Friday 14 February 2014

ढाई आखर प्रेम का



ब्रह्म, माया और जीव के बाद ‘प्रेम’ शब्द मुझे सर्वाधिक रहस्यमय लगता है | मेरी धारणा और प्रबल हो जाती है जब मैं महात्मा कबीर की इन दो पंक्तियों की भावभूमि में प्रवेश करने का प्रयत्न करता हूँ और आश्चर्यचकित रह जाता हूँ कि काशी के इस तत्वदृष्टा ने कितनी सहजता के साथ वेदांत दर्शन एवं अपने अनुभूतिजन्य सत्य के निचोड़ को हमारे समक्ष सूत्र रूप में रख दिया है | पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-
पोथी पढ़ी पढ़ी जग मुआ पंडित भया न कोय |
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय ||

यद्यपि इन रहस्यमयी पंक्तियों के सांकेतिक तत्व का निरूपण वृहद् विषय है तथापि मैं यहाँ सूत्र रूप में इतना कहना चाहता हूँ कि कबीर के पांडित्य का आधार यह रहस्यमय ‘प्रेम’ जब तक प्रकृति के सायुज्य में रहता है तब तक इसका स्वरुप द्वैत अभाषित रहता है परन्तु पुरुष से जुड़ते ही यह भक्ति में परिवर्तित हो अद्वैत की दिव्य स्थिति को प्राप्त कर शांत हो जाता है |
‘गावत बेद पुरान अष्ट दस | छओ सास्त्र सब ग्रंथन को रस ||’

श्रीमद् गोस्वामी तुलसीदास जी विरचित श्रीरामचरितमानस यद्यपि माया को द्वैत का कारण बताते हुए उसका रूप ‘मैं अरु मोर तोर ते माया’ तथा विस्तार ‘गोगोचर जहँ लगि मन जाई | तहँ लगि माया जानहु भाई ||’ इंगित करता है परन्तु तत्व की बात उसके अद्वैत स्वरुप का संकेत ‘कहियत भिन्न न भिन्न’ के माध्यम से देते हुए स्पष्ट करता है कि- “श्रुति सेतु पालक राम तुम जगदीश माया जानकी | जो सृजति जगु पालति हरती रुख पाइ कृपा निधान की ||” श्री मार्कंडेय पुराण का अंश श्री दुर्गासप्तशती के ‘सप्तश्लोकी दुर्गा’ का प्रथम मन्त्र भी कुछ इसी प्रकार का संकेत करता है | मन्त्र दृष्टव्य है- ‘ॐ ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हिसा | बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ||”

तत्वार्थ यह कि माया का मूल स्वरुप देवी भगवती के रूप में भगवान् के साथ अद्वैत का ही है | उसका लोकलुभावन परिधान ‘मैं अरु मोर तोर ते’ रूप में अशांत द्वैत स्वरुप को भाषित करता है |
तत्वदृष्टा कबीर का ‘ढाई आखर’ जब जीव में भक्ति का दिव्य स्वरुप ग्रहण करता है तब निष्कपट निर्मल मन सम्पूर्ण समर्पण के साथ ब्रह्म में विलीन हो अद्वैत रूप में अवस्थित हो शांत हो जाता है | प्रेम का यही दिव्य स्वरुप भक्ति ज्ञान का मूल और कबीर का पांडित्य है और यही आत्मबोध है |

जग शिवत्व से भर दे’ काव्यकृति में मैंने इस तत्वज्ञान को आत्मसात करने का प्रयास निम्नलिखित पंक्तियों के माध्यम से किया है-

ज्योंहि मुझको ज्ञान हो गया...

मैं अपूर्ण हूँ याकि पूर्ण हूँ,
पञ्च तत्व का चेतन यौगिक
विच्छेदित कर ज्ञान चक्षु से,
ज्योंहि किया अलौकिक, लौकिक
माया की काया का न्यारा,
तार तार परिधान हो गया
ज्योंहि..........................

एक साथ ही दसों द्वार पर,
धूं-धूं कर जल उठीं चिताएं
क्षण भर में ही भस्म हो गईं
धर्म-कर्म की परिभाषाएं
कोलाहल थम गया स्वयं,
औ’ ह्रदय शांति का धाम हो गया |
ज्योंहि........................

कबीर के पांडित्य और चेतना के आनंदमय कोष की परिधि के विषय ज्ञान, प्रेम और भक्ति के अद्वैत स्वरुप के सूक्ष्म निरूपण की इस बाल सुलभ चेष्टा के उपरांत हम लौकिक जगत में पुनः उतरते हैं |

लौकिक जगत में भी जब तक लेन-देन, हानि-लाभ, गिला-शिकवा आदि सोच में शेष हैं तब तक तो प्रेम अस्तित्व में आया ही नहीं है | सत्य मानिये तब तक तो तथाकथित प्यार, व्यापार मात्र है | लौकिक जगत में विशुद्ध प्रेम का मेरी दृष्टि में सबसे उपयुक्त उदाहरण प्रसव वेदना सहने के उपरांत सधः प्रसूता माँ का छाती से चिपकाये अपने नवजात शिशु को स्तनपान कराने, ह्रदय दृष्टि तथा रोम रोम से बरसाते उस प्रेम का है जहाँ न कोई चाह है, न कपट है, न गिला है, न शिकवा है |

प्रेम चाहे जिनके बीच हो जच्चा-बच्चा, पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका, गुरु-शिष्य, चिड़िया-चुनमुन आदि | वह पैदा ही वहां होगा जहाँ सौदा नहीं होगा | एक शेर नज़र करना चाहूँगा-
‘अगर करना मुहब्बत तो कभी सौदा नहीं करना
यकीं मानो मुहब्बत में कभी सौदा नहीं होता |’

और मुहब्बत का मर्म समझ में आते ही वफाई-बेवफाई का गिला-शिकवा भी समाप्त हो जाता है | एक शेर मुलाहिज़ा हो-
‘जानता हूँ लोग उसको बेवफा कहते हैं लेकिन
मैं अगर उसको वही कहने लगूं तो फिर वफ़ा क्या’

लौकिक जगत में भी प्रेम का विस्तार अयं निजः परोवेति...से वसुधैव कुटुम्बकम यानी व्यष्टि से समष्टि तक होते ही ऋषि के अनुभूति जगत में मन्त्र गुंजित हो उठता है-
‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वें सन्तु निरामया
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग भवेत् |’

और इसके ऊपर की स्थिति में जब प्रेम अपने दिव्य रूप ‘भक्ति’ के माध्यम से जीव को ब्रम्ह से जोड़ता है, तब क्या होता है यह उस फक्कड़ मस्त फ़कीर का ‘ढाई आखर’ ही आपको अनुभूति कराये इस कामना के साथ उसे ही दो पंक्तियाँ भावांजलि के रूप में अर्पित कर रहा हूँ-

“जब से पाया तुझे तभी से हाँ,
खुद को पाया न ढूँढने पर भी !”

-डॉ अनिल मिश्र


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