मनुष्य
का
जन्म
सामाजिक
परिवेश
में
होता
है।
इस
सामाजिक
परिवेश
के
अपने
कुछ
विशिष्ट
नियम
और
संस्कार
होते
हैं
और
मनुष्य
इनमें
बंधा
होता
है।
इससे
बाहर
जाकर,
इससे
विलग
होकर
व्यक्ति
का
अपना
कोई
अस्तित्व
नहीं
होता।
अपने
व्यक्तिगत
जीवन
को
मनुष्य
समष्टिगत
दायित्वों
के
सामने
सदैव
पीछे
रखकर
चलता
है।
समष्टिगत
मूल्य,
व्यक्तिगत
मूल्यों
से
सदैव
अधिक
महत्त्वपूर्ण
और
महत्तर
स्थान
रखते
हैं।
मनुष्य
अपने
सामाजिक
और
सांस्कृतिक
जीवन
में
एक
प्रकार
का
सामंजस्य
बिठाता
है
और
अपने
जीवनमार्ग
को
सुगम
बनाता
है।
परंतु
कभी-कभी
ऐसी
परिस्थितियाँ
भी
आती
हैं
कि
व्यक्ति
अपने
बाह्य
शारीरिक
आवरण
से
आंतरिक
शरीर
को
कुछ
अलग-सा
महसूस
करता
है।
ऐसी
विशेषताएँ
और
विरूपताएँ
व्यक्ति
को
नर
और
नारी
के
रूप
से
अलग
जाकर
‘ट्रांसजेंडर’
की
उपाधि
से
अभिहित
करती
हैं।
ट्रांसजेंडर
उन्हें
माना
जाता
है
जो
अपने
प्राकृतिक
लिंग
के
अनुसार
आचरण
न
करके
उससे
विपरीतलिंगी
आचरण
करते
हैं।
ट्रांसजेंडर
समाज
में
अनेक
रूपों
में
पाये
जाते
हैं।
इनमें
मुख्य
रूप
से
हिजड़ा,
किन्नर,
गे,
लेस्बियन,
हेट्रोसेक्सुअल,
बाईसेक्सुअल
आदि
सम्मिलित
किए
जाते
हैं।
प्रख्यात्
पत्रकार
जी.
पी.
वर्मा
की
पुस्तक
‘बंद
गली
से
आगे’
थर्ड
जेंडर
विमर्श
पर
चिंतन
के
नये
द्वार
खोलती
है।
उल्लेखनीय
यह
भी
है
कि
इनमें
ट्रांसमैन
और
ट्रांसवूमैन–
दोनों
ही
सम्मिलित
हैं।
अपनी
बाहरी
और
आंतरिक
संरचना
की
पहचान
को
निर्धारित
करने
के
लिए
इन
ट्रांसजेंडर
को
बहुत
सी
जानी-अनजानी
कठिनाइयों
से
जूझना
पड़ता
है।
पारिवारिक
रूप
से
ये
बहिष्कृत
ही
रहते
हैं।
अधिकांश
के
माता-पिता
और
सम्बंधी
उन्हें
अपनाने
से
कतराते
हैं।
इसके
पीछे
सामाजिक
नियमों
और
बंधनों
के
दबाव
हो
सकते
हैं।
प्रसन्नता
की
बात
यह
भी
है
कि
कुछ
ट्रांसजेंडर
को
उनके
अपने
परिवारों
का
सराहनीय
साथ
और
सहयोग
भी
मिलता
है।
ट्रांसजेंडर्स
को
तथाकथित
सभ्य
समाज
की
क्रूरता
और
शोषण
का
लगातार
सामना
करना
पड़ता
है।
इनके
जीवन
के
पन्नों
को
पलटने
पर
नकली
सहानुभूतियों
और
झूठे
दिखावों
के
सफेद-स्याह
निशान
आसानी
से
देखे
जा
सकते
हैं।
अपने
अंदर
के
पुरुष
और
स्त्री
के
होने,
छिपे
रहने
और
उनके
सामने
आने
के
अंतर्द्वन्द्वों
को
ये
ट्रांसजेंडर
अक्सर
ही
महसूस
करते
हैं।
सामाजिक
जीवन
की
लंबी
और
अनवरत
चलने
वाली
दौड़
में
ट्रांसजेंडर
अपने
तन
और
मन
को
संभालते
और
साधते
हुए,
अपनी
शारीरिक
पहचान
को
छुपाते
