‘बतकही’ में इस बार हम जानेगें और मिलेंगें देश के जाने माने
सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार, संपादक श्री सुशील सिद्धार्थ जी से, साहित्य अकादमी भोपाल के द्वारा
आयोजित हिंदी व्यंग्य कार्यशाला में मेरी मुलाकात आपसे हुई, कार्यशाला के अंतिम
दिन आप मै और संतोष त्रिवेदी जी ने डा ज्ञान चतुर्वेदी जी का नाटक (बारामासी पर
केंद्रित) देखा, रात में लगभग दो घंटे व्यंग्य के विभिन्न आयामों में बातचीत हुई।
सुबह सुबह हम तीनों पचमढी से पिपरिया के लिए बाई कार साथ में निकले। इस सानिध्य और
बातचीत से व्यंगय की बारीकियों को सीखने में काफी मदद मिली। आपका कद व्यंग्य लिखने
के साथ साथ व्यंग्य और व्यंग्यकारों को केंद्रित पुस्तकों के प्रकाशन तथा संपादन, किताबघर प्रकाशन के
संपादन की महती भूमिका, देश की सभी साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं दैनिक समाचार पत्रों में
सुशील सिद्धार्थ के व्यंग्य को प्रकाशित करने के लिए विवश रहे। उन्होने व्यंग्य के
दृष्टिकोण, भाषाई चमत्कार करने के लिए अपना लेखन समर्पित कर दिया। व्यंग्य
समालोचना में उन्होने अपना प्रमुख स्थान बनाया। आइये प्रस्तुत है जनवरी- २०१६ में
हुई इस बातचीत के प्रमुख अंश-
१- आपका लेखन कब प्रारंभ हुआ और आपने अपना आदर्श किस साहित्यकार को
बनाया।
उत्तर- मेरा लेखन दस वर्ष की उम्र से प्रारंभ हुआ। प्रारंभ में मेरे आदर्श
तुलसीदास और मुंशी प्रेमचंद्र थे परन्तु समय बीतने के साथ साथ मेरे आदर्श श्री लाल
शुक्ल, हरिशंकर परसाई,
प्रेमचंद्र, तुलसीदास हैं।
२. क्या कालम लेखन का धरातल साहित्यिक लेखन से भिन्न है।
उत्तर- दोनो का लेखन बहुत भिन्न है,कालम राइटिंग को देखने से लगता है कि
संपादक की तरफ से भी आग्रह है और रचनाकार की भी विवषता है, बड़ी बात कहने के
लिए कालम में जगह की कमी तो होती ही है, साहित्य में परिपक्वता की आवश्यकता है, कालम लेखन में जो
तर्क दिया जाता है कि पढ़ने वाले सामान्य पाठक है, या फिर और कुछ परन्तु आपकी विवशता से दुनिया
की अवधारणाएं नहीं बदलती है,
यदि चंबल के डाकू कहने लगे मेरी बहन
के साथ बलात्कार हुआ या मेरी मां के साथ अत्याचार हुआ तो हम डाकू बन गए
यह तर्क पूर्णतः असंवैधानिक लगता है व्यंग्यकार जो भी इस तरह के तर्क देते हैं वो
साहित्य में बहुत ही अश्लील और असंवैधानिक है। आप कालम मत लिखिए यदि आप लेखन की
आवश्यता पर खरे नहीं उतर पा रहे हैं परन्तु आप गलत लिखकर गलत मापदंड मत बनाइये। आप
सीधे कहिए कि हम पैसों के लिए स्तरहीन लिखते हैं. मैने भी पैसे के लिए बहुत बुरा
लिखा किंतु गलत नहीं लिखा, अपनी मजबूरियों से गलत मापदंड बनाना पूर्णतः असंवैधानिक है और हर
कालम लेखक को यह समझना होगा।
३- पत्रपत्रिकाओं में लिखते समय या संपादन करते समय आपका सामना किन
किन मुश्किलों से होता है?
