Wednesday, 28 October 2020

सुधांशु पन्त की कविताएँ

 

'अभिप्राय' के इस अंक में प्रस्तुत हैं युवा कवि सुधांशु पन्त की कुछ नयी कविताएँ -


कागज पर हिमालय

 

आप पद के योग्य हो,

या फिर अयोग्य।

काम आता हो,

या न आता हो।

 

निष्ठा, नैतिकता, संवेदनशीलता,

शब्द आपके शब्दकोश में न हो।

कुछ फर्क नहीं पड़ता,

बात सच मानिये।।

 

ज़नाब चलेगा,

चलेगा क्या दौड़ेगा।

अगर खड़ा कर लेते हो,

कागज पर हिमालय।।

 

 

रोटियां

 

आप से बड़ा,

कोई खुशनसीब नहीं।

अगर आप सिर्फ,

कागज़ पे ग़रीब हो।।

 

आप से बड़ा,

कोई बदनसीब नहीं

अगर आप सच में,

कोई गरीब हो।।

 

अगर ऐसा है तो,

हमेशा तैयार रहो।

तुम्हारी अर्थी की आग में,

सिकेंगी सियासी रोटियां।।

 

 

वृद्धाश्रम

 

जिन माता -पिता ने गुजारी,

अपनी सारी उम्र।

अपनी औलादों की,

अच्छी परवरिश में।।

 

गाड़ी दी,बंगला दिया,

अच्छा बैंक बैलेंस दिया।

और भी बहुत कुछ दिया,

सिवाय संस्कार के।।

 

ऐसे ही माता -पिता से,

भरे हुए हैं।

सारे के सारे ,

शहर के वृद्धाश्रम।।

 

 

बेरोज़गार

 

जो योग्यता में,

और अनुभव में।

हर तरह से ,

तुमसे है अट्ठारह।।

 

वो भी देते हैं,

एक से बढ़कर एक।

हजारों नायाब नुस्ख़े,

जीवन यापन के।।

 

जब तलक तुम्हारी,

जेब रहती है हल्की।

और तुम होते हो,

महज एक बेरोजगार।।

 

 

संक्रमण

 

अबकी गाँधी जयंती पर,

गाँधी के बंदरों ने।

खा लिया गलती से,

नेताओं का जूठा अल्पाहार।।

 

नेताजी का जूठा,

जाहिर है।

संक्रमण तो होना था,

और हुआ भी।।

 

मुनाफा न हो तो अब,

पहले वाला देखता नहीं।

दूसरा वाला सुनता नहीं,

तीसरा वाला बोलता नहीं।।

 

 

संज्ञा

 

जन्म लिया तो,

रामदुलारे की मुनिया बन गयी।

कुछ बड़ी हुई तो,

पप्पू की बहनिया बन गयी।।

 

ब्याह हो गया तो,

संजय की बहुरिया बन गयी।

संतान को जन्म दिया तो,

छोटू की अम्मा बन गयी।।

 

अपना तेरा नाम तो,

कभी आया ही नहीं।

जीवन से मृत्यु तक,

तू केवल संज्ञा बन गई।।

 

 

मीडिया

 

बेसिर-पैर की ख़बर को

प्रमुखता से दिखाती

जो दिखाना चाहिए

उसको कुशलता से छिपाती

 

चौथाई समय विज्ञापन

चौथाई समय फ़िल्मी नंगापन

चौथाई समय ज्योतिष चर्चा

बाकी चौथाई मसखरे बुलाती

 

टीआरपी के मकड़जाल में

फँसकर अपनी नैतिकता खोती

ऊँची बिल्डिंग के एक कोने में

मीडिया की आत्मा है रोती |

 __________________________

सुधांशु पन्त S/o श्री ललित चन्द्र पन्त

जन्मतिथि- 07/05/1980

शिक्षा- परास्नातक- मानव विज्ञान, पत्रकारिता एवं जनसंचार, इतिहास, शिक्षाशास्त्र (नेट)

