‘संवेदन’ के स्थायी स्तम्भ ‘समकालीन कविता परिदृश्य’, ‘समकालीन कहानी परिदृश्य’, 'कविता चित्र/रेखांकन' तथा ‘विधा-विविधा’ के लिए लेखक/कवि अपनी स्तरीय रचनाएँ ईमेल पता sahitya_sadan@rediffmail.com पर भेज सकते हैं, साथ में अपना छायाचित्र व संक्षिप्त परिचय भी अवश्य दें | आगे ‘संवेदन’ नाम से एक वार्षिक पत्रिका लाने का विचार है जिसमें इन स्तंभों के अंतर्गत प्रकाशित रचनाएँ प्रकाशित की जाएँगी...
Wednesday, 19 February 2014
संवेदन
‘संवेदन’ के स्थायी स्तम्भ ‘समकालीन कविता परिदृश्य’, ‘समकालीन कहानी परिदृश्य’, 'कविता चित्र/रेखांकन' तथा ‘विधा-विविधा’ के लिए लेखक/कवि अपनी स्तरीय रचनाएँ ईमेल पता sahitya_sadan@rediffmail.com पर भेज सकते हैं, साथ में अपना छायाचित्र व संक्षिप्त परिचय भी अवश्य दें | आगे ‘संवेदन’ नाम से एक वार्षिक पत्रिका लाने का विचार है जिसमें इन स्तंभों के अंतर्गत प्रकाशित रचनाएँ प्रकाशित की जाएँगी...
Friday, 14 February 2014
ढाई आखर प्रेम का
ब्रह्म, माया और जीव के बाद ‘प्रेम’ शब्द मुझे सर्वाधिक रहस्यमय लगता
है | मेरी धारणा और प्रबल हो जाती है जब मैं महात्मा कबीर की इन दो पंक्तियों की
भावभूमि में प्रवेश करने का प्रयत्न करता हूँ और आश्चर्यचकित रह जाता हूँ कि काशी
के इस तत्वदृष्टा ने कितनी सहजता के साथ वेदांत दर्शन एवं अपने अनुभूतिजन्य सत्य
के निचोड़ को हमारे समक्ष सूत्र रूप में रख दिया है | पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-
पोथी पढ़ी पढ़ी जग मुआ पंडित भया न कोय |
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय ||
यद्यपि इन रहस्यमयी पंक्तियों के सांकेतिक तत्व का निरूपण वृहद् विषय
है तथापि मैं यहाँ सूत्र रूप में इतना कहना चाहता हूँ कि कबीर के पांडित्य का आधार
यह रहस्यमय ‘प्रेम’ जब तक प्रकृति के सायुज्य में रहता है तब तक इसका स्वरुप द्वैत
अभाषित रहता है परन्तु पुरुष से जुड़ते ही यह भक्ति में परिवर्तित हो अद्वैत की
दिव्य स्थिति को प्राप्त कर शांत हो जाता है |
‘गावत बेद पुरान अष्ट दस | छओ सास्त्र सब ग्रंथन को रस ||’
श्रीमद् गोस्वामी तुलसीदास जी विरचित श्रीरामचरितमानस यद्यपि माया को
द्वैत का कारण बताते हुए उसका रूप ‘मैं अरु मोर तोर ते माया’ तथा विस्तार ‘गोगोचर
जहँ लगि मन जाई | तहँ लगि माया जानहु भाई ||’ इंगित करता है परन्तु तत्व की बात
उसके अद्वैत स्वरुप का संकेत ‘कहियत भिन्न न भिन्न’ के माध्यम से देते हुए स्पष्ट
करता है कि- “श्रुति सेतु पालक राम तुम जगदीश माया जानकी | जो सृजति जगु पालति
हरती रुख पाइ कृपा निधान की ||” श्री मार्कंडेय पुराण का अंश श्री दुर्गासप्तशती
के ‘सप्तश्लोकी दुर्गा’ का प्रथम मन्त्र भी कुछ इसी प्रकार का संकेत करता है |
मन्त्र दृष्टव्य है- ‘ॐ ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हिसा | बलादाकृष्य मोहाय
महामाया प्रयच्छति ||”
तत्वार्थ यह कि माया का मूल स्वरुप देवी भगवती के रूप में भगवान् के
साथ अद्वैत का ही है | उसका लोकलुभावन परिधान ‘मैं अरु मोर तोर ते’ रूप में अशांत
द्वैत स्वरुप को भाषित करता है |
तत्वदृष्टा कबीर का ‘ढाई आखर’ जब जीव में भक्ति का दिव्य स्वरुप ग्रहण
करता है तब निष्कपट निर्मल मन सम्पूर्ण समर्पण के साथ ब्रह्म में विलीन हो अद्वैत
रूप में अवस्थित हो शांत हो जाता है | प्रेम का यही दिव्य स्वरुप भक्ति ज्ञान का
मूल और कबीर का पांडित्य है और यही आत्मबोध है |
‘जग शिवत्व से भर दे’ काव्यकृति में मैंने इस तत्वज्ञान को आत्मसात
करने का प्रयास निम्नलिखित पंक्तियों के माध्यम से किया है-
ज्योंहि मुझको ज्ञान हो गया...
