(ज्ञान चतुर्वेदी से राहुल देव की फोन वार्ता)
31 दिसंबर 2017
08.05 PM
“हेलो”
“हेलो”
“हाँ भई राहुल कैसे हो ?”
“नमस्ते सर !”
“नमस्ते...नमस्ते ! क्या हाल हैं ?”
“बढ़िया सर...कैसे हैं आप ?”
“बस अच्छे हैं भईया..चल रही है जिंदगी”
“समय होगा सर ?”
“हाँ बोलिए न ?”
“सर मैं सोच रहा था कि मैं ‘मरीचिका’ पर बातचीत
का पेंडिंग काम ख़तम कर लूँ | आज मैंने ‘हम न मरब’ पढ़कर ख़तम कर लिया |”
“अच्छा, पढ़ लिया |”
“हाँ सर इतवार का मैंने पूरा सदुपयोग किया, 31
दिसंबर और बहुत अच्छा | कुछ वर्ड तो इसमें इतने कैची रहे कि मैं दिन भर बोलता रहा
उन्हें अपने मन में जैसे ‘बंबास्टिक’ एक शब्द आया है उसमें बड़ा इंट्रेस्टिंग है और
एक ‘हल्के राजा’ शब्द आया है |”
“उसमें से भैन्चो भी जुड़ा है |” (हंसी)
“अरे बाप रे ! वो तो खतरनाक है | (हंसी) वो तो
लगभग हर पेज पर दो तीन बार है |”
“हां, बहुत ज्यादा है |”
“लेकिन मज़ा आया | और मृत्यु को लेकर जिस तरीके से
आपने अपने लोकेल को दिखाया है...”
“असल में डेथ को लेके आप जो व्यंग्य की चीज़ें
कहना चाहते थे | मतलब जो बातें ओल्ड ऐज, डेथ और फिर भी आपकी पैसे के लिए मारामारी
| मतलब एक कमीनापन आदमी का और साथ में फिलोसोफी | उस सबके हिसाब से लिखना चाहता था
एक्चुअली तो उसकी कोशिश थी |”
“नही....काफी अच्छा आ गया है और...”
“हर एक का क्या होता है कि वो मुझे ऐसा लगता है
कि आपकी जो कोशिश है आपके मन में | मतलब दूसरा आदमी और भी सोच सकता है कि इसमें
ऐसा भी हो सकता था | नेचुरल है हर आदमी के अपने अनुभव होते हैं | मृत्यु को लेके
आपके अनुभव बहुत सारे हो सकते हैं | जहाँ आपको लगे कि ये चीज़ छूट गयी, ये और हो
जाती तो थोड़ा कम्पलीट चीज़ हो जाती तो ये तो है ही.. हर चीज़ में वही है | पर आपने
जो मन में सोचा क्या वहां तक आप पहुँच पाए ? बस असली चीज़ आप अपने लिए आंसरेबल होते
हो | अभी मैंने जो एक ‘पागलखाना की भूमिका में जो लिखा है जोकि मुक्तिबोध का एक ट्रीटमेंट
है | मतलब आपकी रचना के तीन क्षण जो होते हैं तो वही है | जैसे आप वो था कि तीन
क्षण रचना के वो होते हैं जिसमें आपके मन में क्या कल्पना आयी थी और उस समय आपकी
समझ क्या थी ? जैसे ‘नरकयात्रा’ का था कि जो शायद आपने बात सोची वो लगा कि एक बार
में ही पूरी हो गयी | तो आपको रिवाइज करने की जरुरत नही पड़ी | दुबारा लिखने की
जरुरत नही पड़ी | ऐसा हुआ | ऐसे ही ‘बारामासी’ में फिर एक बार उसी डायरी में आपने
लिखा और करेक्शन लगा दिया | फिर आपको आगे लगा कि पढ़ना चाहिए और वो किस कारण ऐसा
हुआ ? चौथे, पांचवे नावेल में आपको कई बार रिराईट करना पड़ा तो वो किस कारण से करना
पड़ा आपको कि आप वहां तक नही पहुँच पाए जहाँ आपने सोचा था | आपकी पहली कल्पना क्या
इतनी धुंधली थी जो धीरे धीरे खुलती गयी हर रिराईट करने के साथ साथ | ये भी एक कारण
हो सकता है | आपकी व्यंग्य की समझ या कहने की समझ इतनी बढ़ गयी है जिसपे कि आप खुद
को पाते हो कि नही यार मज़ा नही आ रहा तो उस कारण से | पता नही किस कारण से हुआ पर
इसी बीच में जब मैं लिखता हूँ तो मुझे लगता है कि थोड़ा सा और करेक्शन कर लिया जाय
| ये अपने छोटे आर्टिकल्स में भी और उपन्यास में भी ये स्थिति आयी है | ये मैं नही
जानता किस तरह से ये आई है ?”
“सर वो मैच्योरिटी का एक लेवल है”
“अब में मैच्योरिटी है या ये मेरा अपने ऊपर
अविश्वास कहलाये या आपकी चाहत इस बात की कहलाये कि नही यार कुछ और कर लो | कुछ और
कर लें क्या इसमें और...”
“और अंत तो इसका सर ‘हम न मरब’ का बड़ा मार्मिक है
जो अम्मा के साथ होता है...”
“अच्छा अंत के लिए मैं बड़ा जूझा कि मैं अब कहाँ
ख़तम करूँ इसको ?”
“मैं भी सोच रहा था कि आखिर अब इसका अंत कैसे
करेंगें आप यह देखना होगा |”
“मैं ये सोचता रहा कि अंत तो अम्मा पर होना चाहिए
| ये तो मेरे मन में क्लियर था कि अंत अम्मा पे होयेगा | जब मैं लिखने लगा तो
मैंने सोचा कि अंत बब्बा पे नही अंत अम्मा पे होना है क्योंकि अम्मा हैं जो
एक्चुअली एक मृत्यु वाला जीवन जी रही हैं जाने कितने साल से और अम्मा के बहाने आप
बहुत सारी बातें कह सकते हो तो मुझे लगा था कि अम्मा पे अंत लाया जाए तो मैं अंत
में बहुत जूझा हूँ एकाध महीने तो मैंने इसे छोड़ दिया लिखके कि अब क्या करूँगा क्या
करूँगा और कहाँ अंत किया जाय ? जैसे कि मैं ‘पागलखाना’ का अंत आपको बताऊ”
“जी सर उपन्यास में ‘स्थगित’ से पहले कथा बहुत
विस्तृत होती जा रही थी”
“हाँ, उसमें था | बहुत सारी संभावनाएं थीं कि
उसमें कुछ भी करूँ | फिर एक दिन मुझे अंत एकदम कौंध गया कि ये अंत होना चाहिए
अम्मा का कि अम्मा बाहर का कमरा कहती हैं कि अब उसको कई तरह से लिया जा सकता है कई
लोगों ने कहा कि वो अपना बंटवारे में हिस्सा मांग रही हैं | लोगों ने ऐसा भी लगाया
है अर्थ बाकायदा अच्छे जो लोग हैं कहानी के उन्होंने ये समझ के लिखा जोकि मैंने
नही सोचकर लिखा मैंने तो उसको वही सोचा है | मैंने वही सोचा है कि वो कह रही हैं
कि मैं अन्दर पड़ी रहूंगी तो कभी नही मरूंगी क्योंकि अन्दर तक तो वो आते ही नही हैं
बाहर बाहर तलाश के निकल जाते हैं जो मृत्यु के दूत आते हैं | मुझे बाहर का कमरा
चहिये | वो सारी चीज़ें मिलाके मेरे को लगा कि यहाँ कहीं अंत होना चाहिए | और है भी
वैसे उपन्यास को आप कहाँ ख़तम करोगे जैसे ‘बारामासी’ में है तो ‘बारामासी’ में आप
कहाँ ख़तम करोगे ? जब सब चल रहा है चल रहा है तो मुझे लगा था वो पोस्टर चिपका देता
है उसकी जगह पे | तो सारी दुनिया बदनाम अब नए सिरे से सपने शुरू हो गये हैं | तो
नए सिरे से सपने टूटेंगें और नए सिरे से कथा गढ़ी जायेगी कि नई पीढ़ी है न | तो अंत
में है हर उपन्यास में वैसे यार छोटे आर्टिकल का भी अंत या कहानी का भी अंत वो
मतलब लगे न सायास कि वो आप वहां लाये हो पर वो ऐसा लगे कि यही अंत हो सकता था |
मुझे ऐसा लगता है कि अंत में यही तर्क हो सकता है कि यही अंत हो सकता था तो वो है
इन सब उपन्यासों में...”