और
दर्शाते
रहते
हैं।
इस
कार्य
में
इनकी
मानसिक
चेतनाशक्ति
इनके
जीवन
को
संवेदनापूर्ण
और
रससिक्त
बनाती
है।ट्रांसजेंडर
का
अपना
शरीर
कौन
सा
है,
यह
प्रश्न
उनके
जीवन
के
साथ-साथ
सदैव
चलता
है।
यह
होने
या
न
होने
का
भाव
उससे
कभी
नहीं
छूटता।
इसी
द्वंद्व
में
वह
अपने
दिल
की
आवाज़
सुनता
है
और
उसे
अपने
जीने
की
राह
का
इशारा
अनजाने
में
ही
मिलता
चला
जाता
है।
ये
ऐसे
अनदेखे
इशारे
हैं,
ऐसी
अनसुनी
आवाज़ें
हैं,
ऐसे
अनछुए
स्पर्श
हैं;
जो
उन्हें
दुनिया
के
किसी
भी
अवरोधों
को
पार
कर
अनचीन्हे
रास्तों
पर
आगे
बढ़ते
जाने
की
शक्ति
और
प्रेरणा
प्रदान
करते
हैं।
ये
रास्ते
कदम-दर-कदम
आगे
बढ़ते
हुए
ट्रांसजेंडर
को
उसके
आत्म
से
परिचित
करवाते
हैं।
उसे
रूबरू
करवाते
हैं
उन
अंदरूनी
आवाज़ों
से
जिन्हें
सामाजिक
नियमों
के
शोर-शराबे
में
सुना
नहीं
जा
सकता,
दुनियावी
ताने-बाने
में
देखा
नहीं
जा
सकता।
इन्हीं
का
सहानुभूतियों
से
भरा
हुआ
सम्बल
पाकर
ट्रांसजेंडर
‘बंद
गली
से
आगे’
की
यात्रा
भी
करना
चाहते
हैं।
जी.पी.
वर्मा
शायद
तभी
अपनी
पुस्तक
का
नाम
‘बंद
गली
से
आगे’
रखते
हैं।
ट्रांसजेंडर
का
भरी
दुनिया
की
चकाचौंध
से
बचकर
एक
अकेली
और
आत्मनिर्वासित
दुनिया
की
तरफ
चलना
भी
एक
मजबूरी
ही
है
जो
उनके
विचारों
और
वैयक्तिकता
के
अन्तर्जाल
से
भी
उन्हें
दूर
ले
जाती
है।
पुस्तक
के
समर्पण
में
भी
लेखक
का
कथन
उल्लेखनीय
है,“उनको
जो
फूलों
से
खिलते
घर
उपवन
में
बिखर
जाते
पर…तंग
गलियों
के
सीलते
कमरों
में
आसमाँ
छूने
के
सतरंगी
सपनों
के
हौसले
लिए।”1
पुस्तक
की
भूमिका
‘न
भूतो
न
भविष्यति’
में
जी.पी.
वर्मा
लिखते
हैं,“नैसर्गिक
व
संवैधानिक,
दोनों
प्रकार
के
अधिकारों
से
ट्रांसजेंडर
अब
तक
वंचित
रहे।
मानवाधिकार
के
हिमायती
भी
इनके
उन्नयन
के
लिए
कुछ
न
कर
पाए।
कारण
सरकारों
की
उदासीनता।
समाज
का
इनके
प्रति
घृणा-भाव।
इनकी
अजूबी
शारीरिक
संरचना
के
प्रति
दुराव।
फिर
भी
वह
जीवन
डगर
पर
अडिग
और
अविराम
है।
देखा
जाए
तो
इनका
वजूद
इस्पात
से
निर्मित
उस
विराट्
जलपोत
के
समान
है
जो
जीवन
सागर
की
तूफानी
तरंगों
पर
बढ़ता
है।
उनसे
मोर्चा
लेता
है।
कभी
विजयी
होता
है,
कभी
हार
जाता
है।
पर
वह
ठहरता
तब
तक
नहीं
जब
तक
वह
डूब
ही
नहीं
जाता
है।
यूँ
तो
ज़िन्दगी
स्वयं
गहरे
सागर-सी
शान्त
और
तूफानी
है।
वह
बहुत
पेचीदा
भी
है।
कभी-कभी
उसे
जीने
वाले
पेचीदा
बना
देते
हैं।
कभी
पेचीदगियों
में
गढ़े
लोग
ही
जिन्दगी
के
समक्ष
चुनौती
