महेन्द्रभटनागर
की कविताओं के सामाजिक सरोकार की सार्थकता
मूलचन्द
सोनकर
महेन्द्रभटनागर के
काव्य-सृजन की यात्रा सन् 1941 से शुरू होती है जो आज भी उसी
जोश-ख़रोश और उत्साह के साथ गतिशील है। सात दशकों से अधिक समय से सक्रिय
महेन्द्रभटनागर को निश्चित रूप से कई पीढ़ियों के प्रतिनिधि रचनाकार की संज्ञा दी
जा सकती है। उन्हें पढ़ना इतिहास के उस कालखण्ड की यात्रा करना है जिसे उन्होंने देखा
है, भोगा है, अनुभव किया है तथा अपने
शब्दों की जंजीर में जकड़कर रोक रखा है। इतने लम्बे कालखण्ड को अकूत शब्दों से स्वर
देने वाले महेन्द्रभटनागर ने निश्चित रूप से जीवन के अनेकानेक पहलुओं को स्पर्श
किया है। जीवन की अनुभूतियों को अनेक तरह से व्याख्यायित किया है, परिभाषित किया है। यहाँ जब मैं जीवन की बात कर रहा हूँ तो मेरा आशय
जीवन-दर्शन के संपूर्ण अवयवों से है और निर्विवाद रूप से प्रत्येक अवयव का स्थायी
भाव दुख है। ग़ालिब के निम्नलिखित शेर से ग़ुज़रकर मेरे कथन के मर्म को अनावृत्त किया
जा सकता है:
क़ैद-ए-हयात-ओ-बन्द-ए-ग़म
अस्ल में दोनों एक हैं,
मौत
से पहले आदमी ग़म से निजात पाये क्यों
जैसा कि इंगित किया जा
चुका है, आज की तारीख में महेन्द्रभटनागर के काव्य-खाते में
विपुल कोश जमा है। उन्होंने इतना अधिक सृजित किया है कि उनके समग्र पर चर्चा करने
के लिए लेखों की एक पूरी शृंखला चाहिए। बहरहाल, मेरे सामने ‘सृजन-यात्रा’ नामक उनका काव्य-संग्रह है और इसी को केन्द्र में रखकर इस लेख को स्वरूप
देने का प्रयास किया जा रहा है।
निस्संदेह जीवन और दुख
एक दूसरे के पर्याय हैं और हम ज्योंही दुख के सापेक्ष जीवन को देखने का प्रयास
करते हैं, वे सभी परिस्थितियाँ स्वयमेव साकार हो उठती हैं जो
दुख का कारण होती हैं। ये परिस्थितियाँ प्रकृति-प्रदत्त भी होती हैं और मानव-जनित
भी। महेन्द्रभटनागर ने अपने काव्य-सृजन के आकाश में ऊँची उड़ान भरी है। मैं यह भी
स्वीकार करने को तैयार हूँ कि ऐसा करते समय वह ज़मीन को भूलते नहीं हैं लेकिन ज़मीन
के प्रति उनका यह लगाव मात्र इसलिये है कि जब वह आकाश से उतरें तो पैर टिकाने के
लिये उन्हें ठोस धरातल मिल जाये। ज़मीन की उस हक़ीक़त को जानने-समझने की वह बेचैनी
दूर-दूर तक उनके अन्दर नहीं दिखायी देती जिसने इस देश के समाज को स्थायी रूप से
रुग्ण और अपंग बना रखा है। विडम्बना यह है कि स्वयं को मुख्य धारा का नेतृत्वकारी
बुद्धिजीवी कहने और कहलवाने वाले इस अपंगता और रोग को वरदान मानकर गले में लटकाये
फिरते हैं। वे जानते हैं कि इसे स्थायी रखकर ही वे अपने वर्चस्व को क़ायम रख सकते
हैं। इसलिये इस ओर से वे या तो आँखें मूँदे रहते हैं या माक्र्सवादी चाशनी में
शब्दों को डुबोकर चटाते रहते हैं। यह इनकी जन्मजात स्वाभाविक कमज़ोरी है।
महेन्द्रभटनागर इस कमज़ोरी से मुक्त नहीं हैं। उनके विशाल रचना-संसार में मुझे वह
बेचैनी कहीं नहीं दिखायी देती जो मेरी संवेदना को झकझोर सके। यही कारण रहा है कि
मैं अभी तक इनकी रचनाओं पर चर्चा करने से कतराता रहा लेकिन आग्रह को टालने की एक
सीमा तो होती ही है।
आग्रह की सीमा का लिहाज़
अपनी जगह लेकिन मेरी लेखकीय प्रतिबद्धता की माँग अपनी जगह, जिससे
च्युत होना मेरे लिये सम्भव नहीं है। महेन्द्रभटनागर की कविताओं में भारतीय समाज
का वास्तविक दुख नहीं है। यह है जाति के आधार पर वंचितीकरण का धार्मिक पुण्यलाभ
जिसकी प्रखर पैरोकारी इस देश के शंकराचार्य करते चले आ रहे हैं। जाति और वर्ग
विशेष के लिये शंकराचार्य दर हक़ीक़त संकटाचार्य के रूप में उभरकर सामने आये हैं।
भारत एक संवैधानिक लोकतांत्रिक गणराज्य है। संविधान के अनुरूप देश के समाज का
निर्माण हो, यह महेन्द्रभटनागर की कविताओं का दुख नहीं है।