“अच्छा और सर ‘हम न मरब’ में महंत जी का क्या हुआ
? ये मुझे बड़ी जानने की इच्छा हुई | वो भी बड़ा अलग टाइप का चरित्र गढ़ा आपने...”
“(हंसी)...अच्छा आपने एक और ध्यान दिया होगा आपने
अभी मेरे उपन्यास पढ़े कि मेरे उपन्यासों में अभी ध्यान आयी ये वाली बात मैं मन से
नही कह रहा कि एक चरित्र ये वाले आते हैं जो धार्मिकता में भी हैं और नही हैं
धार्मिक | मतलब पूरी तरह से जैसे अगर हम कहें कि ‘बारामासी’ में पहले बड़े भाई साहब
जो पूजा पाठ में व्यस्त रहते हैं और वो तय नही कर पा रहे कि हम कहाँ रहें ? मतलब
हम इसमें रहें कि उधर रहें | ये उसमें है जो ‘बारामासी’ में चरित्र है | ‘हम न
मरब’ में महंत जी का चरित्र पूरी तरह से आया और अगर आप देखेंगें वो उपन्यास जो
आपको पसंद नही आया उसमें जो वो हैं जिन्होंने आश्रम खोल रखा है | वो बड़ा गहरे तक
उतरे हैं वो आध्यात्म और सब चीज़ों में पर धीरे धीरे वो रच बस गये फिर से वापिस हो
गये इसी जीवन में जहाँ वो सबकुछ शामिल है पैसा बनाना और एक झूठी शान को कायम रखना
कि राजा हमारे यहाँ आता है और तो वो हर जगह एक धार्मिक चरित्र है जो डीजेनेरेट हो
रहा है | ये कॉमन है इन तीनों में | मैंने अभी जब अभी आप इसमें भी पढ़ेंगें जो मेरा
‘पागलखाना’ है उसमें एक चरित्र है जो बड़ा अद्भुत है भई | वो यों है कि सुरंग खोद
रहा है वो कि इस दुनिया से निकल जाऊँगा मैं | ये दुनिया जो इसके कब्ज़े में है
बाज़ार के तो कहीं तो कोई और दुनिया होगी जहाँ मैं जाऊँगा और खुलूँगा तो एक नई
दुनिया मिलेगी जहाँ बाज़ार से उसका एक मन है कि क्या मैं सुरंग खोद के निकल सकता हूँ
? और वो रोज़ घरवालों से छिपके सुरंग खोदता है और लौटता है वो एक चरित्र है वो फिर
कैसे धार्मिकता के चक्कर में पड़ता है वो अपनी अलग कथा है वो तो उसमें भी आपसे बात
करते हुए लग रहा है कि वो देखो धार्मिकता वाला आया कि उसमें भी वो धार्मिकता में
जाता है जिसका कोई अर्थ नही है एक खोखले धार्मिकता का | तो वो तीनों-चारों अब और
भी तलाश करें कि क्या आपने जीवन में कोई ऐसे चरित्र देखें हैं क्या जहाँ से आपको
ऐसा आता है | मैं नही कह पाता कि क्यों है पर ये तीनों-चारों चरित्र में ये कॉमन
चीज़ है | ये अलग लग रहे हैं इसी में आपके महंत जी है जो कहीं बड़ी यात्रा पे निकले
थे और इस पड़ाव पे ऐसे टिके कि फिर वो यात्रा तो भूल गये उल्टी यात्रा करने लगे फिर
से वापिस है न और कहीं मतलब उनका अपन ने डाइलेमा इसीलिए वहां पर खुला छोड़ा कि वो
इसमें तो हैं कि कहीं कुछ होगा यार, कुछ हो तो नही सकता | और जो घरवालों का
attitude है उनके प्रति...”
