नागार्जुन उर्फ़ ‘बाबा’ मैथिली और हिंदी के विकट
रचनाकार हैं । उन पर जिरह करने का साहस विष्णुचंद्र शर्मा जैसा विमर्शकार ही कर
सकता है जो उनके लेखन और जीवन दोनों का 1957 से परस्पर गवाह रहे
हैं ।
विष्णुचंद्र शर्मा
की पुस्तक ‘नागार्जुन: एक लम्बी जिरह’ दो खण्डों में विभाजित हैं । पहले खण्ड में
संस्मरण और पत्र हैं जो ठेठ देसी ज़मीन की सोंधी महक तथा जीवन की जीवन्तता को बड़े
इत्मिनान से सहेज-बटोरकर हमारे सामने लाते हैं । इसमें बाबा की लेखक से निकटता
महसूस की जा सकती है, जहाँ एक ख़त के माध्यम से लेखक नागार्जुन को याद करते हैं और
कहते हैं- “बाबा को श्री श्री का हाथ थामे, स्पर्श ज्ञान करते कवि केदारनाथ सिंह
ने भी देखा था ।”[i]
लेखक नागार्जुन के
काफी निकट हैं और जब वे उनकी कोठरी जाते हैं तब बाबा उनसे सारे देश-जहान की बातें
करते हैं और उनका यह मानना है कि वे बाबा के घर के सामान की तरह हैं ।
लेखक ने बाबा की हर
हरकतों को देखा-परखा था । बाबा लेखक के घर आए थे और जब लेखक ने बाबा से यह प्रश्न
पूछा कि- “बाबा यह मंडल क्या है ?” तब बाबा ने बड़ी धीमी-मंद हाँसी, उनके चेहरे पर
खिल उठी थी, कहा- “यह मंडल और आत्मदाह तो एक लड़ाई का हिस्सा है । यह दलित और औरत
की लड़ाई एक दिन में नहीं लड़ी जाएगी । तुम जैसे गैस धीमी और तेज करते हो, ठीक ऐसे
ही मंडल की लड़ाई, उनके हक की सामाजिक न्याय की लड़ाई है । वह कहीं धीमी होगी, कहीं
तेज ।”[ii]
इस बात से यह स्पष्ट होता हो जाता है कि उस समय दलित और स्त्रियों की हालात
एक जैसी ही थी और वे अपने हक के लिए लड़ाई लड़ रहे थे । बाबा की वाणी मैथिल समाज में
भी गूंजती है और इंदिरा गाँधी में देश की धुरी देखने वाले हजारीप्रसाद द्विवेदी के
मन में भी । नागार्जुन ने कबीर के बाद आजाद भारतवर्ष के फटेहाल इंसानों को भीतर तक
झकझोर दिया था । लेखक ने नागार्जुन द्वारा लिखित उपन्यास ‘रतिनाथ की चाची’ और
‘बलचनमा’ का जिक्र भी किया है ।
लेखक ने केवल नागार्जुन के निकट थे बल्कि शमशेर बहादुर सिंह और निराला
के भी अच्छे अनुयायी थे । कवि (1957-58) से बाबा का लगाव था
नागार्जुन का ‘मनाधार’ 57 में गाँव और भारतीय कविता’ पर टिका था ।
लेखक 9/8 के पत्र में याद करते हैं – “‘कवि’ भी दो महीने से नहीं देखा । देहात
रहना पड़ा डेढ़ महीने । लिखना-पढ़ना छूट गया था अब भी झंझटों को ठेल रहा हूँ....”[iii]
1957-58 ई. में नागार्जुन ‘अपमान’ और ‘बुद्धू’ के प्रतीक थे । यह बिडंबना-भरा था
उनका जीवन । बाद में वह अपना मजाक उड़ाते समय ‘बुद्धूपन’ पर जो कार्टून बनाते थे,
वह उनकी कविता का एक विशेष पक्ष है : पक्षधर और आबद्ध पक्ष ।
हिंदी में अभी तक यानी कवि-काल 1957-58 तक सुमित्रानंदन पन्त,
महादेवी, अज्ञेय, बालकृष्ण राव, श्रीपत, राय, प्रभाकर माचवे, नेमीचंद जैन,
रामविलास शर्मा सभ्य और शिष्ट थे । निराला, उग्र, नागार्जुन, शमशेर, त्रिलोचन