इसीलिये हम पाते हैं कि डा. विद्यानिवास मिश्र जब उनका मूल्यांकन करते हैं तो
उन्हें उनके अन्दर ब्राउनिंग, शेली और मायकोवस्की तो दिखायी
देते हैं लेकिन फुले, अम्बेडकर जैसे सामाजिक दर्द के निवारक
चिकित्सक नहीं दिखायी देते। मैं यह मानकर डा. विद्यानिवास मिश्र को कोई छूट देने
को तैयार नहीं हूँ कि वह इन्हें नहीं जानते थे बल्कि इसके लिये स्वयं
महेन्द्रभटनागर पूरी तरह जिम्मेदार हैं जिन्होंने विदेशी रचनाकर ब्राउनिंग,
शेली और मायकोवस्की को तो आत्मसात किया लेकिन फुले, अम्बेडकर से विरक्त रहे। डा. विद्यानिवास मिश्र को चाहिये था कि मूल्यांकन
करते समय इस तथ्य को इंगित करते लेकिन दोनों के अवचेतन में जड़ जमाये बैठी हुई
जातिगत श्रेष्ठता के वर्चस्ववाद के चलते यह सम्भव नहीं हो सका। महेन्द्रभटनागर अब
भी सक्रिय हैं। उम्मीद है, वह इसका प्रक्षालन अवश्य करेंगे।
मैं मानव (सत्ता)-सृजित
एक और दुख पर चर्चा करना चाहूँगा। इसे पूर्व पैरा में उद्धृत किया जा सकता था
लेकिन अलग से बात करना मुझे अधिक उपयुक्त लगा। यह है प्रत्येक के लिये शिक्षा की
पैरोकारी। यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि किसी सवर्ण रचनाकर की चिन्ता के केन्द्र
में यह मुद्दा रहता ही नहीं। राज्य-सत्ताएँ सामान्य जन को शिक्षित करने से हमेशा
कतराती रहीं क्योंकि उन्हें पता था कि शिक्षित जनता अपने अधिकारों से भिज्ञ हो
जायेगी और उनका सत्ता में बने रहना उतना (मूर्ख बनाकर) आसान नहीं रह पायेगा।
राजतांत्रिक सत्ताएँ मर गयीं लेकिन सत्ता की चरित्रगत विशेषताओं के अवशेष ज़िन्दा
बच गये। लोकतंत्र के पहरुओं ने इन्हें आत्मसात कर लिया। लोकतंत्र के लिबास में वे
राजतंत्र के पोषक हो गये। उनके लिये संविधान कागज का टुकड़ा बनकर रह गया। शिक्षा का
विस्तार जन सामान्य तक होने नहीं दिया। शिक्षित जनता से ये भी भयाक्रान्त रहते
हैं। अशिक्षित जनता संविधान के प्रावधानों से भिज्ञ नहीं हो पाती। सत्तारूढ़ दल
संविधान की धज्जियाँ उड़ाते रहते हैं। जनता बदहाल होती रहती है और संविधान बदनाम।
यहाँ पर रचनाकारों को हस्तक्षेप करना चाहिये लेकिन वे या तो खामोश रहते हैं या
संविधान को बदनाम करने वालों की सुर में अलापने लगते हैं। संविधान की मंशा के
अनुरूप स्वस्थ, शिक्षित सर्वसमावेशी समाज का निर्माण हो,
यह विषय सवर्ण रचनाकर छूते तक नहीं, बल्कि
इसके बरअक्स सरकार की जन-विरोधी नीतियों के सहायक की ही भूमिका में नज़र आते हैं।
यहाँ पर मैं थोड़ी सी
चर्चा शिक्षा व्यवस्था और उसके प्रति रचनाकारों की कर्तव्यबोधहीनता पर करना
चाहूँगा। मेरे जैसे सोच के भारत के निर्माण का सपना देखने वाले की दृष्टि में यहाँ
की शिक्षा प्रणाली मानवता के नाम पर कलंक है। प्रारम्भिक स्तर से लेकर
विश्वविद्यालय के स्तर तक के शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में पौराणिक आख्यानों और
पात्रों का वर्चस्व है। ये विद्यार्थियों के मस्तिष्क में अंधविश्वास रोपने के अलावा
और कुछ नहीं करते। राम और कृष्ण आज भी इस देश के आदर्श पात्र हैं तो तुलसीदास
आदर्श रचनाकार। जबकि वास्तविकता यह है कि ये काल्पनिक पात्र समाज के किसी काम के
नहीं है और इनकी प्रशंसा करनेवाले तुलसीदास समेत सारे कवि समाजद्रोही हैं। इन्हें
पढ़ाने का मतलब एक एैसे अतीतोन्मुखी, मानव-विभेदकारी, पोंगापंथी, अंधविश्वासी समाज का निर्माण करना है जो
संविधान में विश्वास नहीं करता क्योंकि ये सारे साहित्य संवैधानिक अवधारणाओं की
नींव में पलीता लगाने वाले ही होते हैं। महेन्द्रभटनागर की कोई कविता इनके विरोध
में रची गयी है, मुझे नहीं लगता।
एक बात आलोचना के कर्म
पर करना चाहूँगा। अपनी बात का विस्तार एक दृष्टान्त से करूँगा। भारतीय दलित