रुचियां- भ्रमण, साहित्य अध्य्यन, लेखन

सम्प्रति- सहायक अध्यापक, बेसिक शिक्षा परिषद, उत्तरप्रदेश

संपर्क सूत्र- 9506082992, pant.sudhanshu80@gmail.com

Thursday, 22 October 2020

राख होने से बचे स्त्री स्वप्नों का कोलाज रचती कहानियां

पुस्तक समीक्षा


अंधेरा सघन होता है तो उजाले के लिए फिसलन कोई बड़ी बात नहीं है।वह बिछल बिछल पड़ेगा ही।और यह अंधेरा हैं पुरुष सत्ता की बेडियों मे सिसकती स्त्रियों के इर्दगिर्द सघनता वाला। यहां अब काबिलेगौर  तथ्य यह है कि इस बिछलन के बावजूद उजाला अपनी जगह बना पाता है तो यह वाकई सराहनीय ही कहा जाएगा।कुछ ऐसी ही अनुभूति शालिनी सिंह के पहले कहानी संग्रह "बदलते मौसम" की कहानियां कराती सी जान पड़ी हैं।  स्त्री मुक्ति अभियान की पैरोकार कहानियां मानीखेज बन पड़ी है, यह इस तथ्य पर हस्ताक्षर सी करती जान पड़ी कि जब अंधेरा अधिक हो तभी...।   खिडक़ी के उस पार चल रहे जीवन को पहले पूरी तल्लीनता के साथ देखा और गुना गया है और फिर बिना किसी लेखकीय हस्तक्षेप के तटस्थ होकर लिखी गई यह कहानियां महिला पात्रों की बात उठाती है। शायद यही कारण है कि हर कहानी से स्वाभाविकता की बड़ी सहज सी महक आती है।

             पहली कहानी" पालनहार"में नैरेटर कामिनी नाम की जिस महिला के रुतबे रुआब से खासी प्रभावित रही और पति से उनकी तारीफों के पुल बांधती हैं।उस पर पार्टी के दौरान जो मंजर बिजली बनकर गिरा, वह हतप्रभ रह गई तश्वीर का दूसरा रूप देखकर।"आलीना तुम"मे कहानी मध्यम वर्गीय जीवन वाले घरों में अपनी जीविका तलाशने वाली जाने कितनी उन बच्चियों के शोषण की जीवंत,और दुखद दास्तांं का प्रतिनिधित्व सी करती जान पडी है।कितनी ही बार पैर मे पेट देकर अपनी भूख शान्त कर लेने वाले वर्ग से आती अलीना के जीवन के गहन अंधेरे कोनों को टटोलती हैं यह कहानी।नैरेटर के घर कामवाली के रुप मे आई अलीना के जीवन की दुश्वारियों के ग्रे शेड्स को इस कहानी में जगह मिली है।अलीना के साथ हो ली सारी संवेदनाएं चचेरे देवर की आरोप के बाद हाथ छुड़ाकर दूर जा खड़ी हो गई।"काकी"मे सुधा नाम की महिला पात्र की नाजुक मिजाजी और समस्त वैभव के गलियारों से होकर गुजरती यह कहानी अंत तक आकर उनकी असहाय स्थिति की दुखद तश्वीर के बहाने उम्र बढ़ने पर अपनों के ही हाथ छुड़ा लेने के कडुवे यथार्थ को पाठक के आगे रखती है और इस प्रकार से काकी के जीवन के आइने मे बदली हुई बेचारगी भरी तश्वीर,इसे प्रभावी कहानी बना गई।"त्रिकोण का चौथा कोण"कच्ची कहानी लगी जिस पर अभी और काम किए जाने की मुझे आवश्यकता महसूस हुई है।हां अंत जरूर बेहतर कहा जाएगा,"लगता है, सीता का वनवास तो चौदह बर्षों मे खत्म हो गया था,  मेरा कब होगा?वो अहिल्या तो शाप मुक्त हो गई, पर क्या ये अहिल्या कभी शाप मुक्त हो पाएगी?

