नया जमाना
“ माँ ! यह आदमीं क्या शोर मचा रहा है ?”
“
पागल हो गया है ? ”
“
यह ऐसे क्यों कह रहा है की तुमने इसे धोखा दिया
है?”
“
मैंने कहा न यह आदमीं पागल हो गया है ?”
“
पागल तो नहीं लगता . इसके हाथ में तो एक कागज भी है जिसे यह तुम्हारा प्रेम - पत्र
कहता है !”
“
झूठ बोलता है , यह कोई तगड़ा पागल है .”
“
माँ , उस कागज पर तुम्हारे दस्तखत भी हैं ,सच - सच बताओ न यह ऐसा क्यों कह रहा है
?”
“
बेटी , मेरी मानो यह आदमी कोई ,पागल है , मैंने इसे कोई धोखा नहीं दिया !”
“
माँ ! यह आदमीं पागल नही लगता , इसके पास तो कोई तस्वीर भी है !”
“
तू मुझसे कहलवाना क्या चाहती है , मैंने कहा न यह आदमी पागल है .”
“
माँ , मेरी नजर में तुमने इसे नहीं , मेरे डैडी को धोखा दिया है , यह पागल तो उस सच
का पोस्टर है ! बस.”
“
तो क्या इसे अंदर बुला लूँ .”
“
नहीं माँ ! भले ही यह पोस्टर- नुमा आदमी सच बोलता हो पर यह पोस्टर तुम्हारी बदसूरती
की सफेद तस्वीर है , तुम मेरी माँ
हो , मैं तुम्हारी बदसूरती बर्दाश्स्त नहीं कर सकती . मैं इसे फाड़ दूँगी .”
“
यह तो मजबूत दिखता है , कैसे फाड़ोगी ?”
“ तुम चिंता न करो माँ. मेरे पास बहुत सारे हथियार हैं.”
“
मतलब ? “
“
अरे मेरे दोस्त , वे किस दिन काम आएंगे .”
“
वो तो ठीक है बेटी , पर जो कुछ तुम करने जा
रही हो , वह खतरनाक है ."
"
माँ ! अभी मेरे पास यह सोचने का समय नही है
, डैडी तो मरने के बाद मिटटी में मिले हैं
, पर तुम्हारी इस धोखा - धड़ी के कारण तुम
जीते जी मिटटी में मिल जाओगी . असली पागल वह नहीं तुम हो माँ ! तुमने
प्यार शब्द की महानता को कलंकित किया है , तुम प्यार जैसी पवित्र और भावनात्मक शब्द- संज्ञा का उपयोग करके
, मेरे डैडी के मित्र के साथ अपनी शारीरिक भूख की तृप्ति के लिए मेरे डैडी को और इस व्यक्ति को भी इतने सालों तक धोखा देतीं रहीं और अब अपने पाक - साफ़ होने का ढोंग
कर रही हो , इसलिए नैतिकता का तकाजा तो यह है कि तम्हारे अंत के लिए चुल्लू भर पानी
भी अधिक है , परन्तु इस कठोर और निरंकुश संसार में न तो मैं तुम्हे अकेला छोड़ सकती
हूँ ,और न ही स्वयं को अकेला कर सकती हूँ , मेरे स्वार्थ के लिए तुम्हे ज़िंदा ही रहना
होगा . हाँ अगर यह आदमी मर भी जाता है तो हमें
कोई फर्क नहीं पड़ेगा , उल्टे अच्छा ही होगा ? "
" और जो कुछ तुम करने
जा रही हो उसका पता पुलिस को लग गया तो ? "
" तो क्या ? इंस्पेकटर को खुश करने के लिए तो तुम हो ही , तुम्हें
क्या फर्क पड़ता है कि तुम्हारे साथ बिस्तर पर मेरे डैडी सोये हैं या को और सोया है
."
“फिर
भी जरा सावधानी से , कहीं बात बिगड़ न जाये !”
“
चिंता न करो माँ , तुम सुंदर बनी रहो बिना किसी
कालिख के , यह मेरी मजबूरी है .”
