Thursday, 22 May 2014

डॉ.विजय प्रकाश शर्मा की कवितायेँ




 (1)
बीते दिन लौट कर नहीं आते
मगर बीते पलों की यादे 
बार-बार लौट आती हैं..
रिझाती हैंमुस्कुराती है
गुदगुदाती हैं हंसाती है.
करकती हैंरुलाती हैं ,
सहलाती और सुलाती हैं .
बीते दिन लौट कर नहीं आते
मगर बीते पलों की यादे 
बार -बार लौट आती हैं..
(2)
हार-जीत,सुख -दुःख,
जीवन- मरण ,भोग-संन्यास
एक ही सिक्के के दो पहलु है
जीत,सुख, जीवन और भोग,
बनाते है खुसी का संयोग.
हार, दुःख, मरण औरसन्यास,
लाते है मन में वियोग.
लेकिन
ये जब दूसरों के घर हों .
तो हमें देते है उनकी
खिल्ली उड़ाने का रोग.
जिसमे हम पूरी तरह
जकड जाते है,
सुबक कटने वाले मुर्गे
की तरह अकड़ जाते है.
लाख करें न्यास- विन्यास,
नहीं छूट पाता यह रोग,
(3)
अपनी अपनी दूकान चलाने का सबको हक़ है,
बाबा को भी, ढाबा को भी,
तीर्थों और काबा को भी,

दुकाने सरकारी को भी,
वेश्या और व्यापारी को भी .
अपनी अपनी दूकान चलाने का सबको हक़ है,
सजने सजाने का ,ग्राहक को रिझाने का ,
मोल -तोल करने का ठगने- ठगाने का
अपनी अपनी दूकान चलाने का सबको हक़ है,

(4)
मैं बहुत बार -
चोर, दस्यु, डाकू.
नीच,अस्पृस्य,आदि
अनेकानेक ऐसे सम्बोधनों पर
सोंचता हूँ.
की सदियों से
ये गरीबो के लिए ही
क्यों व्यवहृत होते है?
किसी राजनेता के लिए
क्यों नहीं?
किसी व्यापारी के लिए क्यों नहीं.
जब की हम सभी जानते है.
राजा द्वारा किया गया
युद्ध के नाम पर अत्याचार
व्यापारियों का अनैतिक व्यवहार.
फिर भी सराहे जाते है धनवान.
कहीं ये शब्द और सम्बोधन
इन्ही के द्वारा , लाभ के लिए
घृणा फैलाने के लिए
तो नहीं
बनाये गए है.
इन शब्दों की अहमियत खत्म
करने का वख्त
कब आएगा?
क्या कभी संविधान
ध्यान दे पायेगा?


(5)
मेरे पास भी एक गांधी है,
झंझावात नहीं आंधी है,
लेकिन दिशा हींन , भ्रमित,
आज की राजनीति पर चुप
अपने अवतारों(नेहरुस) की
करतूतों पर खामोश
पहले की तरह .
उसके तीनों बन्दर
ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ाने में लगे है
अब   वे बाहर नहीं जाते.
चरखे को घूंन  लगे वर्षों हो गया
हाँ -डंडा लालू के हाथ लग गया ,
भांजते रहते है
विरोधियों पर
कांग्रेस का झंडा और झंडाबरदार
बदलते चले गए.
टोपी आप वालों ने बड़ी चतुराई से
अपनालिया.
उसपर आम आदमी पार्टी
का ठप्पा लगा दिया.
गुजरात की गोदी में
बस गए मोदी.
बापू !
अब तुम्हारे -
"माय एक्सपेरिमेंट्स विथ ट्रुथ "
का हो रहा इम्तिहान
मैं क्या करुँ?
जब खुद ही सो गया
तुम्हारा भगवान.
क्योंकि
उसका भी  हो रहा
इम्तिहान्न .
तुम्हारे पास ही
चले गए  पटेल
                                                             अब कौन कैसे नकेल?

(6)
चाँद -सितारे क्यों देखूं
अंजाना अक्श क्यों रेखू
तुम बहुत सुन्दर हो
तुम चाँद हो
तुम्हारी चांदनी का
इन्तेजार है इसलिए
रात में क्यों जागूं
यह झूठ अब नहीं बोला जायेगा
अब
तुम मनुष्य हो यह रहष्य
खोला जाएगा .
(7)
पुटुस

मैं एक पुटुस ,
बहुबचन में झाड़ -झंखाड़
एक बार जम गया तो
क्या मजाल
कोई ले उखाड़
ऐसा अजेय मैं
बन गया
बागो का रखवाल.
बगीचे कोमल होतें है ?
(8)
मेरा बच्चा मन हमेशा
आस्मां छूने के लिए दौड़ता रहता है
क्षितिज कि ओर
और आसमान हमेशा ऊपर उठा चला जाता है.
फिर भी खालीहाथ लौटने की जीद
मुझे दोडाती रहती है निरंतर और
मुझे पता नहीं चल पाता कितनी दूर निकल गया हूँ.
इतनी दूर माँ कभी नहीं भेजती थी
इस डर से कि मैं क्षितिज में खो जाऊ ,
उसके आँख से ओझल हो जाउ .
उसका डर सच्च हो गया है ,
मेरा बच्चा मन सचमुच खो गया है.
(9)

सोंचा
अब विराम लेता हूँ ,
थोडा विश्राम लेता हू
भाग-दौड़ बहुत हुआ .
अब आराम लेता हूँ.
लेकिन असह्य है
बेटियों कि उपेक्षा
बुजुर्गों  का अपमान
भ्रस्टाचार का शिष्टाचार
अतः अब
पुनः  संग्राम लेता हूँ.
थकूंगा नहीं, रुकुंगा नहीं
बिखरुंगा नहीं, झुकूंगा नहीं.
जबतक परेशान  परिंदा है
मेरा संघर्ष जिन्दा है .
(10)

ख़ुशी जिसने खोजी वो गम ले के लौटा .
हंसी जिसने खोजी वहम ले के लौटा .
मगर प्यार को खोजने जो चला तो .
तन ले के लौटा मन ले के लौटा.

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ईमेल- drvijayprakash.sharma@gmail.com

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