Tuesday, 20 May 2014

उपन्यास अंश- 'अहिल्या' : कुंती मुकर्जी





‘’जिंदगी जैसे बिखर रही है. एक एक पल समेटने के उपक्रम में हज़ारों कण आपस में टकराकर ऐसे अलग हट रहे हैं जैसे इनका कोई अस्तित्व न हो”.
          अहिल्या शाम के धुंधलेपन में बैठी है.. उसकी ज़िंदगी में भी ऐसी ही शाम घिर रही है. यह शाम तो रात में बदल जाएगी, फिर सुबह होगी... लेकिन अहिल्या की ज़िंदगी...?
          वह अपने आप से हज़ारों सवाल पूछ्ती है, कुछ के जवाब उसे स्वत: मिल जाते हैं और कुछ सवाल, सवाल बन कर रह जाते हैं.
          इंसान कभी-कभी कितना मजबूर हो जाता है. अपनी ज़िंदगी की सुरक्षा के लिये जो जाल बुनता है, एक दिन उसी में फंसकर रह जाता है. अहिल्या की ज़िंदगी भी इसी तरह का मकड़जाल है जिसमें वह उलझकर रह गयी है.
          शाम ढल गयी. धीरे – धीरे रात धरती की गोद में उतरने लगी. सर्दी का मौसम होने से जल्दी अंधेरा छा गया. अहिल्या ने मुड़कर अपने घर की ओर देखा. कमरे में अंधेरा छाया हुआ था. उठ कर उजाला करने का मन नहीं हुआ.
          वह वैसी ही कुर्सी पर पड़ी रही.पास के लौंगान के पेड़ पर बहुत सारे पक्षी शोर मचाते हुए शान्त हो गये.
अहिल्या आत्मविश्लेषण करने लगी.
          “ज़िंदगी!  मैं तुझे किस नाम की परिभाषा दूं. एक ही शरीर में मैंने कितनी ज़िंदगियाँ जी है, इस पैंसठ वर्ष के जीवन में मैं अनेकों बार जी कर मरी हूँ. मनोचिकित्सक सम्मोहित करके आंतरिक बातें निकालते हैं. मुझे सम्मोहित होने की ज़रूरत ही नहीं है. आज मेरा मन सब कुछ कह्ने को उतावला हो रहा है. मैं अपना भविष्य नहीं जान सकती लेकिन मेरा अतीत एक गुलदस्ते की तरह मेरी गोद में पड़ा है.
          हर इंसान के जीवन में उसका बचपन उसके जीवन की नींव होती है. मेरे जैसा बचपन किसीको ना मिले. कहते हैं कि हर लड़की अपनी मां पर जाती है. मेरी मां एक ऐसी इंसान थी जो सिर्फ़ अपने स्वार्थ के लिये जीती थी. वह न एक अच्छी पत्नी  बन सकी,न एक अच्छी मां ही बनी. वह एक पेशेवर वेश्या थी. कहते है कि मां कभी कुमाता नहीं होती और माँ की बुराई करना भी शास्त्र सम्मत नहीं है, लेकिन मेरे साथ जो हुआ क्या वह विधि-विधानुसार ठीक हुआ....? मेरे मन में कई प्रश्न उठते हैं जिसका उत्तर ढुँढ़ने के लिये अपने क्रिया-कलाप और अपने माँ के जीवन मंथन करने के अलावा मेरे पास और कोई विकल्प नहीं बचता है.
          मेरे पिताजी बहुत अच्छे इंसान थे. उन्होने मेरी मां को वेश्यावृत्ति के दलदल से निकाल कर एक अच्छी ज़िंदगी दी. उससे शादी की, एक घर दिया. एक औरत के जीवन में जो सुख चाहिये था,वह सब कुछ उसे दिया. लेकिन मेरी मां खुश नहीं थी. उसे हर दिन नये जिस्म की भूख थी जो मेरे पिता के घर में नहीं मिल सकता था. वह मजबूर थी क्योंकि मेरा अस्तित्व उसके गर्भ में आ गया था. मुझसे छुटकारा पाने की उसने बहुत कोशिश की लेकिन मेरे पिता के समझाने पर वह चुप तो हो गयी लेकिन मन ही मन मुझसे और मेरे पिता से कुढ़ने लगी.
          1945. सर्दी का मौसम. एक गुलाबी शाम को मेरा जन्म हुआ. कहते हैं कि बच्चे के जन्म होने से पहले ही उसका भाग्य जन्म ले लेता है. मेरा भी भाग्य दुर्भाग्य बनकर पहले ही जन्म ले चुका था.
          मेरे पिताजी मुझे पाकर बहुत खुश हुए. जन्म के इक्कीसवें दिन में मेरा नामकरण संस्कार हुआ.
          लोग कहते हैं कि नाम में क्या रखा है? लेकिन मैं कहती हूँ कि नाम ही में ही तो सब कुछ रखा है. इंसान का कर्म उसके नाम द्वारा ही पहचान में आता है अन्यथा नाम के बिना इंसान का क्या अस्तित्व...? दूसरी बात नाम का प्रभाव भी इंसान के जीवन में बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखता है. एक बच्चे का पुरा भविष्य उसके माता पिता के हाथ में होता है. हमारे गांव में तब एक ही पंडित हुआ करते थे. दिन को रात या रात को दिन, जो भी वे कहते थे उसी को ब्रह्मवाक्य मान लिया जाता था. पंचांग देखकर, उंगलियों पर कालगणना करके पंडित जी ने कहा कि बच्ची का जन्म मेष राशि, कृत्तिका नक्षत्र में हुआ है. उसके नाम का पहला अक्षर होना है. पूजा विधि करने के पश्चात पंडित जी ने स्वयं मेरा नाम रखा – अहिल्या .एक शापित नाम. नाम का कितना असर पड़ता है यह मुझे साठ साल के बाद पता चला. तब तक बहुत देर हो चुकी थी. जो कुछ मेरे  साथ होना था हो चुका जो कुछ मुझे भुगतना था मैं भुगत चुकी  .....आज मेरा मन जीवन के हर गीले-शिकवे से मुक्त होना चाहता है. इस शाम की बेला में हे मन तू पंछेबन उड़ चल अतीत की उस गली में जहाँ मैं अपने लिये इंसाफ़ के फूल तोड़ लाऊँ.......       
          मैं एक बहुत ही अच्छी बेटी थी. मेरे पिता को मुझसे कभी कोई शिकायत नहीं हुई. शादी के बाद एक अच्छी पत्नी, अच्छी बहू और एक अच्छी मां बनी. इसके बावजूद मैं न एक बेटी बन पायी, न बहू, पत्नी और न ही मां. न मैंने कभी अपना घर त्यागा, न पलायन किया, लेकिन परिस्थिति ने मुझसे सब कुछ छीन लिया. पहले  मैं शास्त्रों को दोष दिया करती थी कि नारी के विरुद्ध कितनी बेड़ियां बनायी गयी हैं. नारी ही धर्म का पालन करे , पतिव्रता बने, व्रत पूजा पाठ करे लेकिन मर्यादा का उल्लंघन होने पर उसे सात पीढ़ी का सत्यानाश करने वाली कहा गया है. अगर मेरे जीवन में विविध घटनाएँ नहीं घटती तो मैं भी यही धारणाएँ रखती.
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बारह साल की उम्र में जीवन के विभिन्न उतार-चढ़ाव देखकर और विभिन्न लोगों से मिलके, तरह-तरह के अनुभवों से गुजरकर मुझमें थोड़ी समझ आने लगी थी. पहले मैं बिल्कुल नहीं बोलती थी लेकिन अब कुछ कुछ बात समझने और बोलने लगी थी. इसका एक कारण यह था कि मेरी जेठानी की बेटी प्रमिला, जो मुझसे एक साल बड़ी थी, मेरी अच्छी दोस्त हो गयी. वह बहुत तेज लड़की थी और कॉलेज जाने कारण बहुत सारी बातें जानती थी. उससे बात करके मुझमें  संचार होता था. वह मेरी सुंदरता की भक्त थी. सुंदर तो वह भी थी लेकिन मुझ जैसे नैन नक्श नहीं थे, न ही वह मुझ जैसी गोरी थी. मगर उसमें एक कशिश थी.

स्कूल से आने के बाद वह अक्सर मेरे पास रसोई में चली आती और अपनी सहेलियों की बातें बताती, कभी अपने टीचर की. धीरे-धीरे मैंने देखा वह अपनी सहेलियों की कम, टीचर की ज़्यादा बातें करती है. आखिर एक दिन उसने अपनी मन की बात बता दी –

“ चाची, मैं आपसे एक बात बतलाती हूँ किसीसे कहना नहीं “

“ नहीं कहूंगी “

“ मैं अपने टीचर को मन ही मन चाहती हूँ “

“ तो इसमें कौन सी छुपाने वाली बात है ?”

