Monday 13 June 2016

धनञ्जय शुक्ल की कविताएँ



****** देखते-देखते *****

बहुत कुछ पहली बार देखने में छूट जाता है
हम बार-बार देखते हैं
और देखने की गहराई में उतरते जाते हैं
देखना हर बार कुछ नया रहस्य खोलता है
जैसे - मैं बच्चे को समझता था बच्चा
लेकिन धीरे-धीरे देखने से पता चला
कि बच्चा सिर्फ बच्चा नहीं होता
वो अपने माँ -बाप की अराजकता भी होता है .

और कि लड़कियां हंसती रहती हैं
औरतें मुस्कराती रहती हैं
बूढ़ियाँ बड़बड़ाती रहती हैं
इसका ठीक - ठीक अध्ययन स्त्रियों के जीवन को
और गहराई से समझने का आमंत्रण देती हैं .

और यह भी कि लड़के लड़ते रहते हैं
जवान हो जाने पर हो जाते हैं चिंतित और उदास
उलझे रहते हैं तमाम योजनाओं में
और बूढ़े होने पर घबराने लगते हैं
कि किसको दे जायेगें अपनी सत्ता
वो जैसी भी हो
उन्हें अपने कुल परम्पराओं और संस्कृतियों की
एक-एक बात याद आने लगती है
और वे नसीहते देने के आदी हो जाते हैं .

इसी तरह बहुत कुछ देखते-देखते बदल देता है अपना अर्थ
जैसे- कि पृथ्वी-पृथ्वी नहीं वो सौरमंडल का एक ग्रह है


******* मुझे क्या मतलब हो सकता था ******

मुझे क्या मतलब हो सकता था ---
सवाल मिटटी के घरौंदा होने का नहीं है ,
सवाल उससे मेरे जुड़े होने का है ,
उसके टूटने जितना ही दुःख
मेरे पेन्सिल और रबर के खो जाने का दुःख भी है .
उतना ही दुःख पिंजरे से तोते के उड़ जाने का भी है .
सवाल बचपने का नहीं है
सवाल अब बड़े हो जाने के बाद का भी है .
जिस जिस से जुड़ता जाता हूँ
उसके दुःख अपने होते जाते है .
सवाल घर परिवार और मित्रों का नहीं है
सवाल उन लेखकों और कवियों और दुनिया का भी है ,
जिन्हें मैं ना जानता था ना जान सकता था .
वह मेरे देश के ही नहीं समय के भी बाहर के लोग थे,
समय के बाहर की भी दुनिया थी !
मुझे क्या मतलब हो सकता था ,
रूस के किसी मजदूर का हाथ किसी मशीन में आकर कट गया हो तो
या फिर कोई अमेरिकन महिला जवान से बूढ़ी हो गयी हो ,
इस तरह से बहुत से लोगों का मेरा क्या मतलब हो सकता था


