आशीष
(शोधार्थी)पीएच.डी हिंदी
नागालैंड केन्द्रीय
विश्वविद्यालय, कोहिमा
मो. नंबर- 9540176311
खतना आमतौर पर पुरूषों का
किया जाता है। यह मुस्लिम धर्म में 'पाकी' के नाम पर किया जाता है, जिसे वैज्ञानिकों के द्वारा भी इस आधार पर लाभदायक बताया गया है कि इसके
द्वारा कई खतरनाक बीमारियों से बचा जा सकता है। वहीँ स्त्रियों के खतना या
यूँ कहें सुन्नत प्रथा का बेहद क्रूर,दर्दनाक और अमानवीय चेहरा
प्राचीन रिवाज के रूप में अफ्रीका महाद्वीप के मिस्र, केन्या, यूगांडा, जैसे लगभग 30 देशों में
यह परम्परा आज भी मौजूद है। सबसे पहले इस प्रथा का विवरण रोमन साम्राज्य और
मिस्र की प्राचीन सभ्यता में मिलता है। मिस्र के संग्रहालयों में ऐसे अवशेष
रखें हैं जो इस प्रथा की पुष्टि करते हैं। उत्तरी मिस्र को अपनी उत्पत्ति का मूल
स्रोत मानने वाले एक समुदाय विशेष के लोग महिला खतना को अपनी परम्परा और पहचान
मानते हैं। यही वजह है कि पश्चिमी भारत और पाकिस्तान के कुछ हिस्सों में स्त्रियों
का खतना करने का रिवाज आज भी जारी है। यूनीसेफ के आंकड़ों के अनुसार खतना या
सुन्ना के कारण महिला जननांग को विकृत करने की यह अमानवीय प्रथा अफ्रीका और
मध्यपूर्व के 29 देशों में प्रचलित है और आज विश्व में ऐसी 20 करोड़ महिलाएं
हैं जिनका खतना किया गया है।
यह प्रथा विशेषकर बोहरा मुस्लिम समुदाय
में है, जिसमें फीमेल जेनिटल अंग को बचपन में ही काट दिया जाता है। दरअसल
वह अंग ही स्त्री की मासिक धर्म और प्रसव पीड़ा को कम करता है। इस भयावह क्रिया के
अंतर्गत बच्ची के हाँथ-पैर कुछ औरतें पकड़तीं हैं और एक औरत चाकू या ब्लेड से उसकी
भगनासा (क्लाइटोरल हुड) काट देती है। खून से लथपथ बच्ची महीनों तक दर्द से
तड़पती रहती है। कई बार इस से बच्चियों की मौत भी हो जाती है। इस प्रथा के पीछे की
वजह भी हास्यास्पद है जहाँ, अफ्रीका में युवा लड़कियों की शादी तभी होती है,अगर उन्होंने बचपन में खतना करवाया होता है, क्योंकि वहां पर
लड़कियों का खतना ही उनके कुंआरे और पवित्र होने का प्रमाण माना जाता है। लड़कियों
का खतना करने के पीछे एक संकीर्ण पुरुषवादी मानसिकता जिम्मेदार है ताकि वो
लड़की युवा होने पर अपने प्रेमी के साथ यौन संबंध न बना सके।
सघन संवेदनात्मकता और चुनौतीपूर्ण कथाविन्यास
के कारण समकालीन कथाजगत में सार्थक हस्तक्षेप करने वाली जयश्री रॉय भूमंडलीकरण
के दौर के बाद वाली कथा-पीढ़ी की एक सुपरिचित कथाकार हैं। `अनकही', `तुम्हें छू लूँ जरा', `खारा पानी' और `कायान्तर' नामक चार कथा-संग्रहों
