Saturday, 30 September 2023

गाँधी होने का अर्थ

गांधी जयंती पर विशेष

आज जब सांप्रदायिकता अनेक रूपों में अपना वीभत्स प्रदर्शन कर रही है, आतंकवाद पूरी दुनिया में निरर्थक हत्याएं कर रहा है, साम्राज्यवाद अपने नये लिबास बाज़ारवाद' के रूप में दुनिया में अपना मायाजाल फैला रहा है ऐसे में गांधी की याद सबसे अधिक आती है। गांधी जीवन भर सांप्रदायिक सौहार्द के लिए संघर्ष करते रहे- हिंदू-मुस्लिम एकता को मजबूती प्रदान करते रहे। सबके दिलों में प्रेम हो भाईचारे का संबंध हो, हिंसा मानवता के लिए कलंक है. उसे कभी धारण नहीं करना चाहिए- इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए गांधी का पूरा जीवन समर्पित रहा। घृणा विद्वेष से भरे हुए माहौल में प्रेम की ज्योति लेकर चलने वाला मानवता का यह योद्धा बुद्ध, ईसा और कबीर से शक्ति लेकर आगे बढ़ रहा था। कबीर का यह दोहा वे बार बार दुहराते थे- 'कबीरा यह घर प्रेम का, खाला का घर नाहीं। सीस उतारे भूई धेरै, सो पैठे घर माहीं।' उन्होंने अपना सर्वस्व समर्पित करके इस प्रेम, अहिंसा और सत्य के घर में प्रवेश किया था। प्रेम से दीप्त आत्मा लिए उन्होंने सत्य के अनेक प्रयोग किए थे। उन्होंने भारतीय जनता में सिर्फ़ आत्मविश्वास ही नहीं भरा था अपितु आत्म- दृढ़ता और आत्म-निर्भरता पैदा कर स्वाधीनता के पथ पर चलना सिखाया था। क्योंकि वे जानते थे कि किसी भी आंदोलन के लिए आत्म- दृढ़ता और आत्म-विश्वास बराबर की शक्ति रखते हैं। वे मानते थे कि जब प्रत्येक व्यक्ति में आत्म-विश्वास स्थिर हो जाएगा तो व्यक्ति उन्नति करेगा और उसके साथ समाज भी और आत्म बल तथा आत्म-विश्वास तभी आ सकता है, जब हम सत्य के तद्रूप हो जाएं- व्यर्थ और असत्य सत्य के हो जाएं, करें। हृदय और आत्मा की विशालता सर्वोपरि है, शरीर एवं वैभव की विशालता क्षणिक है। गांधी ने विवेकानंद की तरह आत्मोन्नति के साथ ही सामाजिक या दीन-दुखियों की सेवा, ग्रामोन्नति एवं आत्म-शुद्धि पर जोर दिया। गांधी ने 'अनासक्तयोग' नाम से गीता का भाष्य प्रस्तुत किया था। सही मायनों में गांधी अनासक्त योगी थे, स्थितप्रज्ञ थे।

गांधी जीवन को ही आंदोलन मानते थे- असत्य से आंदोलन, पराधीनता से आंदोलन चाहे वह असत्य समाज में हो, व्यक्ति के मन में हो या सरकार में हो। सरकार, चाहे वह अपनी ही सरकार क्यों न हो, यदि असत्य के मार्ग पर है तो उसके विरुद्ध आंदोलन होना चाहिए। गांधी किसी आंदोलन का हिस्सा नहीं थे, वरन् उनका अपना जीवन ही अपने आप में आंदोलन था। यही कारण है कि गांधी झूठ पाखंड और अनाचारों से भरे माहौल में जहां-जहां गए. एक आंदोलन पैदा हो गया. गांधी से पहले दक्षिण अफ्रीका में कितने लोग गए थे, पर वहां रंगभेद और अत्याचार अन्याय से भरे माहौल में गांधी के जाते ही एक आंदोलन पैदा हो गया और भारत में तो उनका पूरा जीवन ही आंदोलन में बीता। पिछली कई शताब्दियों में गांधी जैसा युगांतकारी व्यक्तित्व पैदा नहीं हुआ। उनकी निरंतर सक्रियता और गतिशीलता हर जगह उथल-पुथल पैदा कर देती थी। एक आंदोलन शुरू हो जाता था। गांधी जहां भी जाते हलचल मच जाती, पुलिस को लाठियां और गोली चलानी पड़ती। ऐसी अशांति मचती कि ब्रिटिश सरकार तक हिल जाती। इसलिए गांधी को जो सत्य और अहिंसा के पुजारी थे, कायर, डरपोक या भीरू नहीं के थे, डरपोक तत्व एक ऐसे योद्धा का था, जिसने बगैर हथियार उठाए, जनतांत्रिक तरीके से अपना संघर्ष चलाया था। इसलिए गांधी होने का अर्थ 'रघुपति राघव राजाराम' जैसा भजन गाना नहीं है, या अत्याचार और असत्य से सिर झुकाकर समझौता कर लेना नहीं। गांधी होने का अर्थ है हर अन्याय और अत्याचार से लड़ना, सड़ी-गली व्यवस्था को समाप्त करने के लिए अशांति और गड़बड़ी पैदा करना और एक आंदोलन शुरू करना जो बेहतर के लिए हो, सुख और शांति के लिए हो।

