पिछले दो-तीन दशकों से स्त्री विमर्श का साहित्य जगत् में खूब बोलबाला रहा है। शोषण और दमन के प्रति आज स्त्री चेतना मुखर है। स्त्री विमर्श के माध्यम से स्त्री आज समानता-समता-सम्मान के अधिकार की माँग करती है। पुरुष वर्चस्ववादी समाज और उसकी सोच के विरुद्ध उठाया गया आक्रोश और विरोध ही स्त्री विमर्श का मूल आधार है। पुरुषप्रधान समाज ने सदैव यही चाहा है कि स्त्री उसकी दासी बनी रहे, सामाजिक रूढ़ियों और बंधनों के दायरे में ही रहकर वह पुरुष की सेवा करे, उसकी आज्ञा माने,उसका साथ दे। दुर्भाग्य से सदियों से ऐसा होता भी आया है। मानव जाति का इतिहास उठाकर देखें तो हम पाएंगे कि पुरुष ने स्त्री का सदैव शोषण और दमन ही किया है। अपने द्वारा बनाए गए सामाजिक बंधनों में उसने स्त्री की स्वतंत्रता को सदैव सीमित दायरों में ही रखने के प्रयास किए। परंतु समय के साथ-साथ आज स्त्री भी जागरूक हुई है। उसे भी अपने अस्तित्व की आभा का एहसास हुआ है। शिक्षा और ज्ञान के नये-नये क्षेत्रों ने स्त्री को भी अंधेरों से निकालकर सफलता और विकास का मार्ग दर्शाया है। पिछली सदियों में जो बातें उसके सामाजिक-सांस्कृतिक विकास को अवरुद्ध करती थीं, आज वही उसकी शक्ति और सामर्थ्य को स्थापित करती हैं। आज की स्त्री अपनी चेतना और सोच में न केवल पुरुषवादी वर्चस्व का सत्य समझ चुकी है अपितु इसे पीछे धकेलकर अपने ही दम पर कुछ कर गुजरने के लिए आतुर है। मृणाल पांडे के शब्दों में, “अगर विचार करना है तो स्त्री के संदर्भ में नहीं, शक्ति के संदर्भ में भी विचार करना होगा क्योंकि मूलतः जो पीड़ा है वह शक्ति के असंतुलित वितरण से उपजी विभिन्न प्रकार की विसंगतियों एवं कष्टों को लेकर है। नारी विमर्श इन सभी विचारधाराओं को लेकर चलता है।
इसमें स्त्री की आजादी,स्वायत्तता,आत्मनिर्भरता,अस्मिता,स्वचेतना, संघर्ष, विरोध तथा विद्रोह की बात की जाती है।” स्त्रीवाद और स्त्री विमर्श भले ही पश्चिमी देशों में आरंभ हुए हों, परंतु भारत में भी इनका स्थान सुरक्षित रहा है। आज का स्त्री विमर्श सामाजिक,राजनैतिक, मनोवैज्ञानिक,सांस्कृतिक--सभी दृष्टियों को लेकर चलता है। यह स्त्री जीवन के ‘ओवर ऑल एस्पेक्ट्स’ को हमारे सामने लेकर आता है। स्त्री ने न केवल अपने रूढ़िगत सामाजिक संबंधों और बंधनों को छिन्न-भिन्न किया, अपितु अपने सृजन में भी इन सब बातों को यथोचित स्थान दिया। अपनी अस्मिता की भावना की रक्षा रखने के लिए समाज के हर क्षेत्र से स्त्री सामने आई। साहित्य में तो इस प्रकार के प्रयास खूब जोर-शोर से