हिंदी के ‘जाहिल, जपाट और उजड्ड’ कवि और कथाकार माने जाते थे । यही अपमान और
बुद्धू का प्रतीक बनने पर उग्र और निराला विद्रोह करते रहे जीवन-भर इस उच्च और
सभ्य वर्ग के प्रति । नागार्जुन लगातार तिलमिला उठते थे, प्रकाशकों, राजनेताओं से
मिले अपमान पर ।
लेखक ने नागार्जुन के 1957 में 6 पत्रों की स्मृति कथा कही है । यह
स्मृति नागार्जुन के बदलाव की भी कथा है । सामूहिक खेती और सामूहिक चेतना का वह
दौर था जिसमें नागार्जुन ने अपनी रचनाकार की भूमिका तैयार की थी । पत्र लिखते समय
जीवन के दूसरे पहलू से नागार्जुन खुला और अन्तरंग संवाद भी करते रहे हैं । इस दौर
की विडंबना भी नागार्जुन की आँख से छिपती नहीं है ।
नागार्जुन की यात्रा एक नितांत परिचित वातावरण से अचानक हमें हमारे
जैसे देश के दूसरे वातावरण से जोड़ देती है ।
नागार्जुन का यह परंपरा से संवाद भी है और उनका मनाधार भी । यहीं
कालिदास, विद्यापति, रविन्द्रनाथ, केदारनाथ अग्रवाल यानी अपने लेखन के दौर से
अलग-अलग ढंग से उनकी विडंबनाओं पर अंतर्मन की कहानी कहते हैं । हजारी प्रसाद
द्विवेदी ने ‘बाणभट्ट’ से और ‘कालिदास’ से ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ और ‘मेघदूत : एक
कहानी’ में इसी ज़मीन पर अंतर्मन की कहानी लिखी थी । नागार्जुन के अंतर्मन में
सिर्फ निजी ऊहा-पोह का व्यक्तिवादी कथानक- अज्ञेय, जैनेन्द्र, मोहन राकेश जैसा
बहुत कम मिलेगा । लेखक को बाबा पत्र लिखते हैं जिनमें वे लेखक के बारे में कहते
हैं कि लेखक के जीवन में नाटकीय परिवर्तन आनेवाला है । और दूसरी यह है कि यह
समानधर्मा मित्र की-भवभूति की तरह-तलाश करते हैं और चारों ओर की गिरावट, समझौता,
ललित लोकायतन का नज़ारा देखकर स्वीकार भी करते हैं ‘बाहर कोई नहीं नज़र आता जिसका
अनुशासन मैं मान सकूँ ।’[iv]
नागार्जुन के जीवन में निर्वासन का लम्बा सिलसिला श्रीलंका से शुरू
होता है । 1943 में लिखी थी कविता निर्वासन काल में नागार्जुन ने : “घोर निर्जन में परिस्थिति ने दिया है डाल, याद आता
तुम्हारा सिंदूर तिलकित भाल ।”[v]
नागार्जुन सचेतन कवि हैं । “सामाजिक और राजनीतिक चेतना को लेखक की
पहली शर्त मानते हुए ब्रेख्त ने मार्क्सवाद के द्वंदात्मक सिद्धांत को कविता में
कायम रखा । व्यक्ति और समूह के बीच के वास्तविक तनावों को मजबूती से पकड़ते हुए
उन्होंने खासकर छोटी कविताएँ ज्यादा लिखी । शब्दों की भरमार से कविता को बनाया और
भाषा के सजीले कपड़ों को उतारते हुए नंगी और ठिठुरती हुई भाषा को समाज के निचले
वर्गों तक पहुँचाया जहाँ यह म्यान रहित भाषा कविता को हथियार की शक्ल दे सकी ।”[vi]
इतिहास की ओर जाते हुए लेखक ने यात्री और नागार्जुन और वैद्यनाथ
मिश्र, यानी एक आदमी के तीन अलग-अलग कद और रूप एक-दूसरे की जैसे तलाशी ले रहे थे ।
वैद्यनाथ मिश्र के मन में मैथिल-संस्कार थे जो तरौनी गाँव के मैथिल समाज का