1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के समय उन्होंने अपने अहिंसक विरोध के बारे में कुछ बातें कही थीं, जो दिल्ली डायरी के दूसरे खंड में संकलित है- 'आजकल की सरकार व्यवस्थित हिंसा का मानों एक दूसरा नाम है और हम उसे स्वीकार करते हैं, उसकी सत्ता के नीचे रहते हैं। मेरा मत है उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। कई साल पहले मैंने बिहार में इस बात का इशारा किया था। वहां पर पुरुषों ने पुलिस को स्त्रियों का अपमान करने दिया। उनका सामना करने की जगह वे भाग गए। मैंने उनको बुजदिल बनने को नहीं कहा था। उनका तो धर्म था कि स्त्रियों की रक्षा में हिंसक या अहिंसक तरीक़े से जान लड़ा देते। ..... अगर बिल्ली चूहे पर हमला करे और कोई बहादुर चूहा सामने आकर अपने दांत से बिल्ली का सामना करे तो चूहे ने हिंसा की, ऐसा आप कहेंगे? उस समय मैंने यह दलील दी थी, मगर विचार का महत्त्व और अर्थ उस समय आज की तरह स्पष्ट नहीं हुआ था।" गांधी के इस व्यक्तव्य का आज अर्थ क्या है? इसका अर्थ है कि हम अन्याय, अत्याचार, गलत व्यवस्था को सिर झुकाकर स्वीकार न करें अपितु इनके विरुद्ध एक आंदोलन चलाएं और ऐसा करने वाला एक योद्धा ही कहा जाएगा।

गांधी एक ऐसे योद्धा थे, जिन्होंने अन्यायी ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध तो लगातार आंदोलन चलाया ही, अपने समाज में व्याप्त जात-पात, अस्पृश्यता, ऊंच-नीच आदि को समाप्त करने की कोशिश की। उन्होंने महलों से ज्यादा कुटिया को महत्व दिया। शहर और संभ्रांत वर्ग की जगह गांव और किसान की उन्नत्ति जोर दिया। उन्होंने बेशक़ीमती वेशभूषा की जगह लंगोटी को धारण किया। सन् 1931 में गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए जब गांधी लंदन गए थे, तब उनके ठहरने के लिए लंदन के एक बड़े होटल में व्यवस्था की गई थी, किंतु उन्होंने ईस्ट एण्ड' की मजदूर बस्ती में रहना पसंद किया था। एक लंगोटी बांधे, हाथ में लाठी लिए वे लंदन गए थे ठीक भारतीय किसान की वेशभूषा में कोई तामझाम नहीं, कोई नौकर, अंगरक्षक नहीं। सिर्फ़ कुछ शिष्य और एक बकरी उनके साथ थी। अपने इसी ढंग पर उन्होंने 1930 ई. में दांडी यात्रा की थी एवं नमक कानून को तोड़ा था। इसी वेशभूषा में उन्होंने पूर्वी बंगाल के दंगाग्रस्त क्षेत्र, जिसे नोआखाली कहा जाता है, पैदल यात्रा की थी। अपने जीवन के अंतिम कुछ महीनों में वे दिल्ली की भंगियों की बस्ती में रह रहे थे।