“उनकी स्थिति बड़ी विचित्र हो जाती है जब वो बब्बा
के मरणोपरांत रज्जन-वज्जन के सामने आते हैं”
“वो जानते हैं कि यार ये हरामी है रज्जन | यही तय
करेगा कि क्या होगा उन खेतों का | ये साला मेरे को कहीं गड़बड़ न कर दे तो वो बेचारा
उसकी चमचागिरी टाइप भी करने लगते हैं और कहते हैं कि रज्जन तो भई बहुत उस्ताद चीज़
हैं मतलब वो बेचारे जो एक ज़माने में बड़ा गुरु की भूमिका में थे पूरे परिवार में वो
डीजेनेरेट होके और वो लगभग दरबारी हो जाते हैं रज्जन के है न इस आशा में कि उनको
शायद जब बंटवारे की बात होएगी ही तो उस समय ये ध्यान रखें कि कहीं बब्बा का दिया
हुआ वो खेत जिसकी रजिस्ट्री वगैरह किसी के नाम से नही हुई थी वो कहीं साले कोई
दूसरा क्लेम न कर लें बंटवारे में कि कहीं किसी और के पास न आ जाए तो इसको ओपन
करना मैंने सोचा था | कहीं इंटरव्यू पढ़ रहा था ऋषिकेश मुखर्जी का जोकि बहुत बड़े
फ़िल्मकार थे | तो उनका ये कहना था कि मेरी फिल्म में कहीं अगर चपरासी का करैक्टर
भी है तो मैं उसे पूर्णतः तक ले जाता हूँ | मेरा ये ध्यान रहेगा कि वो फलाने जगह
एक चपरासी आया था उसका एक पूरा चरित्र होना चाहिए | वो केवल चपरासी नही है मतलब वो
एक चरित्र है | और वो कहानी में भी कहीं आना चाहिए कहानी का वातावरण क्रिएट करने
में आना चाहिए उसके चाहे दो सीन हों | बिलकुल छोटा सा चरित्र है और उसकी एक अंत भी
होना चाहिए कहानी के हिसाब से और उनका जैसे ‘आनंद’ फिल्म में है | एक है ‘आनंद’
फिल्म देखी होगी आपने ? बहुत अद्भुत, वो चरित्र भी बहुत अद्भुत है | ये बात मैंने
उस इंटरव्यू को पढ़ने से पहले नोट की थी | कि देखो उन्होंने ख्याल रखा | एक चपरासी
है अमिताभ बच्चन का | अमिताभ बच्चन के माँ बाप नहीं हैं | वो अमिताभ बच्चन को खाना
पीना देता है और सब करता है उसको पूरा चरित्र दिया है जब उसका दोस्त आ जाता है तो
उसके लिए आखिर में उसका भी रोल दिखाया है कि वो लास्ट में देखता है कि आनंद मर रहा
है तब वो कहता है कि मेरे गाँव में एक वैद्य है जो बहुत तगड़ी दवाई देते है और जिससे
जरूर ठीक हो जाता है और वो कहता है कि मैं जा के गाँव से दवाई लेकर आउंगा | सीन के
अंत अंत में वो दवाई लेने चला गया है और जब ये मर रहे हैं राजेश खन्ना उसकी बाहों
में, अमिताभ की तब उसकी एंट्री होती है | दवाई लेके आया है वो तब तक मर गया है और
वो खड़ा हुआ है दवाई लेने | तो उसको वहां तक दिया एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा एक छोटा
सा क्षण जो है न जो उस चपरासी के महत्व को बनाता है तो मुझे उनकी वो बात बहुत
महत्वपूर्ण लगी थी कि आप कोई भी चरित्र जो आपने उपन्यास में उठाया उसको एक
जस्टीफ़ाइड एंड तक ले जाओ और अगर आप उसे एंड तक नही ले गये तो उसका भी एक जस्टीफ़ाइड
रीज़न होना चाहिए | तो मैंने इसपर भी विचार किया था इनके जो वो हैं महंत जी कि इनको
मैं कहाँ छोडू कहानी में ? क्या मैं इनपर कहीं से कुछ लाऊं किसी तरह का कोई दृश्य
एक बनाऊ जहाँ पर इनकी कोई नियति तय होनी चाहिए लेकिन नही | इसकी नियति न होना ही
इसकी नियति है | इसको यहीं छोड़ो अधूरे में और अधूरे में ये जो लटका हुआ है जो इसकी
माँ तब पाठक भी इसकी मानसिकता में समझेगा कि अब बेचारे का पता नही क्या होगा | वो
भी सोच रहे हैं कि मेरा क्या होगा और पाठक भी ये सोचे कि अरे पता नही कि इस बेचारे
का क्या हुआ होगा बाद में ? तो जब आपने ये प्रश्न मुझसे किया तो ये उत्तर मेरे मन
में था कि मैंने भी यही सोचा कि इनका क्या होगा, कुछ कर दिया जाय या छोड़ा जाय ? तो
मुझे लगा कि नही सिर्फ छोड़ा जाय कि इनका क्या होगा फाइनल में ? तो ऐसा | अभी मैंने
जो ‘पागलखाना’ लिखी है न आपसे पहली बार कर रहा हूँ शेयर मैंने किसी से उसकी थीम
नही शेयर करी इसमें छह पात्र हैं जो अलग अलग तरह से बाज़ार से भाग रहे हैं | और ये
अलग अलग तरह से भाग रहे हैं | और इन छह पात्रों की नियति आपने बताई है कुल और उसके
बहाने से बाज़ार की कथा कही है | इन छह पात्रों में से एक पात्र ये है जो मैंने बोला
कि वो सुरंग खोद के भागना चाहता है | मतलब उसमें बड़े वियर्ड से पात्र हैं | ये
फंतासी का एक अलग लेवल है | ये बिलकुल अलग है | ये मेरे हिसाब से मेरा भी अलग लेवल
है कि मैंने एक इस तरह की चीज़ ट्राई करी है | बिलकुल अलग चीज़ ट्राई करने की कोशिश
की है | कि एक ये दुनिया है ये दुनिया से अगर मैं भागने की कोशिश करूँ तो क्या मैं
भाग पाऊंगा ? और इस बहाने से उस दुनिया को समझने की कोशिश की है | तो वो कैसे भागता है और एक एक पात्र कैसे भागने
की कोशिश करता है वो कहाँ फंसता जाता है वो और एकाध जो लड़ने की कोशिश करता है इससे
या इसपे निगाह रखने की कोशिश करता है जो इस शक में पड़ा हुआ है तो ये सारे पात्र वो
हैं जिनका मोहभंग हो गया है बाज़ार से कुछ भागना चाहते हैं कुछ लड़ना चाहते हैं कुछ
छिपना चाहते हैं इस दुनिया में रहते हुए भी और छिप नही पाते | ये उनकी दुनिया है |
तो बड़ी अजीब सी डरावनी सी दुनिया है वो पूरी उपन्यास की और है पर मुझे लगा था यार
ये भी तो लिखते लिखते मुझे लगा था कि ये पात्र क्यों नही हो सकते ? बिलकुल हो सकते
हैं | ये जो मैं लिख रहा हूँ ये पात्र बिलकुल हो सकते हैं | भई आज की दुनिया में
जो आदमी बैठा हुआ है वह एक रिटायर्ड आदमी है | वो बैठा हुआ है और वो बहुत दुखी है
कि जो उसने बचत की हुई थी बैंक में रखा हुआ था पैसा उसकी ब्याजदर गिरती जा रही है
जिससे घर चलता था | पहले दस परसेंट मिल जाता था फिर नौ परसेंट सात परसेंट छह
परसेंट पांच परसेंट इसपे आ गयी | उसकी इनकम गिरती जा रही है और उसे अब डर लगने लगा
है कि सरकार का अब भरोसा नही है | ये जो बाज़ार किसी दिन ये कह दे अगर कि मैं
तुम्हारा पैसा जब्त करता हूँ या तुमने बहुत खा लिया अब ये सरकार बाज़ार को देगी
पैसा तो तुम क्या करोगे ? और क्यों नही कर सकती ? तुम्हे लगता है कि नही कर सकती
पर ये बताओ क्यों नही कर सकती ? सरकार को एक आर्डर ही तो निकालना है |”