****** शोक में डूबा हुआ शहर *****

एक मार्क्सवादी पूर्णकालिक कार्यकर्ता
शहर के इतने बड़े दफ्तर में
तमाम किताबों के बीच
अकेला बैठा हुआ है
कोई नही है उसके पास
शोक में डूबा हुआ शहर
तमाम तरह के आंदोलनों के लिए तैयार है
जिसमें उसकी कोई भागेदारी नही है ।
एक प्रतिष्ठा प्राप्त लेखक
इतना कुछ लिख चुका है , लिख रहा है
उसके पास नही हैं पाठक , श्रोता
और उसकी अहमियत खत्म हो गयी है
अब उसकी अपनी ही नजरों में ।
शहर का सबसे दबंग सांसद बंद कर दिया गया है जेल में
वैसे भी अब उसके चलाये कुछ चल नही रहा था
चीजें स्वचालित हो गयीं थी ।
एक अर्थशास्त्री जिसे कभी कोई नही जानता था
हर दफ्तर , दुकान और घर में जाकर
अर्थशास्त्र के सूत्र और सिद्धांत का व्यावहारिक परीक्षण कर रहा है ।
तथाकथित भगवान या संत के पीछे इतनी बड़ी भीड़ जो इकठ्ठा हो गयी थी
वह समझ गयी कि वो आयोजकों और कालाधन का उपयोग करने वालों का शिकार हो रही
थी
लेकिन फिर भी उसके पास मनोरंजन के लिए
और कोई सस्ती जगह न होने के कारण
वहां से हट नही रही थी ।
फूटपाथ पर जितने लोग खाना बनाकर वही सो जाने के लिए बाध्य थे
असल में वे कोई भूखे लोग नही थे
गाँव में उनके मोबाइल सेट का रिचार्ज खत्म हो गया था
उसे भराने के लिए पैसा कमाना था
जो शहर में ही होता है
इसलिए वे फुटपाथ पर रहकर पैसा बचा रहे थे
ऐसा एक सिरफिरे के सर्वेक्षण में निकला ।
शहर में गाड़ियाँ और फ्लाईओवर बढ़ गये
इसका कारण कुछ लोगों ने ये बताया
कि दुबई में बुर्ज़ खलीफा जैसी इमारत बनानी थी
और विश्व बैंक के कर्मचारियों का रोज़गार बचाए रखना था
जबकि यहाँ के लोगों को इस रिश्तेदार से उस रिश्तेदार के
शादी ब्याह के अलावा और कहीं जाना ही नही था ।
एक पत्रकार और एक साहूकार
अपने समाचार पत्र के लिए मुख्य खबरों का चुनाव कर रहे थे
पत्रकार जो पुराना मार्क्सवादी था और साहूकार उस ज़माने का उसका सहयोगी
पत्रकार जो साइकिल से सारे शहर में घूमता था
साहूकार जो अपनी दुकान पर बौद्धिक बहस के लिए चाय का ठेका लगवाता था ।
वहां एक दुबला पतला पढ़ाकू सा आदमी आता था
जो अब विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर जैसा कुछ है
और दुनिया को उत्तर आधुनिक या नव मार्क्सवादी बहसों का
कुछ अंश पढ़कर सुनाता है ।
वहां एक ठिगना सा चुप-चुप रहने वाला लड़का आता था
जिसे कुछ लोग बहुत चालाक समझते थे
सुना है वह आईएस अधिकारी हो गया
और किसी गंवार टाइप संस्कृति मंत्री का पी ए है ।
और हर बात में हकलाने वाला लड़का
जो उस ज़माने में जब सूचना तन्त्र इतना फैला हुआ नही था
रहस्यमय रूप से अपने पास हर तरह की जानकारी रखता था
वह कई हिट फिल्मों का निर्देशक हो गया है ।
यह बड़ी अच्छी बात है कि शहर के ज्यादातर लोग
अकेले में बात करते रहते हैं
लेकिन उन्हें कोई पागल नही कहता
सिर्फ कान में लीड दिखाई पड़ जानी चाहिए
जो दिख ही जाती है ।
घूँघट में रहने वाली औरतें जाने कब जीन्स पहनकर सड़क पर उतर आयी थी
कई स्मार्ट और निट्ठले टाइप के अधिकारियों के लड़के
जिनकी गृहस्थी अब इन्ही कामकाजी लड़कियों के बल पर चलनी थी , चल रही थी ।
काम करने वालों का महत्व खत्म हो गया था
पूंजीपतियों का पैसा जो उन्होंने सरकारी कामों का ठेका ले लेकर कमाया था
एक योजनाबद्ध तरीके से पहले विकसित करने फिर एकत्र करने के खेल के रूप में रचा था
जिसमें हर एक व्यक्ति की निश्चित आय थी
