यूँ तो कितना कुछ
दफन हो जाता है मुझ में,
एक अँधेरा गहरा कुआँ
अनगिनत लाशों से भरा,
बस, कभी-कभार
बाहर निकलती हैं
चंद मुस्काने...
चंद अल्फाज़..
इक खोखली सी हँसी
फिर घंटो तक फैली
गमगीन खामोशी......
सब कुछ कितनी
आसानी से छुप जाता है
मेरे धीर-गंभीर,शांत, कठोर
और अभेद्य आवरण में,
कोई नहीं देख पाता
मेरे यायावर मन को
जो सदियों से भटक रहा है
एक अनजानी तलाश में...
मेरे अंदर हिलोरे लेते
समन्दर पर
मैं बड़ी सहजता से
बाँध देती हूँ
विचारों का इस्पाती पुल
जिसे पार कर
एक भी बूँद पहुँच नहीं पाती
पलकों के किनारों तक..
सब्जी काटते समय
मेरे अँगूठे पर पड़े
चाकू के निशान तो
देख लेते हैं सभी
पर मेरे अंतस पर पड़े
गहरे घावों को
मैं छुपा लेती हूँ
सुरमई काजल और
किनखाब की कश्मीरी साड़ियों में,
सब कुछ चलता रहता है
सरल,सपाट,यंत्रवत..
पर जब कभी उठते हैं
ज्वार-भाटे
कुछ बूँदें बना ही लेती हैं
रास्ता बाहर निकलने का
दाँत भींचकर मैं
रोक लेती हूँ
इस प्रवाह को
मन होता है
जोर-जोर से चीखूँ...चिल्लाऊँ...रोऊँ...
मेरे अन्दर धधकते लावा को
बाहर उँडेल दूँ
पर मैं तो ज्वालामुखी के
मुहाने पर बैठी
कर रही हूँ इंतजार
एक विस्फोट का
जिस दिन ज्वालामुखी फटेगा
मैं चिथड़े-चिथड़े होकर
बिखर जाऊँगी
हवा में फैल जाएँगी
चंद मुस्काने...
चंद अल्फाज़..
इक खोखली सी हँसी
और फिर वही घंटो तक फैली
गमगीन खामोशी.....
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डॉ. मालिनी गौतम
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