उत्तर- देखिये पत्रिका एक सामूहिक उपक्रम है इसमें दो तरह की
प्रतिभागिता होती है, बिना लेखक के पत्रिका नहीं हो सकती है और बिना पाठक के पत्रिका
नहीं हो सकती है। और संपादक इन्ही दो तथ्यों के बीच अपने को झूलता हुआ महसूस करता
है।लेखक चाहता है कि वो अच्छा लिख रहा है उन्हें संपादक नियमित प्रकाशित करे। पाठक
चाहता है कि पत्रिका में अच्छा पढ़ने को मिले, विविध साहित्य से उसका सामना हो।
अच्छे लेखन की कोई परिभाषा तो नहीं है किंतु कुछ तो मापदंड है. इस सब के बीच
संपादक का दायित्व है कि वो अपने समय के अच्छे लेखकों को पत्रिका में स्थान दे और
पाठकों के सामने लाए।
४- किसी लेखक के लिए उसकी पुस्तकों का प्रकाशन अच्छे लेखन का
मापदंड़ है या फिर विभिन्न माध्यमों से पाठक तक पहुँचना ही अच्छे लेखन के लिए
पर्याप्त है।
उत्तर- देखिए विभिन्न माध्यमों से पाठकों तक पहुँचन अच्छे लेखन का
मापदंड है परन्तु पुस्तक का प्रकाशन इसका अगला पडाव है, कवि सम्मेलन में
कविता सुनाने के बाद कविता तालियों की गड़गड़ाहट में गुम हो जाती है। आपकी रचना अगर
पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होती है तो पाठकों में आपकी लोक प्रियता बढ़ती है, पुस्तकें आपके लेखन
को सुरक्षित करके लंबी आयु प्रदान करता है। पुस्तकों से आपका भविष्य गत मूल्यांकन
होता है, आपके ऊपर किये जाने वाले शोध कार्यों के लिए मददगार होती हैं
पुस्तकें, पत्रिकाएं और पुस्तकें एक ही माध्यम के दो पड़ाव हैं,लेखन का प्रथम पड़ाव
अगर पत्र पत्रिकाएं हैं तो स्थाई और अगला पड़ाव आपकी पुस्तकें हैं।
५- क्या आपको लगता है कि कालम लेखन किसी लेखक के मूल लेखन को भटका
देता है?
उत्तर- ऐसा बिल्कुल भी नहीं है, मुझे लगता है कि जिसे प्रेम करना आता
है वो कुछ पल में भी प्रेम कर लेगा, और जिसे प्रेम करना नहीं आता उसके लिए
एक रात भी कम है, एक लोकोक्ति है कि मूरक की एक रैन, छैल की एक घडी.यदि समाचार पत्र किसी
राजनैतिक विचारधारा से जुडा है और आप क्रांतिकारी बनने लगे तो संपादक आपको
रोकेगा ही। संपादक भी जानता है कि कालम पाने के लिए आप उसके सामने गिड़गिड़ाते हैं
और कालम मिलते ही आप मार्क्स तथा लेनिन के पिता जी बन जाते हैं क्रांति का पाठ
जनता को पढ़ाने लगते हैं। यदि देखा जाए तो आज के समय में क्रांति हो भी नहीं रही। छद्म
क्रांति एक लेखक को नहीं करना चाहिए। आपका लेखन आपके अनुभव पर आधारित होता है और
कालम लेखन से कहीं ना कहीं कालम लेखन से नियमित होता है।
६- साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं के सामने कौन कौन सी चुनौतियां हैं?