मैं अपूर्ण हूँ याकि पूर्ण हूँ,
पञ्च तत्व का चेतन यौगिक
विच्छेदित कर ज्ञान चक्षु से,
ज्योंहि किया अलौकिक, लौकिक
माया की काया का न्यारा,
तार तार परिधान हो गया
ज्योंहि..........................
एक साथ ही दसों द्वार पर,
धूं-धूं कर जल उठीं चिताएं
क्षण भर में ही भस्म हो गईं
धर्म-कर्म की परिभाषाएं
कोलाहल थम गया स्वयं,
औ’ ह्रदय शांति का धाम हो गया |
ज्योंहि........................
कबीर के पांडित्य और चेतना के आनंदमय कोष की परिधि के विषय ज्ञान, प्रेम
और भक्ति के अद्वैत स्वरुप के सूक्ष्म निरूपण की इस बाल सुलभ चेष्टा के उपरांत हम
लौकिक जगत में पुनः उतरते हैं |
लौकिक जगत में भी जब तक लेन-देन, हानि-लाभ, गिला-शिकवा आदि सोच में
शेष हैं तब तक तो प्रेम अस्तित्व में आया ही नहीं है | सत्य मानिये तब तक तो
तथाकथित प्यार, व्यापार मात्र है | लौकिक जगत में विशुद्ध प्रेम का मेरी दृष्टि
में सबसे उपयुक्त उदाहरण प्रसव वेदना सहने के उपरांत सधः प्रसूता माँ का छाती से
चिपकाये अपने नवजात शिशु को स्तनपान कराने, ह्रदय दृष्टि तथा रोम रोम से बरसाते उस
प्रेम का है जहाँ न कोई चाह है, न कपट है, न गिला है, न शिकवा है |
प्रेम चाहे जिनके बीच हो जच्चा-बच्चा, पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका,
गुरु-शिष्य, चिड़िया-चुनमुन आदि | वह पैदा ही वहां होगा जहाँ सौदा नहीं होगा | एक
शेर नज़र करना चाहूँगा-
‘अगर करना मुहब्बत तो कभी सौदा नहीं करना
यकीं मानो मुहब्बत में कभी सौदा नहीं होता |’
और मुहब्बत का मर्म समझ में आते ही वफाई-बेवफाई का गिला-शिकवा भी
समाप्त हो जाता है | एक शेर मुलाहिज़ा हो-
‘जानता हूँ लोग उसको बेवफा कहते हैं लेकिन
मैं अगर उसको वही कहने लगूं तो फिर वफ़ा क्या’
लौकिक जगत में भी प्रेम का विस्तार अयं निजः परोवेति...से वसुधैव
कुटुम्बकम यानी व्यष्टि से समष्टि तक होते ही ऋषि के अनुभूति जगत में मन्त्र
गुंजित हो उठता है-
‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वें सन्तु निरामया
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग भवेत् |’
और इसके ऊपर की स्थिति में जब प्रेम अपने दिव्य रूप ‘भक्ति’ के माध्यम
से जीव को ब्रम्ह से जोड़ता है, तब क्या होता है यह उस फक्कड़ मस्त फ़कीर का ‘ढाई आखर’
ही आपको अनुभूति कराये इस कामना के साथ उसे ही दो पंक्तियाँ भावांजलि के रूप में
अर्पित कर रहा हूँ-
“जब से पाया तुझे तभी से हाँ,
खुद को पाया न ढूँढने पर भी !”
