र शव है |
पौराणिक मान्यता है कि आदि में ब्रह्म ही है, बाद में विष्णु जी के बांये अंग से लक्ष्मी जी का जन्म हुआ जो कि शक्तिस्वरूपा थीं | दर्शन के क्षेत्र जीव-ब्रह्म और माया अथवा प्रकृति, जीव और परमसत्ता | त्रिदेव की मान्यतानुसार ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं | महेश(शंकर) के दो रूप, एक कल्याणकारी दूसरा संहराक प्रकृति | वह जब-जब विद्रोह करती है शिव उसे शांत करता है | काल की सीमा से परे उसका अस्तित्व है शायद |
कुछ लोगों की मान्यता है कि हम आदिम-हौवा की संतान हैं तो कुछ श्रद्धा और मनु की | ये सब अलग-अलग मत हैं | प्रेम का स्वरुप ईश्वरमय तभी बन सकता है जब हम सबमें ईश्वर के दर्शन करें | यह भारतीय मत है | अनेकता में एकता स्थापित करना भारतीय संस्कृति का मूल है, जिसका आधार प्रेम भावना ही तो है |

- श्री प्रकाश 

Wednesday, 8 May 2013

बालमखीरा का चूरन



जी हाँ सुकून नहीं मिल रहा है, दिल में घबराहट है | सही बात से डर लगता है, गलत काम में मन लगता है | थाने में दीवान रिपोर्ट नहीं लिखता, तहसील में इन्तखाब लेना है, लेखपाल पैसे मांगता है, आप पैसे से तंग है- तो बालमखीरा का चूरन खाइए, सब काम हो जायेगा |
बैनामा कराना है, रजिस्ट्रार घूस मांगता है, बी.डी.ओ. ऑफिस में काम पड़ गया, पैसे के अभाव में बाबू काम नहीं करता- बालमखीरा का चूरन खाइए सब काम फटाफट होने लगेंगे |
जी साब ! यह एक ऐसा चूरन है जो केवल आम आदमियों के लिए ही नहीं बल्कि सभी प्रकार के सभी लोगों की सभी मर्जों के लिए बनाया गया है | इसका फार्मूला कोई नया नहीं, काफी पुराना है सभी जानते हैं | चूरन बनाने में कोई मेहनत नहीं, झूठ, मक्कारी, घूस-लूट, चोरी-बदमाशी, बेईमानी इत्यादि सभी को बराबर मात्र में लेकर इमामदस्ते में कूटकर किसी चालाकी भरे कपडे से छानकर चिमचागिरी या चापलूसी का नमक मिला लें- चूरन तैयार | परधानी का इलेक्शन लड़ना है, विधायकी का चुनाव जीतना है, दिमाग काम नही करता, वोटों की गणित ठीक नहीं बैठती......|
बालमखीरा का चूरन खाइए, आराम पाइए |
जोड़तोड़ की सियासत करनी है, सरकार नहीं बन पा रही है, नेता को चाहिए कि वह बालमखीरा का चूरन खाए..और आराम पाए |
इसके इस्तेमाल से दिमाग ठंडा रहता है, खाया पिया सब हजम हो जाता है, पाचन शक्ति तेज हो जाती है | बालमखीरा का चूरन खाएं और काम पर जाएँ |
फर्जी काम कराना है, बगैर घूस के काम में मन नहीं लगता- डर का बुखार रहता है, बालमखीरा का चूरन खाइए |
भाइयों एवं बहनों ! यह चूरन सरकारी कर्मचारियों के लिए विशेष रूप से तैयार किया गया है | लेकिन सत्ता में बैठे नेतागण भी इसे लेकर फायदा उठा सकते हैं- कहीं का भी बजट बनाना है, हेरा-फेरी करनी है, गरीबों का खून चूसना है- बालमखीरा का चूरन खाइए...दिमाग दुरुस्त |
                                                                        4.