इस तरह गांधी ऐसा करके एक आदर्श उपस्थित कर रहे थे, जिसका एक बड़ा उद्देश्य था। 1945 में गांधी ने जवाहरलाल नेहरू को एक पत्र लिखा था "हम देश को बदलने के लिए लड़ रहे हैं | तुम मुझे बताओ कि देश को बदलने के लिए तुम्हारे दिमाग में कौन-सा नक्शा है? मेरे दिमाग में देश बदलने का नक्शा है- गांव शक्ति का केंद्र बनेंगे, गरीब के बारे में सोचा जाएगा।" नेहरू ने गांधी के पत्र का जवाब नहीं दिया तो उन्होंने राजकुमारी अमृत कौर से उस पत्र का अंग्रेजी अनुवाद करवा कर नेहरू को पुनः भेजा। तब नेहरू ने उत्तर दिया 'आप जो सोचते हैं, वह मुझे जंचता है।' इस पर गांधी ने पुनः लिखा- 'लेकिन तुम्हें मेरा रास्ता जंचता नहीं। मेरा तुम्हारा रास्ता अलग-अलग है।'

यह सही है कि गांधी और नेहरू के रास्ते अलग-अलग थे। उनकी मर्मस्पर्शी वाणी का नमूना देखिए- 'न जनता को मेरी ज़रूरत है और न उन लोगों को जिनके हाथ में सत्ता है। मैं तो यही चाहता हूं कि मैं काम करते-करते मरूं और जब मेरे प्राण निकलें तब भी मेरे होठों पर ईश्वर का नाम हो।'

मई, 1947 की एक सुबह जब आजादी और देश-विभाजन की तैयारी हो रही थी, दिल्ली की सड़कों पर टहलते हुए एक शिष्य ने उनसे पूछा- 'फैसले की इस घड़ी में आपका कहीं जिक्र नहीं है। ऐसा लगता है, आपको और आपके आदर्शों को तिलांजलि दे दी गई है।' इस पर गांधी ने बड़े ही दुखी मन से जवाब दिया था- 'हां, मेरी तस्वीरों और मूर्तियों को हार पहनाने के लिए हर आदमी उत्सुक रहता है, लेकिन मेरी सलाह मानने को कोई तैयार नहीं।'

गांधी अकेले क्यों हो गए थे? उनकी पुकार सुनने वाला कोई नहीं रह गया था। इसका कारण क्या था? सभी नेता सत्ता और ऐश्वर्य के बंदरबांट में लगे थे, दूसरी तरफ विभाजन के साथ बीसवीं सदी के सबसे भयानक दंगों की अग्नि में पूरा देश जल रहा था। अकेले गांधी उस अग्नि को बुझाने के लिए दौरा कर रहे थे। आज़ादी के संघर्ष के रथ को जिस गांधी ने लंबे समय तक खींचते हुए विजय के द्वार तक लाकर खड़ा कर दिया था, वहीं गांधी अकेला हो गया था, उसका सपना धराशायी हो गया था। गांधी विभाजन नहीं चाहते थे। वे कहते थे- 'भारत का बंटवारा मेरी लाश पर होगा। अपने जीते-जी मैं कभी भारत के बंटवारे के लिए तैयार नहीं हो सकता।' लेकिन गांधी को जीते-जी मारकर बंटवारा हुआ। गांधी हिंदू-मुस्लिम एकता चाहते थे और इसके लिए उन्होंने लगातार प्रयत्न किया था। पर उनके जीवन-काल में ही भीषण मार-काट मची। वे ग्रामोत्थान चाहते थे, किंतु उनके शिष्य सत्ताधारी होकर ऐश्वर्य की जिंदगी जीते हुए उस सीमांत के आदमी को भूल चुके थे। उनके बारे में गांधी ने मृत्यु के पूर्व कहा था- 'ये लोग मुझे महात्मा कहते हैं, लेकिन मैं आपसे बताता हूं कि ये लोग मेरे साथ भंगी जैसा सलूक भी नही करते |’

आज भी गांधी के बारे में कमोबेश यही स्थिति है। तो फिर गांधी के होने का जो अर्थ है, वह निरर्थक हो गया?