       " फर्ज "जीवन की बडी ही सहज सी घटनाओं को जोड बटोर कर लिखी गई है।यह कहानी पिंजरे को ही अपना आकाश न समझ लेने वाली रमा की है जिसने अपने बलबूते पर संघर्षों से अपनी इच्छा के अनुरूप पढाई की और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर भी हुई।जीवन की तमाम दुश्वारियों समेत भावनात्मका की प्रबल वेगवान तरंगों को धता बताते हुए अपने लिए ठहराव तलाश लिया ।ठीक तभी तपते रेगिस्तान में उसने खुद के लिए सुकूनदायक झरना बनकर कलीग विशाल मिला जिससे कुछ समय बाद ही नकाब उतर गया ,विशाल समेत उसकी मां रमा से अधिक उसके पैसो मे रूचि रखते रहे।और इन स्थितियों से दो चार रमा के पास मां बाबूजी आए उनके लिए रमा ने कोई कसर नहीं उठा रखी,बावजूद इसके एक महिला से शिकायतों का पुलिंदा खोले बैठी मां को पाकर उसे गहरा क्षोभ हुआ, वह विशाल को दो टूक जवाब देती है, यह कहकर तुम कोई अच्छी सी लड़की तलाश शादी कर लो और मां बाबूजी को भाई-भाभी के घर जाने को टिकट लाकर पकड़ा दिया जो कुछ नहीं करते हुए भी रमा की वनस्पति उनके लिए कही अधिक फिक्रमंद हैं।एक और संवेदनशील कहानी "गृहप्रवेश"दिलपसंद कहानी की श्रेणी मे रखी जा सकने योग्य  हैं।त्योहारों पर किसी का भी मन नास्टेल्जियाई हो आना कोई नई बात नही है।नौकरी से राधेलाल रिटायर हो चुके हैं  ऐसे मे बदलते समय मे बदरंग हो चुकी दिवारोंं के रंग  उनके वर्तमान के कैनवास पर आडी तिरछी लाईने खींचने मे मशगूल हो जाते है ।वह बच्चों द्वारा बाहर जाने के कारण महज सुरक्षा की वजह से वृद्धाआश्रम पत्नी समेत छोडे गए हैं।वही होली के दिन वह अतीत की जीवन यात्रा पर निकल पड़े अपनी स्मृतियों के गढ़ते वितान मे अपने अतीत और वर्तमान के बीच पाठक को आवाजाही कराते राधेलाल जी कभी पत्नी के त्याग समर्पण और अपने ओढे दायित्वों को समझ ही न सके और अहम वश अपनी ही मनवा कर जैसे पत्नी को कृतार्थ करते रहे।वह उसे प्रताड़ित ही करते।पर लक्ष्मी की अद्भुत सूझबूझ ही रही जो सबके आने पर घर में अनायास ही आंखे बरस पड़ने पर स्थिति को संभालने के लिए आंखें की ड्राईनेस की बात रखकर अपने कमरे में चलने की बात कहती है।पिछली पीढ़ी के पति पत्नी के संबन्धों का जीवन्त दस्तावेज बन पड़ी है यह कहानी।।  

           जहां  स्त्री जीवन के एक और बेहद निर्मम यथार्थ को खंगालती"बस अब और नहीं" मृणालिनी पति के व्यवहार से आजिज आकर भावनात्मका की स्नेहिल सी छांव मधुर मे तलाश बैठती है लेकिन उससे भी मिला तो क्या बस छल।आखिरकार वह इस सम्बंध से भी किनारा कर लेती है।वही "एक नई सुबह" भी पारंपरिक पिंजरे वाले अदृश्य सीखचों मे कैद। स्वर्णा की शादी महज दिखावा भर बनकर रह जाती है।पति से पत्नी का सुख चाहने पर प्रताड़ना मिलती सो अलग अल्बत्ता छींका  लपकने की फिराक में लगा देवर पति से मिलाने के बहाने।वह दूसरे घर की चाभी पाकर दूसरे पति की हकीकत से रूबरु होकर उसने ससुराल से हर रिश्ते को गुडबाय कहने मे तनिक भी देर न लगाई।अब बारी आती है मायके की उस ओंर ठहराव और स्थायित्व भी नहीं मिल सका प्रवासी पक्षी की नजर से खुद को देखा जाने पर उसने अपने ही परों पर भरोसा करके संभावना  भरे अनन्त आसमान में अपनी उड़ान तलाशने निकल पड़ी।स्त्री जीवन के खुरदुरे यथार्थ से उगी यह एक महत्वपूर्ण कहानी है|

          आत्ममुग्धता के चरम शिखर पर हो तो वह नितांत ही अकेला हुआ करता है।चमक और चकाचौंध मे साथ कितने दिन का?मुग्धा के बहाने समाज के संवेदन स्तर को बेहद नपे तुले अंदाज में बयां किया है।अपने ढंग से और खुद की शर्तों पर जीने मे यकीन करने वाली मुग्धा की यह कहानी अंंत तक आकर उपेक्षा की खरहरी खाट पर लोटती देखकर पाठक को प्रभावित करती हैं।चमक और चकाचौंध मे साथ देने वालो मे कौन किसका सगा,हां अलबत्ता इस फेर में अपनों से भी दूर हो जाते है हम।

         बेटे के लिए सर्वगुण सम्पन्न बहू किस मां का सपना नहीं होती है।विहान की मां ने बिल्कुल यही तो सपना देख सुकन्या को शादी कर घर ले आई पर नौकरी के बाद उसके रंग इस कदर बदले कि सुकन्या सू बन गई |