“ अरी बुद्धू ! मेरा मतलब है मैं उससे प्यार करती हूँ जैसे तुम मेरे चाचा से करती हो. “
“ प्यार ? यह क्या होता है ?”
“ क्यों,तुम मेरे चाचा से प्यार नहीं करती हो ?”
“ नहीं मैंने सिर्फ शादी की है, मुझे नहीं पता प्यार क्या होता है. “
“ तो सुनो. “ ...... उसने बड़े ही सयाने ढंग से मुझे समझाया. 
प्यार वह भावना है जो हमारे मन में उत्पन्न होता है जब हम अपने मनचाहे शख्स को देखते हैं. यह लड़का – लड़की दोनों तरफ़ से होता है और कभी कभी एक तरफा भी होता है. मैं एक तरफा प्यार करती हूँ क्योंकि मेरे टीचर को मेरे मन की बात का पता नहीं. दिन रात उसी की सोच मन में रहती है. मन में तरह तरह के आवारा ख्याल आते हैं. उठना बैठना, खाना पीना, उसीके बारे में सोचना. अगर वो हमें देखकर मुस्कुरा दें तो हम निहाल हो जायें.
“ तुम इतनी बातें कैसे जानती हो ?”
“ मेरी कुछ बड़ी सहेलियाँ हैं. वे भी लड़कों से प्यार करती हैं, उनसे मिलती हैं और किताब में ख़त छुपाकर उनको देती हैं. “
“ क्या तुमने भी अपने टीचर को ख़त लिखा है ?”
“ हाँ, लेकिन दिया नहीं है. “
“ तो...कब दोगी ?”
“ जब कॉलेज की छुट्टी होगी तो दे दूंगी “
वह और बातें बताना चाहती थी तब तक मनीष आ गया. मनीष जब भी आता मुझे अकेले देखकर मेरा गाल छू देता और मुझे अपनी ओर खींचने की कोशिश करता, मगर मैं उसका हाथ झटक देती. प्रमिला के जाते ही उसने मुझे अपने गले से लगा लिया. मैं उससे छूटने की कोशिश करने लगी कि तभी किसीके पैरों की आहट सुनाई दी. वह मुझे छोड़कर पीढ़े पर बैठ गया और मैं उसे खाना परोसने लगी.
उस रात मुझे नींद नहीं आयी. मैं प्रमिला की बातों पर विचार करने लगी थी. मेरा मन भी जैसे प्यार की अंगड़ाई ले रहा था. लेकिन मनीष का ख्याल मेरे मन में नहीं आता था. मुझे उससे डर लगता था. वह मुझे अकेले पाकर कुत्ते की तरह झपटता था. ... लेकिन प्रमिला तो कहती है जिससे हम प्यार करते हैं हर समय केवल उसी के बारे में सोचते हैं.
उस रात मुझे ज्ञानोदय हुआ था, शादी करना और प्यार करना दो अलग बातें हैं.
कुछ दिनों से मेरे पेड़ू के निचले हिस्से में बहुत दर्द होता था. मैं रात में बिस्तर पर उठ-उठकर बैठ जाती थी, लेकिन अपनी सास से कुछ कहने की हिम्मत नहीं कर पा रही थी. मेरे शरीर के निचले हिस्से में कुछ गीला-गीला सा लगता. चूंकि मैं प्रमिला के ज़्यादा करीब थी इसीलिये जब शाम को वह मुझसे मिलने आयी मैंने अपनी पीड़ा के बारे में बता दिया. उसने तुरंत कहा –
“ इसका मतलब है कि तुम्हें बहुत जल्दी ही मासिक होने वाला है. “
“ मासिक क्या होता है और मुझे क्यों होगी ?”
“ होगी. सभी लड़कियों को होती है, यही तो उसके जवान होने की निशानी है. तुम मां बन सकती हो, बच्चों को जन्म दे सकती हो. “
“ यह कैसी दुनिया की बात कर रही हो प्रमिला ?”
“ यही होता है “
“ तुम्हे कैसे पता “
“ हमारी कक्षा में पढ़ाई जाती है – इसका नाम है मानव शरीर विज्ञान – ठहरो मैं आती हूँ “
वह अपने कमरे में गयी और एक किताब उठा लायी. कुछ पन्ने पलट कर मुझे मानव शरीर का चित्र दिखाया – नंगे स्त्री और पुरुष का. मुझे उसने रजोदर्शन के बारे में विस्तार से बताया. इन सब बातों से मुझे अजीब सा डर और एक प्रकार का झटका लगा.
तीन दिन के बाद प्रमिला की बातें सच निकलीं. मेरा रजोदर्शन हो गया. रात में हुई थी जब मैं गहरी नींद में थी. सुबह उठी तो मेरा सारा कपड़ा लाल रंग का हो गया था. यह देखकर मैं रोने लगी.
मेरे रोने की आवाज़ से मेरी सास जाग गयी.
“ क्या हुआ अहिल्या ? क्यों रो रही है ?”
तभी रोशनी में उसकी दृष्टि मेरे कपड़ों और बिस्तर पर पड़ी.
“ रोने धोने की कोई ज़रूरत नहीं है. उठो कपड़े बदलो. “
सास ने प्रमिला की मां को आवाज़ लगायी. उसे कुछ हिदायत दी. मैं बाथरूम में अपने को साफ़ करके जब वापस आयी तो मेरी जेठानी ने मुझे कुछ नर्म पुराने कपड़े लगाने को दिये और मुझे रसोई में जाने से मना किया. तीन दिन तक मैं हल्की-फुल्की काम करती रही. चौथे दिन मेरी जेठानी ने मुझे नहाने को कहा. मुझे सुंदर नयी साड़ी पहनने को दिया और कहा – “ अहिल्या अब तुम साड़ी पहना करो. सिंदूर की बिंदी रोज लगाना. अब फ्रॉक नहीं पहनना है, किसी भिखारिन को दे देना. “
शाम को कॉलेज से जब प्रमिला आयी तो मुझे साड़ी में देखकर मुझसे लिपट गयी.
“ चाची! तुम देखते देखते कितनी बदल गयी. सुंदर तो हो ही अब और सुंदर दिख रही हो. देखना आज से तुम चाचा के कमरे में सोने जाओगी.”
“ प्रमिला तुम कभी कभी बहुत ज़्यादा बोलती हो, मैं मनीष के कमरे में क्यों सोऊंगी? “ मैं कुछ नाराज़ सी हो गयी.
“ क्योंकि तुम उसकी पत्नी हो. “ मेरी नाराज़गी का उसपर कोई असर नहीं पड़ा. उसने बहुत कुछ कहा जिसे सुनकर मुझे ठंडा पसीना आने लगा.