-डॉ अनिल मिश्र
Saturday, 1 February 2014
बातचीत
पिछले माह अपने
अगले साहित्यिक कार्यक्रम का आमंत्रण पत्र देने अशोक कुमार पाण्डेय ‘अशोक’ जी के
यहाँ जाना हुआ था | पाण्डेय जी एक प्रखर वक्ता हैं, चिन्तक हैं, कवि हैं, लेखक
हैं, समीक्षक हैं और संपादक है | इन सब भूमिकाओं से इतर वह व्यक्तिगत रूप से बहुत
ही मिलनसार व अच्छे इंसान भी हैं | सचमुच कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनसे एक बार
मिलने के बाद उनसे आप दुबारा मिलना चाहेंगे जबकि कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनसे एक
बार मिलने के बाद दुबारा मिलना शायद आप पसंद न करें | अशोक जी पहले प्रकार के
व्यक्ति हैं | बहुत ही सरल, सज्जन और तड़क-भड़क से दूर लखनऊ में एकदम साधारण रूप से
रहते हैं | खैर चाय-नाश्ते के दरम्यान बातचीत का सिलसिला चल निकला | गीत, नवगीत और
अगीत के सम्बन्ध में मेरी जिज्ञासाओं का उन्होंने समाधान किया | उन्होंने जब अपनी
साहित्यिक यात्रा के कुछ प्रसंग सुनाये तो मैं अभिभूत हो उठा | कुल मिलाकर बहुत
अच्छा लगा और मैंने सोचा कि मैं जल्दी ही उनका परिचय अपने ‘संवेदन’ के पाठकों से
भी करवाऊँ, हाँ यह भी बता दें कि अशोक जी इन्टरनेट का बिलकुल प्रयोग नहीं करते |
इसलिए भी उनका परिचय देना यहाँ पर और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है | साहित्यिक
संस्था ‘निराला साहित्य परिषद्’ द्वारा उन्हें इस वर्ष के ‘निराला सम्मान’ देने की
घोषणा भी हो चुकी है जिसके लिए आगामी 16 फरवरी को उन्हें लखनऊ में ही एक कार्यक्रम
में सम्मानित किया जायेगा | इसके लिए मैं उन्हें ‘संवेदन’ परिवार की तरफ से
बहुत-बहुत बधाई देता हूँ !
‘संवेदन’ और
‘स्पर्श’ के पाठकों के लिए प्रस्तुत है बाद में मेरे द्वारा अशोक जी का लिया
गया विस्तृत साक्षात्कार-
प्रश्न- आपके लेखन
की शुरूआत कब हुई ?
उत्तर- असल में
मेरे पूज्य पिता गोमती प्रसाद पाण्डेय ‘कुमुदेश’ खड़ी बोली के छंदकार थे | यद्यपि उन्होंने गीत भी लिखे | चूँकि प्रारंभ
में घर पर कवि लोग आया करते थे इस लिए घर पर एक साहित्यिक वातावरण मिला | बाहर
कमरे में कवितायेँ/चर्चाएँ हुआ करतीं थीं | उससे प्रेरित होकर धीरे-धीरे लिखना
प्रारंभ किया |
किस व्यक्ति या
स्थिति का प्रभाव आपके लेखन पर सर्वाधिक पड़ा है?
भावात्मक रूप से
संस्कृत के कवियों का प्रभाव जैसे- कालिदास, भवभूति, बाणभट्ट आदि की रचनाएँ अर्थ
सहित पढ़ीं यद्यपि संस्कृत कभी मूल विषय नहीं रहा | आगे चलकर हिंदी के कवि रहीम,
रसखान, तुलसीदास भक्तिकाल के कवि तथा रीतिकाल के कवियों का भी प्रभाव पड़ा | इन सभी
की रचनाओं से मुझे छंदों की कला समझ में आई | छंदों को कुछ इस तरह से लिखना कि वह
मर्म को स्पर्श करे | काव्य के मेरे प्रिय विषय मूलतः प्रकृति चित्रण व भक्ति भाव
ही रहा है | आधुनिक काल में जयशंकर प्रसाद, निराला, महादेवी, मैथिलीशरण गुप्त से
प्रभावित रहा लेकिन मूल रूप से छंदों पर संस्कृत के कवियों का ही प्रभाव रहा,
ग्रहण वहीं से किया |
आपकी पहली रचना
कौन सी थी व कब प्रकाशित हुई ? कैसा अनुभव रहा ?
