Sunday, 10 January 2021

लुइस ग्लिक और उनकी कविता - प्रो. गोपाल शर्मा

प्रतिवर्ष अक्तूबर में नोबेल पुरस्कारों  की घोषणा होती है। साहित्य का नोबेल दो-तीन वर्ष पूर्व कुछ आयोजकों पर यौन शोषण  के आरोपों के चलते विवादों में आ गया था । एक वर्ष किसी को दिया भी न गया और जब आस्ट्रियाई पीटर हेण्डके (2019) और पोलैंड की ओल्गा टोट्राचुक (2018)  को एक  साथ दिया गया तो विवादास्पद ही रहा । 2020 में यह पुरस्कार अमेरिकी कवि लुइस ग्लिक को दिया गया । इस घोषणा का सर्वत्र स्वागत ही हुआ । कारण यह भी रहा  कि स्त्री-विमर्श, स्त्री-काल और स्त्री अस्मिता के परौकार पाठक और आलोचक इसे भी रेखांकित करने लगे। तथाकथित  पुरुष प्रधान जगत में रवीन्द्र नाथ ठाकुर समेत सौ से अधिक नर-पुंगव साहित्यकारों के बीच केवल 16 स्त्रियों का होना कोई अचरज की बात नहीं। अमेरिका की एक अन्य नोबल साहित्य पुरस्कार विजेता टोनी मॉरिसन की तरह ही अध्यापन कार्य में निरत, येल विश्वविद्यालय अमेरिका  की ऍडजंक्ट प्रोफेसर (अंग्रेज़ी) के पद को सुशोभित कर रही सतहत्तर वर्षीय कवयित्री लुइस ग्लिक ( 1943-) को जब इस पुरस्कार के बारे में सूचना दी गई तो उनको सबसे पहले इस बात की चिंता हुई कि उनके ले दे कर कुछ लेखक ही मित्र हैं और अब उनकी संख्या भी नगण्य हो जाएगी(my first thought was  ‘I won’t have any friends because most of my friends are writers’.) । ग्लिक को अमेरिका में सराहने वाले हैं तो उनकी कविता के आलोचक भी कम नहीं। उनकी राय में ग्लिक की कविता में समकालीन संकटों की चर्चा का अभाव है और काव्यात्मक किन्तु झीने बिंबों और स्वप्निल सौंदर्यबोध में भी अनूठापन कम ही है।  पिछले दो दशकों में दो-तीन बार को छोड़कर प्रायः कथाकारों को ही नोबेल पुरस्कार मिला था और लग रहा था कि कविता लगभग नेपथ्य में चली जा रही है। कविता प्रेमियों के लिए यह समाचार सुख की फुहार लाया है । मौन- अभिव्यंजना की मुखर कवयित्री लुइस ग्लिक ने अपनी कविता की हर्ष -विषाद युक्त  समवेत स्वरलहरी से नोबेल पुरस्कार समिति को प्रभावित कर कविता के लिए मानो जीवन-दान ही प्राप्त करा लिया। एक अर्थ में यह कविता की वापसी भी है।