उत्तर- यदि हम वर्तमान पत्रपत्रिकाओं की बात करें तो मुक्तिबोध, श्रीकांत वर्मा, और अज्ञेय के
विचारों की कमी को पूरा करती है,आज के समय में साहित्यिक कृतियों में वैचारिक विविधता देखने को
नहीं मिलती यदि मै पूंछू कि आपने अच्छी कहानी अच्छा व्यंग्य और अच्छा उपन्यास हाल
ही में कब पढ़ा था तो शायद ही आपके पास कुछ नाम हो। आज के संपादक के पास चालीस
कहानी, अस्सी कविताएं,
आजाती है अब अच्छे संपादक के सामने
चुनौती यह है कि वो साहित्य की विभिन्न विधाओं को खोज कर वो विभिन्न विधाओं में
अच्छे लेखकों को खोजे, अच्छे लेखकों में अच्छे विचारों की खोज करे, विचारों में से
सर्वश्रेष्ठ विचार को प्रकाशित करे। पाठकों को विविध श्रेष्ठतम साहित्य पहुंचाए।
वो समाज के उस सर्वश्रेष्ठ विचार को प्रकाशित करे जिससे समाज का उत्थान हो सके।
७. हिंदी साहित्य में व्यंग्य और व्यंग्यकारों का भविष्य आपके
अनुसार कैसा है।
उत्तर: यह तो तय है कि जो भविष्य समाज का है वह तो व्यंग्य और
व्यंग्यकारों का कदापि नहीं है। आज के समय में व्यंग्यकार अच्छा भी लिख रहे हैं और
बुरा भी लिख रहे हैं। आज के समय में व्यंग्यकार अपनी अध्ययन की परिधि को सीमित कर
चुके हैं उनमें राजनैतिक समझ की कमी दिखती है, वैकल्पिक समाज का मानचित्र उनके पास
नहीं है, खोजने की छमता खत्म हो चुकी है,उनकी सोच भ्रष्ट समाज में अमुक और
तमुक पार्टी तक सिमट चुकी है,
जो नये व्यंग्यकार हैं उनके अंदर
संभावनाएं अधिक है, उनको आवश्यकता है कि वो साहित्य को पढ़ने के साथ साथ जीवन के
विश्वविद्यालय को भी बारीकी से समझें और लेखन में उतारे, हमें यह नहीं भूलना
चाहिये कि परसाई का समय सरल था परंतु आज के इस समय में जटिलताओं में वृद्धि हुई है, इस जटिल समय में
व्यंग्यकारों की भूलिका अहम है,
उन्हें बहुत मशक्क्त करने की आवश्यकता
है।
८. आपको परसाई और शरद जोशी के बीच क्या समानताएँ और विभिन्नताएँ
समझ में आती हैं?
उत्तर: दोनों व्यंग्यकारों में पठनीयता और लोकप्रियता की समानताएँ
हैं। परंतु परसाई का वैचारिक पक्ष मजबूत और स्पष्ट है, कोई रचनाकार कभी
लंपटों के साथ खड़ा आपको नहीं मिलता है, यदि आप मुझसे कहें कि मै झूठ नहीं
बोलता तो मै आपसे पूँछूँगा कि क्या आप सच बोलते हैं, आपका झूठ न बोलना और आपका सच बोलना, दोनों बातों बहुत
भिन्न है आप मुझसे यह तो कहिए कि आप यदि झूठ नहीं बोलते तो सच बोलते हैं, इसी तरह इन दोनों व्यंग्यकारों का लेखन भी है परसाई का लेखन सच्चे
लोगों के साथ स्पष्ट रूप से खड़ा मिलता है। जबकि शरद जोशी का लेखन यह कहताहै कि मैं
लंपटों के साथ नहीं हूँ, दोनों में यही सबसे बड़ी और महीन भिन्नता है।
९. आप हिंदी साहित्य में व्यंग्य को विधा के रूप में देखते हैं कि
शैली के रूप में?
उत्तर- अयान जिसे लिखने की तमी़ज़ है वह व्यंग्य को स्प्रिट के रूप
में इस्तेमाल करताहै, परंतु जो अपने लेखन को एक विधानसभा क्षेत्र में सीमित करना चाहते हैं वो
इसे विधा के रूप में सीमित कर चुके हैं, यदि मै उपन्यास लिखता हूँ तो मेरी
तुलना व्यंग्य लिखने वालों से होती है। यदि आप कहानी लिखते हैं तो आपकी तुलना
प्रेमचंद्र, अमरकांत, रवींद्र, ममता, अखिलेश और मैत्रेयी पुष्पा से की जाएगी। अगर आप व्यंग्य लिखते हैं
तो आपकी तुलना ज्यादा से ज्यादा ज्ञान चतुर्वेदी से की जाएगी। जिन व्यंग्यकारों ने
व्यंग्य को विधा फ्रेम में कैद कर लिया है उसमें प्रेम जनमेजय, हरीश नवल, सुभाष चंदर इसी
मुहल्ले में कैद होकर रह गये हैं। वो राष्ट्रीय स्तर पर लिखना नहीं चाहते, या यह कहूँ ये
राष्ट्रीय स्तर के लायक नहीं है तो ज्यादा मुनाशिब होगा।
१०. क्या आपको लगता है कि हिंदी साहित्य का झंडावरदार व्यंग्य है?