साहित्य अकादमी द्वारा विरोधस्वरूप 31 जुलाई 2004 को दिल्ली में मुंशी प्रेमचन्द के उपन्यास ‘रंगभूमि’
के दहन से साहित्यिक जगत में एक भूचाल आ गया था। पक्ष-विपक्ष के
सवालों पर अनेक लेख एवं टिप्पणियाँ पढ़ने को मिली थीं। मैंने भी इस विषय पर ‘रंगभूमि वाया भारतीय दलित साहित्य अकादमी’ शीर्षक से
एक विस्तृत लेख लिखा था। इस लेख की एक प्रति डा. कमल किशोर गोयनका को भी भेजी थी।
यह सर्वविदित तथ्य है कि गोयनका प्रेमचन्द के प्रशंसक अध्येता हैं और मैंने उक्त
विवाद में उनका पक्ष भी पढ़ा था; इसलिये यह ज़ेरूरी समझा कि
उन्हें अपने पक्ष से भी अवगत कराऊँ। मेरा लेख पाने के बाद एक पोस्टकार्ड के माध्यम
से उनका जो उत्तर मिला, उसे हू ब हू यहाँ दे रहा हूँ: ‘‘प्रिय भाई, आपका पत्र/लेख मिला। धन्यवाद। आपका लेख
मैंने पढ़ लिया है, पर अभी इतना ही लिख पाऊँगा कि आपने नये
सिरे से सोचा है और आपके तर्कों में बल है, परन्तु सभी ऐसा
सोचें यह आवश्यक नहीं है। आलोचना का यह प्रमुख सिद्धान्त है कि रचना में जो है उसे
देखें न कि उसे जो उसमें नहीं है। इस पर भी आपकी मौलिकता के लिये मेरी बधाई।
विस्तार से बाद में लिखूँगा। स्वस्थ होंगे। सप्रेम, आपका: ह0 क.कि. गोयनका।
उक्त पत्र 1/10/2004 को लिखा गया था और मुझे 07/10/2004 को प्राप्त हुआ
था। साढ़े ग्यारह वर्ष हो गये। उन्होंने फिर कुछ नहीं लिखा। मैंने भी अपनी तरफ़ से
कोई पहल नहीं की। बहरहाल इस पत्र को उद्धृत करने का मक़सद कुछ और है। गोयनका ने
अपना मन्तव्य देकर आलोचना की हदें निर्धारित कर दीं। मेरा मानना है कि आलोचना की
हदें बाँधना रचना पर परिचर्चा के विस्तार की गुंजाइश के लिये कोई जगह देने से
इनकार करना है, यह रचना का अवमूल्यन है और आलोचना के मूलभूत
दायित्वों की हत्या है। मेरा मानना है कि आलोचना रचना की शल्य-क्रिया है। यह रचना
की कमियों को इंगित करके रचनाकर का मार्ग प्रशस्त करती है। इसे एक उदाहरण से
समझाने की कोशिश कर रहा हूँ। मनुष्य का रोग दूर करने के लिये आपरेशन करते समय यदि
डाक्टर यह पाता है कि जिस ज्ञात रोग को दूर करने के लिये वह आॅपरेशन कर रहा है,
उसके अतिरिक्त और रोग हो तो वह उसे भी दूर कर देगा। यह सोचकर वह उसे
यूँ ही नहीं जाने देगा कि यह रोग उसके पूर्व निर्धारित योजना में नहीं था।
आलोचना मेरे लिये
मिशनरी दायित्व है। यह देखना मेरा दायित्व है कि आलोच्य रचना हाशिये के समाज के
लिये चिंतित है अथवा नहीं। मैं ऐसी किसी रचना के साथ कैसे खड़ा हो सकता हूँ जिसमें
मेरे आदमियों के लिये जगह नहीं है। स्वाभाविक है कि इससे रचना का मान कम नहीं होता
बल्कि बढ़ता ही है।
अब थोड़ी सी चर्चा कविता
पर भी करूँगा। मेरी दृष्टि में कविता एक ही शब्द में कई-कई अर्थों का संगुफन होती
है। यह बात विशेषकर उस समय अक्षरशः लागू होती है जब कविता किसी प्रतीक को केन्द्र
में रखकर रची जाती है अथवा कविता रचते समय किसी सन्दर्भ विशेष में कोई प्रतीक
स्वयं आकर उसमें अपना स्थान बना लेता है। अब यह पाठक के विवेक पर अथवा उस प्रतीक
के वैचारिक पृष्ठभूमि की व्याख्या पर निर्भर करता है कि वह उस प्रतीक को किस अर्थ
अथवा आशय में ग्रहण करे। इसलिये यह बिल्कुल ज़रूरी नहीं है कि किसी कविता को मैं
जिस अर्थ में सम्प्रोषित करूँगा वह सर्वमान्य ही हो। किसी अन्य पाठक के लिये वही
कविता एक सर्वथा भिन्न अर्थ की वाहक भी हो सकती है! उदाहरण स्वरूप ‘सामाजिक यथार्थ की कविताएँ’ शीर्षक खण्ड-एक में
सूचीबद्ध ‘बिजलियाँ गिरने नहीं देंगे’ नामक
कविता की निम्नलिखित पंक्तियों को लिया जा सकता हैः-
क्योंकि
हम इतिहास के आरम्भ से
इंसानियत
में,
शांति में
विश्वास
रखते हैं,
गौतम
और गाँधी को हृदय के पास
रखते
हैं!