येल विश्वविद्यालय में उनके सहकर्मी प्राध्यापकों और सर्जनात्मक लेखन विभाग के छात्रों को अपने इस प्रेरणास्पद शिक्षक पर गर्व करना स्वाभाविक है। इज़राइल का मीडिया यह कहते थक नहीं रहा है कि   लुइस ग्लूक  चौथी यहूदी स्त्री हैं जिन्हें यह सम्मान मिला है। पहली अमेरिकी यहूदी अंग्रेज़ी प्रोफेसर और वह भी स्त्री, है न यह अचरज और आनंद की बात? अपने 50 वर्ष के दीर्घ साहित्यिक जीवन में लुइस ग्लिक (उपनाम ग्लिक अंग्रेज़ी के क्लिक के समान उच्चरित होता है) ने  दर्जन भर काव्य संग्रह प्रस्तुत किए और स्वाभाविक है अनेक पुरस्कार भी प्राप्त किए । 2003 में वे  अमेरिका की राष्ट्र कवि घोषित की गईं।  2015 में राष्ट्रपति ओबामा ने उन्हे नेशनल हयूमनिटीज़ मेडल प्रदान किया। फिर भी इनके संकोची स्वभाव और शोर-शराबे से दूर रहने की आदत ने इनका नाम और काम अब तक भारतीयों से ओझल सा ही रखा। यहूदी साहित्यकार प्रायः होते ही अंतर्मुखी हैं, बड़बोले तो कदापि नहीं । हाँ, अपने साथ हुए दुर्भाव को वे भूलते नहीं। नोबेल पुरस्कृत इज़राइली मूल की स्वीड कवयित्री नेल्ली साच्स यदि यहूदियों के प्रति होलोकास्ट को कविता के शिल्प में प्रस्तुत करती हैं तो गोर्डिमर दक्षिण अफ्रीका की रंगभेद नीति को अपने उपन्यासों का कथानक बनाती हैं । किन्तु अमेरिका में रच बस गई ग्लिक  के रचनात्मक संसार में गत आधी शताब्दी के राजनीतिक घटनाक्रम का बहुत कम प्रभाव है । वे मानों अमेरिकी कवि इमर्सन के इस कथन का पालन करती रहीं हैं कि कवि को कुछ पुस्तकें, थोड़ा एकांत और बहुत कुछ चिंतन-सामग्री ही तो चाहिए। बाहर से उसे क्या? तभी तो बाहरी शोर ग्लिक  की कविताओं में अनाहूत सा ही एक कोने में पड़ा रहा है।

उनकी पुस्तकों और निबंधों की सूची आप गूगल-प्रताप से देख ही लेंगे। चाहें तो उनकी सृजनात्मक लेखन कार्यशाला में लेखन के गुर सीख लें। स्वीडिश अकादमी ने ग्लिक को उनके संयमित सौंदर्यबोध युक्त अचूक काव्यात्मक स्वर और व्यक्तिगत अस्तित्व के  एक सार्वभौमिक रूपान्तरण (for her unmistakable poetic voice that with austere beauty makes individual existence universal) के लिए  इस पुरस्कार के योग्य पाया। वे अपनी कविताओं में ग्रीक और रोमन शास्त्रीय मिथकों को गूँथती हैं । नोबेल पुरस्कार समिति के अध्यक्ष अंदेर्स ओलसन ने ग्लिक की कविता को खरी और  बेबाक  तथा कटाक्षपूर्ण पर स्पष्ट माना है ।वे कहते हैं कि उनके पास अपने मत को व्यक्त करने का जो स्पष्टतापूर्ण और  समझौता न करने वाला अंदाज है वह रचनाओं को  व्यष्टि से समष्टि की ओर ले जाकर सार्वभौमिक बनाता है।