अध्यापक
सुमन
को सुबह- सुबह स्कूल छोड़कर आना महेश की नैतिक जिम्मेदारी थी | उसने अपनी इस जिम्मेदारी
से कभी किनारा नहीं किया .हर सुबह सुमन जैसे
ही स्कूल के लिए तैयार हो चुकी होती, महेश पहले ही अपना स्कूटर घर से बाहर निकाल कर
खड़ा हो जाता . सुमन उस पर बैठती और महेश की किक से स्कूटर हवा से बातें करने लगता
. सर्दी हो या बरसात सुमन बातों ही बातों में स्कूल के गेट पर पहुंच जाती
. सुमन महेश के दिल में अपने प्रति इस जिम्मेदारी को हमेशा गहराई से स्वीकार
करती और उसके लिए कुछ भी करने को तैयार रहती ,
" देखो ! आज मैं तुम्हे ठीक
दस बजे लेने आ जाऊंगा ."
" दस बजे क्यों ? छुट्टी तो
साढ़े बारह बजे होगी . " सुमन ने दबी मुस्कराहट के साथ कहा
" कमाल करती हो यार ! कोई जरूरी काम भी तो हो सकता है !
"
"जानती हूँ तुम्हारे कामों को
कि कितने जरूरी होते है . स्कूल के बच्चों के इम्तहान सर पर हैं , कोर्स पूरा नहीं
हुआ है और जिसे मुझे ही पूरा करवाना है साथ
ही स्कूल की प्रिंसिपल मेरी सास नहीं लगती कि वह आये दिन मुझे , तुम्हारे जरूरी काम के
लिए स्कूल से बंक मारने देगी ." सुमन ने मीठी झिड़की के साथ
कहा .
" ठीक है , बंक मत मारना, छुट्टी
तो ले सकती हो ? "
" जब देखो तब कैसे भी करके अपनी
जिद जरूर मनवाते हो , अच्छा देखती हूँ , कोई
न कोई बहाना कर लूंगी . तुम आ जाना , बस दस मिनट पहले एक मिस काल दे देना , मैं गेट पर
मिलूंगी . " यह कहकर सुमन रुके हुए स्कूटर से उतर ही रही थी कि मोटरसाइकिल पर गुजरते हुए एक
झपटमार ने सुमन की गर्दन पर निशाना साध कर उसकी सोने की चेन झपट ली और तीव्र गति से फरार हो गया . झपट इतनी तेजी से हुई
कि सुमन को पता ही नहीं चला कि कब - क्या हुआ है .वह सकते में प्रतिक्रिया - हीन मुद्रा में सब कुछ होता हुआ देखती रह गयी . महेश ने अपने स्कूटर पर मोटरसाइकिल सवार झपट मार
का पीछा करने का असफल प्रयास किया क्योंकि झपटमार
तीव्र गति से काफी दूर जा चुका था
. उसी समय महेश को गश्त करता हुआ एक कांस्टेबल दिखाई दिया . महेश ने अपने साथ हुई इस लूट का ब्योरा देते हुए कांस्टेबल से कार्यवाही करने कि मांग की .कांस्टेबल ने सारी बात ध्यान से सुनने के बाद दार्शनिक मुद्रा में
कहा , " मामला तो बहुत गंभीर है , लूट
है कि रूकने का नाम ही नहीं ले रही . ठीक है थाने चलकर रिपोर्ट लिखवानी होगी , फिर देखते हैं कि इस मामले में क्या किया
जा सकता है ."
" पर तब तक झपट मार न जाने कितनी
मील दूर जा चुका होगा ." महेश उत्तेजित होकर बोला .
" देखो सर जी ! ज्यादा टेंशन मत
लो , काम तो काम के तरीके से ही होगा , बिना रिपोर्ट लिखे तहकीकात नहीं हो सकती . "
महेश की समझ में नहीं आया कि काम जिस तरीके से होगा उसकी जानकारी कहाँ से प्राप्त करे ,उसने कांस्टेबल पर कातर दृष्टि डालकर कहा ," सही तरीके की जानकारी
कौन से स्कूल से मिलेगी ? "
कांस्टेबल ने अपनी जेब में हाथ डाला और बड़े
इत्मीनान से बीड़ी निकाल कर अपने होठों से लगाते
हुए बोला , " तरीके की पूरी जानकारी उस स्कूल से मिलेगी जिसमें आपकी मेमसाहब पढ़ाती है और जिसे आप हर चौथे दिन स्कूल की छुट्टी से पहले
अपने स्कूटर पर बिठा कर ले जाते हो भले ही
उनके स्कूल छोड़ने के बाद बच्चे धमाचौकड़ी मचाते रहते हैं ."