इन पंक्तियों में
इंसानियत और शांति के प्रतीक के रूप में गौतम और गाँधी को याद किया गया है।
वैचारिक स्तर पर दोनों विभूतियाँ एक दूसरे के विरोध में खड़ी हैं। गाँधी विशुद्ध
रूप से हिन्दू धर्म और वर्ण व्यवस्था के पोषक थे और गौतम इनके विरोधी। पूरा का
पूरा हिन्दू धर्म और दर्शन जातिगत ऊँच-नीच और छुआछूत की नींव पर खड़ा है। इसमें
समानता के आधार पर मानवाधिकार की बात करना पाप एवं ईश्वर विरूद्ध है। इसलिये यह मानव-विरोधी
है। इसी के विरोध में तथागत गौतम बुद्ध ने बिग़ुल फूँका था। समतावादी समाज की
स्थापना की थी। यहाँ पर कवि की दृष्टि उन आन्दोलनों की ओर नहीं गयी जिन्हें
हिन्दूधर्म के विरोध में डाॅ. अम्बेडकर ने चलाया था और अन्ततः इसका परित्याग करके
बौद्ध धर्म को गले लगाया था।
लेकिन अपनी सामाजिक समझ
की यथास्थितिवादी दृष्टिकोण के बावजूद इस संग्रह में अनेक अच्छी कविताओं से
साक्षात्कार होता है। कवि महेन्द्रभटनागर के जिस गुण ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित
किया है, वह है उनकी भाषा की आवेग रहित सौम्यता! कविता किसी
भी मूड की हो, यह उसका स्थायी स्वभाव है। दूसरी विशेषता जो
सतत धारा के रूप में प्रायः हर कविता में प्रवाहित है, वह है
आशा। कठिन से कठिन परिस्थियों में भी महेन्द्रभटनागर का कवि मन आशा की डोर टूटने
नहीं देता। यह संग्रह छः खण्डों में विभक्त है। अन्तिम खण्ड का शीर्षक है ‘जीवन-त्रासदी’। इसकी अन्तिम कविता का नाम है ‘परिचय’। इस कविता की बानगी देखिये:
‘‘हारा नहीं हूँ!
मैं
अभी हारा नहीं हूँ!
हाँ, कभी हारा नहीं हूँ!
धधकता
सूर्य हूँ,
मद्धिम
द्युति भरा
हत
काँपता
तारा
नहीं हूँ !
हूँ
शक्ति-आराधक,
अबोध
निरीह बेचारा नहीं हूँ !
जग
जान ले,
पहचान
ले
विस्तृत
उफ़नता सिन्धु हूँ मैं,
क्षीण
गति
धारा
नहीं हूँ!
अपना
भाग्य-निर्माता
स्वयं
हूँ मैं,
नहीं
स्वीकार्य-
कल्पित
पारलौकिक सृष्टि का
अस्तित्व!
मत
लो नाम करुणा का
अदृश
प्रारब्ध का
मारा
नहीं हूँ !’’ (पृष्ठ 268)
यह संग्रह की समापन
कविता है। जो कवि जीवन की त्रासदी को इस दृष्टि से देखता हो, निश्चित रूप से उसका जीवन स्तुत्य है। रूप बदलकर मिलता है। प्रस्तुत हैं
यहाँ पर कुछ उदाहरण:-
ऽ कविता ‘अनुभव-सिद्ध’
की ये पंक्तियाँ:
‘‘तय है कि काली रात गुज़रेगी
भयावह
रात गुज़रेगी!
असफल
रहेगा
हर
घात का आघात,
पराजित
रात गुजरेगी।’’ (पृष्ठ 10)
ऽ कविता ‘सावधान’
की ये पंक्तियाँ:
‘‘तम घटेगा
तम
छँटेगा
तम
हटेगा।’’
(पृष्ठ 11)
ऽ कविता ‘अदम्य’
की ये पंक्तियाँ:
‘‘चट्टानों ने जब-जब
पथ
अवरुद्ध किये-
चट्टानों
को तोड़
नयी
राहें गढ़ते हैं हम!’’ (पृष्ठ 12)
ऽ कविता ‘संकल्पित’
में इसे इस प्रकार अभिव्यक्ति मिली है:
‘‘प्रतिबद्ध हैं हम-
व्यक्ति
के मन में उगी-उपजी
निराशा
का,
हताशा का
कठिन
संहार करने के लिये!
हर
हत हृदय में
प्राणप्रद
उत्साह का संचार करने के लिये!’’ (पृष्ठ 15)
कहते
है कि कवि भविष्य-दृष्टा होता है। कवि महेन्द्रभटनागर ने इस उक्ति को सच कर दिखाया
है। प्रस्तुत हैं यहाँ उनकी कुछ कविताओं की पंक्तियाँः-
ऽ कविता ‘स्वप्न’
से:
‘‘पागल सिरफिरे किसी भटनागर ने
माननीय
प्रधानमंत्री.... की
हत्या
कर दी,
भून
दिया गोली से!!
ख़बर
फैलते ही
लोगों
ने घेर लिया मुझको-
‘भटनागर है,
मारो....मारो...साले
को!
हत्यारा
है....हत्यारा है!’
मैंने
उन्हें बहुत समझाया
चीख-चीख
कर समझाया-
भाई, मैं वैसा ‘भटनागर’ नहीं!
अरे, यह तो फ़कत नाम है मेरा,
उपनाम
(सरनेम) नहीं।
मैं
‘महेन्द्रभटनागर’ हूँ
या
‘महेन्द्र’ हूँ
भटनागर-वटनागर
नहीं,
भई
कदापि नहीं
ज़रा
सोचो-समझो।
लेकिन
भीड़ सोचती कब है?