तथा `औरत जो नदी है',
`साथ चलते
हुये', ‘दर्दज़ा’ और `इकबाल' शीर्षक उपन्यासों के बीच फैला उनका रचना-संसार
स्त्री-पुरुष संबंधों में व्याप्त जटिलताओं को तो बारीकी से विश्लेषित करता ही है, समय और समाज के हाशिये पर जीने को अभिशप्त लोक-समूहों के जीवन-संघर्ष और स्वप्नों
को भी एक सशक्त अभिव्यक्ति प्रदान करता है।
सुपरिचित कथाकार जयश्री रॉय के चौथे और
नवीनतम उपन्यास ‘दर्दजा’ के केंद्र में मुस्लिम स्त्रियों
का वह शारीरिक एवं मानसिक दर्द है जिसे वे दशकों से झेलती आ रही हैं| ‘दर्दजा’ उपन्यास में जयश्री रॉय
नयी सौन्दर्य दृष्टि के लिए संघर्ष करती हैं। इस दृष्टि का संबंध केवल अश्वेत
प्रजाति के रूप-रंग-व्यवहार से मान लेना ठीक नहीं होगा। उस जीवन की पतनोन्मुखता
विश्लेषणों के बीच से श्रम से सँवरते मामूली जीवन की अनेक छवियों को रचते हुए
लेखिका उस पूरे परिवेश को हमारे परिचित आत्मीय क्षेत्र में बदल देती है। खानाबदोश
जीवन की विशेषताएं वैसी ही सहजता के साथ इस उपन्यास में दर्ज है। जयश्री राय ‘दर्दज़ा’
के माध्यम से अपने पाठकों के सम्मुख दर्द की उस दास्तान को जिंदा कर देती है जिसे
देखकर ही शायद शेक्सपीयर याद आते हैं कि ‘नरक खाली हो गया है और
सभी शैतान इसी लोक में आ गए हैं।’
सुन्नत विभिन्न देशों व समाजों में विभिन्न
नामों से जाना जाता है जैसे- इथोपिया में फालाशास, ईजिप्ट में ताहारा, सूडान में ताहुर, माली में बोलोकोली (पवित्र करना), ककिया में बुनडू आदि।
यह सर्वविदित है कि मुस्लिमों में खतना होता है परन्तु ‘दर्दज़ा’ पुस्तक में
मुस्लिम स्त्रियों के सुन्नत की जीवंत झांकी प्रस्तुत की गयी है जो कि बहुत ही
वीभत्स तरीके से किया जाता है। भले ही यह कथा हमारे देश भारत की नहीं है लेकिन इस
उपन्यास में बहुत सारी कष्टकारी स्थितियां ऐसी हैं जिसे विदेशी मुस्लिम महिला के
समान ही हमारे देश की तमाम महिलाओं को झेलना पड़ता है चाहे वे किसी भी धर्म की ही
क्यों न हो।
अभय कुमार दुबे के अनुसार, “जयश्री रॉय की कृति ‘दर्दजा’ के पृष्ठों पर एक ऐसे संघर्ष की ख़ून और तकलीफ़ में डूबी हुई गाथा दर्ज है जो
अफ़्रीका के 28 देशों के साथ-साथ मध्य-पूर्व के कुछ देशों और मध्य व दक्षिण अमेरिका
के कुछ जातीय समुदायों की करोड़ों स्त्रियों द्वारा फ़ीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन
(एफ़जीएम या औरतों की सुन्नत) की कुप्रथा के ख़िलाफ़ किया जा रहा है। स्त्री की सुन्नत