जैसे भाग्य ने मेरे लिये सब कुछ तय कर रखा था. प्रमिला तो सिर्फ़ एक साधन थी जिसके मुख से भविष्यवाणी हो रही थी.
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                                      छह
ससुराल में हमारा घर बहुत बड़ा था. बारह कमरे का घर. छत अच्छे किस्म के टिन से बड़े ही कलात्मक ढंग से बना हुआ था. बड़ी बड़ी खिड़कियों में शीशे लगे हुए थे. एक बड़ा सा बंद बरामदा, चारों तरफ़ शीशे लगे हुए. ठंड के मौसम में धूप जब छनकर आती तो मेरी सास सुबह का गुनगुना धूप वहीं पर अपनी आराम कुर्सी पर लेट कर लिया करती थी. उसके लिये चाय नाश्ता मैं वहीं पर देती. हमारा घर राजमार्ग के किनारे था, अत: रास्ते में आने-जाने वाले लोग साफ़ नज़र आते थे. मेरी सास की नज़र से कोई नहीं बचता. जब कभी मेरे पिता की गाड़ी उधर से गुजर जाती तो उस दिन मेरी शामत आ जाती. मेरी सास दिन भर मुझे गाली देती रहती. मैं उसकी नाराज़गी समझ गयी थी क्योंकि प्रेमा ने कहा था कि मेरी सास कभी मेरे पिता पर फिदा थी और मेरे पिता ने उसे ठुकरा दिया था. प्रेमा ही ने मुझे बताया था कि मेरी जननी और मेरी सास कभी सहेली हुआ करती थीं. इधर मेरी शादी के बाद मेरी जननी कभी मुझे देखने नहीं आयी थी. लेकिन मेरी नयी मां हज़ार पाबंदी के बावजूद मेरी बहनों को लेकर मुझसे चोरी छिपे मिल लेती थी.
बरामदे में एक बड़ी सी पुरानी घड़ी थी जिसे दीवार पर टांग दिया गया था. उसका पेंडुलम हर एक घंटे में टोंग-टोंग कर बजता रहता. मेरी सास अपनी और मेरी दिनचर्या इसी घड़ी के सहारे तय करती. यह घड़ी एक बड़े सेल से चलती और बिल्कुल सही समय दिखाती... मैंने इसे कभी रुकते हुए नहीं देखा.
इस घर में आये हुए मुझे बारह साल हो गये जिस दौरान मेरे जीवन के दो अभिन्न अंग मुझसे जुड़ गये – यह बड़ी घड़ी और लीची का पेड़. न घड़ी कभी रुकी और न ही कभी मेरे दिन फिरे. अलबत्ता लीची हर साल फलता रहा. हम तीनों सिर्फ़ देने के लिये ही थे, बदले में हमें कुछ नहीं मिलता जबकि हम तीनों को सिर्फ़ अपने जीवन के हिसाब से ख़ुराक चाहिये थी. मुझे पेट भर खाना, तन ढँकने को कपड़ा; वृक्ष को खाद और पानी; घड़ी को अच्छी सेल. हम तीनों में घड़ी की ही नसीब अच्छी थी क्योंकि वह प्राकृतिक वस्तु नहीं था. इंसान चाहे कितना ही स्वार्थी क्यों न हो, आदमी द्वारा बनायी हुई चीज़ों की देखभाल उसे करनी ही पड़ती है. प्राकृतिक चीज़ें अपना खुराक प्रकृति से ले लेती हैं और इंसान अपना जुगाड़ चाहे जैसे भी हो कर लेता है.
मैं सुबह शाम बहुत सारा खाना बनाती क्योंकि बच्चे बड़े हो रहे थे और उनका पेट भी बड़ा हो रहा था. मैं सबको खिलाकर तब खाती. मेरी सास मेरी एक-एक कौर गिनती. मैं जब आटे की रोटी बनाती, एक छुपाकर रख देती थी जिसे घास काटने जाते हुए रास्ते में खाकर पानी पी लेती.
मेरी एक-एक पल की ज़िंदगी रफ़्तार पकड़ने लगी. सहेलियों की मदद से मैंने घास काटना, बोझ बनाना सीख लिया. जीवन के छोटे मोटे गुर भी सीखने लगी. कुछ सखियों ने बतलाया, कुछ मैंने अनुभव से सीखा. घास काटते काटते मैं लकड़ी भी काटने लगी और केरोसीन स्टोव पर न पकाकर मैं चूल्हे पर भी पकाने लगी. स्टोव मैं सिर्फ़ चाय बनाने के लिये और खाना गरम करने के लिये रखती.
मनीष का मेरे साथ पति का रवैया नहीं था. मैं उसके लिये सिर्फ़ एक भोग्या थी, उसके शारीरिक सुख का साधन थी. जब मुझे मासिक होता तब मैं देखती कि वह बेहद हिंसक बन जाता. वह अप्राकृतिक ढंग से मुझसे पेश आता. मुझे उससे घृणा होने लगी.
मुझे पेट का दर्द शुरु हो गया था. मैंने घरेलू दवा की मगर कोई राहत नहीं मिल रही थी. अत: मैं गांव के डिस्पेंसरी में डॉक्टर के पास गयी. जाने से पहले मैंने उसके बक्से से एक नयी कंघी लेकर अपना बाल संवार लिया. शाम को जब वह घर आया तो उसने कंघी मेज़ पर रखी देख ली. उसने मुझसे कुछ पूछे बिना ही मेरी चोटी पकड़कर ज़ोर से खींचकर मुझे ज़मीन पर पटक दिया. मेरे चेहरे पर इतने ज़ोर से थप्पड़ मारा कि चेहरा नीला पड़ गया. उसने मुझे भद्दी गाली दी – “ तुम्हें बाहर कोई आदमी नहीं मिलता जो तुम्हें कंघी दे सके. मेरी चीज़ें अगर दुबारा छूओगी तो हाथ तोड़ दूंगा....कंगाल की औलाद कहीं की...”
मैं पेट दर्द और बाल खींचने के दर्द से दोहरी हो गयी. लेकिन हाय री किस्मत ! मुझे तो एक-एक पल जीना था. समय के साथ-साथ चोट खाते खाते मेरा स्त्रीत्व भी जागने लगा था. मैं अपमानित महसूस करने लगी थी जबकि इससे पहले मैं अपनी नियति समझ कर हर दु:ख आंसू पीकर झेल लेती थी.
खुली हवा और शारीरिक श्रम से मेरा यौवन निखर गया. पच्चीस साल की पूर्ण युवती थी, मेरे समान सुंदरी गांव में कोई भी औरत नहीं थी. सभी मर्द मनीष के भाग्य पर ईर्ष्या करते और मनीष नित्य प्रतिदिन मेरा अपमान करता रहता. कभी रसोईघर में मुझे अकेला पाकर मेरा कपड़ा ऊपर कर देता. एक औरत के लिये इससे बड़ा दु:ख और क्या हो सकता है कि उसका पति ही उसका इस प्रकार अपमान करे. मैं किसीसे ये बातें नहीं बता सकती थी..अपनी सहेलियों से भी नहीं क्योंकि पूरे गांव में बात फैल सकती थी.
कहते हैं कि सबके अच्छे और बुरे दिन आते हैं. मेरे बुरे दिन से ही अच्छे दिन निकलने लगे.
अगस्त का महीना. ईख की कटनी शुरु हो गयी थी. अत: हम सभी औरतें मुँह अँधेरे ही ईख की पत्तियां चुनकर घर आ जातीं. फिर चाय नाश्ता करके लकड़ियां काटने पों बोंजे के घने जंगल कि ओर चली जातीं.
धरती और औरत एक जैसी ही होती हैं – भरी बरसात के बाद जब धूप निकल आती है तो धरती सद्य:स्नाता की तरह निखर जाती है. औरत भी तीन दिन के रजस्राव के बाद प्रथम स्नान करके जब आती है उसके सौंदर्य में अद्भुत निखार देखने को मिलता है.
लगातार सप्ताह भर बारिश के कारण हम कोई भी बाहर घास या लकड़ी के लिये नहीं थीं. उसी दौरान मेरा रजस्राव शुरु हो गया था. जिस दिन बरसात रुकी उसी दिन मैं भी नहाकर, बाल खुली रखकर सखियों के साथ लकड़ी के लिये जंगल की ओर चल पड़ी. लीला ने कहा “ अहिल्या बाल खुला मत छोड़, भूत प्रेत के छूने का डर रहता है. अभी तुम सद्य:स्नाता हो. “
“ मैं इतना बाल , वह भी भीगे, कैसे बांध सकती हूँ. मेरे बाल तो जल्दी सूखते भी नहीं हैं.
“ कुछ भी करो, बांध लो “
अत: मैंने पतली चुनरी से अपने बाल बांध लिये.
जंगल में प्रवेश करते ही औरतें लकड़ी काटने के लिये इधर – उधर बिखर गयीं. लीला ने हाथ में रस्सी सम्भालकर दूसरी तरफ़ जाते हुए मुझसे कहा – “ लीला मैं पश्चिम की तरफ जाती हूँ, तुम इधर नदी के पास लकड़ी काटो...लेकिन अधिक दूर मत जाना. जंगल में आवाज़ लगाना ख़तरनाक है. हम सभी इस नदी के किनारे मिलेंगे. “
मैं जंगल में नदी के किनारे पहली बार आयी थी. पहाड़ से उतरती नदी. बरसात से नदी भरी हुई थी. कल-कल की मोहक आवाज़ मन को मुग्ध कर रहा था. मैं नदी के किनारे किनारे कुछ दूर तक गयी. मुझे पतली और लम्बी लम्बी सीधी, चिकनी चीनी अमरूद के पेड़ मिले. मैं खुश हो गयी और जल्दी जल्दी लकड़ी काटने लगी. आधे घंटे में मेरा ढोने लायक बोझ तैयार हो गया. मैंने उसे खूब कसकर बांध के एक पेड़ के किनारे लगा दिया. मैं अपनी सहेली को आवाज़ देने ही वाली थी कि मुझे याद आया उसने जंगल में आवाज़ देने से मना किया था. मैंने इधर-उधर देखा. इतने में मुझे लकड़ी काटने की आवाज़ सुनाई दी. निश्चिंत होकर मैं नदी के किनारे एक पत्थर पर बैठ गयी और अपने बाल खोलकर पीठ पर फैला दी. पेड़ों के बीच से धूप छनकर पिघली, पतली सोने की लकीर सी पत्तों पर पड़ रही थी. मैंने अपना पैर पानी में डाला और इधर-उधर देखने लगी. पक्षियों की चहचहाहट मन को मोह रहा था. दूर समुद्र का नीला आंचल फैला था. मदिर बहती हवा मेरे माथे पर आये पसीने की बूँदों ठण्डक पहुँचा रही थी. एक जादुई सा वातावरण मेरे चारों ओर फैला था. मुझे हल्की झपकी लग गयी.
न जाने कितनी देर हो गयी थी ! किसी मर्दानी आवाज़ ने मुझे जगा दिया.
Quellejolie femme - desse de jingle “ अर्थात कितनी सुंदर औरत – वन देवी.
मैंने आंखें खोल दीं. मेरे सामने हाथ में बंदूक लिये जंगल का गार्ड खड़ा था. मेरा रंग पीला पड़ गया, गला सूख कर चिपक गया. मैंने मन ही मन कहा हे भगवान अब मैं क्या करूँ ‘.  जल्दी से उठने की कोशिश में मेरा पैर फिसला और मैं नदी में जा गिरी. नदी गहरी नहीं थी लेकिन बरसात का पानी भरा हुआ था. मैं पानी से निकलने की कोशिश कर ही रही थी कि उसने अपना हाथ बढाकर मुझे किनारे खींच लिया. मनीष के अलावा किसी और पुरुष ने अब तक मेरा हाथ नहीं पकड़ा था. लेकिन जब इस गार्ड ने मेरा हाथ छुआ तो मेरे शरीर में एक झटका सा लगा.  पहले तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था कि यह स्थिति आएगी और दूसरी बात यह कि मनीष ने हज़ारों बार मेरा हाथ पकड़ा था, खींचा था लेकिन मुझे कोई भी अनुभूति नहीं हुई थी.
मेरा दिल जोर-जोर से धड़कने लगा. मैं कभी किसी पराये मर्द के सामने न खड़ी हुई थी और न बात की थी. उसने मुझसे कहा “ तुम यहाँ अकेली क्या कर रही हो ? “ मैंने हकलाते हुए कहा “ मैं अकेली नहीं हूँ, मेरी सहेलियाँ भी साथ हैं और भीतर लकड़ी काट रही हैं “.
“ अच्छा !! तुम लोग लकड़ी काट रही हो ? आज पकड़ी गयी. क्या तुम लोगों को पता नहीं यहाँ लकड़ी काटना मना है...जुर्माना देना पड़ेगा ? तुम्हारी लकड़ी कहाँ है ?
मैंने इशारे से पेड़ की ओर दिखा दिया. उसने मुस्कुराकर कहा “ अब तुम मेरे कब्जे में हो. कहाँ हैं तुम्हारी सहेलियाँ ?”
शायद लीला ने गार्ड को देख लिया था और उसने सब औरतों को आगाह कर दिया था. सभी अपनी अपनी लकड़ी छुपाकर स्वयं भी छुप गयीं.
गार्ड ने इधर-उधर देखा मगर कोई आवाज़ न पाकर मुझसे कहा “ तुम्हारी कटनी मुझे दो. “
मैं रुआँसू हो गयी. अगर कटनी गार्ड ले लेगा तो मेरी सास मेरा न जाने क्या हाल करेगी. कटनी जहाँ मैं बैठी थी वहीं पड़ी थी. मैंने उसे दिया नहीं. गार्ड मुझे खूब गहरी दृष्टि से देख रहा था. आसपास कोई आवाज़ भी नहीं सुनाई दे रही थी. मुझे डर लगने लगा.
गार्ड ने कहा “ लगता है तुम अकेली हो. क्या तुम्हें मालूम नहीं कि सरकारी जंगल में लकड़ी काटना मना है ?
मैंने इंकार में सिर हिला दिया.
“ क्या नाम है तुम्हारा ?“
“ अहिल्या “
“ कहाँ रहती हो ?
“ लालमाटी “
“ अच्छा तुम ही बताओ मैं क्या जुर्माना लिख दूँ “
मैं चुप रही. बहुत देर तक मैं चुप रही और वह मुझे एकटक देखता रहा.
मैं मन ही मन लीला को गाली दे रही थी कि मुझे कहाँ फँसा दिया. गार्ड से ज़्यादा मुझे मेरी सास और मनीष का डर लग रहा था. अत: मैंने कहा –
“ मुझे जाने दें, अब मैं कभी लकड़ी काटने नहीं आऊंगी “
उसने मेरी बात पर हँसकर कहा “ सच कह रही हो ?
“ हाँ, मुझे नहीं मालूम था कि इधर लकड़ी काटना मना है “
“ तुम बहुत भोली हो “
“ मैं जाना चाहती हूँ “
“ मैं तुम्हे जाने दूंगा इस शर्त पर कि तुम इस पत्थर पर बैठो और कुछ देर मुझसे बातें करो “
 मैं एक पत्थर पर बैठ गयी लेकिन मेरा दिल जोर-जोर से धड़क रहा था और मेरा ध्यान घर की तरफ़ था. मैं सोच रही थी कि अगर सारी औरतें मुझे छोड़ कर चली जाएँ तो मैं अकेली कैसे घर जाऊंगी,और सास को क्या जवाब दूंगी.
गार्ड भी एक पत्थर पर बैठ गया लेकिन अपना बंदूक कंधे पर टांगे ही रखा. उसने कहा  “ तुम्हारा पति लकड़ी नहीं लाता है ?
मैंने कहा “ वह रोटी, बर्तन और बहुत सारा घरेलू सामान बेचता है. सुबह से निकलकर शाम को ही घर आता है. “
“ तुम्हारे घर में कौन कौन रहता है ?”
मैंने अपने घर के लोगों का पूरा वर्णन कर दिया. सिर्फ़ इतना नहीं बताया कि मेरे पति और मेरी सास का स्वभाव कैसा है.
मैं खड़ी हो गयी – “ अब मैं जाऊँ ?
उसने मेरा हाथ पकड़कर फिर से पत्थर पर बैठा दिया. उसके छूने से मुझे बड़ा ही अजीब सा अहसास हुआ जैसा कि मुझे पहले कभी भी नहीं हुआ था.
मैं नहीं जानती थी कि गार्ड के मन में मेरे प्रति दया का भाव आया या......
उसने मुझसे कहा –
“ तुम रोज़ लकड़ी काट सकती हो और अपनी सहेलियों को भी कह सकती हो लेकिन याद रखना सीधी चिकनी लकड़ी और टेकोमा की लकड़ी मत काटना “.
“ मैं जा रहा हूँ, अपनी सहेलियों को बुला सकती हो, उधर झाड़ी में छुपी हुई हैं.” उसने हाथ के इशारे से घनी झाड़ियों की ओर दिखाया और नदी के किनारे किनारे घने जंगल में गुम हो गया.
एक बुलबुल की क्वी क्वी आवाज़ से जैसे मेरी तंद्रा टूटी. मैं धीरे-धीरे और डरते-डरते घनी झाड़ियों की ओर बढी. लीला को आवाज़ देते ही सभी औरतें एक साथ निकल आयीं.
“ क्या हुआ अहिल्या ? वह गया ? तुम्हारी कटनी तो नहीं छीन ली नासपिट्टा ने ?
“ एक साथ इतना सवाल करोगी तो किसका उत्तर दूँ “
“ लगता है तुमने उसपर जादू कर दिया है “ – एक सहेली ने मेरे हाथ में कटनी देखकर कहा.
“ जल्दी चलो घर, धूप सर पर चढ़ आया है. मेरी सास आज मेरी खाल खींच लेगी. “
समय का ध्यान आते ही सभी औरतों ने अपनी अपनी छुपायी हुई लकड़ी निकाली, गठरी बाँधी और हम घर की ओर चल पड़ीं. रास्ते में कोई बाधा नहीं आयी लेकिन मेरा दिल जोर-जोर से लगातार धड़क रहा था. एक तो घर का डर समाया हुआ था, दूसरा गार्ड की बातें सोचकर.
यह दिन मेरे जीवन का एक अच्छा दिन था. घर आयी तो सास घर में नहीं थी.                 