“जी सर वही सब होने वाले लक्षण दिख भी रहे हैं
आजकल”
“करेक्ट, तो मैंने एक ऐसे पात्र की कल्पना की जो
भयंकर डरा हुआ है कि कुछ भी हो सकता है | कोई भी मुझे अपने घर से बेदखल कर सकता है
| कोई भी कुछ कर सकता है मेरा क्या होगा ? मैं क्या कर सकता हूँ ? ऐसे पात्र बनाये
हैं | तो वो बहुत एक अलग किस्म की कहानी है | पता नही कितनों को क्या पसंद आएगी |
पर उस व्यंग्य के बहाने बाज़ार को बहुत विश्लेषित किया गया है | बाज़ार की चीज़ों को
| हाँ मतलब उसमें एक पात्र है जिसके सपने खो गये हैं | अब उसे सपने नही आते | बहुत
परेशान है वो कि उसे सपने नही आते | और घरवाले समझाते हैं उसे कि तुम क्यों, उसे
सपने नही आते तो ऐसी क्या बात है यार | तुम मतलब चूतिया आदमी हो | सपना नही आता तो
नही आता | ये कोई बहुत बड़ी बात हो गयी है और वो हैरान है कि दुनिया को पता ही नही
है कि सपने न आने से क्या हो जाता है ? अगर दुनिया सपने देखना बंद कर दे तो दुनिया
कहाँ जायेगी ? तो सपने और बाज़ार को वहां जोड़ा है | ऐसे करके व्यंग्य में बाज़ार के
बहुत सारे पक्षों को लेके कुछ पात्र क्रिएट करे हैं और फिर उस बहाने से बात करने
की कोशिश करी है | तो जरा गंभीर किस्म की फैनटेसी हो गयी पर मुझे लगता है मैंने
बात बहुत करी है उसमें बाज़ार को और उसमें मैं आपको ये सारी बातें बता रहा हूँ कि
मैं इसके एंड में उलझ गया था कि छह पात्र हैं अब कहाँ जाओगे ? इसका एंड कहाँ करोगे
? अरे बाप रे मैं कितना परेशान रहा | मैंने प्रभु जोशी से डिस्कस किया कि यार ऐसा
ऐसा है इसकी थीम थोड़ा बहुत प्रभु जोशी को मालूम है दूसरा अब आपको मालूम है | और
किसी को मैंने बात ही नही करी इस पर कि मेरा उपन्यास क्या है | मैं केवल आपको बात
कर रहा हूँ | क्योंकि आप मुझे समझदार लगे | इतने आपसे लम्बी बात हुई हैं कि मुझे
लगा कि नही आपमें एक उस उस क्रिएटिविटी की बड़ी समझ है तो इसलिए मैं बहुत सोचता था
इसका एंड कहाँ होना चाहिए ? मतलब इसको जब आप पढ़ोगे तो देखोगे कि ये बहुत ही अलग है
मतलब इसके एंड की आपको इसलिए तारीफ करनी पड़ेगी कि मेरे इस उपन्यास को पढ़ते हुए कि
आप भी सोच रहे हो कि ये कहाँ जाना चाहिए ? और एंड इतना सटीक है ‘पागलखाना’ का कि
बिलकुल वो पूरी मेरी कथा को एकदम जस्टीफ़ाइड लेंग्थ पर पहुंचाता है | तो वो एंड
बहुत कठिन होता है किसी भी चीज़ का उपन्यास को कहानी में कहना तो वो बड़ा कठिन होता
है तो उसकी कोशिश करना चाहिए | कहाँ क्लोज करोगे कहानी को ताकि देखो अंत मुझे लगता
है कि अंत वहां होना चाहिए जहाँ पे कहानी तो अंत किताब तो अंत हो जाए पर एक नई
कहानी चल पड़े आदमी के मन में | मतलब वो बात, वहां एंड होना चाहिए | मतलब आप बहुत
सारा अनकहा सा छोड़ दें एंड में और एक नई कहानी के बीच छोड़ दें मतलब मन में उसके
पाठक के मन में | वो है उपन्यास का सही अंत | अगर मैंने सब कह दिया | मैंने कहानी क्लोज
कर दी अब आपके लिए कुछ भी नही छोड़ा सोचने को तो हो गया कहानी ख़तम हो गयी चल भैया
लड्डू ख़तम अब स्वाद ख़तम फिर सौंफ खा लो है न तो सौंफ खा लोगे तो वो भी ख़तम हो
जायेगा लड्डू के स्वाद में तो वो नही | वो आपके मन में एक स्वाद और भूख दोनों बनी
रहे वो आपके कहानी का अंत होना चाहिए, मुझे ऐसा लगता है | तो ये है, इसका चक्कर ये
है | “
“और एक चीज़ मैंने और देखी है सर कॉमन जैसे कि
आपने अभी चरित्र एक बताया कि कॉमन सा है अपने नेचर में और एक कुत्ते भी बड़े कॉमन
हैं आपके उपन्यासों में...’नरकयात्रा’ में कुत्ता है, ‘बारामासी’ में कुत्ता है,
‘मरीचिका’ में भी श्वान है और ‘हम न मरब’ में भी है | तो ये डोग्गी प्रेम आपका हर
जगह दिखता है”
“शायद इसमें न हो मुझे याद आ रहा है ‘पागलखाना’
में नही तो चारों जगह तो है और मैंने बहुत सारे फुटकर में बहुत तरह से लिखा है |
मुझे पता नही क्यों कुत्ता एक आम आदमी टाइप लगता है | जैसे आम आदमी की नियति है
बेचारे की कि वो सब जानता है लेकिन मुझे हमेशा कुत्ते की शकल देखकर लगता है जैसे
उसे सब पता है | तुम बाहर निकलते हो और कार में बैठते हो और कुत्ता वहां से देखता
है आपको तो मुझे हमेशा लगता है कि एक आम आदमी जो सड़क पे हैं वो जिस भाव से देखता
होगा और आपको जो समझता है वो भी आपको है | कुत्ता बेहद समझदार प्राणी है | बहुत
समझदार है और बहुत सहने वाला प्राणी है | वो अपनी नियति के साथ जीना सीखकर नियति
को ढोना सीख गया है एक्चुअली | कुत्ते को आप रोटी देते हो तो वो बेचारा...तुम दस
बार लात मारते हो ग्यारहवीं बार रोटी लेकर आते हो तो वो आ जाता है आपके पास | तो
ये कुत्ते की बेशर्मी नही है ये ये उसकी बेचारे की नियति को ढोना है | तो मुझे पता
नही क्यों उसकी बहुत सारी बातें...और मुझे कुत्ते इसके बावजूद कई बार खूब खेलते
दिखते हैं, एक दूसरे का पीछा करते दिखते हैं | आपस में बिना बात के लड़ते दिखते हैं
| तो मुझे लगता है कि हमेशा जैसे गरीब आदमी लड़ रहा है बिना बात के, छोटी-छोटी
लड़ाईयां लड़ रहा है, गालियाँ दे रहा है फिर आपस में मिलके खेल भी रहा है, हँस भी
रहा है, कोई गाने भी गा रहा है कहीं बैठके तो वो जो मुझे कुत्ते हैं मुझे हर जगह
मैंने कुत्ते के इन सारे पक्षों को लिया है | अभी आपके पास मेरे फुटकर उतने पहुंचे
नही हैं और मैंने बहुत से तो अभी दिए ही नही हैं | मैंने अमेरिका में पहला कुत्ते
पर एक पढ़ा था अमेरिका गया था तो मुझे लगा था कि यार कुत्ते पालने वाले बहुत देखे
थे मैंने तो मेरे को लगा कि इनको कुत्ते का एक बिलकुल नया स्वरुप दिखाया जाय | तो
मैंने कुत्ते पर एक बहुत बढ़िया आर्टिकल अभी याद नही आ रहा कि क्या था वो पर उसकी
शुरूआत यहाँ कहीं से होती थी कि मेरे घर में इस बात पर विवाद है कि कुत्ता पाला
जाय कि नही पाला जाय ? मेरी पत्नी कहती है कि मेरे रहते एक और की गुंजाईश नही है |
यहाँ से ये शुरू होता है | और फिर वो कुत्ते को लेके बहुत मज़े लेकर लिखा गया है |”
“इस बार पर मुझे लगता है कि आपके घर में कुत्ता
तो जरूर पला होगा ?”
