लेखा-जोखा
राहुल देव
हिंदी साहित्य में ‘व्यंग्य’ एक
उपेक्षित लेकिन लोकप्रिय विधा रही है | हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल
जैसे लेखकों ने इसे हाशिये से उठाकर मुख्यधारा में ला खड़ा किया | हिंदी व्यंग्य के
जिस आधुनिक स्वरुप के दर्शन आज हमें होते हैं वह वह व्यंग्य की समृद्ध परम्परा
हमें सौंपती है और जिसे बचाए रखने की हमारे नए-पुराने व्यंग्यकारों पर बड़ी
ज़िम्मेदारी है | हर वर्ष की तरह इस साल भी तमाम व्यंग्य उपन्यास और संकलन प्रकाश
में आये हैं | इस आलेख में प्रस्तुत उनमें से प्रमुख किताबों का लेखा-जोखा इसी बात
की पड़ताल करता है |
‘व्यंग्य समय’ सीरीज़ किताबघर प्रकाशन की एक
महत्त्वाकांक्षी कथा-योजना है, जिसमें
हिंदी व्यंग्य-जगत के प्रमुख व्यंग्यकारों को प्रस्तुत किया जा रहा है। इस सीरीज़ के
अंतर्गत शीर्षस्थ व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की प्रतिनिधि व्यंग्यकथाओं को सुशील
सिद्धार्थ के कसे हुए संपादन में प्रस्तुत किया गया है | इसके माध्यम से पाठक सुविख्यात कथाकार
हरिशंकर परसाई के प्रतिनिधि व्यंग्यों को एक ही जिल्द में पाकर सुखद संतोष का
अनुभव करेंगे। उनके चर्चित व्यंग्य संग्रह ‘ठिठुरता हुआ गणतंत्र’ का
नया संस्करण राजकमल प्रकाशन ने इस साल प्रकाशित किया है | परसाई को राजनीतिक
व्यंग्य के लिए विशेष तौर पर जाना जाता है लेकिन इस संग्रह में उनके सामाजिक
व्यंग्य ज़्यादा रखे गए हैं। इन्हें पढ़कर पाठक सहज ही जान सकता है कि सिर्फ
राजनीतिक विडम्बनाएँ ही नहीं, समाज ने जिन दैनिक प्रथाओं और मान्यताओं को अपनी जीवन-शैली माना है, उनकी खाल-पर छिपे पिस्सुओं
को भी वे उतने ही कौशल से देखते और झाड़ते हैं।
राजकमल ने श्रीलाल शुक्ल के कालजयी
उपन्यास ‘राग दरबारी’ का 32वां संस्करण भी इसी वर्ष प्रकाशित किया है | यह एक ऐसा उपन्यास है जो गाँव की कथा के माध्यम से आधुनिक भारतीय जीवन की
मूल्यहीनता को सहजता और निर्ममता से अनावृत्त करता है | शुरू से आखिर तक इतने
निस्संग और सोद्देश्य व्यंग्य के साथ लिखा गया हिंदी का शायद यह पहला वृहत उपन्यास
है | इस उपन्यास का की कथाभूमि एक बड़े रूपक की तरह से है जिसका सम्बन्ध एक बड़े नगर से
कुछ दूर बसे हुए गाँव की जिंदगी से है, जो इतने वर्षों की प्रगति और विकास के नारों के बावजूद निहित स्वार्थों और
अनेक अवांछनीय तत्त्वों के सामने घिसट रही है | यह उसी जिंदगी का दस्तावेज
है |
‘समकालीन व्यंग्यकार : आलोचना का आईना’ युवा आलोचक राहुल देव के संपादन में आया लेख संकलन है | संपादक द्वारा समकालीन समय के 12 चयनित व्यंग्यकार और 12 चयनित आलोचक इसके केंद्र में हैं | अपनी तैयारी में अलग ढब की इस पुस्तक में व्यंग्यकार इसके बिम्ब हैं और आलोचक इसके प्रतिबिम्ब | दोनों ने एक दूसरे की दृष्टि से नितांत विलग रहते हुए अपना अपना पक्ष रखा है जिसे पढ़ना पाठकों के लिए भी एक दिलचस्प अनुभव होगा | इसे दिल्ली के यश
पब्लिकेशन ने प्रकाशित किया है | समकालीन समय के शीर्षस्थ व्यंग्यकार डॉ ज्ञान
चतुर्वेदी का बहुप्रतीक्षित उपन्यास ‘पागलखाना’ भी इस वर्ष राजकमल प्रकाशन
से प्रकाशित हुआ है | बाजारवाद पर केन्द्रित उनका यह उपन्यास दिनोंदिन कठिन होते
जा रहे बाज़ार के आगे बिछ चुके भयानक समय की कथा कहता है | ज्ञान जी के साथ राहुल
देव ने एक बड़ी अच्छी और लम्बी बातचीत भी की है जिसे रश्मि प्रकाशन लखनऊ ने ‘साक्षी
है संवाद’ शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित किया है | ‘शरद परिक्रमा’ तथा
‘और शरद जोशी’ शीर्षक से राजकमल प्रकाशन ने इस साल शरद जोशी पर दो
महत्वपूर्ण किताबें भी प्रकाशित की हैं | ‘शरद परिक्रमा’ बीसवीं शताब्दी के पाँचवें दशक में ‘नई दुनिया’ में प्रकाशित