पैसे के लिए चोरी करनी है, राहजनी करनी है, धर्म के काम से जी ऊबता है- बालमखीरा का चूरन खाइए ! सब काम हो जायेगा |
जी साब ! इस भूमंडलीकरण के जमाने में ऐसा चूरन कहीं नहीं मिलेगा- चूरन कहिये और दंगा कराइए....चोट चपाट का खतरा खत्म |
चोरी की गाड़ी है, कागज़ कम्पलीट नहीं हैं, गाड़ी का हुलिया बदलवाने से पहले खाइए सिर्फ बालमखीरा का चूरन....कभी नहीं फसेंगे | आपके पास डाक्टरी की डिग्री नहीं है, बच्चे भूखों मरते हैं, झोलाछाप बनना है | आपकी तमाम मजबूरियां हैं- चूरन खाकर जाएँ कुछ नहीं होगा |
दफ्तर में काम करते हैं, रिश्वत नहीं मिलती, गुस्सा आता है- बालमखीरा का चूरन | कहाँ तक गिनायें साब...! इसके फायदे ही फायदे हैं, देश के भीड़तंत्र में इससे बढ़िया कोई दवाई नहीं | बालमखीरा का चूरन खाइए– आराम पाइए |
मुकदमा चल रहा है, पेशी लम्बी करवाने के पेशकार पैसे मांगता है | बालमखीरा का चूरन खाइए और पेशकार को भी खिलाइए- दोनों लोग पूरा आराम पाइए | वकील टरकाता है, पेशी पर पेशी लगवाता है, मुंशी लड़ता है, मास्टर भगाता है, फर्जी टी.सी. नहीं बनाता | डिप्टी आपका मुहँ ताकता है, उसकी कलम रुकी है, आदेश पारित नहीं करता- बालमखीरा का चूरन खाइए, खिलाइए | आराम पाइए | जी हाँ ! इम्तेहान नज़दीक हैं, पढाई नहीं की है | नक़ल का सहारा लेना है | गेस पेपर देखकर उलझन होती है | सोते वक़्त गरम पानी से चूरन लें, पर्चा बढ़िया होगा |
हाँ जी ... हारा हुआ मुकदमा जीतना है | बेंच अनुकूल नहीं बैठती, वकील गड्डी की डिमांड करता है | चैम्बर में चूरन खाकर घुसिए, जज अपने आप खड़ा हो जायेगा, लेकिन ध्यान रखें यह चूरन आप जज को भी खिलाएं- काम फटाफट हो जायेगा | बस बालमखीरा का चूरन खाइए और पूरी आराम पाइए.....|
जी हाँ एक तरफ हम वैश्वीकरण की ओर जा रहें हैं तो दूसरी ओर इक्कीसवी सदी की ओर- दोनों ओर चाँदी ही चांदी है | ऐसे में हाजमा ख़राब होना कोई खास बात नही है | एक बार फिर हमारी बात जरूर मान लीजिये- बालमखीरा के चूरन की पुड़िया अपने साथ जरूर रखें | सब ओर सुनहरा दिखाई देने लगेगा | ध्यान रखें- बालमखीरा का चूरन !!                        5.
मैं बार-बार समझाने की जरूरत नहीं समझता | जब आप खायेंगे तो खुद ही पता चल जायेगा कि बालमखीरा के चूरन में कितनी तासीर है |
न उर्दू का झंझट न अंग्रेजी का फिर हिंदी का तो सवाल ही नहीं उठता क्योंकि हम सब ‘हिन्दुस्तानी’ जो हो गये हैं न | हिंदुस्तान के सभी भाषाभाषियों के लिए- सिर्फ बालमखीरा का चूरन |
जी हाँ ! रात-रात भर नींद नहीं पड़ती | सोचते-सोचते दिमाग दर्द करने लगता, बिज़नेस में घाटा आ गया है | वैट लागू है, विरोध की शक्ति नाकाम है- सिर्फ एक ही दवा, बालमखीरा का चूरन!
हाँ साब !  “अधाधुंध दरबार मा जो यह चूरन खाय, गदहा ते मानव बने बुद्धि सुधरि सब जाय |”