बनकर
उसे
झकझोर
देते
हैं।
इसी
श्रेणी
में
आते
हैं
वे
लोग
जो
सृष्टिकृत
नर-मादा
के
विरूप
हैं।
इन्हें
थर्डजेंडर
या
किन्नर
के
रूप
में
जाना
जाता
है।”2 पुस्तक की
लंबी
भूमिका
में
लेखक
ने
थर्ड
जेंडर,
किन्नर
आदि
को
ऐतिहासिकता
के
दृष्टिकोण
से
भी
देखा
है।
प्रस्तुत
पुस्तक
कुल
पांच
खंडों
में
विभाजित
है।
पहला
खंड
है
‘जीवन
चरित’
जिसमें
कुल
सोलह
ट्रांसजेंडर्स
का
जीवन
दर्शाया
गया
है।
उल्लेखनीय
यह
भी
है
कि
ये
जीवनचरित
स्वयं
इन
ट्रांसजेंडर्स
द्वारा
अपनी
ही
भाषा-शैली
में
लिपिबद्ध
किए
गए
हैं।
ये
आत्मकथात्मक
शैली
में
रचे
गए
हैं
जिनमें
ट्रांसजेंडर
के
व्यक्तिगत
और
सामाजिक
जीवन
की
विडंबनाएँ,
विवशताएँ,
विद्रूपताएँ
विविध
रूपों
में
हमारे
सामने
आती
हैं।
‘मैं
जिऊँगी’
विद्या
राजपूत
की
आत्मकहानी
है
जिसमें
विभिन्न
अवरोधों
और
समस्याओं
का
सामना
करते
हुए
जीवन
और
मृत्यु
के
खेल
के
बीच
विद्या
राजपूत
अपनी
पहचान
की
तलाश
करती
हैं।
एक
लड़के
के
शरीर
में
जन्म
लेने
के
बाद
ऑपरेशन
द्वारा
अपना
लिंग
परिवर्तित
करवाकर
वह
स्त्री
बनती
हैं।
‘मितवा’
संगठन
के
माध्यम
से
विद्या
राजपूत
आज
ट्रांसजेंडर
समाज
का
भला
कर
रही
हैं।
रुद्रप्रयाग
में
जन्मे
धनंजय
चौहान
‘मैं
अधूरी
नहीं’
के
माध्यम
से
अपनी
बात
रखते
हैं।
उल्लेखनीय
है
कि
धनंजय
चौहान
विश्व
के
ट्रांसजेंडर
समाज
के
रोल
मॉडल
हैं।
गजब
के
आत्मविश्वास
और
समर्पण
के
कारण
उनके
कार्यों
को
दर्शाता
‘एडमिटेड’
नाम
से
एक
वृत्तचित्र
भी
उनके
ऊपर
बनाया
जा
चुका
है।
वह
पहले
ट्रांसजेंडर
हैं
जिन्होंने
पंजाब
विश्वविद्यालय
से
इतिहास
विषय
में
बी.ए.
ऑनर्स
किया
और
विश्वविद्यालय
में
टॉप
किया।
अन्य
अनेक
विषयों
में
भी
उन्होंने
डिप्लोमा
और
डिग्रियां
प्राप्त
कीं।
कानून
की
पढ़ाई
करते
के
लिए
लॉ
कॉलेज
में
दाखिला
तो
मिला
परंतु
छात्रों
के
दुर्व्यवहार
के
कारण
कानून
की
पढ़ाई
वह
पूरी
नहीं
कर
पाए।
धनंजय
चौहान
का
जन्म
एक
लड़के
के
रूप
में
हुआ
था
परंतु
तीन
वर्ष
की
उम्र
से
ही
उन्हें
लगने
लगा
कि
वह
लड़का
नहीं
लड़की
हैं।
सन्
2009 में
उन्होंने
एक
गैर
सरकारी
संगठन
‘सक्षम
ट्रस्ट’
का
गठन
किया।
राज
कनौजिया
एक
ट्रांसमैन
हैं।
उनका
जन्म
मुंबई
में
हुआ
था।
आगे
चलकर
उनका
‘हमसफर
ट्रस्ट’
से
जुड़ाव
हुआ।
ट्रस्ट
के
पदाधिकारियों
ने
उन्हें
मुंबई
में
चल
रहे
नौ
टारगेट
इंटरवेंशन
केंद्रों
को
संचालित
करने
की
जिम्मेदारी
सौंपी।
अपने
कार्य
को
विस्तार
देते
हुए
उन्होंने