तर्क
सचाई सुनती कब है?
सब
टूट पड़े मुझ पर
और
राख कर दिया मेरा घर!!’’ (पृष्ठ 8)
यह
आज के भीड़तंत्र के अनियंत्रित और समर्पित आतंक से कितना मेल खाता है, सहज दृष्टव्य है।
इसी
भावभूमि पर रचित कविता ‘आतंक के घेरे में’ किस बेबाकी से सच का उद्घाटन करती है, पढ़कर दिल काँप
उठता है:-
‘‘एक बहुत बड़ी और गहरी
साजिश
की गिरफ़्त में है देश।
चालाक
और धूर्त गिरोहों के
चंगुल
में फँसा
छद्म
धर्म और बर्बर जातीयता के
दलदल
में धँसा,
एक बहुत बड़ी और घातक
जहालत में है देश।’’
(पृष्ठ 22)
ऽ कविता ‘अग्नि-परीक्षा’
से:-
‘‘मिटाना है उसे-जो कर रहा हिंसा,
मिटाना
है उसे-
जो
धर्म के उन्माद में फैला रहा नफ़रत
लगाकर
घात गोली दागता है
राहगीरों
पर/बेकसूरों पर।
मिटाना
है उसे-जिसने बनायी
धधकती
बारूद-घर दरगाह।
इन
गंदे इरादों से
नये
युग की जवानी
तनिक
भी होगी नहीं गुमराह।’’ (पृष्ठ 23)
यद्यपि
अपनी आशावादी दृष्टि के कारण कवि यह नहीं देख सका कि धर्म की अफ़ीम खाकर जब समझदार
और परिपक्व मस्तिष्क के लोग बहक जाते हैं तो कोरे कागज़ सरीखी युवा पीढ़ी की क्या
बिसात। आज हम अपने चारों तरफ़ यही उन्मादी परिदृश्य देख रहे है, जहाँ निष्पक्षता का हरण कर लिया गया है। वायुमंडल में सर्वत्र इसी नारे की
अनुगूँज सुनाई देती है- ‘‘या तो आप मेरे मित्र हैं या शत्रु।’’
बहरहाल हम कवि की उम्मीद को उसकी चेतावनी मानें और निष्पक्षता की
आवाज़ को उठाने से न चूकें। कुछ और दृष्टांत:
ऽ कविता ‘नये
इंसानों से’ से:-
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
यह सोच
हमारी
चेतना का अंग बन चुका है,
हम
इससे मुक्त नहीं हो पाते।
बार-बार
हमारा ईश्वर हमें उकसाता है-
हम
दूसरों के ईश्वरों की हत्या कर दें
उनके
अस्तित्व चिन्ह तोड़ दें
और
स्वर्ग का स्थान
केवल
अपने लिये सुरक्षित समझें।’’ (पृष्ठ 25)
और
इसी कविता से ये पंक्तियाँ:-
‘‘इस पृथ्वी पर मात्र हम रहेंगे-
हमारे
धर्मवाले
हमारी
जातिवाले
हमारे
प्रांत वाले
हमारी
ज़बान वाले
हमारी
लिपि वाले,
यही
हमारा विश्व है।’’ (पृष्ठ 26)
इन
पंक्तियों में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बू को पूरी विदू्रपताओं के साथ अनुभव किया
जा सकता है। इन्हें पढ़कर मुझे बोधिसत्व बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर द्वारा दिनांक 25 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में दिये गये भाषण का
यह वाक्य याद आने लगता है कि यदि कोई राजनीतिक दल धर्म को देश के ऊपर मानेगा तो
देश की स्वतंत्रता स्थायी रूप से खतरे में पड़ जायेगी। मैं इस कथन को डा. अम्बेडकर
के ही शब्दों में उद्धृत कर रहा हूँ- ^^------in addition to our old enemies in the form of
castes and creeds we are going to have many political parties with divers and
opposing political creeds. Will Indians place the country above their creed or
will they place creed above country? I do not know. But this much is certain
that if the parties place creed above country, our independence will be put in
jeopardy a second time and probably be lost for ever." (Dr. Babadaheb
Ambedkar : Writing and speeches, volume 13 page 1214)”
जिस
परिदृश्य की तस्वीर कवि महेन्द्र ने अपनी कविता में खींची है और जिससे डा.
अम्बेडकर ने देश को आगाह किया था, वह उसी ख़तरनाक इरादे के
साथ हमारे सामने खड़ा है। आज़ादी
के बाद के निराशाजनक परिदृश्य को उकेरती हुई दो कविताओं की कुछ पंक्तियाँ यहाँ
उद्घृत की जा रही है:-
ऽ कविता ‘विचित्र’
से-
‘‘यह कितना अजीब है।
आजादी
के तीन-तीन दशक
बीत
जाने के बाद भी,
पाँच-पाँच
पंचवर्षीय योजनाओं के
रीत
जाने के बाद भी
मेरे
देश का आम आदमी ग़रीब है,
बेहद
ग़रीब है।
यह
कितना अजीब है!
सर्वत्र
धन का,
पद का, पशु का
साम्राज्य
है,
यह
कैसा स्वराज्य है?’’ (पृष्ठ 32)
ऽ कविता ‘हमारे
इर्द-गिर्द’ से-
मेरे
देश में
अरे
करोड़ों मज़लूमो!
