Monday, 15 January 2018

मूल्यांकन - 6 : कुँवर नारायण

'स्पर्श' पर चल रही मूल्यांकन शीर्षक आलोचना श्रृंखला में विजेंद्र, विष्णु नागर, भगवत रावत, वीरेन डंगवाल और विनोद कुमार शुक्ल के बाद इस क्रम में अब प्रस्तुत है कुँवर नारायण  के कविता कर्म पर युवा कवि कुमार मंगलम का यह आलेख...


कविता में दर्शन बोध की तलाश बरास्ते कुँवर नारायण

          साहित्य और दर्शन दोनो ही जीवन के प्रश्नों से सूक्ष्म अर्थों में जुड़ती हैं। जीवन से गहरे लगाव के फलस्वरूप अभिव्यक्ति से साहित्य और चिंतन से दर्शन उत्पन्न होता है। साहित्य अपने उदात्त अर्थों में दर्शन की ऊँचाई को प्राप्त होती है वही दर्शन लोकधर्मी होने के लिए अपने को साहित्य में व्याख्यायित करता है। दर्शन की प्रकृति जटिल तो साहित्य की प्रकृति सहज होती है। अंततःसाहित्य और दर्शन दोनों का अंतिम लक्ष्य मनुष्य ही है।  कुँवर नारायण कविता के संदर्भ में लिखते हैं- “कविता और कविता की रचना-प्रक्रिया गहरे रूप से जीवन के समूचे संदर्भों से जुड़ी है। यह संबंध सहज और सीधा हो सकता है, जटिल और कल्पनाशील भी। ... विज्ञान, यहाँ तक कि साहित्य-शास्त्र की भाषा में बात करने की तुलना में यदि हम जीवन के रूपकों की भाषा में कविता के बारे में बात करते हैं तो अचानक से कविता का बेहद नाजुक और संवेदनशील मर्म अधिक सुगम हो सकता है। संस्कृति, इतिहास, मिथक-शास्त्र और समकालीन यथार्थ जैसी विविधताएँ किस प्रकार कविता में विशिष्ट और निजी बनकर आती हैं- किस प्रकार कविता में वे भावात्मक एकत्व पा लेती हैं और हमसब के भीतर की उच्चतम मानवीयता को संचालित करने में मदद करती हैं।”[1]

          रोग, जरा और मृत्यु का भय मानव मन की प्रारंभिक चिंताएँ रही हैं। यह सदियों पुरानी खोज रही है कि क्या इनसे मुक्ति संभव है? भारतीय चिंतन परम्परा के आस्तिक और नास्तिक दोनों ही दर्शनों की यह चिंता साझी रही है। एक ओर आस्तिक दर्शन सद्-चित्त्-आनंद में इसका हल खोजते हैं तो दूसरी तरफ नास्तिक दर्शन भौतिकता की तरफ जाते हैं। कुँवर नारायण अपनीरचनाओं में यहीं से उपजीव्य ग्रहण करते हैं और उनका रचनाकार मन दार्शनिक चिन्तनों को अनायास ही रचना के केंद्र में ला देता है। कुँवर नारायण का आरंभिक समय इन चिन्तनों में बीता है। रोग, जरा और मृत्यु को उन्होंने बहुत नजदीक से देखा है। वे लिखते हैं- “चौथे दशक की शुरुआत में किसी दिन मृत्यु का प्रश्न मेरे लिए एक बड़ी सच्चाई में बदल गया जब मैंने अपने परिवार में यक्ष्मा से होने वाली कई मौतों को बिलकुल पास से देखा और सदमा पहुँचा देने वाले अनुभवों से गुजरा। कुछ समय के लिए एक भयानक आशंका से घिर गया कि शायद मैं भी इस बीमारी की चपेट में आ चुका हूँ।”[2] यही वजह रही है कि कुँवर नारायण आत्मपरक उपनिषद्कालीन तत्वों को परम्परा रूप में और वस्तुवादी दृष्टिकोण को आधुनिकता के बरक्स अपनाते हैं। जहाँ इनकी कविता परम्परा और संस्कृति से अनुप्राणित है, वहीं उसके सरोकार समकालीन वैचारिकी और सृजन पद्धति से युक्त है। इससे कविताओं का शिल्प क्लासिकल रचना की ओर और कंटेंट कविता की शर्तों पर दार्शनिक गंभीरता की ओर उन्मुख हो जाता है। यहाँ दार्शनिक चेतना कविता को वृहत्तर आयाम देती है। शिल्प के स्तर पर वे भारतीय चिंतन परम्परा से विकसित अद्वैत दर्शन और औपनिषदिक दर्शन की तरफ जाते हैं वही कविता में संवाद और अन्तः-क्रिया का सम्बन्ध बौद्ध दर्शन से लेते हैं। तत्वमीमांसा के प्रभाव को लेकर वे लिखते हैं- “जीवन का एक तीव्र, उत्कट बोध और भीतर तक तोड़ देने वाला मृत्यु का भय- अक्सर सर्जनात्मकता से जुड़े हुए दो अंतर्विरोधी भावों की तरह रहे हैं, काव्योचित और अन्यथा भी। जीवन की अ-नित्यता के संतुलन और उदात्तीकरण के प्रयास में मनुष्य ने जीवन के स्थायी प्रतीकों के निर्माण का उपक्रम किया है और ‘आत्म’ के छुपे हुए उर्जा-केन्द्रों की छान-बीन की है- एक ऐसा प्रसंग जो ‘आत्मजयी’ की रचना करते हुए निजी तौर पर मर्म को छू लेने वाला था। इसे संयोग कहें या प्रेरणा कि प्राचीन उपनिषदों में से एक ‘कठोपनिषद’ के नचिकेता के मिथक में इसके प्रतिफलन ने मुझे आकर्षित किया। मुझे नहीं मालूम कि अपने विनम्र अभिप्रायों में आत्मजयी कहाँ तक सफल रही, लेकिन समकालीन जीवन, आत्म (सेल्फ) और कविता के संदर्भ में भारतीय तत्वमीमांसा का अध्ययन (सामान्यतःतत्वमीमांसीय मनोवृतियों का) मेरे लिए एक रोचक अनुभव रहा है।”[3]