का मतलब है उसके यौनांग के बाहरी हिस्से (भगनासा समेत उसके बाहरी ओष्ठ) को काट कर
सिल देना, ताकि उसकी नैसर्गिक कामेच्छा
को पूरी तरह से नियंत्रित करके उसे महज़ बच्चा पैदा करने वाली मशीन में बदला जा सके”।[1]
इस उपन्यास के केंद्र में एक गरीब मुस्लिम
परिवार है जिसमें तमाम बच्चे पैदा हुए- कुछ मरे,
कुछ जीवित रहे। उसी
परिवार में ‘माहरा’ भी है। माहरा की बड़ी बहन का जब सुन्नत होता है और घर से बाहर एक झोपड़ी में
महीना भर घाव सुखाने के लिए रखा जाता है तब ‘माहरा’ अच्छे से इस प्रक्रिया
को समझ नहीं पाती है। इस दौरान महीने भर घाव सुखाने हेतु अलग झोपड़ी में रखा जाता
है, जिसमें से बहुत कम ही लड़की स्वस्थ घर लौट पाती है क्योंकि, सुन्नत की
प्रक्रिया के बाद अधिकांश लड़कियाँ हथियार के संक्रमण या सही उपचार की कमी के कारण
मर जाती हैं या दीर्घावधि तक झेलती रहती हैं। कुछ का तो मुत्रद्वार हमेशा-हमेशा के
लिए ख़राब हो जाता है जिसके कारण पेशाब को रोकना असंभव हो जाता है, जिसके परिणाम स्वरूप वे हमेशा बदबू देती रहती हैं। ऐसी स्त्रियों को घर, परिवार और गाँव से बहार निकाल दिया जाता है और उसे पागल घोषित कर दिया जाता
है। इसी तरह की एक स्त्री-पात्र के माध्यम से लेखिका समाज को धिक्कारती है- “...करे कोई और भरे कोई!
बदबू आती है मुझसे? घिन आती है? आने दो! मेरे तो शरीर से बदबू आती है,
लेकिन तुम सबके रूह से बदबू आती है, तुम सबके सब सड़ गए हो.....कीड़े
पर गये हैं तुम सबमें...”[2]
उपन्यास की शुरुआत अपने आसन्न सुन्नत की बात
सुनकर माहरा के घर से भाग जाने की घटना से होती है| तपते रेगीस्तान के बीहड़
की भीषणताओं के बीच वह अपने बंधु-बांधवों द्वारा पकड़ ली जाती है, नतीजतन वह फिर से अपने घर लाई जाती है और उसका सुन्ना कर दिया जाता है| सुन्ना
के दौरान और उसके बाद माहरा अथाह पीड़ा की अंतहीन श्रृंखलाओं से गुजरती है|
लेकिन वह उन स्त्रियों में से नहीं है जो दर्द से समझौता कर के गाय-बकरियों की-सी
निरीह और परवश ज़िंदगी जीने को ही अपनी नियति मान हमेशा-हमेशा के लिए खुद को
व्यवस्था के हाथों सौप देती हैं| वह प्रतिरोध करना जानती है| प्रतिरोध में विफल
होने के बावजूद फिर-फिर उठ खड़ा होने का हौसला रखती है| खुद के लिए देखे सपनों को
अपनी बहन, बेटी और माँ सहित दुनिया की हर स्त्री की आँख में
स्थानांतरित कर हमेशा के लिए उसे जिंदा रखना जानती है| स्त्री-जीवन की तमाम
तकलीफ़ों से मुक्ति पाकर एक मनुष्य की तरह जीने का यह सपना माहरा ने खुली आँखों से