“हाँ, हमारे यहाँ नही पला है | हमारी पत्नी इसके
खिलाफ हैं | हमारी बेटी बहुत चाहती है पर हमारे पड़ोस में, हमारी बेटी, हमारी बेटी
की बेटी इनको कुत्तों से बड़ा लगाव है | हमारी बेटी की ससुराल में कुत्ता है पर
हमारे घर पर कुत्ता नही है | पर मैंने कुत्तों पर बहुत लिखे हैं कई तरह के लिखे
हैं | कुत्ता कहीं न कहीं पात्र रूप में आ ही गया है | एक मैंने लिखा था मुझे याद
आता है जहाँ ज्योतिषी ये कह देता है कि तुम कुत्ते को रोटी डालो | मतलब काले
कुत्ते को रोज़ रोटी डालिए | काला कम्बल दान करिए | अब आप काला कुत्ता ढूंढ रहे हैं
कि रोटी डालना है उसको | है न और साले मिलते नही हैं आपको | तो वो उस पर एक मैंने
व्यंग्य लिखा है | मेरे व्यंग्य बहुत कुत्ते पर बहुत लिखे हैं | मेरा ख़याल है
दस-बारह व्यंग्य तो कुत्ते पर ही हैं | सटीक हैं कुत्ते पर | और इनमे हर जगह
कुत्ता पात्र है |”
“हम न मरब में तो गधा और घोड़ा भी है”
“हाँ गधे और घोड़े भी हैं जो आपके आसपास ये ऐसे
चरित्र हैं कुत्ते, गधे, घोड़े | मुझे ये लगता है कि ये हमारे जीवन का बड़े अहम
हिस्सा हैं | मतलब आपके आदमी होने के | क्योंकि आदमी में बहुत सारा कुत्तापन है”
“जी सर इतिहास में भी हम लोग पढ़ते हैं कि कुत्ता
आदमी का सबसे पहला मित्र था”
“मैं वही कह रहा हूँ कि कुत्ते में बहुत सारा
आदमीपन है और आदमी में बहुत सारा कुत्तापन है |”
“बिलकुल सही लाइन आपने कही”
“तो वो सारा मेरे को हमेशा लगता है | तो मुझे
लगता है कि ये बड़े इंट्रेस्टिंग जानवर हैं जो आदमी का इवैल्यूएशन दिखाते हैं कि
आदमी यों विकसित हुआ | और ये अभी भी आदमी के साथ के यात्री हैं | मुझे लगता है
आदमी के बढ़ने के, देखने के- कि आदमी जो पहले घोड़े पर घूमता था अब साला ये करने लगा
| अब तो गाड़ियाँ आने लगीं, बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ चलाने लगा आदमी |”
“लेकिन सर मैंने एक चीज़ और देखी है कि जैसे सर
कुत्ता है, हमारे आसपास के और जानवर हैं मतलब तमाम सी चीज़ों को आप ओब्जेर्व करके
उसे रचनात्मक साहित्य में इतने अच्छे से ढालते हैं वो चीज़ आजकल देखने को नही मिलती
है लेखकों की रचनाशीलता में कि वो ऐसी चीज़ों को उसमें लेके आयें”
“मुझे सारी प्रॉब्लम आज की रचनाशीलता में ये लग
रहा है कि आदमी पकने नही देता | विचार को नही पकने देता फिर रचना को नही पकने देता
और वो अपने लिखे को एक बार भी काटता नही है देखता नही है | लिखते हुए भी नही देखता
| एक चीज़ होती है, एक और होता है कि कई रचनाएँ मेरी ऐसी हैं जहाँ मैंने बिलकुल नही
काटा पर वो मन में कई बार काटी गयी होंगीं लिखते हुए | मैंने लिखते हुए एक वाक्य
लिखा और वो रुक गया कि यार ये वाक्य नही बन रहा ये कुछ और बनेगा | और मैंने शायद
लिखके नही काटा बल्कि मन में ही ख़ारिज किया उस वाक्य को जो बन रहा था और उसको नए
सिरे से कुछ लिखा फिर लिखा | वो बात अब लोग करते ही नही हैं, जल्दी बहुत है |
फ़ास्टफ़ूड का ज़माना है | वो पचे न पचे, उसका कितना स्वाद हो, वो कितना गरिष्ठ हो
जायेगा, क्या है वो नही है | जैसे जब हमारी माँ बटलोई में दाल बनाती थीं तब गैस तो
थी नही तो चूल्हा जलता था | कुकर होते नही थे, दाल गलने में टाइम लगेगा | तो उसपे
दाल चढ़ जाती थी और फिर दाल चढ़के धीरे-धीरे खदकती थी | अब वो स्वाद जो है वो अभी आ
ही नही सकता जो अब तुरंत कुकर में करके निकालते हैं | उस टाइम पीरियड का लॉस जो है
वो स्वाद में दिखता है | है वो भी दाल, उसमें भी मसालों के कम्पनसेशन से एक स्वाद
आ जाता है पर अगर आप उस पुराने स्वाद पर जाएँ... बहुत सारे हैं हांडी में जो पका
के बनती थी चाहे वो नॉनवेज आइटम हो वेज आइटम हो ऐसी रचना कहाँ है ? मुझे लगता है
हम पकने का समय नही दे रहे हैं | हमारे मन में एक विचार आया कि हमें अब बुंदेलखंड
के अपराध पर लिखना है | अब बस इतना ही विचार आया है और ये विचार पिछले तीन महीने
से उपन्यास ख़त्म होते होते जैसे ही ख़तम हुआ और टाइप होना शुरू हुआ तो ये मन में
विचार आया कि अब कैसे करें ? मैंने कई शुरूआत और कई चरित्र मन में लेके खारिज कर
दिए हैं अभी तक कि मुझे क्या करना चाहिए ? वो मन में आप एक चरित्र सोचते हो तो आप
कुछ चैप्टर्स सोच लेते हो उसके कि ऐसे-ऐसे बढ़ेगा फिर आप उसे पूरा खारिज करते हो तो
ये मन का रिराइटिंग ही है न | मन में आप उपन्यास को लिख रहे हो और खारिज कर रहे हो
| जब आप पूरे उस जगह पहुँच जाओ कि नही यार अब चालू करते हैं | अब यहाँ आएगा वो
उपन्यास फिर आप उस दिन चालू करेंगें | और एक है कि चलो एक उपन्यास तो आ गया अब
अगला उपन्यास जरूर अगले साल के अंत तक आ ही जाना चाहिए | एक इस तरह से भी सोच सकते
हैं तो जो पात्र हाथ में आये उसी पे चालू कर देते हैं | फिर आपके मन में वो पका न
पका, मज़ा आया न आया या जो आपने सोचा था | फिर वही बात आयी कि आपको जो पहले क्षण
में कौंधना चाहिए बात वो कौंधी कि नही कौंधी ? तो बस वो जब तक नही कौन्धेगी तब तक
आप अगला उपन्यास नही चालू कर सकते | मेरे मन में बहुत सारी चीज़ें चालू होती हैं
मैं कहाँ से शुरू करूँगा ? मैं कौन से पात्र लूँगा, कहाँ से क्या चीज़ें ज्यादा
दिखाने की कोशिश करूँगा ?”