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दस 
मैं लगभग दो महीने के बाद घर से बाहर निकली. मन में न जाने कैसा कैसा ख्याल आ रहा था, जैसे मैं लकड़ी लेने के लिये न जा कर सिर्फ राम से मिलने जा रही हूँ. इन दो महीनों में वह चौबीसों घण्टे मेरे दिल दिमाग पर छाया रहा था लेकिन मेरे पास इतनी फुरसत नहीं होती थी कि मैं चैन से बैठकर उसके बारे में दो पल सोच सकूँ. घर का काम खत्म ही नहीं होता था. रात में थककर जब मैं अपने कमरे में जाती तो पति का सान्निध्य मुझे कुचल कर रख देता.
ऑक्टोबर का महीना. बहुत सारे खेतों में ईख कट गया था और तेज़ हवा मुक्त होकर बह रही थी, उस चंचल गोरी की तरह जो अभी-अभी जवान होकर खुले मैदान में दौड़ रही हो, निश्चिंत, निडर मानो दुनिया में खुशियों के सिवाय और कुछ भी नहीं है.
खुली हवा में खड़ी होकर मैंने गहरी सांस ली और चारों ओर अपनी दृश्टि दौड़ाई. हर तरफ बड़े बड़े खेत. एक खुला खुला मैदान सा दिख रहा था. ईख के सूखे पीले पत्ते कालीन की तरह बिखरे हुए थे. कहीं-कहीं खेतों में काम भी हो रहा था. औरतें सूखे पत्ते बांधकर लाली बना रही थीं ताकि कटे हुए ईख की जड़ से नयी कोपलें आसानी से निकल आये.
लीला मेरे पास आकर खड़ी हो गयी. “ क्या देख रही हो ? “ उसकी बात ने मेरी तंद्रा भंग कर दी.
“ पता नहीं राम मेरे बारे में क्या सोच रहा होगा ! “
“ चलो जल्दी. खड़ी खड़ी सोचती रहोगी तो बेचारे राम का और क्या हो सकता है....! दौड़ लगाओ, हमारी झुण्ड की औरतें नहीं दिख रही हैं. पता नहीं आज कौन से रास्ते वे जाएंगी “
हम दोनों जल्दी-जल्दी क़दम बढ़ाने लगीं.एक मोड़ पर देखा कि औरतें हमारी राह देख रही हैं. शोभा हमारी झुण्ड में सबसे बड़ी थी. उसने मुझसे कहा –
“ अहिल्या ! आज हम सभी औरतें सालाज़ी की तरफ जा रही हैं. उधर कपूर का अच्छा जंगल है, हमें आने में देर हो सकती है. “ उसने एक लाल रीबन अपनी चोटी से खोलकर पेड़ की जड़ में घास में छुपा दिया और कहा –
“ अगर तुम पहले आओगी तो यह रीबन लेकर घर चली जाना और अगर हम पहले आ गयी तो तुम्हारा इंतज़ार करेंगी “
इतने में मैंने राम को आते देख लिया. सारी औरतें अपनी राह चल दीं. लीला भी मुझे चिकोटी काटकर उन लोगों से जा मिली.
राम मेरे सामने आकर खड़ा हो गया. हम एक दूसरे को अपलक देखते रहे. मेरे मन में कहने के लिये बातें समुद्र सी हिलोरें ले रही थी लेकिन उसे सामने पाकर सारे शब्द बर्फ बन गये. उसकी तरफ भी शायद यही हाल था. तभी तो वह चुप था. नीचे ढलान में ईख से भरी हुई एक लॉरी की आवाज़ से हमारी तंद्रा भंग हुई. राम ने बड़े प्यार और तरलता से कहा – “ अहि !“
जब मैंने उससे नज़रें मिलायी तो जैसे सारी कायनात का दर्द उसकी आंखों में समाया हुआ था. मुझसे बोला “ चलो चलते हैं. मैं तुम्हें आज स्वर्ग में ले चलूंगा “
वह मुझसे बहुत सारी बातें करता रहा और मैं धड़कते दिल से उसकी बातें सुनती रही. जब उसने मेरा हाथ पकड़कर कुछ ऊंचाई पर चढ़ाया तब कहीं जाकर मैं अपनी स्वाभाविक स्थिति में आयी. कुछ चढ़ाई चढ़कर हम फीडर कनाल के किनारे किनारे चलने लगे. मैंने राम को सादे कपड़े में देखकर कहा – “ आप यूनिफॉर्म नहीं पहने हैं ?
“ लीला ने मुझसे वादा किया था कि आज जरूर तुम्हें यहाँ लायगी इसीलिये आज मैंने छुट्टी ले ली है “             
“ अगर मैं नहीं आती तो ?
“ तो क्या होता, इसी तरह रोज़ तुम्हारा इंतज़ार करता रहता “
उसने मुझे बाहों में भरकर चूम लिया.
“ छोड़ो भी; अगर कोई आ गया तो ?
“ कोई नहीं आयेगा. तुम जानती हो हम कहाँ हैं – 32 ड्रॉप्स की तरफ. देख नहीं रही हो जंगल कितना घना है “
राम के साथ सच में मुझे पता ही नहीं चला हम कहाँ आ गये थे. मैंने अपनी नज़र चारों तरफ दौड़ाई. जंगल इतना घना कि कहीं कहीं दिन में भी घुप्प अँधेरा था. कनाल बहुत सारे मोड़ से होकर गुजर रहा था. कहीं तो एकदम संकरा हो जाता था. मैं कुछ डर सी गयी और एक मोड़ पर ठिठक गयी.
राम ने हाथ पकड़कर कहा – “ डरो नहीं अहि ! “
“ हम कहाँ जा रहे हैं “ कुछ आशंकित होकर मैंने पूछा.
“ मैंने तुम्हें कहा था न स्वर्ग “
वह मेरा हाथ थामे थोड़ी चढ़ाई चढ़ने लगा, मैं सम्मोहित सी उसके साथ चलने लगी. झाड़ियों में कुछ आहट सी हुई. मैं डर कर राम से लिपट गयी. उसने हँसकर मेरे कंधे थपथपाकर कहा – “ उधर देखो, एक हिरन “ मैंने देखाएक बहुत ही सुंदर हिरन हमें अपनी बड़ी बड़ी पनीली आंखों से देख रहा था. उसके सर पर चार सींग थे और वह जवान, बहुत ही सुंदर जीव था.
मैंने पहली बार इस जंगल में हिरन देखा. राम ने कहा – “ शिकार का मौसम बंद हो गया है तभी तुम इसे देख रही हो. लेकिन इधर इस जगह पर शिकार करना मना है. इसीलिये तुम्हे इधर बहुत सारे हिरन के झुण्ड देखने को   मिलेंगे “
“ क्या इधर लोग नहीं आते हैं ?  यहाँ रास्ता भी तो नहीं है “
“ लोग 32 ड्रॉप्स के पार नहीं आते “
बातें करते करते हम बहुत ही घने जंगल में आ गये. पास ही कहीं से झरने की आवाज़ आ रही थी. नदी के कल कल की आवाज़ से मुझे प्यास लग गयी थी. वैसे भी चलते चलते काफी गरमी लग रही थी.
“ थोड़ा सब्र करो, मैं तुम्हें एक जगह दिखाता हूँ – अपनी आँखें बंद करो “
मैंने अपनी आंखें बंद की. राम ने मुझे कुछ कदम चलाया, फिर कहा “ अब अपनी आंखें खोलो ”
जब मैंने आंखें खोलीं तो मेरा मुँह आश्चर्य से खुला का खुला रह गया. मेरे सामने एक जलप्रपात था जो पूरे वेग से ऊपर से गिर रहा था. चाँदी सा तरल पानी – मैं नीचे उतर गयी और उसके नीचे आ गयी. पानी के छीटों से मेरा पूरा बदन भीग गया. मैंने खूब पानी पिया और अपनी लटों को खोल दिया. मेरे बाल बहुत लम्बे और घने थे. पानी के छींटे पड़ने पर वे और भी लम्बे दिखने लगे. मैं पानी से खेलने लगी. यह भूल गयी कि मैं कौन हूँ और कोई मुझे एकटक देख रहा है. मैं तो झरने के पानी में मिलकर उसके साथ एकाकार हो रही थी. ऊपर से झरने का पानी गिर रहा था, इधर मेरे मन में प्यार का झरना फूट पड़ा था. उस वक़्त सिर्फ मैं थी, प्रकृति थी, झरना था और मेरा अमर प्रेमी था जो मुझे जन्मों जन्मों से इसी प्रकार निहार रहा था.
“ अहि, बस भी करो, चलो बहुत भीग गयी हो .“ राम ने अपना हाथ बढ़ाकर मुझे अपनी तरफ खींच लिया.
“ अब चलो मैं तुम्हें एक और जगह ले चलता हूँ “
कुछ और घने जंगल में हम चले. लगभग दस मिनट के बाद मैंने एक बहुत ही सुंदर कुटिया देखी. लकड़ी और पत्तों की बनी हुई. हल्का-हल्का अँधेरा. कभी घने पेड़ों के बीच से सूर्य की किरणों की पतली रेखा दिख जाती थी, लेकिन हवा के चलते ही वे गायब हो जातीं.
मैंने राम से कहा इस बीहड़ जंगलमें किसकी कुटिया है. राम ने उसका दरवाजा खोलकर भीतर खींच लिया. “ यह हमारा है. इन दो महीनों में मैंने तुम्हारे लिये तैयार किया था. “
मेरी आंखें जब अंधेरे की अभ्यस्त हो गयीं तो मैंने देखा भीतर ज़मीन पर जंगली फूलों की कालीन बिछी हुई है – बहुत सारा फूल जैसे कोई शैया हो. राम ने कहा – “ ये सारे फूल मैंने तुम्हारी याद में चुन चुन कर रखा है . “
उसने मेरे भीगे हुए सारे कपड़े एक एक कर उतार दिये और कुटिया में टांग दिया. मैंने कोई आपत्ति नहीं की. उसने मुझे अपनी बाँहों में उठाकर फूलों भरी ज़मीन पर लिटा दिया और अपने भी सारे वस्त्र उतार कर मेरेबगलमें लेट गया. कुटिया में अँधेरा था. हम एक दूसरे को सिर्फ हाथों से और एक दूसरे की इंद्रियों से महसूस कर सकते थे. फूलों की खुशबू और राम के हाथों का कोमल स्पर्श मेरे अंग-अंग में अमृत घोल रहा था. मेरे मन की जो प्यास मेरे लिये अजनबी थी उसका परिचय मुझे होने लगा. राम ने मेरे कानों में मधुर रस घोलते हुए कहा –
“ अहि, मैं आदम और तुम हव्वा हो. तुम अपने आपको भूलकर मेरी बाँहों में समा जाओ. आज हम मिलकर ऐसे एक हो जाएँ जैसे फूल और खुशबू. अपनी रसना को मेरी रसना से मिलने दो और अपने अंगों को मेरे अंगों में पिघलने दो...कुछ मत बोलो...इस घड़ी को प्रेम रस में डूब जाने दो. “
मैं प्रेम रस में पिघलकर उसकी बाँहों में बहने लगी. मेरे शरीर में इतना आनंद था, इसका आभास मुझे कभी नहीं हुआ था. राम जैसे मेरे एक एक अंग से प्रेमरस की धारा बहा रहा था और मैं आनंद विभोर हो रही थी. मेरा मन-प्राण  तृप्त हो रहा था और उस क्षण मेरे शरीर में मानो सहस्र कमल खिल गये. कृतार्थ होकर मैंने राम को जोर से भींच लिया और धरती आकाश स्थिर हो गये, हवा थम गयी, नदी झरना बहना भूलकर हमारे साथ पूर्णानंद की स्थिति में आ गये.