संस्कार था जो उनके स्वभाव में अन्तर्निहित था । जिस प्रकार वैद्यनाथ मिश्र के
संस्कार उनके मैथिल समाज में थे वहीं दूसरी तरफ यात्री राहुल सांकृत्यायन के साथ
तिब्बत की यात्रा में रहे हैं और पालि भाषा के जानकार की हैसियत से श्रीलंका में
भी बौद्ध विहारों में और विद्यालयों में घूमे हैं ।
नागार्जुन समाजवादी आंदोलन में जेल काट चुके हैं । नागार्जुन गाँव के
किसानों की आगुवाई कर चुके हैं । खद्दर की मोटी पोशाक, मोटा दाना-पानी और न टूटने
वाला सजीव संघर्ष । यह समय राष्ट्रीय आंदोलन का था । नागार्जुन कम्युनिस्ट हो चुके
थे और उनकी कविताओं में व्यंग्य तीखा हो रहा था । और फिर देश की स्वाधीनता के बाद
के पचास वर्षों में नागार्जुन एक ऐसे लेखक रहे हैं जिनसे मिलने से मंत्री, नेता
तथा बुद्धिजीवी डरते थे । नागार्जुन
व्यंग्य विनोद के बावजूद अपने भीतर एक करुण, मर्माहत आदमी है, जो ‘जन-जन के जीवन
में साहस’ पैदा करना चाहता है ।
कला और जीवन को अलग-अलग खातों में बाँटकर जो आलोचक बंदरबाँट की सीख
देते हैं, वह अक्सर रतिनाथ की चाची का लांछित जीवन, उनके प्रति घृणित कुचेष्टाएँ
और उसकी अदम्य साहसिक आत्मीयता के सन्दर्भ में इस पूरे मैथिल प्रदेश की संस्कृति
को पहचान नहीं पाए हैं । नागार्जुन के उपन्यास अतीव रोचक होते हैं । उनमें
सांस्कृतिक तनाव का अहसास पाठक के मन में बना रहता है । उनके प्रतीक आँचलिक
संस्कृति से भरे पूरे होते हैं ।
लेखक ने नागार्जुन की भाषा को भी स्पष्ट किया है । वे मानते हैं कि
उनके व्यक्तित्व की तरह सीधी, चुटीली और बेलाग है उनकी भाषा । उनकी भाषा के
संस्कार मैथिल समाज की किसी आतंरिक संगती की याद दिला देते हैं ।
पुस्तक के दूसरे खण्ड में बाबा की पक्षधर कविताओं को केंद्र में रखा
गया हैं । वह कई अंतर्धाराओं के परस्पर घात-प्रतिघातों को झेलती हुई कभी तेजी से
तो कभी मंद गति से संवेदनाओं और संस्कारों को अर्थ देती हैं । विष्णु जी ने उनके
काव्य-संसार पर वैज्ञानिक सोच, इतिहास और काल-बोध तथा संरचना की दृष्टि से मौलिक
चिंतन किया है । बाबा के बहाने यह जिरह ब्रेख्त, मुक्तिबोध और समकालीन कविता
परिदृश्य को भी साफ करने का कार्य करती हैं ।
नागार्जुन उपन्यास और कविता में एक ही जमीन पर खड़े नज़र आते हैं । वह
ज़मीन है “अपने समय के यथार्थ से साक्षात्कार की ज़मीन ।”[vii]
यथार्थ से साक्षात्कार करने की नागार्जुन की कसौटी के दो आधार रहे हैं : एक वाम
दलों का विभाजन और मार्क्सवाद का जनाधार । दूसरा : किसान कवि कुटुंब का कवि होता
है ।
‘रेणु’ के बाद ‘महाजनी सभ्यता’ के व्यामोह से लगातार संघर्ष करते रहे
श्रीलाल शुक्ल । ‘रागदरबारी’ से ‘विश्रामपुर का संत’ तक वह अपने उपन्यासों में
सामंती मानसिकता से ही लड़ते रहे । नागार्जुन ने बार-बार वाम दलों के भटकाव के बीच
अपनी पक्षधर भूमिका तैयार की थी । नागार्जुन ‘क्षुब्ध-मथित’ कवि और कथाकार हैं ।