हमसफर
ट्रस्ट
के
अंतर्गत
‘उमंग’
नामक
ग्रुप
बनाया।
सिमरन
बालिया
का
जन्म
बिहार
में
एक
लड़के
के
रूप
में
हुआ
था।
आर्यन
एक
ट्रांसमैन
हैं
जिन्होंने
छोटी
सी
उम्र
में
शरीर
सौष्ठव
प्रतियोगिताओं
में
एशिया
के
पहले
ट्रांसमैन
बॉडीबिल्डर
होने
का
खिताब
प्राप्त
किया।
पप्पी
देवनाथ
त्रिपुरा
के
प्रथम
ट्रांसमैन
हैं।
रुद्रांशी
एक
ट्रांसवूमैन
हैं
जिनका
जन्म
अजमेर
में
हुआ
था।
उन्होंने
कविता
लेखन
में
भी
कई
पुरस्कार
जीत
चुके
हैं।
अपनी
आत्मव्यथा
बताने
के
साथ-साथ
उन्होंने
अपनी
तीन
कविताएँ
भी
प्रस्तुत
की
हैं।
संजना
सिंह
चौहान
बचपन
से
ही
लड़कियों
जैसा
महसूस
करती
थीं।
वे
लिखती
हैं,“
सामान्यतः
बचपन
और
यौवन
आशा-महत्त्वाकांक्षाओं
के
फूलों
से
महकता
चमन
होता
है।
लेकिन
मैंने
इस
चमन
में
सैर
नहीं
की।
मैंने
तो
नश्तर
से
भी
तेज
बबूल
की
झाड़ियों
से
घिरे
सीमित
मैदानों
में
ही
काँटों
से
बचने
के
लिए
भागदौड़
करते-करते
जीवन
के
इस
पड़ाव
पर
ठहराव
पाया
है।
अब
मैं
भूत
के
पीड़ादायक
क्षणों
और
काँटों
को
याद
करके
गुज़रे
वक़्त
से
या
उन
लोगों
से
जिन्होंने
मुझे
तिरस्कार
और
अपमान
दिया,
कोई
शिकवा
या
शिकायत
नहीं
करना
चाहती।
न
ही
मैं
उस
पर
विलाप
करना
चाहती
हूँ।
मैंने
तो
जीवन
में
आने
वाले
हर
अंधेरे
में
प्रकाश
की
मद्धिम
किरण
ढूँढने
का
प्रयास
किया
है
ताकि
मैं
उस
प्रकाश
के
सहारे
जीवन
की
भावी
राहों
को
देख
सकूँ,उन
पर
बढ़
सकूँ।अपनी
अज्ञात
किंतु
नियति
द्वारा
निर्धारित
मंजिल
को
पा
सकूँ।”3 उल्लेखनीय है
कि
संजना
सिंह
चौहान
एशिया
की
पहली
ट्रांसजेंडर
हैं
जिन्हें
स्वच्छ
भारत
अभियान
के
अंतर्गत
सम्मानित
किया
गया।अब्दुल
रहीम
अपने
आलेख
‘सोशल
डिस्टेंसिंग
से
मुक्ति
कब’
के
माध्यम
से
अपनी
पीड़ा
रखते
हैं।
उनका
मानना
है
कि
कोरोनावायरस
सदियों
में
पहली
बार
आया
है,
पाबंदियाँ
लाया
है।
सब
जगह
लॉकडाउन
हुआ।
सोशल
डिस्टेंसिंग
ने
लोगों
को
दूर
कर
दिया
है।
कहीं
कोरनटाइन
में
रहे
लोग,
पर
यह
कुछ
दिन
का
मेहमान
है,चला
जाएगा।
समाज
पुराने
ढर्रे
पर
चल
पड़ेगा।
लेकिन
हम
फिर
भी
इससे
मुक्त
नहीं
होंगे।
कोरोना
तो
हमारे
जीवन
में
उस
दिन
से
प्रवेश
कर
गया
था
जब
हमने
जन्म
के
बाद
होश
संभाला।
हमने
अपना
आज
तक
का
जीवन
कोरनटाइन
और
सोशल
डिस्टेंसिंग
में
गुजारा
है।आज
भी
हम
सबसे
अलग-थलग
हैं।
लोग
हमसे
मिलने,
हमसे
बात
करने
और
हमारे
पास
आने
से
हिचकते
हैं,
झिझकते
हैं।
प्रस्तुत
आलेख
में
उन्होंने
अपने
दिल
की
बात