मैं अपनी सहेलियों का अहसान कभी नहीं भूल सकती. दोपहर हो गया था. सूरज पश्चिम की राह पर था. जब हम वापस आये तो सारी औरतें पेड़ की छाया में बैठी हमारी राह देख रही थीं. मुझे देखते ही सभी चहक उठी ‌‌-
“ अहिल्या ! हमारा तो प्राण ही सूख रहा था कि हम तुम्हे ढूँढ़ने कहाँ जाएँ. तुम्हे छोड़कर घर जाने का सवाल ही नहीं उठता. फिर सोचा था कि कहीं तुम चली तो नहीं गयी, लेकिन रीबन तो अपनी जगह पर ही है “
मुझसे पहले राम ने शोभा को जवाब दिया – “ तुम्हारी सहेली मेरी हिफ़ाजत में थी. भला मैं तुम लोगों को कैसे निराश करता. लो तुम्हारी सहेली अब तुम लोगों की जिम्मेदारी “
उसने मेरी लकड़ी की गठरी ज़मीन पर रख दी और चला गया. हमें एक दूसरे को कुछ कहने की ज़रूरत नहीं थी. हमारे मन अब एक दूसरे से बातें कर रहे थे.
जब मैं घर आयी तो मेरे अंग अंग से खुशी झलक रही थी. मैंने बाथरूम में घुसकर नल खोल दिया. अपने सारे कपड़े उतारकर मैं आंखें बंद करके उस पल का आनंद लेने लगी और मन ही मन कह रही थी “ हाँ मैं औरत हूँ.मैं भी प्यार के काबिल हूँ, मुझे भी प्यार करने वाला कोई है. मैं उपेक्षित नहीं हूँ. इस धरती में मेरी भी अहमियत है...” और मेरे मुँह से कई बार राम ...राम  निकल गया.
मैं ठण्डा पानी अपने अंगों पर डालने लगी. मेरा शरीर तपने लगा. जी चाह रहा था कि राम आ जाये और मुझे फिर से अपनी बाँहों में लेकर सौ बार रमन करे. तभी माँ माँ की आवाज़ आयी. मैं जल्दी से कपड़े पहन कर बाहर आ गयी. मेरी सास ने मेरे बेटे को मुझे बुलाने के लिये भेजा था. उसकी कोई सहेली आयी थी, चाय बनाना था.
उस दिन मैंने अपने बालों में एक फूल लगाया और गहरी लाल बिंदी लगायी. पहले मैं हल्के पीले रंग के सिंदूर का टीका लगाती थी लेकिन अब मेरे प्यार का रंग गहरा होकर मेरे माथे की शोभा बढ़ा रही थी.   
रात में मनीष मेरी लाल बिंदी देखकर साँड़ की तरह भड़क गया. मेरे बालों का फूल नोचकर ज़मीन पर फेंक पैर से कुचल दिया. वह शराब पीता था मगर बहुत कम. फिर भी रोज़ उस पर हल्का-हल्का नशा रहता था. इस स्थिति में वह ज़्यादा ख़तरनाक होता था. वह मेरे शरीर से सारे कपड़े नोंच देता था. मुझे प्यार के शब्द न बोलकर अश्लील गाली दे देकर मेरे हर अंग को दांत से काटता था. कुछ दिनों से मैंने देखा था कि वह जल्दी ही स्खलित हो जाता था. उसके बाद मेरे साथ अप्राकृतिक ढंग से पेश आता था. मैं विरोध करती तो मेरे बालों को अपने हाथ में लेकर मुझे मारता. इतना दर्द होता कि कभी कभी मैं बेहोश हो जाती. वह मेरे बेहोश शरीर को भी नहीं बख्शता. सुबह मेरा शरीर बुरी तरह टूटता.
इधर राम के साथ जंगल में, जो मेरे लिये एक उपवन था, मैं रमन करती. मैं दिन में प्रेम का अमृत रस पीती और रात में अपने पति के वासना का विष पीती. मैं एक ही शरीर में दो औरत की ज़िंदगी जी रही थी. इसी विरोधाभास ने मुझे क्या से क्या बना दिया !!