उन्हें कोसने वाले डॉ. बच्चन सिंह (आलोचना), डॉ. विजयमोहन सिंह (हंस) जैसे आलोचक
भी समझ नहीं सके ।
नागार्जुन ठेठ किसान हैं । किसान-पुत्र नागार्जुन में जितना साम्यवाद
का सारतत्व है उतना ही वहाँ किसान का ‘पैथास’ भी मिलता हैं । यह पीड़ा-दर्दी-किसान ‘रेणु’
में भी लयबद्ध हैं । प्रेमचंद में वहीं किसान बेचैन दार्शनिक है । नागार्जुन अपने
भीतर झाँककर जब हँसते हैं तो वहाँ जनवादी किसान के ‘लोअर डेप्थ’ का गहरा अनुभव नज़र
आता है । अपने किसान-पत्र के अनुभव पर जब नागार्जुन सोचते हैं तो वह कहीं दार्शनिक
लगते हैं और वहीं बेचैन क्रांतिकारी ।
नागार्जुन और मुक्तिबोध का अंतर्मन, आलोचकों की सीमा की गहराई से जाना
जा सकता है । नागार्जुन अपने स्वभाव-सी खरी जनवादी कविता लिखकर वही यांत्रिक
आलोचकों को रोकते हैं । “कविता की ऐसी व्याख्या करोगे तो कवि और जनवादी कविता का
दम ही घुट जाएगा ।”[viii]
विष्णुचंद्र शर्मा ने नागार्जुन की भाषा
की टिप्पणी दी है । उन्होंने जब नागार्जुन से पूछा : “‘बाबा कविता की भाषा क्या
होती है ?’ वे हँसे । कहा- ‘वाक्यों या शब्दों का समूह नहीं होती भाषा । जीवन का
समूह ज़रूर भाषा को कह सकते हैं ।”[ix]
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कबीर की भाषा को ‘सधुक्कड़ी’ भाषा कहा है ।
डॉ. रामविलास शर्मा, कबीर की भाषा को दस्तकारों की भाषा मानते हैं । वैसे हिंदी के
कम कवि है, जो कबीर की भाषा में गलती पकड़ सकते हैं । कविता की भाषा में सादगी होती
है । ‘राम की शक्तिपूजा’ के निराला, ‘नए पत्ते’ में भाषा के विकास के माध्यम से
जीवन के विकास के लिए ही लड़ते रहे । कवि की लड़ाई उसे अनवरत एक साँचा बनाना और उसे
तोड़ना सिखाती है । दूसरी तरफ मुक्तिबोध की भाषा हिंदी को बड़ा फलक देती है । वह एक
ही कविता में, पिकासो की बड़ी पेंटिंग और ब्रेख्त के नाटक पर एक साथ काम करते हैं ।
एक ही कविता में वह पत्रकार, कलाकार, कवि, क्रांतिकारी, दार्शनिक, वैज्ञानिक का
विशाल फलक रचते हैं । कविता की एक नई भाषा फंतासी में वह आजन्म विचरण करते हुए, यथार्थ
को ‘पुनर्नवा’ करते हैं । यह हिंदी को दुनिया की भाषा मुक्तिबोध ने दी ।
अज्ञेय संपन्न घुमक्कड़ थे और राहुलजी भी घूमना पसंद करते थे । अज्ञेय
की कविता में, जनता के अनुभव के शब्द नहीं आते, जबकि जन आन्दोलनों में हिस्सा लेकर
नागार्जुन ‘कविता की भाषा’ को आंदोलन का
हिस्सा बनाते हैं ।
नागार्जुन एक मार्क्सवादी लेखक हैं, वे पहले अपनी खरी समीक्षा करते
हैं, फिर समाज की बाहरी भूल, गलती का कच्चा चिट्ठा खोलते हैं । नागार्जुन के कई
रूप हैं । ‘राजनीतिक पत्रकारिता के स्तर पर क्रांतिकारी जोश उभारनेवाले ओजस्वी
वक्ता नागार्जुन ! जातीय हिंदी कविता का नया यथार्थवादी नागार्जुन ! सर्वहारा वर्ग
के अद्भुत आत्मीयता-भरे अभिभावक नागार्जुन ।
इस पुस्तक में लेखक ने नागार्जुन, मुक्तिबोध, रामविलास शर्मा जैसे