देखा है और उसे हासिल करने के लिए प्रतिरोध से लेकर विद्रोह तक का हर जतन करती है|
धर्म चाहे जो भी हो सबमें कुछ न कुछ कुरीतियाँ
हैं जिसके साथ तर्क-वितर्क करना धर्म के ठेकेदारों को कतई पसंद नहीं है। कोई
धर्म तर्क-वितर्क पसंद नहीं करता। एक चीज हर जगह देखने को मिलती है कि धर्म व
रीती-रिवाजों के नाम पर स्त्रियों के मन-मस्तिष्क में ऐसा गोबर भर दिया जाता है कि
स्त्री ही स्त्री का शोषक बन जाती है| ‘दर्दज़ा’ उपन्यास में लेखिका कहती
हैं- “लोगों की आँखों में मजहब, रीती-रिवाजों का ऐसा पर्दा पड़ा है कि वे कुछ तार्किक ढंग से सोच ही नहीं पाते।”[3] कुछ लड़कियों के द्वारा
सुन्ना के बारे में पूछने पर ‘साबीला की दादी’ कहती हैं- “औरत का जिस्म ही पाप का गढ़ है। जहाँ इच्छाएं
जन्मती हैं, उत्तेजना पैदा होती है
उस हिस्से को शरीर से अलग कर देना ही भला। औरत खता की पुतली होती हैं, हव्वा की बेटियां......इनका भरोसा क्या फिर जिस औरत का सुन्ना न हुआ हो, उसे कौन मर्द अपनायेगा, कैसे उसे भरोसा होगा कि
इस औरत ने कोई गुनाह नहीं किया!... जवाब में एक लड़की बोली..क्यों मर्दों को तो यह
साबित नहीं करना पड़ता कि वह कुँवारा है या नहीं।”[4] वास्तव में उपन्यास में
उद्धृत ये पंक्तियाँ, मुस्लिम युवतियों के उस दर्द को बयाँ करती है, जिसे वो न
जाने कितनी पीढ़ियों से भोगने को अभिशप्त हैं| धार्मिक अंधविश्वास और कर्मकांड के नाम पर
जारी यह क्रूरतम अमानवीय कुप्रथा दरअसल स्वच्छता के आवरण में यौन शुचिता और
शारीरिक पवित्रता की पितृसत्तात्मक साज़िशों का नतीजा है, जो स्त्री देह और उसकी यौनिकता को अपनी संपत्ति मानती है।
माहरा जहीर की संभवतः चौथी
बीबी बन के जाती है। सम्भोग करने के दौरान माहरा चिल्ला उठी जैसे लगा उसके
भीतर कोई खूंटा ठोक दिया हो और अब प्राण नहीं बचेंगे, क्योंकि अभी उसके गुप्तांग का उचित विकास भी नहीं हुआ था, लेकिन इधर जहीर मुस्कुरा रहा था और गर्व महसूस कर रहा था जैसे किला फतह किया
हो। इसके बाद वह बाहर चला जाता है और माहरा तड़पते हुए कब सो गयी या बेहोस हो गयी
पता ही नहीं चला। सुबह जब उसे जगाया गया तो देखा कि कमरे में माँ सहित कई औरतें
बिस्तर पर गिरे खून को देख कर बधाईयाँ दे रही हैं। माहरा बाद में उस घर में
जो अनुभव करती है -“मेरे औरत होने ने मुझे खत्म कर दिया है जैसे
मैं खुद को ढ़ोती हूँ और प्रतिपल जीने की कोशिश में मरती हूँ. जाने क्यों इस दुनिया
के बाशिंदों ने जीवन को मृत्यु का पर्याय बनाकर रख दिया है| मौत से पहले भी मौत!