हालांकि मैंने
लिखना सन 1970 से प्रारंभ कर दिया था लेकिन सर्वप्रथम प्रकाशन का ध्यान करूँ तो
कानपुर से ‘अनुरंजिका’ मासिक पत्रिका निकलती थी, वीरेश कात्यायन के संपादन में
उसमें सन 1971 में छपी | प्रारंभिक अवस्था
के कुछ छंद याद आते हैं कि- ‘दुःख घेरे सदैव रहेंगे नहीं इसमें छिपा सुख अपार भी
है/ यदि कष्ट है दीनता में तो सखे भरा इसमें विश्व का सार भी है/ भय खाओ नहीं भवसागर
में होता सदा उतार भी है/ पतझार है जीवन में अभी तो कभी होली, बसंत बहार भी है |’
प्रारंभिक अवस्था
का एक साधारण सा सवैया छंद था | रचना छपने पर बड़ा उत्साह बढ़ा, प्रसन्नता हुई,
प्रेरणा मिली पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ भेजने की | उस समय लखनऊ में ‘स्वतंत्र
भारत’ पत्र का स्तर होता था, उसमें भी प्रकाशन हुआ |
आप ‘बृज कुमुदेश’ (त्रेमासिक)
पत्रिका कब से निकाल रहे हैं ?
‘ब्रज कुमुदेश’ को
लगभग 16 वर्ष हो गए हैं उससे पहले ‘अंशुमालिनी’ (त्रेमासिक) निकलती थी जोकि 4 साल
चलाने के बाद अर्थाभाव के कारण बंद करनी पड़ी | उसके कुछ समय बाद डॉ वीरांगना रमन
के सहयोग से ‘ब्रज कुमुदेश’ निरंतर प्रकाशित हो रही है | इस पत्रिका पर उ.प्र.
हिंदी संस्थान का ‘सरस्वती पुरस्कार’ भी प्राप्त हो चुका है | पत्रिका में मुख्य
रूप से समकालीन कवियों की रचनाएँ तो छपती ही हैं इसके अतिरिक्त कई स्तम्भ हैं
जैसे- पूर्वजों की लेखनी से, पुस्तक-समीक्षा, साहित्यिक झलकियाँ आदि |
इन दिनों प्रकाशित
हो रही हिंदी पत्र-पत्रिकाओं के विषय में आपकी क्या राय है ?
देखिये स्तरीय और
बड़ी पत्रिकाएं गिने-चुने और नामी लोगों को प्रश्रय देतीं हैं | छोटी पत्रिकाएं इस
दिशा में अच्छा काम कर रहीं हैं मगर उनके पास आर्थिक साधन कम हैं इसलिए उनका
ज्यादा प्रचार-प्रसार नहीं हो पाता | हमारी सरकार को भी इस तरफ थोड़ा ध्यान देना
चाहिए | हमारे गांवों में/ छोटी-छोटी जगहों पर भी लोग अच्छा लिख रहे हैं तो उन्हें
भी प्रोत्साहन देना चाहिए | मैंने अनुभव किया है कि अगर उनका पर्याप्त रूप से
प्रचार-प्रसार हो सके तो उनका क्षेत्र और व्यापक हो सकता है | पत्रिका में यह भी
ध्यान होना चाहिए कि उसकी निष्पक्षता बनी रहे उसमें सिर्फ अपने ही एक सीमित ग्रुप
का प्रस्तुतीकरण न हो |
साहित्य से इतर
आपकी कौन-कौन सी रुचियाँ हैं ?
मूलतः साहित्य
सेवा/ कवियों को खोजकर प्रकाश में लाना / नए लोगों को प्रोत्साहन देना इन्हीं सब
व्यस्तताओं में इतना समय लग जाता है कि अन्य रुचियों के लिए समय ही नहीं मिलता |
या यूँ भी कह लें कि साहित्य से इतर मेरी कोई विशेष रूचि नहीं है |
आपके लेखन एवं
जीवन का क्या उद्देश्य है ?