उनके व्यंग्य-कॉलम ‘परिक्रमा’ में छपी व्यंग्य-रचनाओं का संकलन है |
‘राग दरबारी’ की परम्परा में वाणी प्रकाशन से
प्रकाशित हुआ ‘मदारीपुर जंक्शन’ युवा लेखक बालेन्दु द्विवेदी का पहला
उपन्यास है | अपने रोचक कथ्य-भाषा और शिल्प के कारण यह उपन्यास चर्चा बटोरने में
सफल रहा | एक लंबे अंतराल के बाद एक ऐसा उपन्यास पढ़ने को मिला जिसमें करुणा की
आधारशिला पर व्यंग्य से ओतप्रोत और सहज हास्य से लबालब पठनीय कलेवर है। कथ्य का
वक्रोक्तिपरक चित्रण और भाषा का नव-नवोन्मेष, ऐसी दो गतिमान गाड़ियाँ हैं जो मदारीपुर के जंक्शन पर रुकती हैं। जंक्शन के
प्लेटफार्म पर लोक-तत्वों के बड़े-बड़े गट्ठर हैं जो मदारीपुर उपन्यास में चढ़ने को
तैयार हैं। ‘साहित्य उपक्रम’ से
आया विष्णु नागर का व्यंग्य संग्रह ‘सदी का सबसे बड़ा ड्रामेबाज’ इस किताब के कुछ व्यंग्य निश्चित
तौर पर काफी गुदगुदाते हैं | राजनीतिक विषयों पर साफ-सुथरे हास्य के साथ कही गई
बातें कहीं चोट करती हैं, तो
कहीं सोचने पर मजबूर कर देती हैं, कहीं
सवाल पैदा करती हैं, तो
कहीं चुटकी लेती हुई सामने आती हैं | व्यक्ति से लेकर व्यवस्था तक कुछ भी नागर जी
की पैनी नजर से बचा नहीं है |
हिंदी में महिला व्यंग्य लेखिकाओं की संख्या में अब
इजाफा हो रहा है | इस वर्ष उनके व्यंग्य संग्रहों की बात करें तो रुझान पब्लिकेशन
से इन्द्रजीत कौर का व्यंग्य संग्रह ‘पंचरतंत्र की कथाएं’, रेडग्रेब बुक्स
से शशि पुरवार का ‘व्यंग्य की घुड़दौड़’ और कोर प्रकाशन से वीना सिंह का ‘बेवजह
यूँ ही’ प्रकाशित हुए | अर्चना चतुर्वेदी के सम्पादन में व्यंग्य लेखिकाओं का व्यंग्य संकलन 'लेडीज डॉट कॉम' इसी साल प्रकाशित हुआ।
पत्रिकाओं के व्यंग्य केन्द्रित विशेषांकों की बात करें तो इस वर्ष ‘लमही’ का ज्ञान चतुर्वेदी विशेषांक तथा ‘व्यंग्य यात्रा’ का यज्ञ शर्मा विशेषांक आये | यह दोनों अंक इन रचनाकारों को नजदीक से जानने के लिए काफी प्रचुर सामग्री उपलब्ध कराते हैं |
‘सेल्फी बसन्त के साथ’ कमलेश पांडेय का व्यंग्य संग्रह इस साल रुझान
पब्लिकेशन से आया |
बैंकिंग जगत की
सच्चाइयों की पोल खोलता वेद माथुर का हास्य-व्यंग्य उपन्यास ‘बैंक ऑफ़
पोलमपुर’ टिनटिन पब्लिकेशन से आया | रश्मि
प्रकाशन से ब्रजेश कानूनगो का व्यंग्य संग्रह ‘मेथी की भाजी और लोकतंत्र’
छपा | वनिका पब्लिकेशन से डॉ सुशील सिद्धार्थ और डॉ नीरज शर्मा के सम्पादन में ‘व्यंग्यकारों
का बचपन’ अनूपमणि त्रिपाठी के संपादन में आया ‘व्यंग्य प्रसंग’ 29 युवा
व्यंग्यकारों के व्यंग्यों का संकलन है | अमन प्रकाशन कानपुर से सुशील सिद्धार्थ और राहुल देव के संपादन
में युवा व्यंग्यकारों को साथ लेते हुए ‘नए नवेले व्यंग्य’ व्यंग्य संकलन
निकाला | इसके अतिरिक्त अन्य उल्लेखनीय
व्यंग्य संग्रहों की बात की जाए तो उनमें सुरेश कांत का ‘कुछ अलग’, सुशील
सिद्धार्थ का ‘राग लंतरानी’, अरविन्द खेड़े का ‘हरपाल सिंह का लोकतंत्र’,
शशांक दुबे का ‘असल से तो नकल अच्छी’, सुनील जैन का ‘बारात के झम्मन’,
आलोक पुराणिक का ‘जूते की ईएमआई’, राजेश कुमार का ‘मेरी शिकायत यह है
कि’, अरुण अर्नव खरे का ‘हैश टैग और मैं’, आशीष दशोत्तर का ‘मोरे
अवगुन चित में धरो’, सुरेश अवस्थी का ‘दशानन का हलफनामा’, निर्मिश ठाकर
का ‘निर्मिशाय नमः’ आदि रहे |
गुणवत्ता की दृष्टि से पत्र-पत्रिकाओं में
उसकी चमक थोड़ी फीकी कही जा सकती है | अधिकांश व्यंग्य लेखकों में स्तंभों/ कालमों
में छपने की जल्दबाजी तथा व्यंग्य लेखन के लिए जरुरी साहस और गहरी व्यंग्यदृष्टि का
अभाव वहां देखने को मिला | कुल मिलाकर व्यंग्य साहित्य के लिए यह वर्ष मिलाजुला
रहा |
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