किए गए। अनेक महिला साहित्यकारों ने खूब बढ़-चढ़कर इस क्षेत्र में अपना पर्याप्त मात्रा में योगदान दिया है। महिला साहित्यकारों की एक लंबी परंपरा है इस संदर्भ में। वरिष्ठ साहित्यकार उषा यादव अपनी नवीनतम पुस्तक ‘स्त्री विमर्श और महिला उपन्यास लेखन’ में इसी परिप्रेक्ष्य को सामने लाने का तलस्पर्शी प्रयास करती दिखाई देती हैं। इस पुस्तक में उषा यादव ने अपने अध्ययन को महिला साहित्यकारों के उपन्यास सृजन पर केंद्रित रखा है। विभिन्न महिला कथाकारों ने अपने उपन्यासों के माध्यम से स्त्री जीवन के मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किए हैं। पुस्तक का आरम्भ ‘मीरा की प्रासंगिकता’ से हुआ है। उषा यादव मीराबाई और उनके काव्य को स्त्री जीवन की मुक्ति के संदर्भ में देखती हैं। मध्ययुगीन नारी विरोधी समाज में मीराबाई ने सामाजिक बंधनों को धता बताकर कुल-मर्यादा के सभी बंधन तोड़ डाले। लोकलाज को पीछे रखकर मीरा ने भक्ति का मार्ग चुना और साधु-संतों की शरण में कृष्णभक्ति की अलख जगाई। कुललाज और लोकलाज के बंधन उनका रास्ता नहीं रोक सके। उषा यादव मीरा को अद्भुत जीवन और साहस से भरा पाती हैं,“सचमुच तत्युगीन सामंती समाज के विरोध में खड़ी मीरा एक निष्कम्प दीपशिखा की भाँति प्रतिभासित होती हैं। साधु-संतों और निर्मल चित्तवृत्तियों वाले लोगों को अपने माता-पिता समान समझकर उनके समक्ष घूंघट की अवज्ञा करना उन्हें भाता है। पवित्र निगाह रखने वाले लोगों के सामने घूंघट जैसे कृत्रिम आवरण की आवश्यकता का वह अनुभव नहीं करतीं। उनके भीतर सही-गलत व्यक्ति को रखने का जब विवेक है, तो उनमें साहसिकता का स्वत: उद्रेक हो जाता है। मीरा ने अपने मनोबल के सहारे जिस प्रशस्त पथ का निर्माण किया है, वह स्वतंत्रता का पथ है,वह नारी अस्मिता का पथ है। मीरा पूरे आत्मविश्वास से इस पथ पर आगे बढ़ी हैं।”
वर्तमान
में
साहित्य
में
उत्तरआधुनिकता
का
पर्याप्त
बोलबाला
है।
परंपरा
और
आधुनिकता
की
चिंतनधारा
और
सोच
पर
इसने
बहुत
अधिक
प्रभाव
डाला
है।
पुस्तक
के
दूसरे
अध्याय
‘स्त्री
विमर्श
की
पीठिका:
उत्तर
आधुनिकता’
में
लेखिका
ने
उत्तर
आधुनिकता
के
सम्प्रत्यय
को
खूब
विस्तार
से
समझाया
है।
प्रस्तुत
अध्याय
में
सर्वप्रथम
परंपरा
आधुनिकता
और
समकालीनता
पर
बात
की
गई
है।
उसके
बाद
उत्तर
आधुनिकता
को
समझाते
हुए
उषा
यादव
लिखते
हैं,“उत्तर
आधुनिकता
को
आधुनिकता
की
अगली
कड़ी
नहीं
मानना
चाहिए।
यह
एक
अलग
विचारधारा
है
जिसका
परंपरा
और
आधुनिकता
से
कोई
सम्बंध
नहीं
है।
यह
विचारधारा
सूचना
