समकालीन व्यंग्य इन
दिनों संक्रमण के दौर से गुजर रहा है । संक्रमण के दौर से इसलिए क्योंकि वहां बहुत
कुछ नया बन रहा है व्यंग्य के नए सर्जक आ रहे हैं और बहुत कुछ पुराने मिथ टूट भी
रहे हैं । आखिर हो भी क्यों न व्यंग्य की विरासत यदि आप व्यंग्य के सही और वर्तमान
स्वीकृत रूप में माने यानि की गद्य व्यंग्य की तो आज वो सन् 60 से लगभग आधी सदी की
यात्रा तय कर चुकी है और पचास सालों में नदी से काफी पानी बह जाता है । इस समय
व्यंग्य की लगभग पांच पीढ़ियां एक साथ काम कर रही हैं ।समकालीन व्यंग्य के समक्ष
इस समय कई चुनौतियां हैं । ये चुनौतियां उसे कई तरफ से मिल रही हैं विधा के स्वरूप
को लेकर उसकी आलोचना के मानदंडों को लेकर और इन सबसे ज्यादा लोकप्रियता के चलते
उसमें हो रही भारी घुसपैठ को लेकर जिसने उस विधा में भारी भगदड़ सा माहौल बना दिया
है । हम जानते हैं कि व्यंग्य इस समय की सर्वाधिक लोकप्रिय विधा है और राजनीतिक ,
सामाजिक , धार्मिक परिस्थितियों के चलते
उसके फलने फूलने की गुंजाइश भी काफी है । उसके सामने खुला मैदान पड़ा है , कच्चे
माल की कमी नहीं है । पत्र पत्रिकाओं और सोशल मीडिया के प्रचार-प्रसार के चलते
प्रकाशन के अवसर भी अनगिन हैं । यश और धन भी कम नहीं है कम से कम दूसरी विधाओं के
चलते तो स्थिति संतोषजनक है ही । जाहिर है ऐसी स्थिति में किसी विधा में कई संकट
और चुनौतियां खड़ी होनी ही हैं । व्यंग्य भी इन्ही समस्याओं और प्रश्नों से रूबरू
हो रहा है । व्यंग्य को अपनी ये बेड़ियां स्वयं तोड़नी होंगी और इन प्रश्नों के
उत्तर स्वयं ढूंढने होंगे व्यंग्य यूं भी किसी अवतारवाद में विश्वास नहीं करता है
। वो तो मूर्तिभंजक है , किंगमेकर नहीं । वो परंपरा ध्वसंक है , मठध्वसंकर्ता है
अनुगामी नहीं । लेकिन हम देख रहे हैं कि साहित्य की दूसरी विधाओ की तरह व्यंग्य
में भी मठाधीशी शुरू हो गयी है । अपने अपने प्रिय रचनाकारों को लांच किया जा रहा
है । दूसरे संभावनाशील व्यंग्यकारों को या तो अनदेखा किया जा रहा है या फिर उन पर
जानबूझकर प्रश्न चिह्न लगाए जा रहे हैं । व्यंग्य के क्षेत्र में ऐसे स्वनामधन्य
आलोचक घुस आए हैं जिनको व्यंग्य क्या साहित्य की बेसिक समझ तक नहीं है वो पूरे जोर
शोर से अपनी ढपली पीट रहे हैं और पसंद नापंसद बता रहे हैं । व्यंग्य माना कि एक विद्रोही
विधा है और व्यंग्यकार समाज के आलोचक लेकिन क्या किसी भी विधा में इतना अराजक
माहौल ठीक है ? क्या व्यंग्य के लेखकों को मिल बैठकर और
उसके समीक्षकों को कुछ आलोचना और विधागत न्यूनतम सहमति कार्यक्रम नहीं बनाना चाहिए
कि किसे हम व्यंग्य कहेंगे और किसे नहीं ? व्यंग्य के नाम पर
कूड़ा करकट कब तक परोसे जाएगा भला ? जहां तक विधा की
प्रतिष्ठा का प्रश्न है व्यंग्य को पर्याप्त प्रतिष्ठा मिल चुकी है हालांकि ये
प्रक्रिया राग दरबारी को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलते ही शुरू हो चुकी थी लेकिन
फिलहाल व्यंग्य के क्षेत्र मे स्थापित नए
पुरस्कार और ज्ञान चतुर्वेदी को पद्म श्री मिलने से व्यंग्य की प्रतिष्ठा में
अभिवृद्धि ही हुयी है । व्यंग्य में हास्य और व्यंग्य वाला मुद्दा भी अब बासी हो
चुका है । कुछ रचनाकार और व्यंग्य में हास्य को त्याज्य मानते हैं और उससे परहेज
करते हैं लेकिन हास्य की उपस्थिति अनिवार्य तो नहीं कही जा सकती है लेकिन यदि
ह्यूमर रहता है तो पाठक रचना के प्रति एकाग्र रहता है और रोचकता बरकरार रहती है ।