-- श्री प्रकाश 


राष्ट्रवाद बनाम धर्मनिरपेक्षता



राष्ट्र के उत्थान का प्रगतिगामी चिंतन ही राष्ट्रवाद का मूल अस्तित्व है | राष्ट्र में समन्वयवादी एकीकरण का भाव जनमानस में स्थापित करना, व्यष्टि का सुधारवाद की ओर अग्रसर होना, निजत्व के माध्यम से समूह का राष्ट्रीय मूलधारा से जोड़ा जाना ही राष्ट्रवाद की सामान्य परिभाषा है |
जहाँ तक व्यक्ति की राष्ट्रवादिता और संविधान में उल्लिखित धर्मनिरपेक्षता के सम्मिलित निर्वाह का प्रश्न है, मेरा मानना है की दोनों की एकरूपता जहाँ बाह्य रूप से एक दूसरे का पूरक है, वहीँ पर दोनों का अस्तित्व अपने आप में नितांत वैयक्तिक है |
राष्ट्रवाद में गुणग्राह्यता अधिक है, जबकि धर्मनिरपेक्षता में समानधर्मिता | राष्ट्रवाद राष्ट्र के अतीत काल की धरोहर है जिसके (हम संस्कृति कहेंगे) अन्दर विद्यमान गुणों को सवारकर निजी जीवन में ढालकर उसे इस प्रकार विकासोन्मुख बनाना है जिससे राष्ट्र के व्यक्तित्व में स्थिरता रहे |
धर्मनिरपेक्षता का सामान्य अर्थ सर्वधर्मसमभाव से है | राजनीति के क्षेत्र में राज्यवेत्ताओ द्वारा किया गया | समाजवादी चिंतन उपरोक्त धर्मनिरपेक्षता से अलग नहीं है | सच्ची धर्मनिरपेक्षता राष्ट्रवाद का ही एक रूप है |
मेरे सामने कई प्रश्न हैं जिसमे प्रथम प्रश्न यह है कि तथाकथित धर्मनिरपेक्षता से भारतीय मूलतत्वों को धक्का लगा है, क्या उक्त धर्मनिरपेक्षता से हमारी राष्ट्रीय चेतना प्रभावित हुई है? क्या हम संविधान में वर्णित धर्मनिरपेक्षता का निर्वाह भारतीय लोक समुदाय में करते हैं | क्या उपरोक्त दोनों (राष्ट्रवाद व धर्मनिरपेक्षता) भारतीय उपनिवेश में रह रहे बहुल समुदायजनों में निजी पथों के निर्वाह के विकास में बाधक हैं | उपरोक्त अधिकांश प्रश्नों के उत्तर नकारात्मक हैं | यदि सत्य बचता है तो भारतीय अतीतकालीन वैदिक युग की वह धरोहर जिसके आधार पर निर्मित सच्चे राष्ट्रवाद की शिला आज तक टूटी नहीं |