“सर समकालीन व्यंग्य परिदृश्य में ऐसे तो दो चार
नाम भी नही दिखते जो इस तरह से सोचते हों, लेखकीय तौर पर चुनौतियाँ लेने के इच्छुक
लेखक नही दिखते हैं आपके जैसे”
“व्यंग्य में तो कोई कर ही नही रहा | व्यंग्य में
तो बहुत ही कष्ट वाली बात है |”
“जी सर नए लोगों को तो छोड़ दीजिये जो लोग पुराने
हो गये हैं वे भी नही कर रहे |”
“हाँ बिलकुल नही कर रहे, उनका मन है छप जाय,
फेसबुक पे आ जाय, चार जने तारीफ कर दें | एकाध पुरस्कार मिल जाय | पुरस्कार बहुत
से हैं व्यंग्य में जिसमें सारी जिंदगी बन गयी फलानी जगह मुझे चीफ गेस्ट बना दे
कोई | देखिये क्या है कि जब आपके उद्देश्य ही बहुत छोटे होंगें तो फिर बात भी छोटी
होगी | हमारा उद्देश्य है ही नही ये वाली बात रियली मैं झूठ नही बोलता मैंने यहाँ
पे बोला भी था कि मैंने कभी नही सोचा कि भई मेरे को कोई पुरस्कार दे देगा | मेरी
आप तारीफ कर दोगे | मेरी कोई किताब निकली तो कोई समीक्षा इसकी फलानी जगह में डाल
देगा तो बड़ा मज़ा आ जायेगा | अरे मेरी ज्यादातर किताबों की समीक्षाएं आयी ही नहीं |
हमारी ज्यादातर किताबों की समीक्षा स्वतःस्फूर्त किसी ने डाल दीं तो आ गयीं और
अच्छे लोगों ने लिख डालीं पर मैंने पहली बार किसी को समीक्षा के लिए कहा था अगर
अपने उपन्यास का तो मैंने ‘हम न मरब’ के लिए प्रभाकर श्रोत्रिय को कहा था |
श्रोत्रिय जी को कहा था कि सर आप पढ़िए... मेरे गुरु जैसे थे | मैंने कहा कि सर
आपने मेरी किसी किताब को फोन पर तो हमेशा कहते हो कि बड़ी तुम्हारी अच्छी है ये
वो.. क्या आप इसको लिखके और क्या आप इसपर लिखेंगें पढ़के ? और आपको जैसा लगे वैसा
ही लिखिएगा | मैंने उनको बिलकुल कहा ये नही कि सर आपका एक आशीर्वाद हो जायेगा तो
बड़ा अच्छा होगा तो आदमी दबाव में आ जाता है न कि यार ये मेरे को गुरु मानता है और
बड़ा अब इसे कैसे करें | मैंने कहा सर आप बड़े आलोचक हैं आपने कविता और और नाटक और
उपन्यास और हर चीज़ की आलोचना की है | बहुत बड़े आलोचक हैं आप तो आप इस उपन्यास को
उसी निगाह से पढ़िएगा और आपको बिल्कुल जैसा लगे | मैं जरा भी इस बात का बुरा नही
मानूंगा कि आपको अच्छा लगा, बुरा लगा, क्यों लगा ये सब | मैंने कहा मैंने आपकी
चिलम नही भरी कभी मैं आपकी मन से इज्जत करता हूँ कि आप बड़े आलोचक..तो मैं एक बड़े
आलोचक की निगाह से अपने उपन्यास को समझना चाहूँगा | तो आप उसको वैसा ही लिखिएगा”
“आपने तो सर बहुत ही अच्छे और स्वथ्य ढंग से कहा
नही तो बहुत लोग तो ऐसे भी रहते हैं कि भैया लिखो तो मैं किताब भिजवाऊ न लिखो तो न
भिजवाऊ | ऐसे लोग भी पल्ले पड़ जाते हैं या कहेंगें कि आप ज्ञान जी पर आ के सीमित
हो जाते हो आगे नाम क्यों नही लेते हो | अब मैं क्या बताऊ कि आप उस लेवल का लिख ही
नही पा रहे हो तो मैं केवल आपको खुश करने के लिए कैसे नाम ले लूँ भाई | आपको मैं
अपनी उस श्रेणी में तो नही रख सकता |”
“हाँ, मतलब क्या है कि वो एक होता है कि लिस्ट
बोलना कि भई सबको खुश हो जाएँ | वो भी हैं, वो भी हैं, वो भी हैं, वो भी अच्छा
लिखते हैं, वो भी ज्ञान जी की पीढ़ी के इतने लोग लिख रहे तो वो ठीक बात है | मैं इस
बात का बुरा भी नही मानता कि इससे क्या फर्क पड़ने वाला है | तीन-चार लोग आपस में
एक दूसरे को बड़े व्यंग्यकार हैं कहते रहते हैं सभी छोटे व्यंग्यकार हैं पर आपस में
बड़े व्यंग्यकार कहते हैं एक दूसरे को | वो उनको बोलेंगें, वो उनको बोलेंगें और बड़े
खुश हैं आपस में कि हम तो बड़े व्यंग्यकार हैं | इतनी छोटी सीमा के अन्दर कर रहे
हैं वो कि मैं वही हमेशा कहता था एक बार मैंने शरद जोशी सम्मान मिला था इधर बम्बई
में शरद जोशी परिवार ने जो शरद जी के नाम पर किया है एक लाख रुपये का...नेहा ने |
तो मैं उसमें बोला था कि हम हमारी प्रॉब्लम ये हो गयी है कि हमारा बेटा था छोटा और
वो बड़ा भी हो गया है और दसवीं-ग्यारहवीं में पढ़ने लगा तो गली के बच्चों के साथ
जाके क्रिकेट खेलता था और कहता था कि आज मैंने पापा छह छक्के मारे | छक्के की
बाउंड्री जहाँ खेल रहे हैं वहां से नाली तक है और वहां तक चौका है तो जब हमने अपनी
सीमायें बहुत छोटी कर लीं तो हम तो छक्के भी मारेंगें, चौवे भी मारेंगें हम तो सब
कुछ करेंगें | तो अपने जब अपने छोटे-छोटे उद्देश्य कर दिए और उसमें चीज़ों को विजय
करने लगे आप और उस विजय में अपने आपको दिग्विजयी समझने लगे आप तो फिर बहुत कठिन हो
जाती है तो दिग्विजय की आपकी कल्पना और आपकी जो है नाप, नपती का जो तरीका है वो
इतना कमज़ोर है, इतना छोटा है कि आप बिलकुल कह सकते हो कि हम दिग्विजयी हो गये
क्योंकि हमने तो..हमारी दुनिया ही एक कमरे के बराबर है | उस कमरे के बाहर एक अनंत
तक दुनिया है वो हमने देखी ही नही | बस वही चीज़ है | सब जगह वही है | कहो तो लोग
बुरा मान जाते हैं और कहो तो लोग कहते हैं कि ज्ञान जी का दिमाग ख़राब हो गया है |
अरे भैया उनकी तारीफ हो जाती है तो वो तो अपने आपको देवता समझने लगे अपने आपको
भगवान समझने लगे... ऐसी बातें...व्यंग्य के अपने आपको खुदा समझते हैं | अब आप क्या
बोलोगे ? आप सही बात कह भी नही सकते | सही बात कहोगे तो यही होता है कि ज्ञान जी
को तो अपने मन में बहुत वो आ गया अपने ऊपर घमंड | ये घमंड की बात है ही नही भई |
ये घमंड की बात हम कर ही नही रहे | हम कहाँ घमंड की बात कर रहे | हम तो अपना...