हां ये जरूर है कि वो रचना का उद्देश्य न बन जाए और व्यंग्यकार उसमें रस लेकर अपने
लक्ष्य को न भूल जाए जिसपर उसे प्रहार करना है ।
कुछ रचनाकार व्यंग्य में हास्य की उपस्थिति से सहमत कम हैं । जबकि कुछ
व्यंग्यकारों का हास्य के युक्तियुक्त
समावेश से परहेज नहीं है । आज का व्यंग्य सुधार की भावना से आया है और वो संहार के
बघनखे भी पहने हुए हैं ऐसे में उसमें आक्रोश ही नहीं है वो करूणा और चिंतन भी
उत्पन्न करता है लिहाजा वहां पर हास्य की गुंजाइश स्वभावतः ही कम हो जाती है ।
दूसरी विधाएं जहां मात्र संकेत करके ही रह जाती हैं व्यंग्य दिशा भी बताता है और
दायित्वबोध भी । प्रेम जनमेजय साफ कहते हैं कि दिशाहीन और दायित्वहीन व्यंग्य
व्यंग्य नहीं हो सकता है । इसी बात को युवा व्यंग्य लेखक सरोकार के नाम से अभिहित करते हैं । आज के
व्यंग्य में आक्रोश के स्वर के साथ साथ चिंतन की गहराई भी है । लेकिन व्यंग्यकारों
को फार्मूलाबद्ध लेखन से बचना होगा । सिर्फ शब्दों के खिलवाड़ और निश्चित विषय से
हटकर नए विषय भी ढूंढने होंगे । अखबारों में भारी खपत होने के कारण व्यंग्यकार
राजनीतिक विषयों पर ज्यादा कलम चलाते हैं वहां वही संभावनाएं हैं । लेकिन कुछ
दिनों बाद वो विषय मर जाता है क्योंकि राजनीति तो माया है और माया महाठगिनी हम
जानी लेकिन व्यंग्यकार नही जान रहे हैं या शायद जान के भी अनदेखी कर रहे हैं । मैं
यह नहीं कह रहा कि अखबारी लेखन बुरा है आखिर शरद जोशी , परसाई , स्वयं ज्ञान जी ने
अलग व्यंग्य संकलन की भूमिका में इसकी उपादेयता और सीमा के महत्व को स्वीकारा है
और इंडिया टुडे , पत्रिका आदि में लेखन किया है लेकिन वो व्यंग्य लेखन अपनी शर्तों
और विषयों के चयन में सावधानी के साथ किया गया है । सही है कि हर नया व्यंग्य लेखक
शुरूआती दौर अपनी शर्तों पर व्यंग्य लेखन
नही कर सकता और स्थापित होने में समय लगता है लेकिन कम से कम हम दूसरी पत्रिकाओं
में पेशेवर दृष्टि को छोड़कर भी कुछ लिखें भले ही वहां उतनी प्रसिद्धि या धन नहीं
मिले तो क्या । ये याद रखिए कि लोकप्रियता व्यंग्य की क्षमता भी है और सीमारेखा भी
। व्यंग्य को आज पाठ्यक्रम में स्थान मिल
रहा है , व्यंग्यकारों पर शोध हो रहे हैं , एम फिल में व्यंग्य को लेकर लघु शोध
प्रबंध लिखे जा रहे हैं । ये व्यंग्य की बढ़ती स्वीकार्यता का प्रमाण है । उसे
लगातार सम्मान मिल रहा है । लेकिन व्यंग्यकार विशेषतः व्यंग्य कवि मंच पर अभी भी
वही फूहड़ पत्नी , साली , पुलिस , राजनेता जैसे घिसे पिटे विषयों पर अटके हुए हैं
। ये प्रवृत्ति घातक है । नए व्यंग्यकारों ने यद्यपि मनुष्य की छद्म प्रवृत्तियों , आर्थिक मसलों ,
अन्तर्राष्ट्रीय विषयों , नयी तकनीक , फिल्म
आदि को लक्षित कर व्यंग्य लिखे हैं जो कि व्यंग्य लेखन के क्षेत्र में विषय
की नीरसता और दोहराव को तोड़नें में सहायक सिद्ध हुआ है । नए व्यंग्यकार लगातार नयी जमीन तोड़ रहे हैं और
उनसे बहुत उम्मीद है उन पर व्यंग्य को पकड़ने की दृष्टि और कहने का तरीका ,
वक्रोक्ति , समर्थ भाषा सब है लेकिन अभी उनके व्यंग्य संकलनों का इंतजार है । इन
व्यंग्यकारों की यात्रा का लंबा सफर अभी
बाकी है और इनसे काफी उम्मीदें है बशर्ते ये व्यंग्य की चकाचौंध और मठाधीशी की
अहंकारिता के शिकार न हो जाएं । लेकिन व्यंग्यकारों को व्यंग्य को विविध रूपों में प्रस्तुत कर अपनी
सामर्थ्य का लोहा मनवाना होगा । व्यंग्य एक तात्कालिक प्रतिक्रिया के स्वरूप उभरता
है ऐसे में उसमें जल्दबाजी और असावधानियों को संभावना रहती है । खासकर अखबारी
