- अनूप कुमार
पिछले छह-सात दशकों की हिन्दी कविता में डा. रणजीत अपने वैचारिक
तेवर और प्रयोगधर्मिता के चलते एक अलग स्थान बनाये हुए हैं। मूलतः मार्क्सवादी
होने के बावजूद वे अपने आप को कभी विचारधारा के बने बनाये खाचों में फिट नहीं कर
पाये। मार्क्सवादी क्रान्तियाँ निस्संदेह उनके लिए प्रेरणा का स्रोत रहीं परन्तु
उन जनसंघर्षों के फलस्वरूप स्थापित हुई सर्वहारा की तानाशाहियों के साये तले पलते
अन्याय और अत्याचार का भी उन्होंने अपनी कविताओं और शुरूआती दौर में लिखी गई
कहानियों में जमकर विरोध किया। इस विरोध के चलते उन्हें पर्याप्त आलोचना और
व्यंग्यात्मक टिप्पणियों का शिकार भी होना पड़ा। कुछ व्यक्तिगत कारणों से और कुछ
समझ में न आने वाली बात का त्वरित विरोध करने की अपनी प्रवृत्ति के कारण वे कभी
वामपंथी लेखन की राजनीति की मूलधारा में सम्मिलित नहीं रह सके। इस सब के बावजूद वे
जीवन के नवें दशक में भी सक्रिय और सचेत हैं। पिछले एक दशक से भी अधिक समय से वे
अपने बच्चों के साथ बंगलुरू में रह रहे हैं। लेखन कार्य आयुजनित समस्याओं के चलते
कुछ मन्द अवश्य हुआ है परन्तु बन्द नहीं हुआ। इधर उनका एक नया कविता संकलन
प्रकाशित होकर आया है - ‘बिगड़ती
हुई आबोहवा’। इस संकलन में उनकी पिछले दो दशकों की कविताएँ
संकलित हैं। यद्यपि कुछ ऐसी कविताएँ भी हैं, जो पिछले
संकलनों में प्रकाशित हो चुकी हैं।
संकलन का आगाज़ ‘उल्टे
रस्ते’ शीर्षक कविता से होता है, जिसमें
रणजीत ने उदारीकरण और वैश्वीकरण जैसे आकर्षक शब्दों के पीछे की सच्चाई को छह दोहों
में बयान करने की कोशिश की है। विश्व व्यापार संगठन और दूसरे तमाम अन्तर्राष्ट्रीय
इदारों की भूमिका पर एक दोहा बड़ा सारगर्भित बन पड़ा है - विषम खेल है, नियम उन्हीं के, वे निर्णायक/वे ही प्रतियोगी हैं,
वे ही भाग्य विधायक।
इसके अतिरिक्त ‘स्वागत
में’ और ‘दो षट्पदियाँ’ भी इसी मौजूं पर लिखी गई कविताएँ हैं। ‘काला कुआँ
(ब्लैक होल)’ शीर्षक कविता ब्लैक होल के वैज्ञानिक सिद्धान्त
पर लिखी गई उल्लेखनीय कविता है जो अस्तित्व और अनस्तित्व की गुत्थी को समझने का
प्रयास करती है - बहुत कुछ है पर दिखता नहीं है कुछ भी/वास्तव में कुछ भी नहीं
है/पर निगल जाता है सब कुछ को/डुबो देता है/एक अस्तित्वहीनता के अंधे कुएँ में/ नहीं, न पानी, न पृथ्वी, न हवा/ कुछ भी तो नहीं है/ पर सारे पदार्थों को बना देता है अपदार्थ।
(पृष्ठ-5)
पर्यावरण डा. रणजीत के चिन्तन का एक महत्वपूर्ण बिन्दु रहा है।
उन्होंने काफी पहले पर्यावरण विषयक हिन्दी कविताओं का एक संकलन ‘खतरे के कगार तक’ भी सम्पादित
किया था। पर्यावरण प्रदूषण और परमाणु युद्ध के सन्दर्भ में उनकी कविताएँ
प्रभावशाली बिम्ब प्रस्तुत करती हैं। इस संकलन में भी उनकी एक कविता ‘परेशान मत करो, बच्चों!’ उनके
पर्यावरण चिन्तन को प्रतिबिम्बित करती है-
मात्र मिट्टी, बालू, पत्थरों का ढूह नहीं है यह/जीवित, जागृत, जंगम है यह पृथ्वी/एक अरब जीव-प्रजातियों
का/हलचल-भरा वैश्विक मधुछत्ता/यह साँस लेती है, धड़कती
है/सोती है, जागती है/करूणा और क्रोध करती है।
(पृष्ठ-20)
कुछ वर्षों पहले उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में किन्नरों की राजनैतिक
सफलता ने सबको अचंभित कर दिया था। कई स्थानों पर किन्नरों ने स्थानीय निकाय के
चुनावों में जीत हासिल की थी। इसके अनेक राजनैतिक निहितार्थ निकाले गए। किसी ने
इसे वर्तमान राजनैतिक व्यवस्था से मतदाताओं का मोहभंग बताया, तो कुछ लोगों ने दूसरे कारण बताये। ‘किन्नरों की जीत’ उसी दौर में लिखी गई कविता है,
जिसमें कवि इससे अचंभित तो दिखता है, इसमें
कुछ व्यवस्थागत संदेश भी देखता है परन्तु किसी परिवर्तनकामी प्रवृत्ति से नहीं
जोड़ता। अंततः हुआ भी यही, धीरे-धीरे वह प्रवृत्ति समाप्त हो
गई और राजनीति फिर उसी ढर्रे पर चलने लगी -
पर गोरखपुर की जनता ने/किसी स्थापित राजनीतिक दल की गोद में जाने के बजाय/एक हिजड़े की बंजर गोद पसंद की/क्या यह जनता की
मसखरी थी/आशादेवी के साथ?/या मतदाता यह देखना चाहते थे देखें/हिजड़े क्या करते हैं राजनेता चुने जाने
के बाद?