यदि आपको अब तक ग्लिक  जैसा कवि ध्यान में नहीं आ रहा तो मैं बताता हूँ । वे अमेरिकन कवयित्री एमिली डिकिन्सन जैसी गागर में सागर भरने वाली हैं और  नावक के तीर सी  उनकी कविताएं गंभीर घाव भी करती हैं। बचपन से लेकर आज तक के व्यक्तिगत जीवन में उन्होंने जो कुछ अनुभव किया उस अनुभव को अनुभूति बनाकर वे लिखती हैं ।  आत्म- कथ्य सी उनकी कविताई अपनी संवेदनात्मक बेचैनी के कारण वियोग और अकेलापन का पर्याय हो महादेवी तुल्य हो जाती है । लेखक बनने के इच्छुक पंसारी पिता की पुत्री ग्लिक ने बचपन में ही एक अजीबोगरीब बीमारी  अनोरिक्सिया पाल ली क्योंकि वे अपनी माँ को अपने व्यक्तित्व की बिंदासऔर फिट-फाट छवि दिखाकर मुग्ध करना चाहती थीं। अनोरिक्सिया से ग्रसित लड़कियों को यह भ्रम हो जाता है कि वे औसत से अधिक मोटी हैं और उन्हें हर संभव प्रयत्न करके साइज़ जीरो प्राप्त करना होगा। अपने को मुटल्ली मानकर  कॉलेज न जाकर घर में बैठी लड़की ने पहले तो समय बिताने के लिए बैठे- ठाले की कविता की । फिर उसे ठीक ठिकाने की बनाने के लिए 1963 से 1966 तक  कोलम्बिया विश्वविद्यालय के पोयट्री वर्कशॉपसे बाकायदा प्रशिक्षण प्राप्त किया। इससे उन्होंने अपनी कवित्व शक्ति को धार दी। विशेषतः स्टेनली क्वूनिट्ज़ नामक प्रशिक्षक ने उनके खोट को ठोक-पीटकर समतल किया। उन्हे यह भी समझ आ गया कि कवि कविता ही नहीं करता वह स्वयं -प्रेरक भी हो सकता है। टोनी मोरिसन ने तो बिलव्ड में संकेत मात्र किया था, ग्लिक ने  अनोरिक्सिया के विविध अनुभवों को कविता के शिल्प में ढालना शुरू किया। 1967 में विवाह हुआ और 1968 में  तलाक भी। फिर फ़र्स्टबोर्न(1969) नामक कविता संग्रह जरूर आया ।आप इसे सबसे पहले न ही पढ़ें तो अच्छा( ‘I hate them as I hate sex’ Gluck) , यह कवयित्री की इच्छा है।( I would suggest that they not read my first book unless they want to feel contempt, but everything after that I think is of some interest. I would say “Averno’ would be a place to start, or my last book ‘Faithful and Virtuous Night”.).   बिना डिग्री लिए पढ़ाई छोड़ देने से 1971 में ही कुछ बात बननी शुरू हुई जब वे स्वयं कवितापढ़ाने के लिए गोदार्ड कॉलेज में नियुक्त हुईं । वहाँ 1971 में अपने सहकर्मी के संसर्ग से 1973 में पुत्रवती होने  के कई वर्ष बाद 1977 में उन्हीं से विवाह किया। 1990 में फिर तलाक हुआ ।

इस दौरान वे अमेरिकी कवि जगत में एक परिचित नाम के रूप में उभरीं । गीतकार के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। शब्दों को तराशकर बड़ी मितव्यता से प्रयोग करना कोई उनसे सीखे। आवश्यकता  (नीड) और इच्छा (डिजायर) की कशमकश में वे अनिर्णय के पलों से निकलने के लिए कविता करती हैं ।   डिज़ायर या लालसा (इच्छा) आधुनिक साहित्यिक समीक्षा की मानक शब्दावली में फ्रायड के माध्यम से आया ।इच्छा इच्छा है , अच्छी या बुरी कुछ नहीं होती इच्छा। नीत्शे कह गए  हैं , “अंततोगत्वा हम अपनी इच्छापूर्ति ही तो करते हैं ,इच्छित का ध्यान कब रखते हैं?” प्रत्येक कृति कृतिकार की इच्छापूर्ति का परिणाम है। उदाहरण के लिए किन्नर विमर्श और है क्या ? तभी तो डेलयूज़ और गुयात्तरी के शब्दों में साहित्यिक कृतियाँ  इच्छाओं की मशीनें मात्र हैं। इसी तर्ज पर मैं इन्हें इच्छाधारी कवयित्री इस रूप में कहूँगा क्योंकि वे अपनी कृतियों से अपनी विभिन्न इच्छाओं को विचारार्थ प्रस्तुत करती रहीं हैं। पद, प्रतिष्ठा, नैतिकता और जेंडर आश्रित इच्छाओं का शब्दांकन करती कवितायें पुष्प को  विलाप और विषाद का  पर्याय बना देते हैं ।