तुम्हें
अभी फुटपाथों से
छुटकारा
नहीं मिला,
खौलते
खून के समुन्दर में
तैरते-तैरते
किनारा
नहीं मिला।
बीसवीं
शताब्दी के
इस
आठवें दशक में भी
सिर
पर खुला आसमान है,
नीचे
नंगी
धरती।
खूनी
निगाहें
ठण्डी
आहें
विकलांग
निरीहता
सर्दी, बरसात, आँधी।’’ (पृष्ठ 38)
मेरा
मानना है कि यदि भारत के सवर्ण रचनाकार डा. अम्बेडकर के विचारों को आत्मसात कर लें
तो जन सामान्य के दुखों से सच्चे अर्थों में तादात्म्य बिठा सकते हैं क्योंकि तब
वे उनके दुखों की तहों को उधेड़कर वास्तविक कारणों से भिज्ञ हो जायेंगे। ऐसी स्थिति
में उनके सृजन का पूरा स्वरूप बदल जायेगा। चाहे वे जिस विधा में लिख रहे हों। आज
अम्बेडकर पर यह कहकर निशाना लगाते हैं ये लोग कि उन्होंने आज़ादी की लड़ाई में
हिस्सा नहीं लिया। वे यह देखना-सुनना ही पसन्द नहीं करते कि आज़ादी के नाम पर गाँधी
के नेतृत्व में अँगे्रज़ों के खिलाफ जो लड़ाई लड़ी गयी थी, दरअसल वह सत्ता-परिवर्तन की लड़ाई थी। इसका देश की गरीब, दलित, शोषित जनता की आज़ादी से कुछ लेना-देना नहीं
था। उस तथाकथित आज़ादी की लड़ाई के दौर में केवल डा. अम्बेडकर ही ऐसे एकमात्र योद्धा
थे जो मनुष्यों की आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। देश का अस्तित्व देश की जनता से होता
है। गुलाम जनता वाला देश आज़ाद कैसे कहला सकता है। डा. अम्बेडकर का कहना था कि बिना
सामाजिक और आर्थिक आज़ादी के राजनैतिक आजादी का कोई मतलब नहीं है लेकिन
वर्ण-व्ययस्था के अंध पोषक गाँधी ने उनकी एक न सुनी और नतीज़ा वही निकला जिसकी
आशंका डा. अम्बेडकर कर रहे थे। वर्ण-व्यवस्था जैसा शोषक
तंत्र जिसका कस-बल अँगे्रज़ों के जमाने में ढीला हो रहा था, गाँधी
द्वारा परिभाषित आज़ादी का अमृत-पान करके पूरी निरंकुशता के साथ सक्रिय हो उठा और
तथाकथित आज़ाद देश की वह जनता जो वर्ण-व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर गुलाम थी
गुलाम रह गयी और इस आबादी में अल्पसंख्यकों की आबादी भी जुड़ गयी। महेन्द्रभटनागर
या उन जैसे कवि अपनी रचनाओं में चाहे जितने ईमानदार हों, तस्वीर
बदल नहीं सकते। वे भी कहीं न कहीं सवर्ण मानसिकता के साथ ही खड़े होंगे। यही कारण
है कि तस्वीर आज इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के उत्तरार्द्ध में भी नहीं बदली।
इसलिये कोई अजब नहीं है कि महेन्द्रभटनागर आज़ादी के सातवें दशक की अभिव्यक्ति
उन्हीं शब्दों में कर रहे हों जिनमें तीसरे दशक की की थी।
इसी कविता ‘हमारे इर्द-गिर्द’ की अन्तिम दो पंक्तियाँ
निम्नलिखित हैं:-
‘‘मेरी पूरी पीढ़ी हैरान है।
नेतृत्व
कितना बेईमान है।’’ (पृष्ठ 39)
सवाल यह है कि नेतृत्व
बेईमान कब होता है? नेतृत्व बेईमान तब होता है जब जनता अपने
अधिकारों से अनभिज्ञ अथवा उसके प्रति लापरवाह होती है। अनभिज्ञता अशिक्षा से पैदा
होती है और लापरवाही नियतिवाद से। देश की जनता के अधिकार संविधान में परिभाषित हैं
और संविधान जनता से कोसों दूर। बकौल डा. आर. एच. वणकर महेन्द्रभटनागर
प्रगतिवादी-जनवादी कवि के रूप में ख्यात हैं। महेन्द्रभटनागर की नीयत पर शंका किये
बिना मैं कहना चाहूँगा कि प्रगतिशील लेखक संघ, उ.प्र. का
प्रान्तीय पदाधिकारी होने के कारण मैं प्रो. नामवर सिंह सहित अनेक प्रगतिशीलों की
मंशा से भिज्ञ हूँ। इनका डा. अम्बेडकर पर यह दोषारोपण है कि इन्होंने
पूँजीवादपरस्त संविधान का निर्माण किया है। और तो और, आजकल
संविधान की भत्र्सना करने का फैशन चल गया है। हर गली-कूचे में संविधान विशेषज्ञ
पैदा हो गये हैं। संविधान की भत्र्सना के बहाने ये डा. अम्बेडकर पर अपनी भड़ास
निकालते रहते हैं। जबकि डा. अम्बेडकर ने संविधान के बारे में यह कहा था कि संविधान
अच्छा या बुरा नहीं होता बल्कि संविधान को क्रियान्वित करने वाले अच्छे या बुरे हो
सकते हैं। अच्छे से अच्छा संविधान खराब साबित हो सकता है यदि इसे क्रिन्यान्वित
करनेवाले लोग खराब होंगे लेकिन खराब से खराब संविधान भी अच्छा साबित हो सकता है
यदि इसे क्रिन्यान्वित करने वाले लोग अच्छे होंगे। अब इसका क्या इलाज कि
वर्ण-व्यवस्था के पोषक संविधान के कर्ता-धर्ता बन गये जो समरस समाज के निर्माण और
शिक्षा के प्रचार-प्रसार के सबसे बड़े दुश्मन हैं। इनपर संविधान के प्रावधान नहीं
बल्कि शंकराचार्य के अनर्गल प्रलाप असर करते हैं। इसलिये रचनाकारों का प्रथम
दायित्व है जनता को उसके संवैधानिक अधिकारों से परिचित करा कर उनकी प्राप्ति के
लिये लामबन्द करने की अन्यथा अच्छी से अच्छी कविता विलापगान से आगे नहीं बढ़
पायेगी।
ऐसा नहीं है कि
महेन्द्रभटनागर की दृष्टि इस पर न पड़ी हो। वह इसको लेकर सचेत भी हैं और चिन्तित
भी।
प्रस्तुत हैं कुछ
उदाहरण:-
ऽ कविता ‘नये
इंसानों से’ से-
‘‘नये इन्सानो!