‘मिल्कियत’ शीर्षक कविता आरक्षण
और विभिन्न कानूनों के ज़रिए सामाजिक समानता और न्याय प्राप्त करने की मृगमरीचिका
और उसकी परिणति को प्रदर्शित करती है - तुम चाहे जितने कानून बनवा लो नये
नये/मिल्कियत तो हमारे ही पास रहेगी/तुम प्रधान की सीट आरक्षित कर दो/औरतों के
नाम/हम अपनी ठकुरानी या बहू को लड़वा देंगे/ सीट पिछड़ी जाति की हुई तो/हम अपने
दूधिये को खड़ा कर देंगे/ तुम सीट अनुसूचित जाति की घोषित करो/हम अपने धोबी या नाई
को लड़वा देंगे
(पृष्ठ-6)
इस क्रम में ‘असली
क्रान्ति’ शीर्षक कविता भी सामाजिक समानता और न्याय के
संघर्ष तथा उसके उद्देश्य पर एक सार्थक टिप्पणी करती प्रतीत होती है -
घोड़े पर सवार एक चमार/चाबुक बरसा रहा है/घोड़े से उतार दिये गये एक
ठाकुर साहब पर/सचमुच एक क्रांति आ गई है/पैदल सवार हो गये हैं/और सवार
पैदल/उन्होंने अपनी जगहें बदल ली हैं/पर घोड़े और चाबुक?/ वे ज्यों के त्यों हैं/असली क्रांति तो वह होगी
जिसमें/न घोड़े रहेंगे, न चाबुक/सब पैदल होंगे अपने ही पांवों
पर चलते हुए।
(पृष्ठ-30)
इसी विचार बिन्दु के आस-पास घूमती कविता ‘हो सारा संसार बराबर’ भी अच्छी
बन पड़ी है, जो विचार के साथ साथ शिल्प को भी साधे रखने की
कवि की कुशलता को अभिव्यक्त करती है -
मालिक और मजूर बराबर/बाम्हन और चमार बराबर।/एक एक को दस दस बंगले/यह
अन्याय अपार बराबर।/रोटी, कपड़ा, घर इलाज पर/सबका हो अधिकार बराबर।
(पृष्ठ-70)
‘बचा रहूंगा मैं’ भी एक अदभुत
कविता है जो इस विचार के इर्द गिर्द घूमती है कि मृत्यु के बाद व्यक्ति किस तरह से
उन तमाम लोगों की स्मृतियों में जीवित रहता है, जिन से उसका
कभी न कभी कोई सम्पर्क रहा हो या उसके नाम अनाम पाठक भी उसको जीवित रखते हैं अपनी
स्मृतियों में -
मैं भी रहूंगा/रहूँगा अपने बच्चों की स्मृतियों/ अपनी किताबों
में/-अगर उनमें से कोई बची रही/ किसी घर, किसी पुस्तकालय में। रहूंगा अपने अनगिनत विद्यार्थियों, श्रोताओं/ सामाजिकों की स्मृति में/दूकानदारों, सब्जीवालों,/बिजली ठीक करने /वाले मिस्त्रियों /राजगीरों, बढ़इयों,
घरेलू नौकरानियों, रिक्शेवालों/ और स्कूटर
मैकेनिकों की स्मृतियों में/ जिन जिन से मेरा साबका पड़ा है इस जीवन में/ वनस्थली विद्यापीठ और बांदा और बीकानेर की/उन
छात्र-छात्राओं की स्मृतियों में
(पृष्ठ-47)
‘शान्ति से मरूंगा मैं’ इस संकलन
की मूल्यवान कविताओं में से एक है। इस रचना में तमाम सफलताओं-असफलताओं और जय-पराजय
के बावजूद जीवन को सार्थक ढंग से जीने का संतोष दिखता है - शान्ति से मरूंगा
मैं/बिना किसी कष्ट के/मैंने जीवन को भरपूर जिया है/भर भर कर पिया है प्याला/और
छलकाया है उसे चारों ओर/संघर्ष किया है मैंने उदग्रीव, उर्ध्वबाहु
जुल्म से जबर से/यह नहीं कि सफल ही रहा हूँ/उसमें हारा भी हूँ/हुआ हूँ हताश भी
अनेक बार/पर गम नहीं पाला उस हार का/टूटा नहीं हूँ कभी।
इसी रचना की अगली पंक्तियों में मृत्योपरांत अंगदान और शरीरदान के
जरिए भी जीवन को सार्थक बनाने का अद्भुत उल्लास दिखता है - मेरी आँखें/अंधेरे में