(कुंती मुकर्जी के शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास ‘अहिल्या’ से)

Wednesday, 7 May 2014

डोडो के देश में गौरैया


मॉरिशस हिंद महासागर में स्थित एक छोटा सा टापू है. यों तो इसका इतिहास बहुत पुराना नहीं है फिर भी यह देश इडेन गार्डन से कुछ कम नहीं है.
      975 AD में अरब के समुद्री डाकुओं ने इसकी खोज की और इसका नाम रखा दीनारोबी’. यह देश उनके द्वारा लूटे गए खज़ानों का गढ़ हुआ करता था.
     सन् 1507 में पुर्तगालियों का आना जाना जब इस देश में शुरु हुआ तो उनके साथ ही आये छोटे छोटे घरेलू पक्षी गौरैया. इन पक्षियों को यहाँ का वातावरण और मौसम इतना रास आया कि देखते ही देखते ये मॉरिशस के वन उपवन में बस गये.
     1638 में डचों ने अपना कदम मोरिशस की धरती पर रखा. लेकिन उन्हें यहाँ के मौसम ने बहुत नुकसान पहुँचाया. कुछ साल रहने के बाद वे यहाँ से भाग खड़े हुए और जाते जाते यहाँ के आदिवासी पक्षी (डोडो) का सफ़ाया कर गये जो विश्व में एकमात्र मॉरिशस में ही पाये जाते थे.
     1715 में फ़्रेंचों का आगमन हुआ और वे यहाँ एक समृद्ध राष्ट्र बनाने में सफ़ल हुए. उनके इस द्वीप में सौ वर्षों के अवस्थान के बाद अंग्रेज़ों ने उन पर आक्रमण किया और इस देश को जीत लिया. तारीख बदलती रही, उपनिवेश बदलते रहे मगर गौरैया इन बातों से अंजान इस सुंदर टापू में फलते फूलते रहे.
     1810 के बाद से मोरिशस की हुकूमत ब्रिटिश सरकार के हाथ में आ गयी. वे भारत से गिरमिटिया मज़दूर लाये. ये मज़दूर गन्ने के खेतों में काम करते. इन लोगों की झोपड़ी का छाजन गन्ने के पत्तों का होता था. गौरैया पक्षी इंसान के आस पास रहना ज़्यादा पसंद करते हैं तभी तो इन्हें घरेलू पक्षी कहा जाता है. भारी संख्या में देश भर में झोपड़ियाँ देख कर गौरैया वनों को छोड़कर इंसान की झोपड़ियों के छाजन में अपना बसेरा बनाने लगे. वे इंसान के घर के बचे-खुचे दाना खाते और आँगन में फुदकते रहते. मज़दूर भी इन नन्हें साथियों को पाकर अपनी माटी से बिछुड़ने का दु:ख धीरे धीरे भूलने लगे और इसी मिट्टी में रच बस गये. पीढ़ी बदलती गयी.