आओ, क़रीब आओ!
और
मानवता की ख़ातिर
धर्म-विहीन, जाति-विहीन
समाज
का निर्माण करो,
देशों
की भौगोलिक रेखाएँ मिटाकर।’’ (पृष्ठ 26)
ऽ कविता ‘दूसरा
मन्वन्तर’ से
‘‘भविष्य वह आयेगा कब
जब-मनुष्य
कहलायेगा
मात्र
‘मनुष्य’।
उसकी
पहचान
जुड़ी
रहेगी कब-तलक
देश
से/धर्म से
जाति-उपजाति
से
भाषा-विभाषा
से
रंग
से/नस्ल से?’’ (पृष्ठ 27)
ऽऽ
‘‘तोड़ो-
देशों
की कृत्रिम सीमा-रेखाओं को,
तोड़ो-
धर्मों
की
असम्बद्ध, अप्रासंगिक, दकियानूस
आस्थाओं
को।
तोड़ो-
जातियों-उपजातियों
की
विभाजक
व्यवस्थाओं को।’’ (पृष्ठ 28)
निश्चित
रूप से ये बेहतरीन पंक्तियाँ हैं लेकिन ये सफ़र है, मंज़िल
नहीं; निदान हैं, समाधान नहीं। इस तरह
की रचनाओं को प्रभावशाली और मारक बनाने का मंत्र बाबासाहेब की पुस्तक ‘एन्नीहिलेशन आॅफ़ कास्ट’ में मिलेगा।
अब
थोड़ी-सी चर्चा उन कविताओं की करूँगा जिनमें जीवन का यथार्थ है। प्रस्तुत है कुछ
उदाहरण:-
ऽ कविता ‘आत्म-संवेदन’
से-
‘‘हर आदमी
अपनी
मुसीबत में अकेला है।
यातना
की राशि-सारी मात्र उसकी है।
साँसत
के क्षणों में
आदमी
बिल्कुल अकेला है।’’ (पृष्ठ 94)
ऽ कविता ‘शुभैषी’
से-
‘‘बद्दुआओं का
असर
होता अगर;
वीरान
यह
आलम
कभी
का
हो
गया होता।’’ (पृष्ठ 98)
ऽ कविता ‘कामना’
से-
‘‘कभी तो हम
तिलांजलि
दें
अपने
बौनेपन को
अपने
ओछेपन को,
और
अनुभव करें
शिखर
पर पहुँचने का उल्लास।’’ (पृष्ठ 100)
ऽ कविता ‘निष्कर्ष’
से-
‘‘ज़िन्दगी- वीरान मरघट-सी,
ज़ि़न्दगी-
अभिशप्त बोझिल और एकाकी महावट-सी।
ज़ि़न्दगी-
मनहूसियत का दूसरा है नाम,
ज़ि़न्दगी-
जन्मान्तरों के अशुभ पापों का दुखद परिणाम।
ज़ि़न्दगी-
दोपहर की चिलचिलाती धूप का अहसास,
ज़ि़न्दगी-
कंठ-चुभती सूचियों का बोध, तीखी प्यास।
ज़िन्दगी-
ठहराव,
साधन-हीन, रिसता घाव,
ज़ि़न्दगी-
अनचाहा संन्यास, मात्र तनाव।’’ (पृष्ठ
109)
ऽ कविता ‘पुनर्वार’
से-
‘‘मैं
एक
वीरान बीहड़ जंगल में रहता हूँ,
अहर्निश
निपट एकाकीपन की
असह्य
पीड़ा सहता हूँ।’’ (पृष्ठ 113)
ऽ जिन्दगी का एक रंग यह भी है जो कविता ‘जीवन: एक अनुभूति’ में व्यक्त हुआ है:-
‘‘बिखरता जा रहा सब कुछ
सिमटता
कुछ नहीं।
ज़ि़न्दगी:
एक
बेतरतीब सूने बन्द कमरे की तरह,
दूर
सिकता पर पड़े तल-भग्न बजरे की तरह,
हर
तरफ़़ से कस रहीं गाँठें
सुलझता
कुछ नहीं।
ज़िन्दगी
क्या?