व्यंग्य में । अखबारी व्यंग्य त्याज्य नहीं है लेकिन विषय विविधता और शब्द सीमा
तथा व्यावसायिकता और होड़ के चलते बहुत सार्थक और लंबी रचनाएं सामने नहीं आ पातीं
हैं । व्यंग्यकारों को यह मोह कम करना होगा और सुदीर्घ तैयारी से ठोस रचनाएं सामने
लानी पड़ेगी । हमारे आलोचकों को भी परसाई , शरद जोशी , त्यागी की त्रयी से हटकर अब
उसके बाद के व्यंग्यकारों पर ध्यान देना चाहिए । उनकी परंपरा के वाहकों ने
पर्याप्त सृजन किया है जिस पर हिन्दी के शीर्ष आलोचकों का ध्यान जाना चाहिए । साथी
ही व्यंग्यकार अपने आलोचक स्वयं विकसित करें और निष्पक्ष चर्चा और समीक्षा करें तब
ही जाकर व्यंग्य का भला होगा । सोशल मीडिया पर फेस बुक और व्हाट्स एप्प पर व्यंग्य
के समूह बने हुए है लेकिन कुछ एक को छोड़कर अधिकतर पर बधाई और वाह- वाह की रस्म
अदायगी चलती रहती है । हां व्यंग्य को
लेकर विमर्श का वातावरण और पहल व्यंग्य यात्रा पत्रिका जरूर करती रही है । अट्टहास, नई गुदगुदी जैसी पत्रिकाएं
भी व्यंग्य की अलख वर्षों से जगाए हुए हैं
। इसी संदर्भ में अभी हाल में वरिष्ठ व्यंग्यकार सुरेश कांतद्वारा शुरू की गयी
पत्रिका हैलो इंडिया का उल्लेख भी जरूरी है जिसने अपनी चयन सामग्री और सुंदर ले
आउट से पहचान बनानी शुरु कर दी है । गोइंनका फाउडेशन की हास्यम व्यंग्यम ,
व्यंग्योदय , हास्य व्यंग्य वार्षिकी भी यथासंभव व्यंग्य विमर्श और रचनाओं के
प्रकाशन के माध्यम से व्यंग्य को चर्चा के केन्द्र में बनाए रखने का ईमानदार
प्रयास करती दिखायी देती हैं । परसाई , शरद जोशी , श्रीलाल
शुक्ल पर विशेषांक और व्यंग्य को केन्द्र में लाने में व्यंग्य यात्रा का काम
ऐतिहासिक रहा है । व्यंग्य अपार संभावनाओं
की विधा है । व्यंग्य के आगे खुला आसमान है जरूरत है सामर्थ्यवान परिंदों के उड़ान
भरने की । व्यंग्य को इलेकट्रानिक मीडिया का भी उपयोग करना चाहिए , नए विषयों को
आत्मसात करना चाहिए और इन सबसे बढ़कर व्यंग्यकारों को स्वाध्याय और संतुलित
प्रगतिशील दृष्टि रखनी चाहिए यही व्यंग्य की नयी चुनौतियां हैं जिससे उन्हें पार
पाना है । व्यंग्य के क्षेत्र में सद्य प्रकाशित संग्रह नए नवेले , व्यंग्य
बत्तीसी और अर्चना चतुर्वेदी द्वारा संपादित लेडीज.काम महत्वपूर्ण कदम हैं । महिला
व्यंग्यकारों की रचनाओं और उनके लेखन को एक बानगी के रूप में इसमें प्रस्तुत किया गया है । व्यंग्य समीक्षा में भी
राहुल देव, भुवनेश्वर उपाध्याय, अजय अनुरागी, सुशील सिद्धार्थ, रमेश तिवारी
आदि से उम्मीद है कि वे भविष्य में सार्थक और निष्पक्ष आलोचना द्वारा व्यंग्य विधा
के उन्नयन के लिए उत्कृष्ट प्रयास करेंगे । एक शुभ लक्षण है कि आज व्यंग्य प्रकाशन
के लिए कई प्रकाशन समूह आगे बढ़ कर पहल कर रहे हैं वनिका पब्लिकेशन, अमन प्रकाशन, भावना प्रकाशन ने विगत वर्षों में कई नए
और स्थापित व्यंग्यकारों को प्रकाशित किया है । यह सब व्यंग्य की बेहतरी की दिशा
में निश्चित ही शुभ संकेत है लेकिन व्यंग्यकारों को अपने दायित्वों और लेखन की
गुणवत्ता की ओर भी ध्यान देना होगा । जब तक लेखन में जन सरोकार और कथ्य़ में
अनूठापन नहीं आएगा तब तक पाठक नहीं जुड़ेंगे । क्योंकि अंततः देर सबेर पाठक की
अदालत में ही रचना की लोकप्रियता और स्वीकार्यता से ही उसकी प्रभावशीलता का फैसला
तय होता है ।
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380
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