1968 में मॉरिशस अंग्रेज़ों की ग़ुलामी से आज़ाद हुआ और यहाँ का शासन मॉरिशस वासियों के हाथ में आ गया. प्रगति ने अपना पाँव फैलाना शुरू किया. कल तक झोपड़ी में रहने वाले मज़दूर कांक्रीट के घर में आ गये. उनके साथ ही साथ इंसान के साथी गौरैया पक्षी भी उनके घर आ गये. इंसान को यह बात अच्छी नहीं लगी कि उसके आलीशान मकान के रोशनदान में ये पक्षी रहें. गौरैया को आस पास की छोटी छोटी झाड़ियों में शरण लेनी पड़ी. परिणाम यह हुआ कि आये दिन उनके अण्डे और चूज़े बिल्ली और नेवले के शिकार होने लगे. गौरैया ने चीख चीख कर अपने मानव साथी से रक्षा की गुहार की मगर मानव अपनी सफ़लता की राह में इतनी तेज़ी से भाग रहे थे कि उसकी शोर में उसके नन्हें साथी की चीख डूब गयी. रहा सहा कसर तूफ़ानों ने पूरी कर दी.
     इक्कीसवीं सदी. मॉरिशस देश का एक आधुनिक गाँव का हाई फ़ाई स्कूल. अध्यापक ने श्यामपट पर लिखा. गौरैया’. और बच्चों से कहा-‘’बच्चों इस छोटी सी प्यारी पक्षी पर एक निबंध लिखो. जिसका निबंध सबसे अच्छा होगा उसे इनाम मिलेगा और देश के मशहूर बाल पत्रिका में उसका निबंध छपेगा.’’  लेकिन बच्चे खुश होने के बदले दुखी हो गये. एक बच्चे ने साहस कर के कहा-‘’सर हम तो इस पक्षी के बारे में कुछ जानते ही नहीं न हमने इनको कभी देखा है.’’ अध्यापक को भी एक झटका लगा. उन्हें याद आया कि विदेश से शिक्षा पूरी करने के बाद जब से वह स्वदेश लौटे हैं उन्होंने एक भी गौरैया पक्षी को अपने आंगन में फुदकते नहीं देखा है. उन्हें अपना बचपन याद आया जब उनकी दादी आँगन में बैठकर चावल बीनती और चावल के छोटे छोटे दाने आँगन में बिखेर देती जिन्हें गौरैया फुदक फुदक कर चुगती थी. उसके
चहकने की आवाज़ बहुत मीठी होती है. दादी  यह भी बतायी थी कि नर गौरैया के कंठ के नीचे काले निशान होते हैं और मादा भूरे मटमैले रंग के होते हैं. अध्यापक को विचारों में खोये देखकर बच्चे ने कहा - ‘’सर क्या हम डोडो पक्षी की तरह ही गौरैया को भी गँवा दिये हैं.’’
     ‘’नहीं बच्चों! हम ऐसा नहीं होने देंगे. कल से हम गौरैया बचाओ अभियान शुरू करेंगे. अपने इन नन्हें साथियों को जंगल-जंगल ढ़ूँढ़ने जाएँगे. उनके लिये अपने बागों में घोंसले बनाऐंगे, उनके अण्डे और चूज़ों की रक्षा करेंगे. हम उन्हें पुनः अपने आवास में लेंगे.’’
बच्चों ने अपनी कॉपी में लिखा - डोडो पक्षी की तरह हम गौरैया को लुप्त नहीं होने देंगे.

कुंती मुकर्जी
37,रोहतास एन्क्लेव,
फैजाबाद रोड,
लखनऊ-226016.
Mobile no.9717116167.

Tuesday, 6 May 2014

हलीम ‘आईना’ की 2 व्यंग्य कविताएँ


दीक्षा-मंत्र


नियमों के नियामक

सिद्धान्तों के रक्षक

आमजन हितैषी

अर्थात् देश में परदेशी,

नये-नये

आला अफसर को

तब लगा जोर का झटका,

जब पी..ने

एक माह बाद ही ट्रांसफर-फैक्स

टेबल पर लाकर पटका।

साहब हैरान, परेशान!

मन ही मन बोले- ‘‘वाह रे भगवान!
ईमानदारी का यह इनाम...?’’

तभी अनुभवी बूढ़े पी..ने
गुरूमंत्र कान में फूंका-
‘‘
साहब गाँधीगिरी को छोड़कर
फ्रेम-पेटर्न को समझो,
आपकी ईमानदारी का फोटो
बेईमान तंत्र के फ्रेम में
नहीं रहा है,
फ्रेम में फिट करने के लिए
आपको
राजधानी भिजवाया जा रहा है।
होली-दीवाली
तीज-त्यौहार राजनैतिक तांत्रिकों के
चरण दबाओगे,
तो कुएं में भांग
घोलने का मंत्र
स्वतः सीख
जाओगे...?’’



नेक सलाह

थानेदार जी ने
चोर को डाँटा,
सीधी अँगुली से
घी नहीं निकला तो
मार दिया चाँटा।

गालियों की बरसात
करते हुए चीखे-
‘‘
अबे, उल्लू के पट्ठे !
तूने थाने के सामने ही
चोरी क्यों की थी ?’’

चोर सुबकते हुए बोला-
‘‘
सच्ची-सच्ची
बताऊँ सर !
यह नेक सलाह मुझे
एक पुलिस वाले ने ही
दी थी ...?’’

-

Monday, 21 April 2014

बृजेश नीरज की 3 कवितायेँ


कुछ जरूरी बात

छोड़ो
गेंदे और गुलाब की बातें
बोगंबिलिया के फूलों पर तो
मधुमक्खियाँ भी नहीं बैठतीं

चलो, बात करते हैं
ध्रुवों पर पिघलती बर्फ की
दरकती चट्टानों की
धँसती जमीन की

खोजते हैं कारण कि
क्यों बढ़ती जा रही है
घरों में दीवारों की सीलन;
हल्की से गर्मी में भी
क्यों पिघलती है सड़क

सोचते हैं  
साँसों में बढ़ती खड़खड़ाहट
गले में रुंधती आवाज़
आसमान के बदलते रंग के बारे में  

इस कठिन समय में
जब पेड़ों से पत्ते लगातार झड रहे हैं
सीना कफ़ से  जकड गया है
बाजू कमजोर हो रहे हैं,
कविता को
सुन्दर फ्रेम में मढ़कर
ड्राइंग रूम में सजाने के बजाय
करनी है कुछ जरूरी बात

-

सावधान!

तुम बाँध देना चाहते हो कलम
लेकिन इन शिराओं में बहते रक्त को नहीं बाँध पाओगे
यह बहेगा
शिराओं में नहीं तो बाहर

जब तक बहेगा
तुम्हारे लिए सैलाब लेकर आएगा

-

सम्हलो!

इस तप्त माहौल में भी
तुम
बांसुरी की तान में मग्न हो

यह बांसुरी इस माहौल को ठंडा नहीं करेगी

सुनो,
शिखरों पर जमी बर्फीली चट्टानों के दरकने की
आवाज़
बर्फ पिघल रही है
पिघल रही हैं सड़कें
पिघल रहे हैं शरीर
मोम के पुतले की तरह

सैलाब उमड़ रहा है
इस सैलाब में बहते जा रहे हैं
पेड़, पत्ते, फूल
मंदिर-मस्जिद-गिरिजाघर
बाज़ार-महल

अभी यह अट्टालिका भी बहेगी
जिस पर खड़े तुम सुन रहे हो बांसुरी की तान
सम्हलो!