विहान के पैसे भी उसी की मरजी से खर्च होते है।कुल मिलाकर दो लोगों के बीच सम्बन्ध के सांस लेने को जिस स्तर तक ऑक्सीजन की आवश्यकता हुआ करती है सब दम तोड़ता गया और जब एक रोज विहान ने अचानक अपना फैसला सुनाया तो इस अपरिचित रूप से सू को यही लगा कि इस विहान को तो वह जानती ही नहीं।सम्बन्धो की विडम्बना से जूझती प्रभा आत्मनिर्णय मे समर्थ हैं।वह मौन प्रतिरोध की राह पर चलकर पुरुष सत्ता से संघर्ष करना जानती है।पति अमन की  बीमारी की स्थिति में जीवन के पन्ने पलटती जिम्मेदारियों के पहाड़ तले दबी ऐसी जाने कितनी ही स्त्रियों के जीवन - संघर्ष को स्वर देती हैं प्रभा।हजार कमियां होकर भी पुरुष आखिरकार पुरूष तो हैं ही और इसी अहम के चलते बच्चों के भूखों मरने की नौबत आने पर पति से छिपाकर प्रभा घरों में खाना बनाती है जब पति अमन पर यह बात खुली तो वह प्रभा की जमकर पिटाई करता है पर औरत करे भी तो क्या वह बच्चों के लिए ही हिम्मत नहीं हारती हैं और फिर काम पर चली जाती है आखिरकार पति उसके योगदान को बीमारी की स्थिति में ही सही स्वीकार करता हैं।आज के समय के ताप से जूझती कहानी को संग्रह के शीर्षक नाम वाली कहानी " बदलते मौसम"को सबसे अंत में स्थान मिला है जो एक और कामवाली की लड़की की बात करती हैं उसकी राम कहानी मे सचमुच बदलते मौसम की आहट सही अर्थो मे सामने आती हैं।सास ने किरण पर कमाई के बाद भी बंदिश लगा दी कि एक रुपया अपनी मर्ज़ी से न खर्च कर सके वह हताश हो गई पर नैरेटर की सीख के बाद उसने गृहस्थी की गाड़ी में अपने अधिकार की चाभी घुमाई वह सुचारू ढंग से दौड़ पड़ी अब पैसे भी किरण के अपने है और घर में सुखद मौसम के बदलाव की आहट भी दस्तक दे गई।

            कुछ मिलाकर देखे तो संग्रह के शीर्षक की सार्थक उपलब्धि के साथ साथ  जीवन की असमाप्त कहानी की बात करती इन कहानियों के रुप मे उस घिनौने यथार्थ पर से पर्दा हटाने का काम हुआ है।  

भाषागत सतर्कता बडी विशेषता कही जाएगी सामान्य पाठक को ठीक ठीक समझ आने वाले शब्दों के सहारे जीवन के समकालीन यथार्थ के जीवन्त दस्तावेज मे लेखिका ने एक और नाम अपने पहले संग्रह का जोड़ दिया।

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समीक्षक- कुसुम लता पाण्डेय

कहानी-संग्रह- बदलते मौसम

लेखिका- शालिनी सिंह

 प्रकाशन- रश्मि प्रकाशन, लखनऊ

प्रकाशन वर्ष- 2019

मूल्य- 150 रु.

Friday, 16 October 2020

कुसुमलता पाण्डेय की कहानी

प्रीत वाली पायल बजी

         मिट्टी से लिसड़ा प्रेम का नन्हा अंकुर, पहली दो पत्तियां निकली. एकदम तनी पत्तियां. पौधा बन फलने फूलने को उतावली. एकदम चटक हरियाली ने समूचा कोना ढक लिया. मेरे भीतर स्मृति की अंधेरी नदी में अनगिनत दिये थरथरा उठे. वह लहरों पर तैरते कुछ इस तरह आकार लेने लगें कि संजू नाम लिख गया. फूलों से नहाए वे दिन. मैं पीछे मुड़ा और उन दिनों को देखने लगा.

         संजू को पहली बार अपने घर के सामने से गुजरते देखा. अमलतासी रंग का चूड़ीदार पायजामा. कढाई वाली लाल कुर्ती. स्कार्फ से ढका हुआ चेहरा. उन दो बोलती आंखो से बड़ी पुरानी पहचान महसूस हुई. शाम होतीमैं सड़क से गुजरते लोगों मे वह बोलती आंखे ढूंढने लगा. अगर किसी दिन गाड़ी रिक्शा की आड़ की वजह से दीदारे-यार वाली सूरत नहीं बनती. एक अनमनापन मुझमें उसे न देखने तक फैल जाता. जिस दिन देख लेता मैं, खुद को बडभागी मान बैठता.