देखो अयान यदि हिंदी साहित्य में व्यंग्य स्प्रिट के रूप में उपयोग
हो रहा है तो वह झंडावरदार है,
यदि वो सिर्फ विधा है तो झंडावरदार नहीं
बन पाएगा। यदि ज्ञान चतुर्वेदी को छोड़ दें तो व्यंग्य को अधिक्तर विधा में उपयोग
करने वाले व्यंग्यकार अधिक हैं,
यदि हम डा ज्ञान जी को सेनापति मान
लें तो सेना को यह फिक्र नहीं है कि सेना नायक कहाँ जा रहा है सेना नायक यदि पीछे
मुड़कर देखे तो समझ में आता है कि व्यंग्यकारों की सेना पुरुस्कारों के जुगाड़ में
लगी है, पुस्तक सम्मेलनॊं में पुस्तक विमोचन करने में व्यस्त है, साहित्य की
सुहागरातें मनाने में संलग्न है अपनी स्वार्थ परता की हर सीमा पार करने में
व्यंग्यकारों की सेना व्यस्तहै,
यदि हम ज्ञान चतुर्वेदी जी को माइनस
कर दें तो अन्य विधाओं के साथ व्यंग्य की तुलना करना और झंडावरदार मानना अन्य
विधाओं का घोर अपमान है।
११. मंच में परोसे जाने वाले हास्य-व्यंग्य क्या व्यंग्य की कसौटी
में खरे उतरते हैं?
उत्तर: मंच में
हास्य व्यंग्य जो परोसा जा रहा है या जो परोसने वाले हैं वो हास्य कवि हैं, वो हंसाने का
कठिनतम काम कर रहे हैं, मै उन्हें उतना ही उतकृष्ट मानता हूँ, जितना कि
व्यंग्यकारों को। परंतु कवितायें व्यंग्य की श्रेणी से इतर हैं, उनका मूल्यांकन
नगण्य नहीं हैं। परंतु चैनलों में आज कल हास्य व्यंग्य के नाम पर फूहड़पन आने लगा
है, व्यंग्य की कसौटी इन सबसे पूर्णतः भिन्न है।
१२. सुभाष चंदर जी ने हिंदी व्यंग्य का इतिहास लिखा एक समालोचक की
दृष्टि से आप इस कृति को कैसे आँकते हैं?
उत्तर- देखिए इतिहास की अपनी दृष्टि है, इतिहास
व्यंग्यकारों की जनगणना और टेलीफोन डायरेक्ट्री नहीं होता है, इतिहास सबका आधार
कार्ड और पहचान पत्र नहीं होता,
सुभाष चंदर ने व्यंग्य का अच्छा लेखा
जोखा लिखा और श्रेष्ठतम लिखा है,
परंतु उसमें दृष्टि की कमी है। इतिहास
में परिवर्तनों और प्रवृत्तियों की खोज होती है, साहित्य समाज का दर्पण है, हम दर्पण क्यों
देखते हैं? अपने आप को संभालने के लिए। यदि हमने सब फलों को समेट करके रख दिया
तो वो आम की टोकरी नहीं हो सकती,
वो फलों की टोकरी ही कहलाएगी। इतिहास
में किस समय किस व्यक्ति को देखा गया है वही इतिहास दृष्टि है, उदाहरण के लिए
सुभाष भाई ने व्यंग्यकारों का लेखा जोखा प्रस्तुत किया जिसमें नाम पता फोन कृतियाँ
उपल्ब्ध है। परंतु उस फोन का उपयोग कितना सामान्य और संदिग्ध है उसका विवरण नहीं
मिलता। फोन का उपयोग किस काम के लिए किया जा रहा है जिस काम के लिए किया जा रहा है
वो अपराध है या पुण्य काम है यह जानकारी नहीं मिलती है।हिंदी साहित्य में भवानी
प्रसाद मिश्र और हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने नजरिए से इतिहास लिखा किसी तरह
व्यंग्य का इतिहास भी दृष्टि के साथ लिखने की आवश्यकता है। दोनों ने जो इतिहास
लिखा व्ह व्यक्ति से समाज को निर्मित करने का माध्यम बना, सामान्य रूप से दो
बातें बुराई में कह देना समालोचना है तो मुझे ऐसी आलोचना और समालोचना में धिक्कार
महसूस होता है।
१३. व्यंग्य में स्प्रिट विट और आयरनी के बारे मे कुछ बताइये?