धूमकेतन-सी
अवांछित
जानकी-सी
त्रस्त लांछित
किस
तरह हो संतरण
भारी
भँवर,
भारी भँवर।
हो
प्रफुल्लित किस तरह बेचैन मन
तापित
लहर,
शापित लहर।
ज़ि़न्दगी:
बदरंग
केनवस की तरह
धूल
की परतें लपेटे
किचकिचाहट
से भरी,
स्वप्नवत
है
वाटिका
पुष्पित हरी।
हर
पक्ष भावी का भटकता है
सँभलता
कुछ नहीं।
पर,
जी
रहा हूँ
आग
पर शैया बिछाये।
पर,
जी
रहा हूँ
शीश
पर पर्वत उठाये।
पर,
जी
रहा हूँ
कटु
हलाहल कंठ का गहना बनाये।
ज़ि़न्दगी
में बस
जटिलता
ही जटिलता है
सरलता
कुछ नहीं।’’ (पृष्ठ 125-26)
ये
चन्द कविताएँ बतौर बानगी यहाँ उद्घृत की गयी हैं। छह खण्डों में विभक्त इस संग्रह
में विषय-सूची के अनुसार यद्यपि 220 कविताएँ हैं लेकिन
इनकी वास्तविक संख्या 219 ही है। ‘प्रकृति-प्रेम
की कविताएँ‘ नामक खण्ड में संगृहीत दिखायी गयी कविता ‘भोर होती है’ छूट गयी है। यहाँ उद्धृत की गयी
कविताओं के अतिरिक्त अनेकानेक अन्य कविताओं को भी उद्धृत किया जा सकता है लेकिन
किसी एक लेख में ऐसा कर पाना सम्भव नहीं है। जैसा कि मैं कहा चुका हूँ, महेन्द्रभटनागर की कविताओं पर लिखने के लिये लेखों की एक पूरी शृंखंला
चाहिये। इसलिए इस लेख को एक छोटे से प्रयास के रूप में ही लेना चाहिए। लेकिन समापन
से पहले ‘मृत्यु-बोध: जीवन-बोध’ खण्ड
में संकलित कविता -‘सचाई’ की
निम्नलिखित पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहूँगा। यद्यपि इस पूरी कविता पर अवधारणात्मक
चर्चा की जा सकती है; लेकिन मैंने इनका ही चुनाव किया है:-
‘‘अतः तभी तो
गाता
है-
एक-मात्र
‘राम नाम सत्य है!’’ (पृष्ठ 225)
कोई
जनविरोधी व्यक्ति किस प्रकार जननायक में तब्दील हो जाता है, इसका अध्ययन करना हो तो राम का कोई विकल्प नहीं है। दलित वैचारिकी में राम
का स्थान दुर्दान्त खलनायक का है जिसका एकमात्र कार्य मूलनिवासियों की हत्या करना
था। ब्राह्मणी चाल का सबसे सफल जाल राम का चरित्र है जो इस प्रकार बुन दिया गया है
कि ज़िन्दों की कौन कहे मुर्दे भी इसमें जकड़े रहते हैं। यह महेन्द्रभटनागर की
सामाजिक परिवेशगत बाध्यता है जिस का अतिक्रमण वह नहीं कर पाते। यह प्रगतिशीलों और
जनवादियों की सीमा भी है, वर्ना क्या कारण है कि धर्म और
जाति पर प्रहार करनेवाले महेन्द्रभटनागर वर्ण-व्यवस्था को अपने राज्य का आधार
बनाने वाले राम को जीवन के अन्त में इस रूप में याद करने लगे। यही विरोधामास
प्रगतिशील और जनवादी लेखकों को अम्बेडकरवादियों की दृष्टि में संदिग्ध बनाता है।
ऊपर
उद्धृत अन्तिम कविता ‘जीवन: एक अनुभूति’ में आयी यह पंक्ति ‘जानकी-सी त्रस्त लांछित’ भी कवि की इसी मानसिकता की उपज है। उसे सीता का दुख दिख गया लेकिन राम
द्वारा शर्मनाक ढंग से मारी गयीं और प्रताड़ित नारियों यथा ताटका, शूर्पणखा, अयोमुखी, शबरी
इत्यादि पर तोड़े गये कहर की याद नहीं आयी। कहीं पर शम्बूक भी जगह नहीं बना पाये
उनकी किसी कविता में और तो और, यदि राम द्वारा सीता के साथ
किये गये अन्याय का विश्लेषण करके राम को प्रश्नांकित कर देते तो भी कुछ तसल्ली
मिल जाती। यहाँ पर यह भी उद्धृत करना अनिवार्य है कि ब्राह्मणी व्यवस्था ने जिन
बहुजन नायकों को खलनायक की तरह जनमानस में रोप रखा है, उनकी
पुनसर्थापना का दौर आ गया है। ऐसे में महेन्द्रभटनागर जैसे कवि अपने परम्परागत
प्रतीकों की अस्मिता को बहुत दिनों तक अक्षुण्ण नहीं रख पायेगे। यह तयशुदा बात है।
अन्त
में,
मैं यह कहकर अपनी बात को समाप्त करना चाहूँगा कि महेन्द्रभटनागर
प्रगतिशील विचारों से लैस एक बड़े कवि हैं जिन्हें बहुसंख्यक समाज के साथ एकाकार
होने के लिये अपने सामाजिक भावबोध से बाहर निकलना शेष है।
-मूलचन्द सोनकर
48 राज राजेश्वरी नगर, गिलट बाज़ार वाराणसी-221002
मो.
941530312