लेखकों की तुलना उनके लेख द्वारा की है । नागार्जुन और मुक्तिबोध पुरानी पद्धतियों
को छोड़कर और इतिहास दृष्टि में मुक्ति पाकर भिन्न तरीका अपनाते हैं । लेखक ने
समसामयिक कविता का वर्ग-आधार में कई लेखकों को अपने विषय का आधार माना । ब्रिटिश
दरबार के बाहर थे प्रेमचंद । प्रेमचंद के वर्ग-संघर्ष की कसौटी थी घृणा । यह सामंत
वर्ग और साम्राज्यवाद से घृणा की कसौटी, हमारी आजादी की कसौटी रही थी । यानी जनता
के अपने वर्ग-संघर्ष से प्रेमचंद ने जनवादी मिज़ाज का लेखन रचा था । प्रेमचंद और
निराला ने हिंदी की प्रगतिशील चेतना को दरबार से बाहर निकाला था । निराला के बाद
की प्रगतिशील कविता की विधा आज भी है । शमशेर में लोक-चेतना की इच्छा, मुक्तिबोध
में इतिहास दर्शन का ज्ञान और नागार्जुन में क्रांतिकारी भारत की कर्मशीलता हैं ।
आखिरी पाठ में विष्णुचंद्र ने नागार्जुन
के सौन्दर्य बोध को उल्लेखित किया है । वे कहते हैं कि नागार्जुन का मन ऐसे चालू
साहित्यकारों के साथ नहीं मिलता था । वह प्रकाशकों, सरकारों और सेठों के दलाल
गोत्र के साहित्यकारों से बराबर दूर रहते थे । वह पटना, दिल्ली, भोपाल और लखनऊ में
चौकन्नी आँखों से उच्चपदस्थ ऑफिसरों की हरकते देखते थे, और दलाल गोत्र के
साहित्यकारों से उनका फर्क भी बताते चलते थे । नागार्जुन की स्मृति और सौंदर्य बोध
में उनका विवेक दिखाई देता है ।
“‘टुकड़े-टुकड़े दास्तान’ सुनाती हुई नागार्जुन की कविता ही है उनकी
आत्मकथा ।”[x]
नागार्जुन का कवि कर्म स्वाभिमानी कवि का कवि-कर्म है । नागार्जुन,
भारतेंदु मंडल के पत्रकार कवि थे इसलिए जब सोवियत संघ, उनके जीवन काल में ही बिखर
गया । नागार्जुन की निगाह मिथला, अवधी, भोजपुरी जनता पर दृढ़ता से टिकी रही । उनके
सपने में सोवियत संघ का जनपक्ष का सौंदर्य था, जीवन में वह अपनी जनता के प्रति
पक्षधरता के प्रतिबद्ध कवि थे । वे हजारीप्रसाद द्विवेदी के पड़ोसी कवि माने जाते
हैं । दोनों ‘संस्कृति की पावनता’ के हिमायती रहे । यह तर्क पद्धति नागार्जुन ने
अपने सौंदर्य बोध को समझाने में बार-बार इस्तेमाल की है । यह सौंदर्य उनके ही
मूल्यों और प्रेम का अर्थ खोलते हुए सर्वहारा संस्कृति के लोक दृश्य में परिभाषित
होता है । ‘संस्कृति के पावनतम’ मूल्यों को वे परंपरा में खोजते हैं और वर्तमान की
विडंबना में उसे बचाते चलते हैं ।
विशेषताएँ : इस पुस्तक में
विष्णुचंद्र ने नागार्जुन से अपनी निकटता उनके द्वारा लिखे पत्र का विस्तृत विवेचन
करते हैं । पुस्तक के दो खण्ड हैं जिसमें पहले खण्ड में पत्र और संस्मरण हैं और
दूसरे खण्ड में नागार्जुन के काव्य संसार और वैज्ञानिक दृष्टि से चिंतन किया है ।
इसी बहाने यह जिरह ब्रेख्त, मुक्तिबोध और समकालीन कविता परिदृश्य को भी साफ करने
का कार्य करती है । बाबा नागार्जुन के काव्य के विमर्शों पर अब तक की यह पुस्तक
भिन्न और मुख्य है ।
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