          कुँवर नारायण के काव्य ‘आत्मजयी’ और‘वाजश्रवा के बहाने’ में दार्शनिकता के लिए कठोपनिषद का प्रसंग लिया गया है जहाँ नचिकेता एक असहमति का, एक अलग बौद्धिक स्वायत्तता का जिसके लिए हमेशा औपनिषदिक दर्शन में गुंजाईश रही है, प्रतीक है। वहीं‘ कुमारजीव’ में कुमारजीव जीवन की उत्कट आकांक्षा का प्रतीक है, जिसका जीवन दर्शन बौद्ध दर्शन से अनुप्राणित है। कुँवर नारायण के काव्य में मृत्यु विषयक विवेचन की वजह से अस्तित्ववाद का भी प्रभाव दीखता है। मुमुक्षु नचिकेता अथवा संघर्षरत कुमारजीव के यहाँ अस्तित्व के प्रश्नों की गहरी जाँच पड़ताल है और यहीं अस्तित्ववादी दर्शन के वे सूत्र खुलते हैं जो इनकी कविताओं को वैचारिक  स्वरूप प्रदान करते हैं। स्त्रोत, मुक्ति और त्राण यह सभी आदमी के अंदर ही हैं जिन्हें वह बाहरी दुनिया में तलाशता है। अतः सबसे प्रमुख स्वयं का अस्तित्व है जो कि सारे रहस्यों के सूत्रों को समाहित किए है, इस अस्तित्वबोध के बिना बृहत्तर प्रश्नों का समाधान संभव नहीं। कवि की सुचिंतित दृष्टि किसी तरह के धार्मिक निष्कर्षों का सहारा लेने के बजाय पूरी तरह दार्शनिक आशयों से जीवन मृत्यु सम्बन्धी गुत्थियों को सुलझाने का यत्न करती है। कुँवर नारायण अपनी रचनाओं में लगातार दार्शनिक प्रश्नों से जूझते रहे हैं, वे अपनी रचनाओं में दार्शनिक प्रश्नों के माध्यम से कथ्य रूप में विचार, उन विचारों के पीछे चिंतन, और उससे जुड़े व्यक्तिगत प्रश्नाकुलता से मनुष्य के अस्तित्व की शाश्वत समस्याओं से सम्बद्ध हैं।

          कुँवर नारायण अपनी पहली ही कृति चक्रव्यूह में वैचारिक सघनता और आत्ममुक्ति के लिए कविमन की बेचैनी का संकेत दे देते हैं।
“यही चाहा प्रश्न हो संसार
जिसका एक अपने ढंग का मैं बन सकूँ उत्तर
खंडहरों सी पितर इतिहास की लोना लगी काया
ग्रहण कर पुर्णतः अपनी परिस्थिति में
उसे फिर दे सकूँ
कोई नया आकार”[4]