महेश स्कूल से बाहर उस व्यक्ति से जिंदगी का पाठ पढ़ने को मजबूर था जो अध्यापक नहीं था.
वजीफा
शुगुफ्ता अपनी पैबंद
लगी पौशाक के साथ स्कूल खुलते ही हेड - मास्साब
के कक्ष में आ खड़ी हुई और चुपचाप खड़ी
ही रही . हेड - मास्साब हाजिरी रजिस्टर पर
नजरे गड़ा कर इस हिसाब-किताब में व्यस्त थे
कि कौन से मास्साब स्कूल में आ चुके हैं और
कौन से नहीं. किसका रेड-मार्क लगाना है और किसका नहीं .
जब वे अपने काम से फुर्सत पा गए तो
उन्होंने आँखे ऊपर उठाई तो सामने शुगुफ्ता
को सामने खड़े पाया . उसकी और कुछ पल
देखने के बाद बोले , " तुझे समझा तो दिया है कि सरकार की ओर से आने वाले पैसे बच्चों
की पढ़ाई - लिखाई के लिए दिए जाते हैं , उनके माँ - बाप के घर के दूसरे खर्चो के लिए
नहीं . जब तेरे बच्चे स्कूल ही नही आते तो उनके
नाम के पैसे तुझे कैसे दे दें .?
मास्साब की बात सुनकर . शुगुफ्ता के चेहरे
पर खिचे भावों में कोई अंतर नहीं आया . उसने भी अपनी बात पहले की तरह फिर से दोहरा दी
, " सर जी तुम्हारे स्कूल में मेरे तीन
बच्चों का दाखिला हुआ है . तीन में से एक तो आता ही है , लड़कियों को मैंने उसके सौतेले बाप की वजह से गाँव
भेज दिया है तो उन्हें कैसे लेकर आऊँ . वो नहीं आ पाएंगी . आपको सरकार ने उनके नाम
के जो पैसे भेजें हैं , वो तुम मुझे दे दो . "
शुगुफ्ता के अड़ियल रुख से परेशान होकर हेड - मास्साब ने कहा
, "यह कैसे हो सकता है . राशि तो बच्चों को ही मिलेगी. वो भी तब, जब वो स्कूल
में हर रोज आएँगी ."
"मास्टर जी, मुझे बुद्धू मत समझो
. मेरी पड़ोसन नफीसा अपनी तीनों लड़कियों का
वजीफा इसी स्कूल से कल ही लेकर गयी है जब कि
उसकी बड़ी लड़की का तो निकाह हुए भी
चार महीने हो गए हैं .आप मुझ गरीब को ही क्यों
परेशान कर रहे है , मेरे को भी एक के रूपये
दे दो , दूसरी के आप खुद रख लो . मैं दोनों के दस्तखत कर दूँगी और नफीसा की तरह किसी
से भी नहीं कहूँगी .
हेड - मास्साब ने अपनी झुकी हुई मूछों पर हाथ फेरा और कहा,
"तुम गरीबों ने तो नाक में दम कर दिया
है. तुम्हारी सुनो तो मुसीबत, न सुनो तो मुसीबत. क्लास में जाकर मास्साब
को बुला ला और दस्तखत करके रुपए ले ले"
मिस्डकाल
मोबाइल की घंटी बजी तो उसे
नाम देखकर विशवास नहीं हुआ पर गुदगुदी जरूर हुई. वह बोला , "इतनी जल्दी , अरे
हमें तो बारह बजे निकलना है न .प्रोग्राम
में कोई चेंज है क्या ?"
"नहीं - नहीं ! निकलना तो बारह
बजे ही है."