          जाने कितने दिनों के बाद उगता हुआ सूरज देखा। भोर का नर्म उजाला ओंस के फूलों पर तितली की तरह मंडराने लगा. संजू आती दिखाई दी. अब हर सुबह उगता हुआ सूरज देखना है. मैंने निश्चय कर लिया. अगर प्रेम वर्ग-पहेली हैं तो उसकी पेंचीदगियों मे मैं उलझता गया. जिसे हल करने मे हार कर शागिर्द बना अपने दोस्त पियूष का.हम दोस्तों की मंडली उसे जेम्स बांड007 कहती. संजू के हिस्से में परिवार का इतना ही दुलार आया,घर के पिछले हिस्से तक जितनी रौशनी जाती है.सुनी तो संवेदनाएं गझिन हो गई.

          वह प्रो.विकास की देखभाल करने लगी हैं. मालूम पड़ने पर लगा,कारू का खजाना मिल गया. सेवानिवृत्त प्रो.सर के दो मंजिला घर में यदि उनके साथ कोई रहता है तो वह अकेलापन हैं. बच्चे सेटेल हो चुके है. पत्नी को किसी बीमारी ने असमय छीन लिया,परन्तु उन्होंने अपनी व्यस्तता का पूरा इन्तजाम कर रखा है. घर के एक कमरे में लाइब्रेरी, जिसमें साहित्य और दर्शन से जुड़ी किताबों का शानदार संग्रह है. वह पत्र-पत्रिकाओं में आलोचना और समीक्षाएं लिखा करते हैं. इतनी व्यस्तता में समय पर दवाई के अलावा कई अन्य जरूरी काम छूट जाते.अखबार में विज्ञापन निकलवाया और जब संजू ने सम्पर्क किया, उसे रख लिया. वह आराम कुर्सी पर बैठे बैठे किताबें तो पढ़ लेते, टेढे-मेढे अक्षरों में लिखना भी हो जाता परन्तु गर्दन में दर्द के कारण टाइप नहीं हो पाती. मुझे जब समय मिलता मैं प्रो.सर के मैटर टाइप कर देता.

           संजू क्या आई अचानक उनके घर जाने के मायने बदल गए.वह घर मंदिर बन गया,मेरे लिए.इधर संझौती को दिया बत्ती का समय होता. मै चाह के दो फूल लेकर चल पड़ता. कमर मे चुन्नी बांधे, मैंने पहली बार वह चेहरा देखा. बिना स्कार्फ के.फूल पर पड़ी क्वारी ओंस जैसा रूप. सादगी भरी बेफिक्री बयान करती आंखेंं.

          सर्दियों के दिन छोटे होने लगे. उनके घर से संजू लौटती, रात का अंधेरा जैसे हो आता. मैंने कई बार साथ चलने को कहा. वह झिझकीलेकिन विकास सर के कहने पर राजी हो गई. खुद मे सिमटी सी बाइकपर बैठती. कुछ दिन बीते. वह थोड़ा खुलने लगी. बाजार से कुछ लेना होता, साथ में खरीद लेती. झिझक वाली धुंध से उगी गूंगी यात्राएं अर्थपूर्ण हो गई. मैं जान न सका. यह मुझे उस दिन पता चला जब अचानक "आप" बदल गया "तुम" मे. कही उस ओंर भी तो नहीं अंखुआने लगे ढेरों सपने.

          फरवरी के मधुमासी दिन. पार्क में खिले फूलों का भरा पूरा यौवन. नर्म धूप के छूने से पेड़ों का रह रह कर झूमना. रूक रूक कर हवा की सरगोशी से बजती पत्तियां और एकान्त की गुदगुदी. तन की कितनी गांठें खुलने लगी. "तुम्हारा प्रेम मेंहदी की खूशबू हो जैसे. मेरे रोम रोम में यह रच बस सा गया है. "विडचैम की पतली रूनझुन वाली आवाज मुझमें उतरी.

 "समय के पत्थर पर हमारा प्रेम कितनी गहरी लकीर खींच पाता है, कुछ कह पाना मुश्किल है"

"ऐसा क्यों?":-संजू पर जैसे आसमान से बिजली गिरी हो।

"मुझे गुंडगांव जाना होगा,एक मल्टीनेशनल कम्पनी ने जॉब ऑफर की है":-मैंने बताया

"अरे यह तो खुशी की बात है."अगले ही पल वह गौरैया सी चहक पड़ी.

हां,सो तो है. मैंने बात यही पर वाइंड अप कर दी. कुम्हलाया कमल मैं कैसे देखता.पर संजू खामोश बैठी रही. कही भीतर उद्देलन तूफान की तरह चलता रहा. मैंने कबूतरों की गुटरगूँ से भरे खंडहर तक चहलकदमी का प्रस्ताव रखा.सोचा,गुड़गांव जाने से उपजी उदासी पिघल जाएगी.