इसी प्रश्नाकुलता का विकास बाद में उनके खंडकाव्यों आत्मजयी, वाजश्रवा के बहाने और कुमारजीव में दिखाई पड़ता है। ये रचनाएँ भौतिकता के बरक्स आत्मवत्ता को स्थापित करती हैं। रचनाकार हरेक घटना को अपने युग सापेक्ष देखने में विश्वास करता है जिसकी कोई अर्थवत्ता हो। वह अपने अकेलेपन को भी एक नया संदर्भ देता है।
“हर व्यक्तित्व
अपनी सृष्टि के सारांश में
अणुवत अकेला है ।
उसे संदर्भ देना है!”[5]

          आधुनिक हिन्दी कविता में जयशंकर प्रसाद के बाद कुँवर नारायण हिन्दी के दूसरे ऐसे कवि हैं, जिन्होंनेपौराणिक कथाओं के भावभूमि को कविता का वर्ण्य विषय बनाया । इनकविताओं का प्रयोजन सफल, सार्थक और बृहदत्तर आशयों में जीवन को उच्चतर मानवीय मूल्यों परले जाना रहा है । निसंदेह कुँवर नारायण और प्रसाद का रास्ता भिन्न रहा है, एक ओर प्रसाद अपनी कामायनी में एक आश्चर्य लोक रचते हैं तो कुँवर नारायण सहजता से अपनी बात कह जाते हैं । प्रसाद के यहाँ श्रद्धा और इड़ा का मेल भाव-पक्ष और बुद्धि पक्ष का मेल है तो कुँवर नारायण के यहाँमन और बुद्धि का संयोग है, जिसे वे बौद्धिक स्वतंत्रता से सफल बनाते हैं, जो उनके वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संभव हुआ है।
“मन और बुद्धि के संयोग से
रूपायित होती एक कृति
फैलती जीवन की शाखाएँ-प्रशाखाएँ
अपने वैभिन्य और एकत्व में
आज सारा बल भिन्नता पर है।”[6]

कुँवर नारायण इस संदर्भ में ‘तीसरा सप्तक’ के भूमिका में लिखते हैं- “जब मैं वैज्ञानिक दृष्टिकोण की बात करता हूँ तो मेरा अभिप्राय उन सिद्धांतों या मतों से उतना नहीं जिन्हें मार्क्स, फ्रायड, आइन्स्टाइन, न्यूटन या डार्विन स्थापित कर गये, जितना उस बौद्धिक स्वतंत्रता से है जो सदा से जीवन के प्रति निडर और अन्वेषी प्रश्न उठाती रही है। मुझे वह ‘एप्रोच’ पसंद है जो किसी सत्य को स्वयं  में अंत न मान कर उसे अगले सत्य तक पहुँचने का साधन मानता है : जिसके लिए सत्य का अर्थ अपने से बड़े सत्य में विकसित हो सकने की सक्रियता है, रास्तेका पहाड़ बन जाने की जड़ता नहीं।”[7]