यह सभी व्यंग्य को परखने के मूलभूत तत्व है उदाहरण के लिए समझिए कि
हम तीन लोग बैठे हैं तो छह पाँव,
छह हाथ, तीन नाक, छह आँख हमारी आयरनी है, स्प्रिट शैली है
जिस शैली में हम अपनी बातचीत कर रहे हैं, विट विच्छेदन है जो रचना को अलग अलग
मापदंडों में डाइग्नोश करता है। जिसमें विसंगतिबोध, वक्रता, विड़ंबना की पहचान, भाषा, यह सब समालोचना के तत्व हैं, इससे पाठक का कोई सरोकार नहीं है, यह समालोचक और
रचनाकार के समझने की चीजें हैं।
१४. आप व्यंग्य के अलावा किस विधा में लिखना पसंद करते हैं?
उत्तर: मै व्यंग्य के अलावा ग़ज़ल लिखना पसंद करता हूँ, मुझे गालिब, शाहिर, जॉन एलिया, फैज़ की शायरी से
विशेष लगाव है, मै एक दो शेर आपको जरूर सुनाना चाहता हूँ गालिब का एक शेर समात
फरमाएँ- "हमने माना कि,
तगाफुल न करोगे तुम, लेकिन ख़ाक हो
जाएगें हम, तुमको खबर होने तक।" जान एलिया का एक शेर सुनो "बेबसी
क्या यूँ ही दिन गुजर जाएगें,
ऐसे जिंदा रहे, हम तो मर
जाएगे।" मेरा भी एक शेर सुनो" तुम जब कभी इस मुल्क का इतिहास लिखोगे, क्या उसमें मेरी
भूख, मेरी प्यास लिखोगे। अयान मुझे गाने का भी बहुत शौक है। आज सुबह
तुमने सुना ही कितना मजा आया गाने में। पुराने सदाबहार गाने में आज भी मन बाग बाग
हो उठताहै।
१५- आपकी नज़र में हिंदी जगत में अच्छे व्यंग्यकार कौन कौन से हैं
जो नई पीढ़ी में अच्छा लिख रहे हैं?
तमाम पत्र पत्रिकाओं को पढ़ते हुए मुझे नाम नई पीढ़ी के जेहन में आते
हैं जिनमें हल्की पहचान बनाने की समझ, विचार और व्यंग्य की शैली दिखाई दिखती
है, जिसमें सुरजीत,
संतोष द्विवेदी, कांतिलाल जैन, निर्मल गुप्त, विजी श्रीवास्तव, अनूममणि, प्रमोद भाई, पिलकेंद्र भाई, जगदीश ज्वलंत, इसी तरह महिलाओं
में, इंद्रजीत, शशि, सेफाली पाण्डेय प्रमुख है। यहां पर भी लेखिकाओं की कमी है भाई, मुझे लगता है कि
स्त्रियाँ व्यंग्य को सही ढ़ंग से साध नहीं पाई यह कोई जेंडर डिवीजन नहीं है परन्तु
यही उनका स्वभाव है।
१६. हिंदी साहित्य से संबंधित जो अकादमी और संस्थाएं चल रही हैं
उनके बारे में आपकी क्या राय है?