जहाँ पहुँचने के लिए एक निश्चित तरीका था
और वहां कब्जा कर लेने की एक होड़ थी
इस तरह से काम करने की एक कार्पोरेट व्यवस्था थी
जो ऊपर से बहुत कुशल प्रबंधन का नमूना थी
लेकिन गहरे में बहुत बड़ी आराजकता थी
जो उसको झेल जाता था
वो नायक था , नायिका थी
वर्ना बीमार था
जिसके उपचार के लिए तमाम तरह के और उधोग थे
जो बिलकुल प्रयोगशील थे
वैज्ञानिक अनुसन्धान करने वाले मस्तिध्कों की तरह उर्वर थे ।
एक कवि टाइप का आदमी
बड़ी देर से कूड़ा बीनने वाली लड़की को देख रहा था
और सोच रहा था , यदि इस लड़की की देखभाल की जाये
तो यह भी किसी फ़िल्मी हेरोइन से कम नही लगेगी
इसी बीच तमाम भीख मांगने वाले छोटे- छोटे बच्चों का झुण्ड उसके पास इकठ्ठा हो गया
वह यह सब देखकर दुःखी था
करुणा भाव से भरा हुआ , अपने आप को बुद्ध समझने ही वाला था
कि बच्चों की चीख पुकार से झुंझलाकर
उन्हें बहुत तेज से डांट कर भगा दिया
उसने अपनी जेब में देखा
एक रूपये का सिक्का भी नही था
इस ज़माने में उसकी यह दुर्गति हो गयी थी ।
" पैसे हों तो मैं सारे दुनिया को चला सकती हूँ "
एक दसवीं क्लास की लड़की अपनी तमाम सहेलियों को बड़े आत्मविश्वास से बता रही थी ।
टेम्पो वाला ड्राईवर उसे देख रहा था
और अपनी मुस्कराहट छुपा रहा था
एक ज़माने में उसने अर्थशास्त्र से मास्टर डिग्री ली थी ।
एक चित्रकार जो अपने शुरुवाती दौर में ही क्लासिक चित्र बनाने की योग्यता से भरा था
अब कुछ व्यावसायिक पत्रिकाओं में कार्टून बनाता है
और अपने बच्चों की फीस जमा करने की चिंता में लगा रहता है
जिसे उसने कान्वेंट स्कूल में भर्ती कर दिया है
वह इसे अपनी गलती भी कह सकता है
लेकिन अपने प्राइमरी पाठशाला में पढ़ने के अनुभव से सीख लेते हुए
सही कहने के लिए बाध्य है
चुभती आँखों से हर दृश्य को देखते हुए
चुप ही रहता है , बड़ा शालीन है बेचारा !
शहर के कितने बड़े-बड़े सूरमा आउटडेटिड हो गये उन्हें पता ही नही चला
वे अपने समर्थकों के साथ एक अलग दुनिया बनाने में
जिन्दगी के अंतिम दिनों तक अपनी पूरी उर्जा खर्च करते रहे
उनकी आने वाली पीढ़ियाँ उनके इस सनक का खामियाजा भुगतने के लिए बाध्य थी
शहर के समझदार लोग उनका भी शोक मना रहे थे
और उनकी लड़कियां शादियाँ करके विदेश जा रही थी
या अपने मनपसंद के वर को ढूँढने में लगी हुयी थी ।
प्रेम करने वाले लोग भी शहर में थे
मॉल में , पार्क में , कैफ़े में और बाइक पर
फ़िलहाल तो प्रेम था । अंत में उनका क्या हुआ पता नही
उनके बारे में एक नौजवान दोस्त कह रहा था
जो शाम को बगैर दारू पिए रह ही नही सकता
और इस तरह चार - पांच बार प्रेम कर चुका था
कि लड़के नौकरी ढूँढने चले जाते हैं
और लड़कियां शादी करने
क्योंकि इतनी बड़ी जिन्दगी और किसी तरह गुजर नही सकती ।
शहर में कुछ लोग कह रहे थे
ध्यान बहुत बड़ी कीमिया है
उसी से जिन्दगी का रूपांतरण हो सकता है
आत्म-ज्ञान ही सभी मर्ज़ की दवा है
और एकांत ही उसका रास्ता है
उन्होंने सारी सुविधाओं के साथ
शहर में अपनी एक रहस्यमय सी दिखने वाली उपस्थिति बना रखी थी
उनके सुख-दुःख और अंत की कहानी वे ही जानते थे
वे दुनिया में अपने मतलब की सारी चीजें लेकर दाता भाव से खड़े थे /हैं ।
--

धनञ्जय शुक्ल, 2/318 वास्तु खंड, गोमती नगर, लखनऊ
ईमेल- dhananjayshukla74@gmail.com

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