आजकल कविता पढ़ने वाले कम ही हैं पर जो हैं वे ग्लिक की कविताओं में सराहनीय संवेदना पाते हैं। जो कविता पढ़ते ही नहीं वे यदि संयोगवश इधर से गुजरते हैं तो यहाँ उन्हें प्रेम में पड़ना, विवाहपूर्व संबंध, गर्भपात, विवाहपूर्व मातृत्व, आशा-निराशा, रोग-शोक,विवाह और विवाह-विच्छेद  और दैनिक जीवन के क्रियाकलापों ( शॉपिंग, वॉकिंग,टाकिंग) पर मार्मिक कवितायें बहुतायत से मिल जाती हैं । पेशे से प्रोफेसर कवयित्री एक कमरे के फ्लैट में रहती हैं  और नोबल पुरस्कार की धनराशि से एक मकान खरीदना चाहती हैं। 50 वर्षों से कविता को जी रही ग्लिक प्रेमचंद की तरह वृद्धावस्था को बचपन का पुनरागमन मानकर चली हैं और रोबर्ट फ़्रोस्ट की तरह कविता को जीवन का स्पष्टीकरण मानती हैं, मैथ्यू आर्नोल्ड की तरह उसकी आलोचना नहीं। उनके लिए कविताएँ आत्मकथ्य नहीं आत्मकथा हैं । उत्तर आधुनिक, उत्तर फेमिनिस्ट और उत्तरशिक्षित सांस्कृतिक सामाजिक व्यवस्था से ओतप्रोत  लुइस ग्लूक का लेखन कविता के शिल्प में है अवश्य पर  मुक्तिबोध की तरह उन्हें  भी पहले कविता के कहने की आदत नहीं थी ।

मैं हिंदी पाठकों को बता देना चाहता हूँ कि मेडिकल ह्यूमेनिटीज़ नामक डिपार्टमेन्ट में साहित्य के माध्यम से उपचार करने की संभावनाओं का अध्ययन किया जाता है और कुछ अमेरिकी विश्वविद्यालयों में आप इस विषय पर बाकायदा शोध कर सकते हैं। एक शोध-पत्र में अनोरिक्सिया के सौंदर्यबोध पर ग्लूक के गीतों का संदर्भ लेकर हेनरी वेंबर लिखते हैं कि इन गीतों में कवयित्री अपने अतीत के अवसाद को अभिव्यक्त करने का प्रयत्न करती हैं। विर्जीनिया वूल्फ ने कभी कहा था कि अंग्रेज़ी भाषा जिसमें हैमलेट के विचार और किंग लीयर की त्रासदी को अभिव्यक्त करने की शब्द सामर्थ्य है उसमें सिरदर्द और कंपकपी के लिए अनेक शब्द नहीं हैं। मानसिक अवसाद और घनीभूत पीड़ा को अभिव्यक्त करने के लिए हरेक व्यक्ति तो जयशंकर प्रसाद नहीं बन सकता। कविता के लिए यह पहली शर्त है। पाश्चात्य जगत में प्रेम,कविता और चिकित्सा के एकमात्र अपोलो  ही  आराध्य देवता हैं ।इस आधार को स्वीकृति देते   लुइस ग्लिक  के गीत उनकी घनीभूत पीड़ा की अभिव्यक्ति तो हैं ही , उनका उपचारात्मक उपयोग भी है। डाइटिंग और  भोजनेच्छा आदि विषयों पर कविता और गीत लिखकर कवयित्री ने अरस्तू के विरेचन सिद्धान्त को नई चाल में ढालकर दिखाया। उन्होंने वाल्ट व्हिटमैन के समान अपने आपको शुभकामनायें  देने  के लिए ही गीत नहीं लिखे , अपने को कोसने के लिए भी लगातार लिखा है। डेडिकेशन टू हंगर शीर्षक से लिखी गई लंबी कविता डाइटिंग करने वालों और उपवास करने वालों के लिए ही नहीं बल्कि भूख से बेहाल लोगों को भी मर्माहत करने के लिए पठनीय है। मोक ऑरेंज कविता में चुंबन को पुरुष द्वारा स्त्री के मुँह को जबरन बंद करने के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करते हुए ग्लिक का किक गहरी चोट करता है।