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बृजेश नीरज का जन्म 19-08-1966  को लखनऊउत्तरप्रदेश में हुआ | इनकी प्रारम्भिक शिक्षा लखनऊ में हुई. लखनऊ के राजकीय जुबिली इंटर कॉलेज से इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण की. विज्ञान स्नातक डी.ए.वी. डिग्री कॉलेज से किया तत्पश्चात एल.टी ट्रेनिंग के बाद लखनऊ विश्वविद्यालय से एम.एड. और विधि स्नातक किया. नीरज बताते है कि- उन्हें साहित्य और संगीत प्रारम्भ से ही आकर्षित करता रहा. इंटर की पढाई के दौरान ही लेखन की शुरुआत हुई. विश्वविद्यालय के जीवन के दौरान सामाजिक कार्यों और छात्र राजनीति में भागीदारी हुई. उसी समय सबसे अधिक अध्ययन हुआ. गांधी से लेकर मार्क्स तक और धूमिल से लेकर गोर्की तक को पढ़ा. गांधीवादी सिद्धांतों ने सबसे अधिक प्रभावित किया. छात्र राजनीति में गाँधी के सिद्धांतों को अपनाने का प्रयास हुआ. समय के साथ साहित्य मन में बसता चला गया. साहित्य जहाँ मुझे परिष्कृत करता है वहीँ शांति भी प्रदान करता है |
प्रकाशन- एक कविता संग्रह प्रकाशित इसके अलावा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं आदि में रचनाएँ प्रकाशित |
सम्प्रति- उ0प्रसरकार के कर्मचारी।
निवास- 65/44, शंकर पुरीछितवापुर रोड,  लखनऊ-226001
मो- 09838878270
ईमेल- brijeshkrsingh19@gmail.com

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Thursday, 10 April 2014

लेट गाड़ी और मुरझाता हार (व्यंग्य)- यश मालवीय


अजीब हाल है इन भारतीय रेलों का भी। बड़े भाई ने सोचा था कि रिज़र्वेशन है ही, दिल्ली तक का सफ़र सोते हुए कट जाएगा, सो जाते ही बिस्तर लगाकर लंबलेट हो गए थे। खर्राटे भी ऐसे कि इंजन मात खाए, पर हाय री किस्मत! सुबह सोकर उठे, तो गाड़ी उनके अपने स्टेशन पर ही अंगद की तरह खड़ी हुई थी, मजाल क्या कि टस से मस भी हुई हो। दिन भर धक्के खाना उनके नसीब में था, तो कोई करता भी क्या? यों भी दिल्ली अकसर ही दूर हुआ करती है, कई बार उनके लिए भी, जो दिल्ली में ही रहा करते हैं। ख़ैर! यह तो हुई बड़े भाई की फजीहत।

अब इन जानिब की सुनिए! अभी पिछले सप्ताह की ही बात है। कंपनी के 'ताड़न के अधिकारी' तशरीफ़ ला रहे थे। सबको अपने इनक्रीमेंट की चिंता थी, सो मुझे भी थी। गाड़ी सुबह सात बजे ही प्लेटफ़ार्म पर आ जानी चाहिए थी। मैंने मन ही मन बॉस के ज़ोरदार स्वागत की तैयारी सुनिश्चित कर ली। मोहल्ले के माली को पकड़ा और गुलाब की एक आदमक़द माला तैयार करवाई।

सोच में लड्डू फूट रहे थे, सुनहरे भविष्य के। नेहरू जी के अचकन में तो एक ही गुलाब हुआ करता था, बॉस को अर्पित की जाने वाली माला में तो गुलाब ही गुलाब थे। पूरी गुलाब की खेती ही मौजूद थी। अपने प्रमोशन का सपना कुहरे भरी सुबह में देखता हुआ, मैं स्टेशन की राह पर था। हाथपाँव सर्दी से गल रहे थे, मगर दिल में 'हुमहुम' बज रहा था। बॉस के सामने गुलाब के हार के साथ प्रस्तुत होने की कल्पना मात्र ही रोमांचित कर रही थी, गर्म कर रही थी मंसूबों को। भाप छोड़ता मुँह केतली हो गया था, उत्साह आसमान छू रहा था।

स्टेशन पहुँचते ही 'इनक्वायरी' की तरफ़ लपका मगर यह क्या? गाड़ी पूरे दो घंटे लेट थी। मैंने मायूस होकर हँसते हुए गुलाबों की तरफ़ देखा, वह जैसे मुँह चिढ़ा रहे थे। मैं बेचारा क्या करता, इंतज़ार करने के सिवा। स्टेशन पर ही चायकॉफी के सहारे समय काटता रहा, सहता रहा पत्र विक्रेताओं की झिड़कियाँ, फिर भी उलटतापलटता रहा मुफ़्त में ही पत्रपत्रिकाओं के पृष्ठ। ख़रीदने की समाई तो नहीं रह गई थी, क्यों कि पूरे दस रुपए की माला ख़रीद चुका था।
गाड़ी के लेट से आने का समय भी नज़दीक आ रहा था कि एक खनकती हुई आवाज़ ने माइक्रोफ़ोन पर खखारा, खड़ी कमबख़्त एक घंटा और लेट हो गई थी। गुलाब के फूल कुम्हला रहे थे। मन भी कुम्हला रहा था। मैंने गुलाबों के मुँह पर छींटे दिए। अपना मुँह भी धोया। दोनों तरफ़ थोड़ीथोड़ी देर के लिए ताज़गी आई। बीतते न बीतते एक घंटा बीता कि फिर माइक्रोफ़ोन खखार उठा। गाड़ी इस बार डेढ़ घंटे लेट हो गई थी। मेरा चेहरा लटक गया। गुलाब के ढेर सारे चेहरे लटक गए।

मैं स्टेशन के बाहर आ गया, एक नए और ताज़ा हार की तलाश में। चारों तरफ़ गर्दगुबार था। धूल उड़ रही थी। ईटपत्थर बिछे थे। वहाँ मालाफूल के लिए कोई गुंजाइश नहीं थीं। मुझे उन्हीं मुरझा रहे फूलों के हार से बॉस को खुश करना था। कुछ मेरी जैसी व्यथा ही उन युवकों को भी थी, जो उसी ट्रेन से आ रहे किसी केंद्रीय मंत्री के स्वागतार्थ आए थे। उन्हें भी अपनेअपने भविष्यों की चिंता थी। इसकाउसका ज़िंदाबाद करने वाले इन युवकों में बहुत से बेरोज़गार थे, जो राजनीति से ही रोज़गार की आशा लगाए थे। अगले चुनावों में उन्हें एम. एल. ए., एम. पी. का टिकट मिलने की उम्मीद थीं, पर वे बेचारे क्या करते! उन सबके हार भी मुरझा रहे थे। मैं मुरझाते हुए हार की फिक्र में था कि फिर माइक्रोफ़ोन खखारा।

जनवासे की चाल से आ रही गाड़ी इस बार पौन घंटे लेट हो गई थी। गाड़ी रुके हुए डी. ए. की तरह लेट होती जा रही थी। 'जो मंज़िल ये पहुँचे, तो मंज़िल बढ़ा दी' वाली स्थिति हो गई थी। कभी दो घंटा, तो कभी एक घंटा, कभी पौन घंटा, तो कभी आधा घंटा, गाड़ी विलंब से आने की सूचना सुनतेसुनते शाम झुक आई थी। गुलाब के फूलों के चेहरे पूरी तरह से उतर गए थे।

बहुप्रतीक्षित ट्रेन धीरेधीरे पराजित पोरस की तरह प्लेटफ़ार्म पर लग रही थी। स्टेशन पर थकाथका, हारा-सा ज़िंदाबाद गूँज रहा था। गाड़ी हृदयगति की तरह रुक रही थी। इतने में मंत्री महोदय प्रकट हुए, लपककर युवकों ने मुरझाए फूलों के हार उनके गले में डाल दिए। मंत्री महोदय ने नाक सिकोड़कर उन्हें उतारकर अपने हाथ में पहन लिया। मालाओं की भूमिका शेष हो चुकी थी। मैं अपनी कुम्हलाई हुई माला लिए अभी तक प्लेटफ़ार्म पर इस छोर से उस छोर तक भाग रहा था कि इतने में साहब का 'स्पेशल मेसेंजर' दिखाई पड़ा। ख़बर मिली कि अर्जेंट मीटिंग के कारण बौस ने अपना दौरा ही रद्द कर दिया है। मैंने गुलाब का हार अपने हाथों में ही मन की तरफ़ मसोस लिया और भारी कदमों से घर की ओर लौट पड़ा।
प्रमोशन का सपना धूल में मिल चुका था।



संपर्क- रामेश्वरमए-111, मेंहदौरी कॉलोनी, इलाहाबाद-211004 (उत्तरप्रदेश)

गाँधी होने का अर्थ

गांधी जयंती पर विशेष आज जब सांप्रदायिकता अनेक रूपों में अपना वीभत्स प्रदर्शन कर रही है , आतंकवाद पूरी दुनिया में निरर्थक हत्याएं कर रहा है...