कवि और साहित्यकार
को भारतीय परम्परा के अनुसार उसे देखें तो बड़े ही प्रतिष्ठित दृष्टि से समाज देखता
आया है | ‘कविवर मनीषी परिभू स्वयंभू’ कहकर उसकी बड़ी ही प्रतिष्ठा की गयी है |
वास्तव में समाज यह मानता है कि वह आंतरिक रूप से चरित्रवान और शुद्ध व्यक्ति होगा
| कवि की रचनाएँ समरसता लिए हुए होतीं हैं वे निजी सम्बन्ध या निजी सीमाओं में
आबद्ध न होकर व्यापकता में होतीं है | जैसे कि एक सिद्ध संत होता है वैसे ही एक
कवि का जीवन भी होता है | जिस तरह एक सिद्ध संत की वाणी लोकोत्तर आनंद की अनुभूति
कराती हैं ठीक उसी तरह एक कवि का जीवन भी होता है और उसकी रचनाएँ भी सत्यम शिवम्
सुन्दरम की स्थापना करतीं हैं | कविता रस और विचारों से मिलकर के बनती है | सोचें
तो कवि धर्म बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है | प्रत्येक कवि को इसके अनुसार ही चलना चाहिए
| पहले अपने आप को संवारना फिर समाज को अपनी कविता के माध्यम से | बस यही
विचारधारा है हमारी |
एक रचनाकार के मूल्यांकन
में आप पुरस्कारों की क्या भूमिका मानते हैं ?
पुरस्कार तो खैर
प्रोत्साहित तो करते ही हैं लोगों को लेकिन आजकल इनमें निष्पक्षता नहीं हो पाती |
ऐसे ऐसे श्रेष्ठ साहित्यकार पड़े हुए हैं जिन्हें पुरस्कार मिलना चाहिए था लेकिन वे
दंद-फंद में नहीं पड़ पाए और अछूते रह जाते हैं | पहुँच वाले लोग जुगाड़ कोशिश करके
भी पुरस्कार झटक लेते हैं | हालांकि यह बात पूरी तरह से सत्य नहीं है, पुरस्कार
पात्रों को भी मिलता है | लेकिन अधिकतर देखने में आता है कि सही व निष्पक्ष निर्णय
नहीं हो पाता | सही निर्णय के लिए एक निष्पक्ष कमेटी होनी चाहिए जिससे इसमें कुछ
सुधार हो सके | बाकी पुरस्कार तो प्रेरणा देते हैं, इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका तो
है ही |
कविता के बगैर
कैसा लगता है ?
बहुत शून्य लगता
है कविता के बगैर ! कविता तो जैसे जीवन से जुड़ गयी है और जो चीज़ जीवन से जुड़ जाती
है फिर उसके बगैर तो नीरस/ सूनापन ही लगता है |
आपकी पसंदीदा लेखन
विधा कौन सी है ?
मैं अपने को मूलतः
कवि की ही भूमिका में देखता हूँ | मैंने गद्य लेखन में समीक्षाएं लिखीं, कवियों पर
लेख, पुस्तकों की भूमिकाएं, सम सामयिक लेख आदि भी लिखे हैं मगर मुख्य विधा काव्य
रचना की ही रही |
आपके मनपसंद
लेखक/कवि कौन-कौन से हैं ?
मूलतः कालिदास-
संस्कृत के कवियों में | भक्ति काल में गोस्वामी जी, रीतिकाल के पद्माकर | आधुनिक
काल की बात करें तो जयशंकर प्रसाद और हां प्रेमचंद, सरल भाषा में और सरस
अभिव्यक्ति में उनकी टक्कर में और कोई नहीं रहा | इधर अगर देखूं तो गंगारत्न
पाण्डेय जी (गद्य और पद्य दोनों में), वर्तमान के कवि/ लेखकों में मैं सर्वाधिक
उन्हीं से प्रभावित रहा हूँ |
अपने साहित्यिक
जीवन के विकास के सम्बन्ध में कुछ बताइए ?