टटोल रहे/किसी दलित, अल्पसंख्यक/शोषित-पीड़ित
स्त्री को, बच्चे को/देंगी नवजीवन का प्रकाश --/गुर्दे भी
काम आ जाएँ शायद/किन्हीं जरूरतमंदों के/नष्ट नहीं करूंगा लेकिन/शेष बचे तन को भी
जलाकर या दफना कर/पढ़ें इसे एक पाठ्यपुस्तक की तरह छात्र/चिकित्सा विज्ञान की
प्रयोगशाला में।
(पृष्ठ-47)
हर युग में साहित्य की दो समानांतर धाराएँ अस्तित्व में रही हैं। एक
ओर जनपक्षधर विद्रोही धारा रही है तो दूसरी ओर दरबारी, मठवादी और सत्ता के करीब रहने वाली धारा भी समानांतर
चलती रही है। दूसरी धारा कई बार सृजनात्मक रूप से कमजोर होने के बावजूद भी
साहित्यिक चर्चा परिचर्चा का हिस्सा बनी रहती है, तो पहली
धारा जनजीवन से जुड़कर भी साहित्यिक चर्चा-परिचर्चा से दूर रहती है। ‘अशोक वाजपेयी की एक कविता सुनकर’ साहित्य और कला
क्षेत्र में व्याप्त तमाम तरीके के जोड़-तोड़ और गोलबन्दी पर बेहतरीन टिप्पणी है-
कुछ लोग जो मुझसे ज्यादा
सफल हुए/ज्यादा मान्य, ज्यादा
प्रसिद्ध/ज्यादा ऊँचे पदों तक पहुंचे/ज्यादा सम्मानित किये गये/नज़दीक पहुंचे कुछ
ज्यादा बड़े लोगों के/ज्यादा बार छपे स्तरीय पत्रिकाओं में/ज्यादा भाषाओं में
अनूदित किये गये/उन पर तरस आया आज पहली बार/विचारों से कुछ ज्यादा ही कीमत/ वसूल
कर ली इन उपलब्धियों ने। मुझसे कम ही कर
पाये अपने जीवन से प्राप्त।/नहीं तो क्यों करनी पड़ती उन्हें अपने आखिरी दौर में यह
प्रार्थना:/‘एक जीवन ऐसा भी दें
प्रभु!/तन कर खड़े रह सकें जिसमें/बिना घुटने टेके।’
(पृष्ठ-64)
डा. रणजीत ने प्रेम कविताएँ भी लिखी हैं परन्तु उनका प्रेम-कविताएँ
सामान्य प्रेम कविताओं से अलग हैं। उनकी कुुछ कविताएँ स्त्री-पुरूष के मध्य समानता
पर आधारित सम्बन्धों की वकालत करती हैं तो कुछ कविताएँ दैहिक अनुभूतियों को भी एक
अलग अंदाज में प्रस्तुत करती है। निस्संदेह इन कविताओं में सेक्स को लेकर भी एक
अलग दृष्टिकोण है क्योंकि वह स्त्री-पुरूष सम्बन्धों का एक अनिवार्य भाग है -
जब तुम मेरे शरीर को सहलाती हो/मेरी आँखें बंद क्यों हो जाती हैं?/क्योंकि त्वचा सबसे प्राचीन इन्द्रिय है/ और आँखें
सबसे बाद की/विकास के क्रम में।
(प्राक्जान्त्विक
आस्वाद, पृष्ठ-45)
इसी प्रकार ‘तुम्हें
चूम कर’, ‘परीक्षा और प्यार’ ‘दर्पण
व्यक्तित्व’ ‘कभी-कभी’ ‘चूमा कर’,‘अच्छी लगती है’ और ‘प्रिये’
भी उल्लेखनीय प्रेम कविताएँ हैं।
डा. रणजीत की कविताओं से
गुजरना अनुभव और अनूभूतियों के एक अदभुत संसार से गुजरने जैसा है। जीवन के विशाल
कैनवास में फैली उनकी रचनाओं में विज्ञान के अदभुत रहस्यों को जानकर उत्पन्न
आश्चर्य है, तो औद्योगिक सभ्यता
के द्वारा नष्ट की जा रही प्रकृति की चिन्ता भी; सामाजिक
मसले हैं, तो स्त्री-पुरूष प्रेम की नितान्त व्यक्तिगत
अनुभूतियाँ भी। इस काव्य-संकलन की कुछ कविताएँ नितान्त साधारण हैं और कविता कम,
सपाट बयानी ज्यादा लगती हैं। कुल मिला कर ‘बिगड़ती
हुई आबोहवा’ डा. रणजीत के रचना-संसार के विभिन्न आयामों को
दिखाता एक पठनीय काव्य संकलन है।
- अनूप कुमार
200, नरोत्तम नगर, सिधौली, सीतापुर-261303