आत्मजयी और वाजश्रवा के बहाने में अभिव्यक्त दार्शनिकता को कुछ आलोचक मानवीय दृष्टि और उच्चत्तर जीवन बोध के बरक्सनकार देते हैं वे इसे जीवनकृति कहते हैं । कुँवर नारायण अपने दोनों ही कृतियों में जीवन के श्रेय और प्रेय का सामंजस्य करते हैं । ‘वाजश्रवा के बहाने : मन और बुद्धि के संयोग से रूपायित कृति’ शीर्षक में रविभूषण लिखते हैं- ‘आत्मजयी और इस काव्यकृति में कवि की चिन्ता धार्मिक या दार्शनिक क्षेत्र की न होकर जीवन की है। जीवन है, तभी धर्म और दर्शन भी है। यह काव्यकृति जीवनकृति है।’[8]आत्मजयीकी भूमिका में कुँवर नारायण लिखते हैं-‘आत्मजयी’ मेंउठायी गयी समस्या मुख्यतः एक विचारशील व्यक्ति की समस्या है। यह मूलतः जीवन की सृजनात्मक संभावनाओं में आस्था के पुनर्लाभ की कहानी है। वाजश्रवा वैदिककालीन वस्तुवादी दृष्टिकोण का प्रतीक है और नचिकेता उपनिषत्कालीन आत्म-पक्ष का।[9] यहाँ नचिकेता के माध्यम से आत्मिक और भौतिक में द्वंद्व और संघर्ष है। जबकि‘वाजश्रवा के बहाने’ में जीवन के सम्मोहन की वजह से समझौता ज्यादा है। वे लिखते हैं- ‘वाजश्रवा के बहाने’ जीवन के इसी प्रबल आकर्षण के स्पर्श की चेष्टा है। इसजिजीविषा के विभिन्न आयाम चाहे भौतिक हों या आत्मिक, चाहे बौद्धिक (दार्शनिक) हों या भावनात्मक, तत्वतः वे हैं जैविक ही।[10] एकत्व एक उच्चत्तर मानवीय मूल्य है। जीवन सदैव ही द्वंद्वमूलक रहा है और प्रकृति में तनाव और विरोधाभास, जिसका अंत संघर्ष में निहित नहीं होता है। सभ्यता का विकास संघर्ष से जुड़ा है और कुँवर नारायण के अनुसार संघर्ष से द्वंद्व तनाव और विरोधाभास दूरनहीं हो सकते । विचारशील मैं का द्वैतरहित अथवा अद्वैत बोध महत्वपूर्ण है। जैविक होते हुए संघर्ष, समझौता और उनका अद्वैत जीवन का अखंड रूप है, जिसमें‘ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या’ की प्रतिध्वनि को सुना जा सकता है। कुँवर नारायण की दृष्टि उभयपक्षीय है। उन्होंने‘पिता-पुत्र’ के संबंधों को मूलतः द्वंद्वात्मक ढंग से न देखकर संयुक्त ‘दोहरी’ जीवनशक्ति के रूप में देखा है। दिनेश कुमार शुक्ल कुँवर जी की कविताओं के सम्बन्ध में लिखते हैं- ‘इन रचनाओं का केन्द्रीय स्वभाव औपनिषदिक है जिसमें मूल स्वर बहुलता और विविधता का है।’[11] दरअसल कुँवर नारायण अपनी कविताओं के माध्यम से समन्वय और मनुष्यता की नैतिक साहस को रचने वाले कवि हैं। अपनी परम्पराओं से गहरे जुड़े कवि कुँवर नारायण अपनी कविताओं में आत्मसंयम, सौहार्द और संवेदना को जीवन विवेक तक ले जाते हैं-
“कुछ इस तरह भी पढ़ी जा सकती है
एक जीवन दृष्टि
कि उसमें विनम्र अभिलाषाएँ हों
बर्बर महत्वाकांक्षा नहीं
...ईर्ष्या द्वेष के बदरंग हादसे नहीं
निकट संबंधों के माध्यम से
बोलता हो पास-पड़ोस
एक सुभाषित, एक श्लोक की तरह
सुगठित और अकाट्य हो
जीवन-विवेक।”[12]

कुँवर नारायण की कविताओं में विचारों की एक लोकतांत्रिकरण है। वे कई बार परम्परावादी भी लग सकते हैं तो आधुनिक भी। वे मार्क्सवादी विचारों के विरोधी भी हो सकते हैं तो कई जगह उसके समर्थक भी।प्रायः उन्हें मार्क्सवाद विरोधी और अस्तित्ववादी दर्शन के समर्थक के रूप में देखा गया है, लेकिन वे हर बार इन सीमाओं को तोड़ देते हैं। विचारधारा के संदर्भ में उनकी एक पुस्तक और कविता दोनों का शीर्षक है ‘तट पर हूँ तटस्थ नहीं’ तब हम समझ सकते हैं कि वे विचार के प्रति कितने प्रतिबद्ध हैं। उनकी वैचारिक आवाजाही हो न सीमायें न दूरियों के खांचे में ही देखा जा सकता है। उनके दर्शन सम्बन्धी विचार को अरुंधति सुब्रमण्यम को दिए गये साक्षात्कार में देख सकते हैं। ‘गांधी दर्शन में मुझे एक सक्रिय नैतिक क्रांति दिखाई देती है। बुद्ध के विश्व दर्शन और गाँधीवादी विचार व्यव्हार में काफी समानताएँ हैं। क्रांति के हिंसक साधन अनगढ़ भावोतेजनाओं की खूनी विस्फोट हैं। अहिंसक क्रांति एक अटल और दृढ़ नैतिक बल की माँग करती है और इसका सर्वोत्तम दृष्टान्त हमें ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विरुद्ध गाँधी के प्रतिरोध में देखने को मिलता है। बौद्ध दर्शन जैसा की आप मेरी कविताओं में पाएंगे, आस्था के कारण उतना नहीं, जितना की लम्बे समय से स्वयं को अस्तित्व में बनाए रखने के कारण मुझे आकृष्ट करता है। इसके अस्तित्व की गहरी जड़ें बीहड़ संयम और समायोजन की इसकी क्षमता में निहित है न की इसकी रुढ़िवादी प्रवृति में। भारत और मध्य एशिया में विकसित और संवर्धित बौद्ध दर्शन के विभिन्न सम्प्रदायों पर एक सरसरी निगाह दौड़ाई जाए तो हमें करुणा और संवेदना के इस दर्शन में एक अद्भुत लचीलापन देखने को मिलेगा। मानवतावाद वह विराट बिंदु है, जहाँ मानव कल्याण से जुडी तमाम विचारधाराएँ अक्सर मिलती हैं और अपनी कविताओं में मैंने इस बिंदु को हमेशा ध्यान में रखा है।’[13]