जहां सच्चाई है, ईमानदारी है, निष्ठा है, आस्था है, अन्याय का प्रतिरोध है, अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए उठा जन-आंदोलन है, वहीं गांधी है और वहीं गांधी होने की सार्थकता है।

Tuesday, 18 July 2023

संजय शांडिल्य की कविताएँ


पृथ्वी का सबसे लंबा पुल

  

नदी

स्वयं एक पुल है

पृथ्वी का सबसे लंबा पुल

 

पहाड़ से 

समुद्र को जोड़नेवाला

पहाड़ की हर बात 

समुद्र तक पहुँचानेवाला

नगरों...क़स्बों...जंगलों के 

सुख-दुख का 

निरंतर वाहक पुल

 

कभी मैं भी जाऊँगा समुद्र तक 

उस पुल से

जो एक नदी भी है..

 

लौटना

 

ज़रूरी नहीं

कि लौटो यथार्थ की तरह

स्वप्न की भी तरह

तुम लौट सकती हो जीवन में

 

ज़रूरी नहीं

कि पानी की तरह लौटो

प्यास की भी तरह

लौट सकती हो आत्मा में

 

रोटी की तरह नहीं

तो भूख की तरह

फूल की तरह नहीं

तो सुगंध की तरह

लौट सकती हो

 

और हाँ,

ज़रूरी नहीं कि लौटना

कहीं से यहीं के लिए हो

यहाँ से कहीं और के लिए भी

तुम लौट सकती हो...

 

हम मिलेंगे

 

पानी और फ़सल बनकर

किसी मेड़ पर हम मिलेंगे

और लहलहा उठेंगे

 

नमी और प्रकाश बनकर 

मिलेंगे किसी शाख़ पर

और खिल उठेंगे बेसाख़्ता

 

हम भूख और भोजन होकर 

किसी देह में मिलेंगे

और तृप्त हो जाएँगे आत्मानंत में

 

एक दिन

नदी और समुद्र-रूप में

किसी छोर पर मिलेंगे

और अछोर हो जाएँगे परस्पर

 

हम मिलेंगे

किसी और ही जीवन में मिलेंगे

पर मिलेंगे ज़रूर

हम ज़रूर मिलेंगे, प्रिये !

 

आदमी

 

एक आदमी

अगले ही क्षण

दूसरा आदमी हो जाता है

 

दूसरे से तीसरा

तीसरे से चौथा

चौथे से पाँचवाँ...

इस तरह 

अनंत क्षणों में एक आदमी 

अनंत हो जाता है

हालाँकि अनंत हुआ आदमी 

लौटता है आरंभ की ओर

और छूटे हुए 

प्रत्येक आदमी को ढूँढ़ता है 

ढूँढ़ता है और आगे बढ़ता है

बढ़ता हुआ 

किसी और दिशा में 

मुड़ जाता है...

 

अभी 

पिछले क्षण

तुम्हारे बारे में सोचता हुआ मैं

इस क्षण 

तुम्हारे बारे में लिखता हुआ

बिलकुल दूसरा आदमी हूँ

सोचता हुआ आदमी

सोचनेवाला आदमी था

लिखता हुआ आदमी

लिखनेवाला आदमी है

संभव है

लिखनेवाला यह आदमी

अगले क्षण

सुनानेवाला आदमी हो जाएगा

 

तुम भी 

जो मुझे पढ़ रहे हो 

सुन रहे हो

विचार रहे हो

बदलते हर क्षण में

एकदम अलग-अलग आदमी हो

 

ऐसे ही अपने हर आदमी से बिछुड़ता

एक एक आदमी से जुड़ता

रह जाता है आदमी 

और किसी दिन ख़त्म हो जाता है

 

हालाँकि 

जिसे हम 'खतम आदमी' कहते हैं

वह भी एकदम अलहदा आदमी होता है...

 

मैं आऊँगा

 

मैं आऊँगा

यहाँ बार-बार आऊँगा

 

यहाँ के पेड़

फूल और पत्तियाँ

उड़ती चिड़ियाँ और तितलियाँ

बेहद पसंद हैं मुझे

उनका होना फिर से देखने

मैं आऊँगा

 

मुझे पहाड़ यहीं के चाहिए

झीलें और झरने

तालाब, उपवन और वन

सब यहीं के चाहिए

और जैसे हैं, वैसे ही चाहिए

 

आऊँगा धरती से देखने आकाश

असंख्य ताराओं की गिनती के

अगणित प्रयासों के लिए आऊँगा

चंद्रमा का अमृत आत्मा में धारने

सूरज की तपिश से फिर-फिर हारने आऊँगा 

 