साहित्यिक जीवन के
विकास में मुख्य कारण अध्ययन रहा, लेखन के उत्तरोत्तर विकास में अध्ययन से
परिपक्वता आयी | मुख्यतः घनाक्षरी छंदों में विकास, कलात्मक छायावादी दृष्टिकोण,
प्रकृति चित्रण, सूक्ष्म अभिव्यक्तियाँ | ज्यादातर लोग उसी के नाम से पहचानते हैं
| अच्छा एक तरफ कविता थी दूसरी तरफ नौकरी भी थी, परिवार भी था | इन सबमें संतुलन स्थापित
करते हुए बस चलता रहा | पारिवारिक सहयोग भी बहुत मिला | अब सेवानिवृत्ति के बाद
साहित्य सेवा में लिए पूरा समय दे रहा हूँ |
मंचीय कविता और
पुस्तकीय कविता को आप किस तरह से देखते हैं ?
बहुत बड़ा अंतर है
| मंच पर अब केवल चुटकुलेबाज़ी होती है | पहले जैसा वातावरण नहीं रह गया है | मंचीय
कविता समय से जुड़ी होती है मगर स्थायी नहीं होती | मंचीय कविता में कवि का स्वर और
प्रस्तुतीकरण भी महत्त्वपूर्ण है | आजकल तो 20 मिनट के काव्यपाठ में 15 मिनट की
फ़ालतू बातें तथा 5 मिनट की कुछ थोड़ी बहुत कविता होती है, जिसमें कोई दम नहीं होता,
वह श्रोता को उस स्तर पर छू नहीं पाती | कार्यक्रम समाप्त होने के बाद लोग उसे भूल
जाते हैं | कविता वही है जो सुनाई जाय तो उसमें सहजता हो, प्रवाह हो, भाषा की
शुद्धता हो, भाव हों उस वक्त कवि के ह्रदय से निकले भाव श्रोता के निजी भाव बन
जाते हैं | इस लिहाज से मंच का स्वरुप विकृत हो चुका है, बहुत बिगड़ गया है |
आपको और कौन-कौन
से पुरस्कार मिले हैं ?
‘आकांक्षा’
साहित्यिक संस्था द्वारा ‘राजकवि प. शिवकुमार पाण्डेय शिव’ सम्मान वर्ष 1995,
‘अनुरंजिका’ कानपुर द्वारा सम्मानित वर्ष 2002, उ.प्र. हिंदी संस्थान द्वारा
‘सरस्वती सम्मान’ वर्ष 2000 (ब्रज कुमुदेश पत्रिका पर), राज्य कर्मचारी साहित्य
संस्थान, उ.प्र. द्वारा ‘साहित्य गौरव’ सम्मान वर्ष 2006, ‘महाकवि रामजीदास कपूर
सम्मान’ वर्ष 2007, अधिवक्ता साहित्य प्रकोष्ठ द्वारा ‘शिखर भारती’ सम्मान वर्ष
2007, राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान, उ.प्र. द्वारा ‘सुमित्रानंदन पन्त सम्मान’
वर्ष 2008, सागर साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थान द्वारा ‘सागरिका सम्मान’ वर्ष
2008, राष्ट्रकवि पं. वंशीधर शुक्ल स्मारक एवं साहित्य प्रकाशन समिति, लखीमपुर
खीरी द्वारा ‘राष्ट्रकवि पं. वंशीधर शुक्ल सम्मान’ वर्ष 2008, कन्हैया लाल प्रयाग
दास स्मारक समिति द्वारा ‘काव्यश्री’ की उपाधि वर्ष 2010, अखिल भारत वैचारिक मंच,
लखनऊ द्वारा सम्मानित वर्ष 2011, मानस मृगेश साहित्य सम्मान वर्ष 2012, सेवढ़ा
जिला-दतिया (म.प्र.), अखिल भारतीय वागीश्वरी साहित्य परिषद् द्वारा ‘वागीश्वरी
सम्मान’ वर्ष 2013, निराला साहित्य परिषद्, महमूदाबाद(अवध), सीतापुर का 2014 का
‘निराला सम्मान’ दिए जाने की घोषणा भी हुई है |
समकालीन साहित्यिक
परिदृश्य पर आपकी क्या राय है ?