जैसे आपने कहा कि आपका ये उपन्यास है मुझे मज़ा नही आया इसमें मान के चलूँ कि नही
यार आपको तो समझ ही नही है | हमारी तो ये सीमा थी आपने इसको समझा नही और हमने तो
ग़ज़ब की चीज़ लिखी थी आपने समझी नही | हर आदमी को अपनी राय रखने का हक़ है और हर आदमी
जब आपको बताता है तो कुछ चीज़ें आपके लेखन की इंगित करता है जिनमें आप आगे जब लिखते
हो तो एक कांशस ही नही.. सोच के नही कि यार राहुल ने ऐसा कहा था | आपके अवचेतन में
एक इस तरह की जो सच्ची आलोचनाएँ हैं जहाँ किसी को लगा एक समझदार आदमी को लगा कि ऐसा
रहा जैसा कुछ समझदारों को लगा जो मुझे भी बाद में लगा कि नही इसमें वो ज्यादा हो
गया जोकि मैंने रिराईट करके तीन तीन, चार चार, पांच पांच बार रिवाइज करके देखा था
कि नही कि इसमें गाली को कितना कम कर दूँ | जब ये छप के आ गयी और तब कई लोगों ने
कहा तो मेरे मन में आया कि हाँ शायद ज्यादा हो गया और इसे और कम मैं कर सकता था |
ऐसा मुझे लगा | पर वो कांशसली भी लगा और सबकांशसली मेरे मन में आया कि अब अगला जब
लिखेंगें कभी तो ये नही कि आप कोई कांशस लेंगें | आपको आपकी रचना का एक फीडबैक आया
तो हर बार आप अपनी गलतियों से, अपनी कमजोरियों से, अपने उससे सीखते हैं कि आपने
क्या किया और क्या करना चाहिए और वही एक इम्पोर्टेन्ट चीज़ है | आप अगर सीखते नही
हैं और हमारे यहाँ ज्यादातर लोग नही सीखते |”
“वो वरिष्ठता के आसमान पर पहुंचकर नीचे देखना ही
नही चाहते |”
“वो कहेंगें कि मैं कह रहा हूँ मेरी किताब पर
लिखो मतलब मेरी तारीफ करो | वो कहेंगें कि तुम अगर लिख सको तो भेजता हूँ | ‘भेजता
हूँ’ का मतलब है- कहीं बुराई मत कर देना | तुम्हे लिखना है कि बहुत गज़ब की चीज़
व्यंग्य में की गयी है | पॉजिटिव अच्छी-अच्छी चीज़ें इसपे लिखना है आपको | गड़बड़ मत
करना कहीं | ये है उनका |”
“तो फिर हमको लगता है कि लोग मन से लिखते भी नही
है | जब अइसे ही है तो बगैर पढ़े लिखे देते हैं |”
“आज की समीक्षा बिना पढ़ी समीक्षा है ज्यादातर में
| कोई आप आज किताब भेजते हो और पन्द्रह दिन में उसकी समीक्षा भी कहीं छप जाती है
तो कैसे ? आपने दो रचनाएँ पढ़ी और चन्द जो आपके चुने हुए वाक्य हैं जो आप किसी के
भी बारे में बोल सकते हैं जिसमें नाम भर डालना है बाकी वाक्य वही हैं | हैं न | तो
आप डाल देते हो और एक समीक्षा बन जाती है | और आपको चूँकि उस आदमी को थोड़ा खुश
करना है किसी कारण से | तो हमने तो इस कारण से कोई कारण ही तय नही किया | हमने
जिन्दगी में कभी आपसे चाहा ही नही कुछ | हमने कभी नही कहा कि हम राहुल जी को कहीं
किसी जगह बैठे हों किसी पुरस्कार समिति में तो मेरा नाम ले लेंगें, कहीं बोलेंगें
तो मेरे बारे में बोल देंगें | हमें जब आपसे ये नही चहिये और ये अभी की बात कहो कि
तुमने इतना लिख लिया कि हम कहेंगे कि अब आप हमारा नाम तो लोगे ही यार हम तो तब की
बात बता रहे हैं जब बिलकुल हमने लिखना शुरू किया था | हमने लिखना शुरू किया तो
हमने कभी नही कहा कि आप हमारे को, हमारी तारीफ करो, हमको छापो | हमें भगवान ने
अपने आप इतना दिया है |”
“और व्यंग्य में तो मैं सोचता हूँ सर कि होगा
क्या मतलब आपके बाद दूर दूर तक कोई दिख ही नही रहा है | जैसे काम करने के लिए होना
भी तो चाहिए न कोई |”
“कोई कोशिश ही नही करने की कोशिश कर रहा | और
जहाँ पे जो रुक जाता है वो उससे ऊपर डेवलप नही होना चाहता |”
“और वो किताबें जैसे कि उत्कृष्ट रचनाएँ, चयनित
रचनाएँ, चुनिन्दा रचनाएँ करके फेंट-फेंटकर सबका आता रहता है जिनमे नया कुछ भी नही
है |”
“आप कितने भी निकाल दो यार | आप ये सोचो लोग जाने
कितना पीछे पड़ते होंगें मेरे पीछे एक मित्र पड़े हुए थे कि साहब हम निकाल रहे हैं |
मैंने कहा कि देखो यार मेरे से मत उम्मीद करना कि मैं तुम्हे कोई रचना दूंगा क्योंकि
मेरे पास इतना समय नही है | तुम्हारे पास मेरी किताबें हैं, तुम्हे निकलता है तुम
जो निकालना हो बना लो संग्रह मुझे कोई दिक्कत नही है एक किताब तुम निकाल सकते हो |
अभी कुछ दिन पहले निकाली हैं उनने लाजवाब व्यंग्य करके कुछ ऐसा ही निकाले हैं छह
आदमियों के उसमें मेरा भी है | तो मेरे को तो जब छप गयी तब उन्होंने बताया कि आपने
भाई साहब कहा था एक बार तो मैंने निकाल दी और आपका दस हज़ार रुपये का चेक और किताब
वहां पहुँच जायेगी घर पर | मैंने कहा बढ़िया है भेज दो | इससे ऊपर हम तो मतलब कोशिश
करते ही नही कि हमारे पर आप एक किताब या कुछ और |”
“नही सर आपका तो समझ में आता है लेकिन जिनका कुछ
भी नही है वो भी आपके पीछे पीछे छह लोग अपनी भी निकाल दें तो वो तो एक ये होता है
न कि आपके पीछे उनका भी नाम हो जायेगा जब ऐसे लोगों ने आपके लेवल का वो काम ही नही
किया है |”
“वो कर ही रहे हैं, ऐसे ही कर रहे हैं |”