प्रौद्योगिकी
की
कोख
से
जन्मी
है
और
अर्थतंत्र
के
साथ-साथ
हमारे
सारे
सांस्कृतिक
प्रतिमानों
को
ही
बदलकर
रख
देती
है।
सच
तो
यह
है
कि
उत्तर
आधुनिकतावाद
साहित्य
और
चिंतन
के
क्षेत्र
में
आए
हुए
व्यापक
परिवर्तनों
को
जतलाने
वाली
एक
ऐसी
व्यापक
परिकल्पना
है,
जिसके
बीज
बीसवीं
सदी
के
छठे
दशक
में
मुक्ति
आंदोलन
के
रूप
में
पड़
चुके
थे।”
उत्तर
आधुनिकता
के
मूल
तत्त्वों
में
विकेंद्रीयता,
स्थानीयता,
प्रभुत्व
के
लिए
संघर्ष,
युगल
विपरीतता,
लोकप्रिय
संस्कृति
की
पक्षधरता
आदि
दर्शाए
गए
हैं।
उत्तर
आधुनिकता
की
एक
मुख्य
विशेषता
है
अंतर्विषयक
चिंतन।
लेखिका
के
शब्दों
में,“यही
नहीं,
उत्तर
आधुनिकता
अंतर्विषयक
चिंतन
की
बात
कहती
है।
इसमें
ज्ञान-विज्ञान
और
कला
के
मध्य
भी
कोई
सीमा
रेखा
नहीं
है।
इसका
अर्थ
यह
है
कि
कला
और
सौंदर्य
की
हर
अभिव्यक्ति,
जीवन
का
हर
क्षेत्र,
समाज
की
हर
वस्तु
और
विचार
की
हर
एक
धारा;
सभी
कुछ
एक-दूसरे
में
समाहित
हो
रहा
है।”
ज्ञातव्य
है
कि
उत्तर
आधुनिकता
के
सम्प्रत्यय
ने
साहित्यिक,सामाजिक
और
सांस्कृतिक
सोच
पर
भी
अनेकानेक
प्रभाव
डाले
हैं।
उत्तर
आधुनिकता
ने
विखंडन
पर
बल
दिया
और
हमारे
परंपरागत
विश्वासों,
प्रतिमानों,संस्कृति
आदि
पर
कुठाराघात
किया।
लेखिका
के
शब्दों
में,“उत्तर
आधुनिकता
के
प्रभाव
के
कारण
साहित्यिक
और
सांस्कृतिक
सोच
को
विस्तार
मिला
है।
अनेक
प्रवृतियां
जन्मी
हैं,
जिनमें
सांस्कृतिक
अध्ययन,
नारीवाद,
दलित
विमर्श,
नई
साहित्यिक
थ्योरी,
इतिहास
और
नवइतिहास
को
सम्मिलित
किया
जा
सकता
है।”
वास्तव
में
उत्तर
आधुनिक
विचारधारा
ने
न केवल
समाज
को
बल्कि
साहित्य
को
भी
प्रभावित
किया
है।
भूमंडलीकरण
की
मूल
भावना
भी
इसी
में
ही
निहित
है।
पुस्तक
का
तीसरा
अध्याय
है
‘स्त्री
विमर्श:
चिंतन
के
नये
आयाम’। नारी
एक
ओर
जहाँ
महिमामंडित
देवी
के
रूप
में
पूजी
जाती
है,
वहीं
सब
कुछ
सहन
करने
वाली
धरती
के
रूप
में
भी
हमारे
सामने
आती
है।
नारी
शोषण
के
विविध
रूप
दर्शाते
हुए
लेखिका
ने
मादा
भ्रूणहत्या,
बेटे-बेटी
में
अंतर,
शारीरिक
हिंसा,
यौन
शोषण
जैसे
विषयों
पर
अपनी
कलम
चलाई
है।
लेखिका
लिखती
हैं,“बहरहाल
आठवें
दशक
तक
आते-आते
इस
आंदोलन
का
सोच
पहले
से
ज्यादा
परिपक्व
हुआ
और
आक्रामकता
घटी।
आज
पूरा
जोर
इस
बात
पर
दिया
जा
रहा
है
कि
स्त्री
भी
इंसान
है
और
उसे
पूरे
सम्मान
के
साथ
जीने
का
अधिकार
है।
आज
नारी
की
मूक
पीड़ा
को
न सिर्फ
समझा
जा
रहा
है
बल्कि
उसे
मुखरित
भी
किया
जा
रहा
है।”
उषा
यादव
कवयित्री
महादेवी
वर्मा
को
स्त्री
विमर्श
की
पुरोधा
के
रूप
में
देखती
हैं।
डॉ.