आजकल आठों पहर कवि रहने  की इच्छा रखने वाली यह अमेरिकी कवयित्री न किसी वाद में विश्वास करती है और न विवाद में । पाठक से सीधे संवाद करती उनकी कविताएँ अवसाद और नैराश्य के साथ साथ ही उत्साह और विश्वास को भी कविता के शिल्प में पिरोती हैं । अवर्णो संग्रह  की कविताएँ जीवन की खट्टी मीठी यादों को प्रस्तुत करती हैं( जब आपका उत्साह मर जाता है , आप भी मर जाते हैं)।ओम निश्चल इन कविताओं को केदारनाथ सिंह  (ठंड से नहीं मरते शब्द ; वे मर जाते  हैं साहस की कमी से) और कुँवर नारायण  की कविताओं से तुलनीय मानकर भावी शोधार्थी को संकेत में ही शोध के तुलनात्मक अनुशासन का सुझाव देते हैं। द वाइल्ड इरिस’(पुल्तजिर पुरस्कार) में जीवन-मृत्यु , उत्थान- पतन, आशा- निराशा, आदि ऋतु चक्र के समान परिवर्तनशीलता का दर्शन है। जब किसी सहकर्मी ने ग्लिक को   यह बताया कि वे अपनी प्रेमिका को इस पुस्तक की कविताओं के पाठ द्वारा लुभाते रहें हैं तो कवयित्री ने हँसते हुए कहा था   ,“ यह कविता संग्रह कम से कम उनके बहुत काम का है जो अपनी कामातुरता को आध्यात्मिकता का रूप देकर प्रस्तुत करना  चाहते हैं।” वे जहाज़ के पंछी की तरह कभी बचपन, कभी प्राचीन मिथक, कभी विवाह और कभी दिनचर्या पर लौट-लौट आती हैं। यहाँ समकाल है ही कहाँ , जो भी है या तो विषम काल है या कालातीत भूत और भविष्य । 'हैप्पिनेस' कविता की प्रथम पंक्ति में जो काल है वह स्पष्ट ही वर्तमान तो नहीं है - सफ़ेद बिस्तर पर एक आदमी और औरत लेटे हैं (ठंडी सफ़ेद चादरों पे जागें  देर तक –गुलजार)।  आम को खास और और खास  को खासुल-खास बनाकर प्रस्तुत करने के इस क्रम में वे पिता, माता, भाई, बहन, और अन्य रक्त सम्बन्धों को भी सान पर चढ़ाती  हैं। 'लोरी' (ललाबाई ) कविता में वे अपनी 'माँ' को अपने भाई बहनों, पिता और अन्य रक्त संबंधियों को सदा के लिए सुलाने की योग्यता से युक्त मानकर उनके कौशल  की तुलना ऐसे बच्चे से करती हैं जो 'लट्टू' से खेलता है। 'सबहि नचावत राम गुंसाई' यहाँ भी है वहाँ भी। वस्तुतः ग्लिक की कविताएँ शाब्दिक और आलंकारिक दोनों रूपों में अपने पाठकों को सचेत करने वाली रही हैं। वे जॉन मिल्टन के रचाए बसाए अद्भुत एक अनुपम बाग में मानो निरंतर निवास करते हुए अपने पाठकों को इस विषादपूर्ण जगत से लौटने के लिए कविताएँ लिखती हैं। रिल्के, एजरा पाउंड, विलियम कार्लोस विलियम्स और जॉर्ज ओपन से प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से प्रभावित कवयित्री के नीरव-संगीत को समकालीन भारतीय कवियों ने भी  सराहा है । मंगलेश डबराल ने  कवयित्री के भाषा संयम की सराहना की है। व्यक्तिगत रूप से मुझे  विटा नोवा ( शीर्षक महाकवि दांते के कृतित्व  से प्रेरित) संग्रह की कविताएँ पसंद हैं। वहीं से ली गई एक कविता की कुछ पंक्तियाँ मेरी तरह आपको भी मर्माहत करेंगी –