चार-पांच
छोटी-छोटी
कविताओं
के
माध्यम
से
भी
रखी
है।
उनकी
पंक्तियाँ
द्रष्टव्य
हैं–
खुदा
ने
जो
बनाया
बस
वही
हूँ
मैं
न
ग़लत
न
सही
जो
कुछ
भी
है
मेरे
भीतर
कुदरत
ने
रचा
है
मेरा
वजूद
कुछ
भी
नहीं
4
भैरवी
अरमानी
ने
लंबे
आत्मसंघर्ष
के
पश्चात्
तंत्र-मंत्र
और
ज्योतिष
विद्या
में
भी
निपुणता
प्राप्त
की।
उन्होंने
अपनी
शल्य
चिकित्सा
भी
अपना
जेंडर
परिवर्तन
के
लिए
नहीं
करवाई
है।
अपनी
माँ
को
याद
करते
हुए
वे
लिखते
हैं–
तू
हमेशा
रहना
माँ
मेरे
बाद
भी
तेरा
ही
विस्तार
हूँ
मैं
तेरी
अभिव्यक्ति
कुछ
लोग
कहते
हैं
माँ
पर
हूँ
कुछ
कहते
हैं
पिता
पर
मैं
जानता
हूँ
माँ,
मन
मेरा
तू
है
और
तन
है
पिता
इस
आधे-आधे
में
तू
ज्यादा
है
माँ
तू
हमेशा
रहना
माँ
मेरे
बाद
भी
5
स्त्रिती
चन्द्रन,माही,भावेश
जैन
प्रिया
बाबू,
दीपिका
ठाकुर,
अमृता
जैसे
ट्रांसजेंडर
अपने-अपने
कार्यक्षेत्रों
में
आज
पर्याप्त
नाम
अर्जित
कर
रहे
हैं।
प्रिया
बाबू
ने
‘अरवानिगल
समूह
वाराईवियल’
और
‘मूनरमपालिन
मुगम’
जैसी
पुस्तकें
भी
लिखी
हैं।
इन
सभी
आत्म
जीवनचरितों
को
पढ़ते
हुए
एक
बात
स्पष्ट
होती
है
कि
लगभग
सभी
ट्रांसजेंडर
को
पारिवारिक
और
सामाजिक
अवहेलनाओं
का
सामना
करना
पड़ा
है।
कुछ
ने
अपने
गुणों
को
निखारा
और
समाज
में
अपना
एक
विशिष्ट
मुकाम
भी
बनाया
है।ये
जीवनचरित
यह
भी
दर्शाते
हैं
कि
इन्हें
भी
सामान्य
लोगों
की
तरह
ही
हमारे
प्रेमपूर्ण
व्यवहार
और
साहचर्य
की
आवश्यकता
है।
ये
भी
इंसान
हैं
जो
एक
सामान्य
सामाजिक
जीवन
जीना
चाहते
हैं।
इस
खंड
के
आलेखों
के
शीर्षक
भी
इन
ट्रांसजेंडर्स
की
व्यथाओं
से
भरी
जीवनयात्रा
को
दर्शाते
हैं।
‘मैं
जिऊँगी’,‘मैं
अधूरी
नहीं’,
‘संघर्ष
बहुत
शेष
है’,
‘अपने
घरौंदे
की
तलाश’,‘पहचान
के
अँधेरों
में’,‘हर
दिन
जीता,
हर
दिन
मरता’,
‘ट्रांसमैन
पहचान
बनाएँ’,
‘हमें
नर्क
में
न
ढकेलो’,
‘खुशियाँ
छोड़
दो
परिवार
नहीं’,‘अंधेरों
से
प्रकाश
मिलता
है’
जैसे
शीर्षक
अर्थपूर्ण
व्यंजना
प्रस्तुत
करते
हैं।
‘समसामयिक परिवेश’ पुस्तक का दूसरा खंड है जिसमें तीन अध्यायों के अंतर्गत ट्रांसजेंडर की वर्तमान स्थितियों और परिस्थितियों पर प्रकाश डाला गया है। प्रथम अध्याय है ‘ट्रांसजेंडर मुक्ति आंदोलन’ जिसमें लेखक ने इस आंदोलन को ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखा है। ट्रांसजेंडर मानव सभ्यता के आरंभ से ही अपना अस्तित्व रखते आए हैं। एक समय ऐसा था जब ये सामाजिक प्रताड़ना और