राजेंद्र
प्रसाद
ने
उन्हें
भारतीय
महिला
की
सांस्कृतिक
परंपरा
का
प्रतीक
बताया
था।
महादेवी
वर्मा
ने
अपने
गद्य
में
नारीमुक्ति
को
बहुधा
रेखांकित
किया
है।
वर्ष
1942 में
प्रकाशित
उनकी
प्रसिद्ध
गद्यकृति
‘श्रृंखला
की
कड़ियां’
महादेवी
वर्मा
के
स्त्री
विमर्श
को
हमारे
सामने
लाती
है।
लेखिका
इन
शब्दों
में
महादेवी
के
योगदान
को
रेखांकित
करती
हैं,“महादेवी
औरत
के
लिए
शिक्षा
की
इस
हद
तक
पक्षधर
थीं
कि
यदि
नारियां
शिक्षित
हो
जाएं
तो
समाज
का
सारा
ढाँचा
ही
सुधर
जाएगा।
इसी
क्रम
में
वह
नारी
की
मातृत्व
की
छवि
के
प्रति
हृदय
से
नतमस्तक
थीं।
आज
का
नारीवाद
जिस
मातृत्व
को
खेल
और
मखौल
समझकर
एक
फूँक
में
उड़ा
देना
चाहता
है,
उसे
महादेवी
नारी
की
गरिमा
का
चिह्न
मानती
थीं।”
इसी
क्रम
में
उषा
यादव
इसी
विमर्श
से
जुड़े
अन्य
महिला
साहित्यकारों
के
लेखन
का
विवरण
भी
देती
हैं।उषा
देवी
मित्र,
कृष्णा
सोबती,
मन्नू
भंडारी,
मृदुला
गर्ग,
उषा
प्रियंवदा,
राजी
सेठ,
चित्रा
मुद्गल,
ममता
कालिया,
नासिरा
शर्मा
आदि
के
लेखन
पर
यहाँ
विहंगम
दृष्टि
डाली
गई
है।
महादेवी
वर्मा
के
साथ-साथ
सुभद्राकुमारी
चौहान
ने
भी
अपने
सृजन
में
स्त्रीपरक
चिंतन
को
सामने
रखा।
इलाहाबाद
के
क्रास्थवेट
गर्ल्स
स्कूल
में
दोनों
ही
एक
साथ
अध्ययनरत
थे।
उषा
यादव
इसे
दोस्ती
के
दर्पण
में
प्रतिबिंबित
एक
स्त्री
विमर्श
के
रूप
में
याद
करती
हैं।
दोनों
की
मित्रता
के
अनेक
मनभावन
किस्से
आज
भी
लोगों
की
जुबान
पर
हैं।
महादेवी
वर्मा
और
सुभद्राकुमारी
चौहान
के
प्रदेय
पर
उषा
यादव
का
निष्कर्ष
उल्लेखनीय
है,
“निश्चय
ही
यह
कहा
जा
सकता
है
कि
सुभद्राकुमारी
चौहान
और
महादेवी
वर्मा
ने
अपने
कार्यों
और
कलम
से
स्त्री
को
उसकी
वास्तविक
गरिमा
से
मंडित
करने
में
कोई
कसर
नहीं
छोड़ी
है।
आज
के
देहवादी
स्त्री
विमर्श
के
परिप्रेक्ष्य
में
यह
विचार
कितने
बहुमूल्य
हैं,
कहने
की
आवश्यकता
नहीं।
एक
सुंदर
समाज
के
गठन
में
इन
विचारों
की
प्रभावी
भूमिका
को
अस्वीकार
नहीं
किया
जा
सकता
है।
जैसे
भक्तियुगीन
कवयित्री
मीरा
कभी
अपनी
प्रासंगिकता
नहीं
छोड़ेंगी,
वैसे
ही
सुभद्राकुमारी
चौहान
और
महादेवी
वर्मा
भी
सदैव
प्रासंगिक
रहेंगी।”
समकालीन
समय
में
स्त्री
विमर्श
आधारित
कृतियाँ