बेचारा ब्लीजार्ड

डैडी को तुम्हारी जरूरत है; डैडी का दिल भारी है

इसलिए नहीं क्योंकि वे ममी को छोड़ रहे हैं बल्कि इसलिए

क्योंकि जैसा प्यार वे चाहते  हैं

 ममी  के पास है नहीं , खेद है – ममी

गली में खुले आम रंभा हो नहीं नाच  सकेंगी ।

पता है आपको  यह ब्लीजार्ड कौन है ?  यह उनका पालतू कुत्ता है जिसके लिए विवाह-विच्छेद पर मम्मी-डैडी लड़ रहे थे। कवयित्री मासूम बच्ची बन पूछती हैं , “ ब्लीजार्ड  कुत्ता क्यों था ?” क्या आपने मम्मी के स्थान पर ममी के प्रयोग को लक्ष्य किया ? पुरुष को त्वरित और उन्मुक्त  रोमांस चाहिए , स्त्री उसके इशारे पर नाच नहीं पा रही है । और बच गए बच्चे-कच्चे , उनका क्या ?

निराला की अभी न होगा मेरा अंत से कई कविताओं का कितना भाव-साम्य है,यह आप स्वयं पढ़कर  जानें।ग्लिक भी तो लगभग हर संग्रह में  'एक फेरा और  लगाना'  (पुनः सवेरा और एक फेरा हो जी का)  चाहती हैं (The wish to move backward. And just a little.पीछे लौटने की इच्छा । थोड़ा सा ही सही) । जीवन की निरंतरता को रेखांकित करने वाले पश्चिमी विचारकों और कवियों की पांत में विराजमान कवयित्री के जीवन मर्म को उद्घाटित करती वीटा नोवाकी ये अंतिम पंक्तियाँ यहाँ देकर अंत का अनंत करना होगा – मैं समझती थी मेरे जीवन का अंत हो गया और मेरा हृदय विदीर्ण है/फिर मैं केंब्रिज आ गई /...

अब आप कवि की कुछ  छोटी कविताओं का पाठ करें -

1.श्वेत पुष्प

( इस कविता का शीर्षक है स्नो ड्रोप्स है जो वैसे तो एक  शांति और आल्हाद दायक  पुष्प  का नाम है लेकिन आलंकारिक रूप से शीत ऋतु के पश्चात  वसंत के आगमन का प्रतीक है  (मृत्योर्मामृतं गमय) । जीवन चक्र में सुख –दुख आते हैं ।नोबेल पुरस्कार प्रदाता समिति ने इस कविता को विशेष रूप से उद्धृत किया है क्योंकि इसमें  नीरव शिशिर के पश्चात कलरव पूर्ण वसंत रूपी अनूठे जीवन के आगमन का संकेत है ।  )

क्या तुम्हें पता है मैं कौन थी , कैसे रही  ? पता है

विषाद क्या है, फिर

शीत तुम्हारे लिए अर्थपूर्ण होना चाहिए ।

मुझे बचने की उम्मीद न थी ,

धरती धरे बैठी थी मुझे, मुझे उम्मीद न थी

फिर से जगने की, अपने शरीर के  ज़मींदोज़ होने के

अहसास के उपरांत ।  

और फिर से सचेत हो जाना , स्मरण रखना

इतने समय के बाद पुनर्जीवित होना

आगत वसंत के  मधुरिम प्रकाश में ।

ड़र गए , हाँ , लेकिन अपने इर्द गिर्द  फिर से

विलाप ,हाँ, जोखिम  और आनंद भी

नई दुनिया की नई बयार ।

( द वाइल्ड इरिससंग्रह की कविता स्नो ड्रॉप से )

2. रक्त पुष्प

(इस कविता का मूल शीर्षक ‘The red poppy’है। पोपी का लाल फूल प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात अतीत की स्मृति और भविष्य की आशा का प्रतीक बनकर यूरोप की सशस्त्र सेना के शहीदों के स्मारकों पर अर्पित किया जाने लगा था। यहाँ वस्तुतः मैंरक्त-पुष्प है जो कवयित्री के माध्यम से पाठकों को संबोधित कर रहा है ।)

 

रक्त पुष्प

 

बड़ी बात मन-मस्तिष्क की नहीं है

अनुभूति की है :

ओह, अनुभूतियाँ हैं मेरे पास

वे ही तो मुझ पर हावी रहती हैं ।

स्वर्ग में मेरा एक दाता भी है

सूर्य कहते हैं जिसे ।

मैं उसे अपने हृदय की धधक खोल

दिखाती हूँ, धधकन

उसकी उपस्थिति जैसी ।

यदि धधक नहीं है तो हृदय की महिमा कैसी ?