          कुँवर नारायण उदारता और संतुलन के अद्भुत कवि हैं, उनका फलक मिथक से वर्तमान में होता हुआ भविष्य तक फैला रहता है। इनकी कविताओं में ‘जीवन’ या‘आत्म’ को जानने की ऐसी बहुविध विह्वलता किसी दार्शनिक अन्तश्चेतना के काव्य-परिणाम जैसी लगती है, यह दार्शनिकता युग-बोध या आधुनिक संदर्भ के लिए बाधक नहीं है। इन कविताओं में तीव्र यथार्थबोध है। जीवन को मृत्यु की ओर से देखना (आत्मजयी) या मृत्यु को जीवन की ओर से देखना (वाजश्रवा...) या उच्चकोटि की रचनात्मकता में आध्यात्मिक अनुभव को पाना, अध्यात्म-जो धार्मिक या अधार्मिक नहीं होता बल्कि उदात्त की दिशा में ऊर्जा का रूपांतरण (कुमारजीव)अन्ततःजीवन को देखने और उसके अर्थ को आद्यांत जानने की ही खामोश बेचैनी है, जिसे  चिन्तन परम्परा से जुड़कर ही जाना जा सकता है।

कुँवर नारायण की कविताओं की चिंता कविकर्म को मानवीय प्रयोजन से निरपेक्ष करके देखने की नहीं है। कल्पना, अनुभूति, संवेदना, विचार और भाषा के समस्त उपक्रम कवि की दृष्टि में मानव नियति के प्रति वैचारिक संवेदनात्मक प्रतिक्रियाओं को रूप देने के साधन मात्र हैं। कवि का काव्य अनुभववाद से आगे दार्शनिक आधार पर टिका है, पर दार्शनिकता भी यहाँ ठोस मानवीय स्थितियों से ही जुड़ी हुई है। जो जीवन के प्रति विश्वास जगाती है और हर अगले कर्म के प्रति संकल्पित और आस्थावान बनती है इस आस्था और संकल्प को हम कुँवर जी कि निम्न पंक्तियों में देख सकते हैं-
“अबकी अगर लौटा तो
हताहत नहीं
सबके हिताहित को सोचता
पूर्णतर लौटूंगा!”[14]



[1]पक्षधर-18, पृष्ठ सं.-22
[2]वही, पृष्ठ सं.-24
[3]वही, पृष्ठ सं.-24
[4]कुँवर नारायण, चक्रव्यूह, पृ.-172
[5]कुँवर नारायण, आत्मजयी, पृ.- 118
[6]कुँवर नारायण, ‘वाजश्रवा के बहाने’, पृ.-25
[7]तीसरासप्तक, सं.- अज्ञेय, पृ.- 55.
[8]पूर्वग्रह-124, सं.- प्रभाकर श्रोत्रिय, पृ.-41
[9]कुँवर नारायण, ‘आत्मजयी’, पृ.-11
[10]कुँवर नारायण, ‘वाजश्रवा के बहाने’, पृ.-7
[11]कुँवर नारायण, कई समयों में, सं.- दिनेश कुमार शुक्ल, यतीन्द्र मिश्र, पृ.-15.
[12]कुँवर नारायण, वाजश्रवा के बहाने, पृ.-120
[13]कुँवर नारायण, तट पर हूँ तटस्थ नहीं, पृ.- 51
[14]कुँवर नारायण, कोई दूसरा नहीं, पृ.-9
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मंगलम कुमार रस्तोगी
शोध-छात्र,हिंदी अध्ययन एवं शोध केंद्र
गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय
मो.नं.- 8004553533

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