           खंडहर के प्रवेश द्वार पर पर पैर रखते ही अपने नीडो मे दुबके सचेत परिन्दे कुनमुना उठे.निचाट उजाड़ खंडहर. अंधेरे के महीन रेशे संजू के गालों से लटों की तरह खेलने लगे. "अंधेरे में परछाई की तरह तुम मेरा साथछोड़ तो न दोगे.":-संजू की आंखों में गहरी झील उग आयी.

"अरे, मैं कोई दुष्यंत हूँ,, जो शकुंतला से अंगूठी गुम होने पर वह भूल गया."मैंने उसे समझाया

           सांझ की झील में अंधेरा जलपाखी की तरह तैरने लगा.हम घरों की ओंर लौटने लगे.रास्ते भर बात बात पर खिलखिला देने वाले होंठ आज नहीं हंसे.मैं संजू को उसके घर से कुछ पहले तक छोड़ने आया. उन आंखो मे उदासी का पानी अभी तक सूखा नहीं था.

           अब तक उसकी छाया को छूकर खुश हो लेता मैं. स्फटिक जैसा पवित्र मन लेकर यह रिश्ता जीता रहा मैं. संजू को खंडहर बन चुकी पाषाण खंड की प्राचीरें भली लगी.उसकी सांझ के झुटपुटे मे प्रेम गंध से नहाई देह आमंत्रित करने लगी.हर रोज. उस दिन. क्षितिज पर,आसमान का धरती की देह पर झुकाव देखा.अंधेरे की पलकें गेरुए उजाले ने चूम ली.अंधेरा कांप उठा.वह सकुचाकर खुद मे ही सिमट गई. मेरे भीतर आदिम चाहना की कच्ची नींद उसी पल टूट गई. सामने हरा-भरा यौवन का जंगल. मैं खुद को जंगली बनने से रोक न सका,पर संजू की मर्जी के बगैर नहीं. भीतर से उठती तरंगों ने एक ही कोण ढूंढ लिया.

           प्यार से पगे वह पल.सुदूर पहाडियों के झुरमुट से पीछे, अकल्प अछोर उतरता रहा.

           अपने शहर में मेरी आखिरी रात. संजू का मायूस चेहरा रह रह कर सामने आता रहा. जैसे वहां उतरती सांझ का अंधेरा जम गया हो.

           रेलवे स्टेशन पर खामोश आंखो ने एक दूसरे के कितने संदेश स्वीकारे.मन के किसी कोने में अनकहा कितना कुछ छूट गया. अगला दिन. नया शहर. नये लोग.नया माहौल. मैं उस परिवेश को खुद मे आत्मसात करने लगा.परिवार में बिना नहाए एक कप चाय नहीं पी थी.यहां आकर दिन भर के काम से उपजा तनाव थकान दो चार पैग से दूर होने लगी.मेरा माज़ी मुझसे दूर होता चला गया, बहुत दूर "जूम लैंस "मे से पास का दृश्य दूर चला जाए.मैं लिव-इन मे एक कलीग्स के साथ रहने लगा.गार्गी नाम था उसका.लड़की नहीं फूलों की बहार हो जैसे. पास होती तो सब मह मह करता.

            वह जिस घर में पेइंग-गेस्ट थी,मंदी के दिनों में उनके बेटे की नौकरी छूट गई. वह अपने परिवार के साथ वापस लौट आया.

           पहले प्यार को अपने भीतर बेरूखी का क्लोरोफार्म सुंघाकर सुला दिया.यह बेहोशी भरी नींद संजू के फोन और मैसेजों से भी न टूटी और दूसरा, वह प्यार था ही कबमेरे फ्लैट के साथ साथ मुझे किसी रिहायशी होटल के कमरे की तरह इस्तेमाल किया.तीन साल का वक्त लगा मुझे छोटा सा सच जानने में कि लिव इन मे दो देह एक छत के नीचे रहती रहती हैं, बिना किसी नियम शर्त से बंधे. जिस दिन गार्गी चली गईं, प्रो.विकास से तर्कों मे विजयी होने का दर्प, युद्ध में हारे सिपाही की तरह सामने सिर झुका कर खडा हो गया.