 -- श्री प्रकाश 

भीड़तंत्र की महिमा



भीड़तंत्र यानी लोकतंत्र का विकृत रूप | जहाँ तक निगाह जाती है वहां तक भीड़ ही भीड़ नजर आती है | सिनेमा हाल की टिकट खिड़की पर टिकट लेना हो तो भीड़, ट्रेन का टिकट लेना हो तो भीड़, मेला जाता हूँ तो भीड़, होली,दिवाली,ईद,क्रिसमस,बैशाखी जहाँ तक दृष्टि फैलाता हूँ वहां भीड़ का ही नज़ारा देखने को मिलता है |
सियासत के क्षेत्र में नेताओं की भीड़, राजनीतिक दलों के क्षेत्र में भीड़, संसद से वोटर तक सब भीड़ ही भीड़ | भला आप ही बताइए इस भीड़ में अकेले एक आदमी का कल्याण कैसे हो सकता है?  अकेला आदमी इस भीड़ में खो सा गया है | जहाँ जाता है जिधर जाता है भीड़ उसके आस पास इकट्ठा हो जाती है |
राजनीति में ही देखिये तो सर्वप्रथम जनतादल की भीड़ में लालू यादव लालटेन दिखाते हुए नज़र आते है | बी.जे.पी. के लोग कमल के फूल की सुगंध सूंघाते है | सायकिलों की भीड़ में मुलायम पैदल नज़र आते है, पंजों की भीड़ में हाथ ही गायब है | कम्युनिस्टो की भीड़ में ज्योति बसु बीमार पड़े हैं | भगवान् जाने यह भीड़ देश को किधर ले जाएगी | समाचारों की भीड़ में आतंकवाद व भ्रष्टाचार छाया है और भी न जाने कितनी अनगिनत छायाएं इस भीड़ में गम होती चली गयी | भीड़ इतनी बढ़ गयी है कि लादेन को खोजना मुश्किल पड़ रहा था | पश्चिमी दुनिया की भीड़ में हिन्दुस्तान की भीड़ जब-जब मिली तब-तब भीड़ का नज़ारा और भी रोचक हो गया है | कर्मचारियों की भीड़ में हड़तालों की भीड़, बिजलीघरों में बिल जमा कराने वालों की भीड़, थाने में दलालों की भीड़, चौराहे पर बातूनियों की भीड़, किसी पान की दुकान पर क्रिकेट कमेन्ट्री सुनने वालों की भीड़ | भीड़ पर भीड़ बढती ही जा रही है |
घोर अमावस्या की रात में एक दार्शनिक सितारों की भीड़ जब शून्य में देखता है तो वह अनुभव करता है कि इस अनंत शून्य में कलि अमावस्या के मध्य इतनी सी रौशनी !
भीड़ हमारे रक्त में समाई, रक्त कणिकाओं के मध्य भीड़ में तूफानी दौरा करने लगती तब केवल दो ही पक्ष रह जाते हैं- नेगेटिव तथा पॉजिटिव | सच तो यह है कि भीड़ ही जीवन है, गति है |                                                                                                                                          1.
बचपन की एक घटना याद आती है-‘मेरे एक दोस्त की  बहन की शादी थी | बारात में इतनी भीड़ थी कि कन्या पक्ष के लोगों के द्वारा कुएं में निचे चटाई बिछवाकर उसमें शकर की बोरियां खुलवा दी गयीं | इस प्रकार शरबत का वितरण बाल्टियों द्वारा खींचकर हुआ |
भीड़ कभी-कभी घातक सिद्ध होती है और उसका रुख जब क्रांति की तरफ होता है तो उसकी स्थिति और विकराल हो जाती है जैसे इंग्लैंड की रक्तक्रांति, भारत में महाभारत एवं भारत की स्वतंत्रता क्रांति |
संसद में नेताओ की भीड़ देखकर तो ऐसा लगता है कि इस देश को केवल ईश्वर ही चला रहा है | शेयर बाजारों में शेयरों की भीड़, बैंको के खजानों में नोटों की गड्डियों की भीड़ | पूंजीपतियों के काले धन के गुप्त खजानों में रुपयों के ढेर देखकर ऐसा लगता है मानो देश का वह गरीब जिसके पेट में रोटी नहीं है, बदन पर कपड़े नहीं हैं | ऐसे लोगों की भीड़ भी कम नहीं है लेकिन कमजोर है | भीड़ें जब लडती है तभी क्रांति होती है |
आजकल के रोडछाप कविसम्मेलन जहाँ कवियों की भीड़ पैसे के लिए अपनी कविता बेचती है, क्योंकि पापी पेट का सवाल है |
महाकुम्भ जैसे मेलों में गिरहकटों की कम भीड़ नहीं है | कोई बढ़िया पिक्चर आ जाने पर सिनेमाहालों पर उमड़ती भीड़ देखकर आप सहज अंदाज़ा लगा सकते हैं, आदमी तब तिलमिलाकर रह जाता है और उसे हाउसफुल का बोर्ड टंगा मिलता है |
भीड़ पर अगर कुछ कहा जाए तो वह हमेशा कम ही प्रतीत होगा मगर संक्षेप में एक व्यक्ति अपने आप को इस भीड़ में अकेला खड़ा महसूस कर रहा है और अपने अस्तित्व को बचाने का संघर्ष कर रहा है | जैसी मनःस्थिति उस व्यक्ति की है वैसी स्थिति भीड़ के अन्य लोगों की भी है और वे परस्पर भीड़मभीड़त में उलझे हैं | कहाँ तक कहूँ भीड़ की तो महिमा ही न्यारी है | सच ही है-
“हियाँ तो भीड़ तंत्र की है बलिहारी |
गवर्नमेंट से जनता हारी ||

-- श्री प्रकाश                                                                                                                         

गाँधी होने का अर्थ

गांधी जयंती पर विशेष आज जब सांप्रदायिकता अनेक रूपों में अपना वीभत्स प्रदर्शन कर रही है , आतंकवाद पूरी दुनिया में निरर्थक हत्याएं कर रहा है...