मैं दुखों से

अभावों से

आनंदों से बार-बार गुज़रना चाहूँगा 

इसलिए आऊँगा

 

आऊँगा

कि बेहद प्यार है मुझे इस धरती से

मोह के समुद्र में

मैं फिर से डूब जाना चाहूँगा

इसलिए आऊँगा

 

आऊँगा

कि मुझे प्यास चाहिए और भूख

अकर्मण्यता का छप्पनभोग मुझे नहीं चाहिए

 

आऊँगा

वनस्पतियों और प्राणियों के

इसी लोक में फिर आऊँगा

और हाँ,

मोक्ष का हर प्रलोभन

ठुकराकर आऊँगा !

 

◆◆◆

 

संजय शांडिल्य

जन्म : 15 अगस्त, 1970 | 

स्थान : जढ़ुआ बाजार, हाजीपुर |

शिक्षा : स्नातकोत्तर

वृत्ति : अध्यापन

प्रकाशन : कविताएँ 'आलोचना', 'आजकल', 'हंस', 'समकालीन भारतीय साहित्य', 'वागर्थ', 'वसुधा', 'बनास जन', 'दोआबा', 'नई धारा', 'कृति बहुमत', 'नया प्रस्थान' एवं 'ककसाड़'-समेत हिंदी की सभी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं तथा इ-पत्रिकाओं में प्रकाशित एवं अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुले', ‘जनपद : विशिष्ट कवि’, 'इश्क एक : रंग अनेक', 'काव्योदय', 'प्रभाती', 'आकाश की सीढ़ी है बारिश' तथा अँधेरे में पिता की आवाज़’-सहित दर्जनों संकलनों में संकलित | कविता-संकलन उदय-वेलाके सह-कवि | चार कविता-संग्रह 'समय का पुल', 'लौटते हुए का होना', 'जाते हुए प्यार की उदासी से' (प्रेम-कविताएँ) एवं 'नदी मुस्कुराई' (नदी और पानी-केंद्रित कविताएँ) शीघ्र प्रकाश्य

संपादन : ‘संधि-वेला’, ‘पदचिह्न’, ‘जनपद : विशिष्ट कवि’, ‘प्रस्तुत प्रश्न', ‘कसौटी’ (विशेष संपादन-सहयोगी के रूप में), ‘जनपद’ (हिंदी कविता का अर्धवार्षिक बुलेटिन), ‘रंग-वर्षएवं रंग-पर्व’ (रंगकर्म पर आधारित स्मारिकाएँ), 'जीना यहाँ मरना यहाँ' (गायक मुकेश के जीवन और कलात्मक अवदान पर केंद्रित स्मारिका) | ‘चाँद यह सोने नहीं देता’ (नंदकिशोर नवल की संपूर्ण कविताएँ), ‘पानी की भाषा में एक नदी’ (हिंदी की नदी-विषयक कविताओं का संचयन) एवं बेदर-ओ-दीवार सा इक घर’ (उर्दू की प्रतिनिधि ग़ज़लों और नज़्मों का संचयन) शीघ्र प्रकाश्य | अर्धवार्षिक पत्रिका 'उन्मेष' का संपादन एवं इसी नाम से एक साहित्यिक ब्लॉग का संचालन |

भारतीय फ़िल्म और टेलीविज़न संस्थान (FTII), पुणे, महाराष्ट्र के वरिष्ठ छात्रों द्वारा 'समकालीन भारतीय साहित्य' में प्रकाशित कविता 'जो आदमी लौट आया है' पर लघु फ़िल्म का निर्माण

संपर्क : साकेतपुरी, आर. एन. कॉलेज फ़ील्ड से पूरब, प्राथमिक विद्यालय के समीप, हाजीपुर, वैशाली, पिन : 844101 (बिहार) |

मोबाइल नं. : 9430800034, 7979062845 |

मेल पता : sanjayshandilya15@gmail.com |

गाँधी होने का अर्थ

गांधी जयंती पर विशेष आज जब सांप्रदायिकता अनेक रूपों में अपना वीभत्स प्रदर्शन कर रही है , आतंकवाद पूरी दुनिया में निरर्थक हत्याएं कर रहा है...