मेरे भाइयो और बहनों,

तुम आदम-जात बनने से बरसो पूर्व कभी क्या मेरे जैसे थे ?

क्या तुमने कभी खुद को

एक बार भी मेरे समान अनावृत होने दिया ?

मैं जो कभी फिर न खिलेगी?

क्योंकि तुम्हारे जैसा

सत्य जो मैं अब बोल रहीं हूँ

उसे बोलने के लिए पड़ता है छिन्न-भिन्न होना ।

 

3. झुकाव

 

( यह  द डीविएसन  कविता का अनुवाद है । पुत्री का पिता की ओर आदर्श के रूप में देखना और खुद को लड़की होने के कारण नरक का द्वार मान बैठना ही बुराई की जड़ है।  इसी से रोग-शौक उत्पन्न होते हैं। इस शरीर को पूर्ण रूप देने के लिए इसके मादापन को खत्म करना होगा। अनोरिक्सिया के उत्तर आधुनिक संदर्भ से ही इस कविता को समझा जा सकता है । )  

 

कई मादा बच्चों में

यह चुपके से आ जाता है:

मौत का भय, भूख के प्रति समर्पण भाव

का रूप धारण कर । 

क्योंकि एक औरत का शरीर

कब्र की तरह होता है; यह

सब कुछ भकोस लेगा, स्मरण है मुझे

रात में बिस्तर पर पड़े पड़े

बिखरी सी नरम छातियों को छूना

स्पर्श करना, सोलहवें सावन सी उम्र में

उमड़ते घुमड़ते लटकते लोथड़े

जिन्हें मैं मुफ्त में तब तक लुटाती जाऊँ

जब तक तन का फैलाव सिमट न जाए ।

सोचती हूँ अब कैसा लगता है , इन शब्दों का सहारा –

वही परफेक्ट होने की जरूरत जिसमें

मृत्यु सिर्फ एक बाइप्रोडक्ट है ।

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लेखन और अनुवाद : प्रो.गोपाल शर्मा

हिंदी और अँग्रेजी दोनों में डॉक्टरेट और चार विषयों में एम.ए. के साथ ही एम.फिल. (दो स्वर्ण पदक), एम.एड., पी.जी. डी.टी. ई. (सी.आई.एफ.एल.) आदि शैक्षणिक उपाधिधारक । देश के 5 नगरों और विश्वविद्यालयों (हरिद्वार, बंगलुरु, हैदराबाद, जयपुर, भोपाल) और अफ्रीका (गैरयूनिस,बेनगाज़ी, वोलेगा-निक्मत, अरबा मींच) के 4 विश्वविद्यालयों   में अँग्रेजी भाषा शिक्षण (ई.एल.टी.) और अँग्रेजी साहित्य के विशेषज्ञ प्रोफेसर  के रूप में लगभग चार दशकों  से कार्य-रत । अनेक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय  कॉन्फ्रेंसों में सक्रिय भागेदारी।  56 अँग्रेजी शोध पत्रों का प्रकाशन। हिंदी और अँग्रेजी में समान गति से पुस्तकाकार लेखन भी । 2020 तक 40 पुस्तकों का लेखन। अकादमिक पुस्तकों के अतिरिक्त नेल्सन मंडेला, नादिया मुराद, ज़ाक देरिदा, मुंशी प्रेमचंद, गौरी दत्त, नरेंद्र मोदी, राम नाथ कोविन्द, और रमेश पोखरियाल निशंक आदि  पर एकाधिक अँग्रेजी पुस्तकें देश विदेश के प्रतिष्ठित प्रकाशकों द्वारा  प्रकाशित । दक्षिण की हिंदी साहित्यिक पत्रकारिता और  रचनाकारों में  जान-पहचान और यथायोग्य प्रतिष्ठा ।

prof.gopalsharma@gmail.com

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