“जी वो ऐसे ही करके अपनी किताबों की संख्या बढ़ा
रहे हैं |”
“बड़ा कठिन है... अच्छा दूसरे दो एक लोग मुझसे ये
भी कहते हैं कि साहब लोग तो आपको इस्तेमाल कर रहे हैं | हमने कही कि देखो हमारा
नाम अगर हो गया है मान लीजिये तो उस नाम को इस्तेमाल कोई भी कर सकता है | हम तुमको
भी पूरी स्वतंत्रता देते हैं कि तुम हमारा नाम लेके जो सही बात होगी हमसे जो बात
होगी तुम ये रेफरेन्सेस इस्तेमाल कर लो, अपने लिए कर लो हमें कोई मतलब नही | कल के
दिन राहुल एक लम्बी सी टिपण्णी लिखके फेसबुक पर डाल दें कि ज्ञान जी से बड़ी जबरदस्त
बात हुई और उन्होंने इतनी इतनी बातें करीं, उन्होंने मुझे पहली बार कहा कि मैं
केवल तुमको कह रहा हूँ ‘पागलखाना’ के बारे में मैंने आज तक किसी को थीम नही बताई
तो ये भी एक हो सकता है ज्ञान चतुर्वेदी को इस्तेमाल करके अपने आपको प्रोजेक्ट
करना | इतना हम बेवकूफ नही हैं हम समझते हैं कि ये जो कोई करता भी है इस तरह से
काम करता है तो पर हम भी मुस्कुरा के छोड़ते हैं कि चलो कर लिया किसी ने क्या हो
गया ? इसमें हमारा क्या बिगड़ा ? हमारा क्या बना ? हाँ तो हमने कहा कि हम तो
अवेलेबल हैं, हमारा साहित्य भी अवेलेबल है | कोई अगर हमसे बात करता है तो |”
“वैसे सर जो लोग ऐसा कहते हैं मुझे लगता है वो इस
क्षोभ में रहते हैं या कुंठा में रहते हैं कि वो नही कर पा रहे हैं दूसरा कर ले
रहा है |”
“करेक्ट, मैंने उनको यही तो कहा कि तुम हो, तुम
भी उपलब्ध हो मैं तुम्हारे लिए उपलब्ध हूँ तुमसे बात भी करता हूँ फोन पर तो तुम
जैसा चाहो | मुझे क्या दिक्कत है अगर मेरे इस्तेमाल होने से आपके कद में अगर एक
चौथाई इंच भी इजाफा होता है तो मैं कहीं उसके खिलाफ नही हूँ कर लो | पर मैं अगर
उसमें एन्जॉय करने लगूं, मज़ा लेने लगूं | अपने आपको ग़लतफ़हमी में डाल दूँ कि यार
इतने लोग मेरे बारे में बात कर रहे हैं तो मैं कोई महान आदमी हूँ तो फिर मैं
चूतिया हूँ | फिर वो नही होगा मेरे को मेरे मन में कभी नही आती है ये बात कि मेरे
को फ़लाने | उस दिन आप थे उस प्रोग्राम में जहाँ लोगों ने बड़ी-बड़ी बातें मेरे बारे
में कहीं और मेरे को मैं बिल्कुल चिकने घड़े की तरह बैठा था मैं | मेरे मन पर कुछ
नही आ रहा था जो कह रहे थे | चाहे आलोक ने कहा हो, चाहे अनूप कह रहा हो चाहे सुशील
कह रहे हों | मेरे मन में बिलकुल नही आता कि आप मेरी तारीफ कर रहे हो तो बहुत
अच्छी बात है | आप अगर कुछ कह रहे हो तो आप अपनी समझ के हिसाब से कह रहे हो | आप
आलोचना में तो कहते हो राहुल आये और व्यंग्य पर लिखे कविता छोड़े इसमें आ जाय पर
इसमें वो आ भी जाय तो बताओ वो किस पर लिखे ? आप किसकी रचनाशीलता को रेखांकित करें
और क्या करें ? या हम वापिस जाएँ शरद जोशी, परसाई और इनपर ही बात करें फिर अभी तक
| है न | किसी भी पूर्वजों की बात करना तब बहुत उचित होता है जब वर्तमान में भी जो
पीढ़ी है वह कुछ कर रही हो | वर्तमान की पीढ़ी केवल हल्ला कर रही है और मार्केटिंग
कर रही है | ये वो इन्जीनियरिंग के छात्र हैं जो मार्केटिंग कर रहे हैं | ये
इन्जीनियरिंग करना छोड़ चुके हैं | मैं एक बार अपने बेटे से बात कर रहा था कि ऐसी
इन्जीनियरिंग की डिग्री से क्या फायदा बेटा कि मकेनिकल में की और फिर तुम जाके
मार्केटिंग कर रहे हो | और जो ब्रिलियंट हैं वो ज्यादा कर रहे हैं | जो ब्रिलियंट
है उसने फट से एमबीए किया एमबीए करके वो उसने इलेक्ट्रॉनिक में किया था और वो आज
बैंक में कुछ कर रहा है तो उसने इलेक्ट्रॉनिक किया क्यों ? पांच साल में क्यूँ
किया ? तो आज की स्थिति वही है कि आज के जो व्यंग्यकार हैं वो उन ब्रिलियंट
इन्जीनीयर्स की तरह हैं जिन्होंने इन्जीनियरिंग पढ़ी और मार्केटिंग में लग गये |
इन्जीनियरिंग से उनका दूर-दूर तक सम्बन्ध नही तो ब्रिलियंट इस मामले में हैं कि
उन्हें लगा कि ये एक ऐसी ब्रांच है जिसमें घुस के अपन मार्केटिंग में जा सकते हैं
| वो इसलिए केवल व्यंग्य में घुसे और व्यंग्य में घुस के मार्केटिंग में चले गये
और व्यंग्य की मार्केटिंग कर रहे हैं | देखिये आप बहुत क्लोजली वाच करेंगें तो लोग
मार्केटिंग कर रहे हैं | लोग डाल रहे हैं मेरी इस साल की तीसरी किताब और मैंने ऐसा
किया, मैंने वैसा किया |”
“लेखकों के न्यू इयर रेसोल्यूशन आने शुरू हो गये
हैं फेसबुक पर कि अगले साल मेरे इतने उपन्यास लाइन में हैं |”
“हाँ कि अगले साल मेरे तीन उपन्यास, चार उपन्यास
आयेंगें और पांचवां ये होगा और छठवां ये रहेगा | क्या करें ऐसी... अपनी अपनी बात
कहने की समझ है क्या करेंगें आप | चलें अच्छा बंद करें |”
“हाँ सर, ‘मरीचिका’ पर फिर बात करते हैं | शुभ
रात्रि सर, हैप्पी न्यू इयर |”
“हैप्पी न्यू इयर आपको भी |”
-----