पर्याप्त
मात्रा
में
आ रही
हैं।
न केवल
स्त्रियाँ
अपितु
पुरुष
साहित्यकार
भी
इस
विमर्श
को
सामने
ला
रहे
हैं।
आज
की
स्त्री
केवल
चौके-चूल्हे
तक
ही
सीमित
नहीं
है।
घर
की
चारदीवारी
से
बाहर
जाकर
भी
उसने
विभिन्न
क्षेत्रों
में
अपना
नाम
किया
है।
आज
के
स्त्रीवादी
विमर्श
में
इन्हीं
बातों
को
सामने
लाया
गया
है।
देहवाद
से
इतर
भी
अनेक
कथानकों
पर
आधारित
उपन्यास
पर्याप्त
चर्चित
हुए
हैं।
‘स्त्री
विमर्श
का
समकालीन
संदर्भ’
नामक
छठे
अध्याय
में
लेखिका
ने
वर्तमान
में
सामने
लाये
गए
स्त्री
विमर्श
के
संदर्भों
की
पड़ताल
इन
शब्दों
में
की
है,
“वस्तुत:
आज
स्त्री
विमर्श
के
अनेक
प्रकल्प
प्रकाश
में
आ रहे
हैं।
नाना
रूपों,
स्तरों,
विधियों
द्वारा
नारी
शोषण
अनावृत्त
हो
रहा
है।
कहीं
अतीत
के
गली-गलियारों
में
झाँककर
नारी
शोषण
के
ऐतिहासिक
पलों
की
धूल
झाड़ी
गई
है,
तो
कहीं
वर्तमान
दुर्दशा
की
झाँकी
उकेरी
गई
है।
आज
सबसे
बड़ा
संकट
स्त्री
के
अस्तित्व
को
लेकर
है।”
समकालीन
स्त्री
विमर्श
के
समक्ष
अनेक
चुनौतियां
भी
हैं।
महिला
लेखन
किसी
सामूहिक
मंच
के
अभाव
में
बिखरा-सा
है।आज
का
महिला
लेखन
कहीं
न कहीं
बाजारवाद
का
शिकार
भी
है।
उषा
यादव
लिखती
हैं,
“स्पष्ट
है
कि
स्त्री
विमर्श
के
सामने
आज
अनेक
चुनौतियां
हैं,जिनकी
संख्या
में
और-और
बढ़ोत्तरी
हो
रही
है।
संकट
पहले
से
भी
अधिक
गहराता
जा
रहा
है।
पितृसत्तात्मक
समाज
का
षड्यंत्र
तो
बरकरार
है
ही,
भूमंडलीकरण
और
बाजारवाद
ने
शोषण
का
अंतहीन
जाल
फैलाना
शुरू
कर
दिया
है।
स्त्री
का
व्यक्ति
से
वस्तु
में
बदलना,
बाज़ार
का
हिस्सा
बनना
तथा
घरेलू
व बाहरी
हिंसा
की
लपटों
में
झुलसना
एक
ऐसा
भयावह
सच
है,
जिसकी
अनदेखी
नहीं
की
जा
सकती।”
प्रस्तुत
अध्ययन
का
मुख्य
भाग
‘हिंदी
का
महिला
उपन्यास’
लेखन
दो
खंडों
में
विभक्त
है।
सप्तम
अध्याय
में
आरंभ
से
सन्
1980 तक
के
महिला
उपन्यास
लेखन
पर
व्यापक
दृष्टि
डाली
गई
है।
अध्याय
का
आरंभ
बंग
महिला
(वास्तविक
नाम
श्रीमती
राजेंद्रबाला
घोष)
की
कहानी
‘दुलाईवाली’
से
होता
है।
यद्यपि
यह
उपन्यास
न होकर
कहानी
थी
परंतु
यहीं
से
उपन्यास
लेखन
के
प्रस्थान
बिंदु
का
आरंभ
होता
है।
कुल
चौंतीस
महिला
उपन्यासकारों
पर
कालक्रमानुसार
यहाँ
विस्तार
से