"पर जानू , इस समय फोन कैसे कर
पा रही हो ? क्या आशुतोष जी टूर पर जा चुके हैं ?"
"नहीं बाबा ! टेक्सी तो साढ़े ग्यारह
ही आएगी , अभी तो वे बैंक गए हैं . उन्हें एक चेक ड्राप करना था . मुझे मौक़ा मिल गया तो मैंने सोचा कि तुमसे पूँछ लूँ कि वो वाला
सूट पहन लूँ जो पिछली बार तुम्हारे साथ
एस. जी. मार्किट से खरीदा था
."
" जानू ,
वैसे तो कोई भी पहन लो क्योंकि मेरे लिए तुम्हारा
सूट नहीं , तुम्हारा साथ मायने रखता है पर इस बार महरून वाली साडी पहन लो , उसमें बहुत
स्वीट ही
नहीं ग्रेसफुल भी लगती हो."
"हाँ साड़ी पहन लो , सारा दिन पूरे मार्किट में तुम्हारे साथ फ्री - हेंड घूमूंगी
या छ: गज की साड़ी ही संभालती रहूंगी
. वाईट
वाला स्लीव - लेस पहन लेती हूँ . जल्दी
से हाँ करो ,वे आते ही होंगे ."
"ठीक है ! पहन लो पर एक शर्त पर."
"जल्दी बोलो क्या !"
"मैं तुम्हें रिक्शा - स्टैंड से
नहीं , तुम्हारे घर से पिक करूंगा और पिक से पहले .........."
"बस ...बस !ठीक बारह बजे नर्सिंग
होम वाले रिक्शा - स्टैंड पर मिलूंगी और घर से निकलने से पहले मिस्ड - काल दे दूँगी
. मुझे पता है अगर घर आओगे तो मेरे सूट की क्रीज खराब करोगे .अच्छा रखती हूँ लगता है बैंक से आ गए हैं क्योंकि कार के हार्न की आवाज आ रही है."
चबूतरा
मोहल्ले में
एक पार्क. पार्क के कोने में पीपल का एक पेड़ , पेड़ के चारों ओर चबूतरा , चबूतरे पर मोहल्ले के परिवारों ने घर में त्योहारी अवसरों पर खरीदी गयी
अलग - अलग भगवानजियों की पुरानी या खंडित मुर्तिओं को रख दिया. विभिन्न अवसरों पर मोहल्ले की महिलाओं ने पूजा अर्चना के नाम पर घर में बने
पकवानो
के साथ - साथ एक - एक , दो - दो रूपये के सिक्के भी चढ़ाने शुरू कर दिए .पार्क में खेलने के लिए आने वाले गरीब बच्चों ने वे सिक्के उठाकर पार्क में ही जुए जैसे खेलों से समय काटने और आवारागर्दी करने का तरीका निकाल लिया . होली और उसके एक दिन बाद भी यही होना था और हुआ भी यही
.
एक संवेदनशील
बुजुर्ग महिला ,
पार्क में टहलने
आई तो उसने जुआ खेलते उन बच्चो से ऐसा कुछ भी न करने को .कहा एक बच्चा बोला ," जब यह चबूतरा बना तो मेरे पापा ने यहां मजदूरी की थी , इसलिए यहां से पैसे भी मैं ही उठाऊंगा ." बुजुर्ग के दांत किटकिटाये , " तुम क्या इस चबूतर वाले मंदिर के पंडित जी हो ?
"लड़के ने कहा , " पापा ने यह तो नहीं बताया पर सिक्के तो मैं ही लूंगा
.
बुजुर्ग महिला मन ही मन बुदबुदाई , " न जाने गलती कहाँ हो रही है , वहां पर जहां देश में शिक्षा के अधिकार के नाम पर वोटों का व्यापार होता है या फिर जनसंख्या - चेतना के मद में नदी में अरबों रुपया बहता है पर नदी में हर समय सूखा ही दिखाई देता है ”
-सुरेन्द्र
कुमार अरोड़ा
डी - 184 , श्याम पार्क एक्स्टेनशन साहिबाबाद - 201005 ( ऊ . प्र . )
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