अयान संस्थाओं के बारे में तो ऐसा अहि वो परामर्श से चलती हैं
अकादमी की बात करें तो प्रस्तावक विधा और अकादमी आपस में जुड़ी होती हैं। यदि मध्य
प्रदेश साहित्य अकादमी ने ज्ञान जी के परामर्श में यह व्यंग्य कार्यशाला आयोजित की
तो उसमें परामर्शदाता की भूमिका अहम है अकादमी के साथ वो बधाई के पात्रहैं वो अन्य
रचनाकारों की तरह कुर्सी पाने सर्टीफिकेट पाने, पुरुस्कार पाने और व्यक्तिगत लाभ लेने
की नहीं सोचे वरन वो नये रचनाकारों को इससे जोड़े और सॄजन का सही संवाद स्थापित हो
सका। अन्यथा हमारी यह बैठक कहां संभव हो पाती। परंतु देश भर में यह स्थिति नहीं
है।
१७- जिस प्रकार देश भर में हिंदी साहित्य दलित साहित्य, स्त्री विमर्श और भी कई खाँचों में विभक्त है तो क्या व्यंग्य में
भी इस तरह का कुछ देखने को मिलता है आपको?
उत्तर- पहले के समय से आज तक व्यंग्य में ऐसा तो कुछ नहीं है, व्यंग्य में या तो
कुपढ़वाद है या ज्ञान चतुर्वेदीवाद है, परसाई,शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल, रवींद्र त्यागी की
परंपरा को ज्ञान चतुर्वेदी ने आगे बढ़ाया, श्रीलाल जी की व्यंग्य दृष्टि
बारामासी में स्पष्ट होती है,
उनकी रचना सबकुछ बयान कर देती है, उनको रचना के बारे
में भूमिका की आवश्यकता नहीं होती है। परंतु कुछ कुपढ़ लेखक व्यंग्य को संकीर्ण
दायरों में बांधने का असफल प्रयास कर रहे हैं। आज के समय में ज्ञान की परंपरा
पढ़नीयता, सरोकारों की समझ,
अभिव्यक्ति की नई खोज की विचारधारा की
परंपरा है। नये व्यंग्यकार इसे काफी पसंद करते हैं। इसीलिए मै व्यंग्य में ज्ञान
कृति को रूप देने की कोशीश में लगा हूँ।
१८- अंतिम प्रश्न यह है कि सर भविष्य में आपकी कलम से क्या क्या
हमें पढ़ने को मिलेगा?
उत्तर- मै किताबघर प्रकाशन में संपादक का दायित्व निर्वहन कर रहा
हूँ व्यंग्य की चार पुस्तकें पूरी हैं, दो तीन उपन्यास की रूपरेखा बन रही है, उसके पहले ‘तमाशबीन’
व्यंग्य उपन्यास को पूरा करना है। यदि पहला उपन्यास अच्छा बन पड़ा तो आगे और
लिखूँगा। व्यंग्य की समालोचना की पुस्तक लिखना राहुल के सहयोग से यह काम अंजाम तक
भविष्य में पहुँचेगा, लेखकों के ऊपर लिखने की इच्छा है विशेष रूप से ज्ञान जी पर, यदि मुझसे पहले उन
पर कोई लिखने को तैयार होता है तो मै उसका स्वागत करूँगा। मै सभी व्यंग्यकारों से
यह अपेक्षा करता हूँ कि हमें अपने आसपास के अच्छे रचनाकारों की रचनाओं पर कलम
चलाना चाहिए। यदि हम ऐसा काम नहीं करेंगें तो कौन करेगा। मुझे व्यंग्यकारों के
बचपन पर भी संकलन पर काम करना है। तुम जैसे युवाओं में बहुत उर्जा है, युवा व्यंग्य में
श्रेष्ठ काम कर रहे हैं। इस बातचीत से कहीं यह नहीं लगा कि मै मध्य प्रदेश के एक
छोटे से कस्बे पचमढ़ी में बैठकर आम साक्षात्कार में बात कर रहा हूँ। इसके प्रश्न तो
मुझे दिल्ली में बैठे पत्रकार साथियों की याद दिलाते रहे। इस तरह के प्रश्न समय
समय पर गहन और लंबी बात करके बहुत कुछ साहित्य में सिखा जाते है। इस पचमढ़ी की
उपलब्धि तुम जैसे युवा साथी से मुलाकात जरूर होगी। मै तुम्हें अपनी एक कृति देता
हूँ यह शायद किसी साथी के लिए लाया था किंतु किस्मत की बात तुम्हारे लिए ही बची रह
गई। कृति थी ‘मालिश महापुराण’ |
- अनिल अयान, सतना
९४७९४११४०७
पचमढी,
२७ जनवरी,२०१५
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