               सुख देकर दु:ख तो नहीं मिलता

          लड़की की कहानी में पात्र बदलते आ रहे हैं. जाने कब से. घटनाएं घूम फिर कर वही रहती है. अपनी धुरी पर घूर्णन करती. वह बदलती हैं पर निहायत ही मंथर गति से. बेहिसाब बंधनों मे शिथिलता आएगी भी कितनी. बुझे बुझे मन वाली लड़की को रत्ती भर प्रेम मिला.मैं खिल गई. आह!मुझमें अप्लावित ढाई आखर का वह सिंचन. सुनी अनसुनी ढेरों आकांक्षाएं एक साथ फल-फूल उठी.राजीव के आकर्षण की धूप में तन सुनहरा हो आया और मन भी.पहली बार जाना, मेरा वजूद भी हैं.

          वह खुद मे कितना रहता है, मैं नहीं जानती. मुझमें अखंडित ढंग से रहने लगा.और एक दिन अंतरंगता वाले बादलों ने निजता का सारा आकाश ढंक लिया.

"इन आंखो मे लहराता नीला समुद्र पीना हैं मुझे, प्लीज.":-वह मेरी ओर तीखी प्यास लिए बढ़ा.उन होंठों ने प्यासी जमीन पहली बार छू ली.एक आंच सी सुलग उठी मुझमें. उन पलों में वह अगस्त्य बन गया. देह में उठती बैठती सांसें कांप उठी.उनकी गति तेज हो आई. कबूतरों की गुटरगूँ के शोरसे भरे खंडहरों में उस शाम बिजली की कौंध सी जन्मी.शायद इसलिए कि तुम अपने हिस्से का सुख चुन लो और तुम्हारे छोडे दु:खों के विराने मे अभिशापित सी सिसकती रहूं, सुबकती रहूं. मैं तो समझ बैठी थी कि होंठ से होंठ पर दस्तखत वाला अनुबन्ध उम्र भर सिरजना हैं पर नहीं,यह हमारेरिश्ते का पक्का सुबूत कहांं था. सब जाली दस्तावेज की तरह फर्जी.प्रो. साहब के सामने लव मैरिज के पक्ष मे खड़ा होना अब मछली फंसाने को जाल फेंकने जैसा लगता है.

           हरी दूब जैसी मुलायम छुअन थी,तुम्हारी.कहाँ जान पाई धुंधलके में जिस हरियाली पर मोह उठी हूँ वहां कांटों से भरे कैक्टस के सिवा कुछ नहीं मिलेगा. अपना समुद्र तुम्हें सौंप दिया. अब मैं उजाड़ रेगिस्तान ही शेष बच्चे. रेतीला सपाट मैदान, जहाँ कोई ख्वाहिश नहीं उगती.

           जीवन की अनुकूलता तलाशने प्रवास के कुछ महीने साइबेरियाई चिड़िया आती हैं. उनके साथ तुम आए.बसंत का आना तुम्हारी विदा बना था,तुम जब तक पास थे, दिन हिरण की तरह चौकड़ी भरते हुए गुजरते गए. तुम्हारे जाते ही गीली रेत बन गए. क्या मजाल एक कण टस से मस हो.

          शहर क्या बदला ,तुम बदल गए. तुम सचमुच दुष्यन्त बन गए और मुझे शकुंतला बना डाला.मेरी अनिच्छा के बाद भी.

                  खोकर कितना कम मिला

          एक माह हो गया. शादी के बाद इसी शहर में रहने वाली बेटी मिलने नहीं आई.जब फोन पर बात करने की कोशिश करता हूँ किसी काम का बहाना करके बात नहीं करती.लोगों की निगाहें संजू से इस बेमेल से रिश्ते की वजह पूछती है. वह खिल्ली उड़ाती सी महसूस होती हैं. सच कहूं तो इस कहानी में मुझे नैरेटर होना था.जिन्दगी पीछे छूट चुकी हैं. हांफती हुई उम्र. अपनी बासठ साल की जिन्दगी मे कितने पात्रों को जी चुका हूँ,परन्तु इस कहानी का पात्र बनकर मुझे सिर्फ अफसोस है और शायद आप भी मेरी सोच से सहमत होगे कहानी पढ़ने के बाद ही सही.

              यह कहानी बावफा संजू और उसके बेवफा प्रेमी राजीव की है. कहानी में शब्द दर शब्द, रेशा रेशा यथार्थ मिलेगा. पर बेतरतीब ढंग से फैला पसरा.कोई सुगढ़ क्रमबद्धता नहीं.

                मैं खूब जानता था, क्या चल रहा है उनके बीच .मुझे मालूम था कि दोनों सांझे जीवन के आकाश का हिस्सा बन चुके है.स्थितियों से अनुकूलन बैठाना कैक्टस की विशेषता है. उन दोनों ने स्थितियों को अनुकूल बना लेने की जिद ठानी हैं. देखकर अच्छा लगा.