एक बार नहीं, कई बार.....बार-बार!”[5] इस उपन्यास में दर्द जिस सघनता के साथ अभिव्यंजित हुआ है, ऐसा अन्यतम उदाहरण मिलना
मुश्किल है| जयश्री रॉय ने स्त्रियों के खिलाफ होने वाले इस अत्याचार की भीषण
यातना को उसी अंतरंग आत्मीयता और मारक प्रभावोत्पादकता के साथ ‘दर्दजा’ में पुनर्सृजित किया है| यह उपन्यास इस अमानवीय त्रासदी के खिलाफ एक समर्थ और मानीखेज
विद्रोह और प्रतिरोध की आवाज़ के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है|
प्रसिद्ध तेलुगू लेखक तापी धर्माराव की
चर्चित पुस्तक ‘इनपकच्चडालु’, जिसका हिन्दी अनुवाद डॉक्टर
सी वसन्ता ने ‘लोहे की कमरपेटियाँ’ शीर्षक से किया है, में तेलुगू की एक लोकोक्ति का उल्लेख किया गया है - ‘मुद्र मुद्र लगाने उंदि
मुगुशुरु पिल्ललनि कन्नदि’ यानी, ‘मुहर ज्यों की त्यों है, और वह तीन बच्चों की माँ बन गई|’
‘दर्दज़ा’ महीन संवेदनात्मक
बुनावट का उपन्यास है| संवेदना का रस इसके रग-रेशे में नमक और चीनी की तरह घुला हुआ
है| इस उपन्यास के कथात्मक विस्तार को मोटे तौर पर तीन भागों
में बांटकर देखा जा सकता है: पहला हिस्सा माहरा के सुन्ना-प्रसंग से शुरू
होकर उसकी शादी तक का है तो दूसरा हिस्सा उसके ससुराल जाने से लेकर उसकी
माँ की मृत्यु तक का| तीसरा हिस्सा माहरा की बेटी मासा
के दस साल की होने के बाद से लेकर उसकी मुक्ति तक यानी उपन्यास के अंत तक का है| इन तीनों पड़ावों के बीच मुख्य कथा के समानान्तर घटित होने वाली छोटी-बड़ी
कई महत्वपूर्ण घटनाएँ और इस क्रम में पात्रों के आपसी सम्बन्धों का सघन संजाल है
जो संरचना के स्तर पर इसे एक मजबूत औपन्यासिकता प्रदान करता है| दर्दज़ा की विशेषता इस बात में नहीं कि यह स्त्री खतना संबंधी
तकलीफ़ों को बहुत संवेदनशीलता से दर्ज करता है बल्कि इसकी विशेषता इस बात में निहित
है कि यह धार्मिक आडंबरों और कर्मकांड की आड़ में समूर्ण स्त्री समाज पर आरोपित पितृसत्तात्मक
आचार संहिताओं का प्रतिरोध करते हुये उसे हर कदम पर चुनौती देता है |
संक्षेप में, परकाया प्रवेश की विलक्षण लेखकीय
क्षमता और संवेदना की सघनतम तीव्रता के संयुक्त रसायन से निर्मित ‘दर्दजा’ का प्रभाव इतना सूक्ष्म और मारक है कि वह किसी पाठक के आलोचकीय विवेक को लंबे
समय तक अपने गिरफ्त में ले सकता है| उपन्यास में व्यंजित स्त्रियों की तकलीफ
पाठकों के लिए इस कदर अपनी हो जाती है कि, इसे पढ़ते हुये पाठक को अपने स्थान और
काल का भी भान नहीं रहता| नतीजतन अपने वजूद और लिंग से मुक्त
हो वह कब खुद ही उपन्यास की मुख्य चरित्र ‘माहरा’ में तब्दील होकर ‘माशा’ में ‘अपनी बेटी’ का चेहरा देखने लगता है, उसे भी पता नहीं चलता| पाठ के दौरान किसी पाठक को
भोक्ता में तब्दील कर देना और कृति की चिंता को पाठक की निजी चिंता में बदल देना,
इस उपन्यास एवं उपन्यासकार की सबसे बड़ी विशेषता है| जयश्री
रॉय ने इस उपन्यास में पीड़ा से प्रतिरोध तक की संघर्ष यात्रा को कलात्मक
रचनाधर्मिता के साथ पुनराविष्कृत किया है |
सन्दर्भ-सूची
1.
रॉय, जयश्री . (2016) .
दर्दज़ा . नयी दिल्ली: वाणी प्रकाशन . प्रथम संस्करण . ISBN- 978-93-5229-266-0
3. बिहारी, राकेश . (फ़रवरी 26,
2017 ) . दर्दज़ा .
समालोचन (ऑनलाइन पत्रिका) https://samalochan.blogspot.com/2017/02/blog-post_26.html