कविता का मूलतत्व
रस होता है | नई कविता मस्तिष्क/ सोच से निकलती है जबकि छंदबद्ध कविता ह्रदय से
निकलती है और ह्रदय तक जाती है | मैं नई कविता की आलोचना इसलिए नहीं करता हूँ
क्योंकि युगानुरूप सबकी अपनी अपनी अलग अलग विशेषताएं होतीं हैं जिसे समयानुकूल
लोगों ने परिभाषित भी किया | इन दिनों जिस तरह से नए लोग आगे आ रहे हैं, हिंदी
साहित्य का भविष्य उज्जवल दिखाई देता है | मुझे तो इन्टरनेट वगैरह की ज्यादा
जानकारी नहीं है | अब तो इन्टरनेट पर भी हिंदी छाई हुई है | निश्चित तौर पे इस
सबसे हिंदी साहित्य का प्रचार-प्रसार बढ़ेगा | हाँ मगर वैश्विक मंच पर हिंदी को ले
जाने के लिए हमें हिंदी भाषा के मानक को ध्यान में अवश्य रखना चाहिए, उसमें अन्य
भाषाओं का जबरदस्ती घालमेल न हो | हिंदी की लिपि में और हिंदी में बहुत ही
सामर्थ्य है |
इन दिनों क्या कर
रहे हैं ?
नौकरी से
सेवानिवृत्ति के बाद- पत्रिका को ज्यादा समय मिल रहा है इसके अतिरिक्त पुस्तकों की
भूमिकाएं कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़ाव, कार्यक्रमों में आना जाना आदि मतलब पूरी
तरह से साहित्य सेवा कर रहा हूँ |
युवा पीढ़ी के लिए
कोई सन्देश ?
जब मैंने अपने
काव्य जीवन का प्रारंभ किया था तब मेरे ऐसे लगभग 30 मित्र थे | उन सबमे आज 40 साल
के अंतराल में 5-6 लोग ही हैं जो अभी तक लिख रहे हैं | युवाओं के लिए यही सन्देश
है कि अगर साहित्य का क्षेत्र चुना है तो चाहे जितनी विकट परिस्थिति आये, कलम
छोड़नी नहीं है | आजीवन निर्वहन करना, ये बहुत बड़ी बात है | बहुत लोगों को मैं
देखता हूँ बीच में भाग खड़े होते हैं | भागें नहीं, संकल्प लें | दूसरी बात अध्ययन
भी बहुत मायने रखता है और गुरुजनों का सानिंध्य भी तभी कवि या लेखक उन्मुखी हो
पाता है | जब आप अनेक भाव पढेंगें तो जैसे नहीं कि दो रंग मिलकर के एक तीसरा रंग
तैयार होता है ठीक इसी प्रकार उक्त प्रक्रिया के उपरान्त उसमें से नक़ल नहीं बल्कि
एक नवीन, अछूते और मौलिक भावों का जन्म होता है | तीसरा सन्देश मैं यह देना
चाहूँगा आजकल बहुत लोग जबरदस्ती के कवि बने हुए हैं | जबरदस्ती न लिखें | मानता
हूँ काव्य प्रतिभा ईश्वर प्रदत्त होती है | कविता स्वयं उतरती है और हमेशा से यह
युग रहा है कि अच्छे भी कवि रहे हैं, हल्के भी कवि रहे हैं | इसलिए रचनाओं को
संस्कारित करें, अन्तःप्रेरणा ग्रहण करें फिर परिवेश की संतुलित टकराहट, तमाम भाव,
विद्रुपतायें, विसंगतियां एवं आपका रुझान मिलकर के उस समय जो कुछ भी कोरे कागज़ पर
उतरे, वह कविता होती है | लेकिन सिर्फ इतने से काम नहीं चलेगा यहाँ पर आपको
अभ्यासी होना होगा कहते हैं न करत करत अभ्यास से...उक्त दोनों तरह से | कविता करने
में जीवन की कठिन साधना की आवश्यकता है |
साक्षात्कर्ता-
राहुल देव
संपर्क- 9/48
साहित्य सदन, कोतवाली मार्ग महमूदाबाद (अवध) सीतापुर (उ.प्र.)
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