              उन दिनों वह लड़का लड़की कम,प्यार से भरे हुए प्याले ज्यादा दिखाई पड़ते. बात बेबात छलकते, होंठ खामोश. आंखें हंस देती उनकी. मेरी मौजूदगी में आंखें बचाते हुए एक दूसरे को चोर नजर से देखते.जिस दिन उन दोनों में से एक नहीं आता, उनकी बेचैनी देखता मैं. इन्तजार गर्म दोपहरी हैं, मुश्किल से गुजरती हैं.

               वह पर्त दर पर्त आपस मे खुलते गए. इतना जहां से सब समेट पाना मुश्किल है. झीनी पर्त भी न बची.

              संजू कल तक गाती गुनगुनाती रही. अचानक दीवार पर टंगी बेजान तश्वीर बन गई. मुझे लगा,राजीव चला गया इसलिए उदास हैं. असल वजह मुझे सोया जानकर किसी सहेली से बातचीत से मालूम पड़ी.राजीव से मेरे रिश्ते को दुनियावी अर्थ मिलना बेहद जरूरी हो चुका है.

             राजीव के रवैये ने संजू से उस रिश्ते का धरातल छीन लियाइसके बाद वह गहरी उदासी भरी घाटियों में कब तक भटकती .वापसी के सारे रास्ते बंद हो चुके थे. चयन अपना जो था. वह निरूपाय जान देने पर अमादा थी.मेरी प्रतिष्ठा क्या दो प्राणों से ज्यादा मूल्यवान थी.काफी सोच विचार के बाद संजू से शादी का निश्चय किया.

              उसके घरवालों को लगा कि संजू के भाग्य जाग गए. जबकि शादी क्या उसके सम्मान पर चुनरी डाल दी मैंने. क्लैडर से समय ने सवा तीन साल नोंचकर फेंक दिए.पल पल का हिसाब बेमानी है. यह कहानी को अनावश्यक रुप से लम्बा ही खींचेगा.हां संजू के लिए इस घर मे अलग कमरा है और नमन हूबहू राजीव की जीरॉक्स कॉपी लगता है.

             जबरदस्त कोहरीली और सर्द हवा से ठिठुरती रात.दस साढे दस का समय.संजू नमन के साथ शायद अपने कमरे मे सो चुकी होगी. मैं ब्लोअर की आंच के सहारे किसी लेखक मित्र का ताजा छपा उपन्यास पढ़ने में तल्लीन था.मोबाइल ने बजना शुरू किया. स्क्रीन पर राजीव का नाम चमकता देखकर मैं चौंक पड़ा.निहायत ही शुष्क औपचारिकता के साथ "हैलो"बोला.

"हैलो!विकास सर नमस्कार',मैं राजीव... लहरों की तरह अलमस्त अंदाज में बात करते राहुल की आवाज में भारीपन व लड़खड़ाहट रही. कही कुछ टूटा फूटा था."

"आधुनिक जीवनशैली बेहतर है के पक्ष में मैने आपसे कई बार लम्बी जिरह की.इस भ्रम में हमने कई साल गंवा डाले.अपने शहर में बीते दिनों की यादें सुकून देती हैं. ऊपर से आकर्षक किन्तु भीतर से बोझिल हैं यहां जिन्दगी. वर्क लोड और कम्पटीशन का स्लो प्वाइजन है यह आधुनिकता. जिन कंधों पर सर रखकर लोग सुख-दुख बांटते हैं. सरोकार बदले, कंधा भी बदल दिया."

राजीव तुमने शराब पी है, मैने पूछ लिया.

"हां पी है. खैर मेरी छोड़िए, आप कैसे है और संजू आपकी देखभाल करती हैं वह."

"राजीव मै स्वस्थ हूँ और संजू यही है मेरे पास"

        बेनतीजा मोड़ पर खडी़ कहानी अपने अंत की आज भी राह देख रही हैं.

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कुसुमलता पाण्डेय 

शिक्षा- स्नातक डिप्लोमा

सम्प्रति- स्वतन्त्र लेखन

रचनाऐं- दैनिक जागरण, कथाक्रम, सर्वसृजन, वर्तमान साहित्य, जनसंदेश टाइम्स हरिभूमि स्वतन्त्र भारत, उत्तर प्रदेश, इत्यादि पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित आकाशवाणी लखनऊ से कहानी प्रसारित अनुभूति के इन्द्रधनुष कविता संग्रह में कविताएं समीक्षा कहानी संग्रह

जलेस लखनऊ इकाई सदस्य

सम्मानः सर्वसृजन कथा सम्मान 2015

ईमेल- pandey.kusum537@gmail.com

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