विचार
किया
गया
है।
इसी
क्रम
में
आठवें
अध्याय
में
सन्
1980 से
2018 तक
के
महिला
उपन्यास
लेखन
पर
दृष्टिपात
किया
गया
है।
कुल
अट्ठाइस
महिला
उपन्यासकारों
पर
यहाँ
विस्तार
से
बात
की
गई
है।
उषा
यादव
लिखती
हैं,“आजादी
के
बाद
स्त्री
विषयक
चिंतन
में
भारी
परिवर्तन
आया।
स्त्री
विमर्श
के
प्रचार-प्रसार
से
नारी
अपने
अधिकारों
के
प्रति
जागरूक
हुई
और
हिंदी
उपन्यास
इसके
साक्षी
बने।
सातवें
दशक
से
ही
हिंदी
उपन्यासों
में
ऐसी
स्त्रियों
का
चित्रण
हुआ
जो
पढ़ी-लिखी
और
आर्थिक
दृष्टि
से
आत्मनिर्भर
होने
के
बावजूद
पुरुष
की
संस्कारजन्य
कुंठाओं
के
चलते
‘व्यक्ति’
की
जगह
‘वस्तु’
के
रूप
में
ही
अंगीकार
की
गईं।
पर
सन्
1980 के
बाद
नारी
ने
पारम्परिक
रूढ़ियों
की
घुटन
से
स्वयं
को
आजाद
करके
अपनी
पहचान
बनाने
का
संकल्प
लिया।”
प्रत्येक
लेखिका
के
उपन्यास
साहित्य
का
यहाँ
साररूप
में
परिचय
प्रस्तुत
किया
गया
है।
प्रस्तुत
दोनों
ही
खंड
निश्चित
रूप
से
पर्याप्त
और
गहन
अध्ययन
के
उपरांत
लिखे
गए
हैं।
इतने सारे उपलब्ध उपन्यासों को पढ़ना-समझना और उनकी मूल भावना को कुछ पंक्तियों में प्रस्तुत करना, उषा यादव जैसी चिंतक की ही कलम की उपज हो सकती है। उषा यादव एक आलोचक होने से पूर्व एक संवेदनशील कथाकार भी हैं। उपन्यास और कहानी सृजन में उनकी लेखनी पर्याप्त रूप से समादृत रही है। इसीलिए स्त्री लेखन के मूल भाव को उन्होंने पर्याप्त गहराई से न केवल समझा है, अपितु उसका शब्दाँकन करने में भी उतनी ही सफलता प्राप्त की है। वैसे पुस्तक में सन् 2018 तक के महिला उपन्यास लेखन पर बात की गई है। स्त्री लेखन का भविष्य-- इस विषय पर भी लेखिका से कुछ निर्देशन की आशा बँधती है। स्त्री लेखन की जागरूकता और भविष्य में आने वाले परिवर्तनों की टोह इस पुस्तक के अगले संस्करण में मिल सकेगी, ऐसा पूर्ण विश्वास है। प्रस्तुत कृति शोधकर्ताओं और हिंदी साहित्य के अध्येताओं के लिए निश्चित रूप से उपादेय सिद्ध होगी, ऐसा पूर्ण विश्वास है।
पुस्तक: स्त्री विमर्श और महिला उपन्यास लेखन/ लेखिका: उषा यादव / प्रकाशक: यश पब्लिकेशंस, नई दिल्ली/ मूल्य: रु. 550 / पृष्ठ:212
-
डॉ.
नितिन
सेठी
सी-231,
शाहदाना
कॉलोनी
बरेली
(243005)
मो.9027422306