बीते हुए दिन मस्तीभरी अब वो शमाँ नहीं है पहले जैसी यह जहाँ नहीं है. ग़ुम है मतवाली कोयल की कूक साबुन,पानी,बुलबुले और फूँक . कहाँ है वो फुर्सत के लम्हे! अब रहते है सब सहमे-सहमे आँगन में गौरैया का फुदक-फुदकना बाहर बच्चों का वो कूद-कुदकना राजा-रानी की वो सरस-कहानी इस युग के बच्चों ने कहाँ है जानी ! सरसों के वो पीले फूल दहकते, अब किसी से कुछ क्यूँ नहीं कहते! पेड़ो पर चढ़ना,छुप कर सो जाना तब होती थी ये बातें रोजाना. टायर लुढ़काते जाना विश्व-भ्रमण किस्सों में हरिश्चंद्र और श्रवन. गुड्डे-गुड्डियों की धूमधाम से शादी, टीवी-विडियो ने कबकी बंद करवा दी चंदा मामा दिन में कहाँ है जाते? ऐसे प्रश्न अब कम ही आते. रेडियो के अंदर कौन बोल रहा है? अँधेरे में डाली पर कौन डोल रहा है? लंगड़ी मैना की ऐसी चाल है क्यूँ? बंदर के पीछे आखिर लाल है क्यूँ? पेड़ो के पत्तों की वो सरसराहट अँधेरे में अनजानी कोई आहट. बांस-खोपचे के बने वो 'मवनी मवनी भर 'लाइ',एक चवन्नी. अलकतरे के बने,बिकते वो लट्टू मरते थे जिसपर बब्बन और बिट्टू. चने के भूंजे, सोंधी मकई के लावा अब तो मैग्गी,चाऊ पे धावा पेड़ों पर सर्र से चढ़ती गिलहरियाँ नील गगन में वगुलों की लड़ियाँ ऊंचे पेड़ों पर आकर बैठा तोता देख-देख मन कितना खुश होता! गूंजती चैती,बिरहा और फाग देसी घी की लिट्टी, चने की साग . भोरे-भोरे जाना गंगा-स्नान खेतो में पुतले और मचान जान-बुझकर बारिश में भींगना फिर डर के मारे धीरे से छींकना लकड़-सुंघवा का डर ,लकड़ी सुंघाना दिन में ना सोने का तरह-तरह बहाना . जाड़े में सब बैठते अलाव को घेरे कैसे-कैसे गप्प,किस्से बहुतेरे . आसमान में है कितने तारे ,अब गिनते-गिनते परेशां बच्चे सारे. क्या कभी नहीं बोलते मौनी बाबा? कहां है काशी ?कहां है काबा? क्या नाक रगडने से मिलते भगवान्? नाक हुई लहू-लुहान ,अरे नादाँ! दोने में जलेबी, उसपर गिद्ध-झपटना पानी-जहाज से जाना पटना . दूध आता धाना-फुआ के घर से उनके बिना सब दूध को तरसे घर में बाबूजी की ग़ज़ब डिसिप्लिन कोई काम पूरी होती ना माँ बिन हर संकट-मोचक के रूप में माँ अब कोई इस जग में कहाँ ! .. |
Saturday, 14 April 2012
Friday, 13 April 2012
1 एक मामूली आदमी. न मालूम कहाँ से जुटा रखता है सम्बल तमाम विपरीत हालात में जिन्दा रह पाता है. एक मामूली आदमी लड़ता है हर दिन छोटी छोटी लड़ाईयां. करता है मुठभेड़ राशन और सब्जी की पेट्रोल और किराये बढ़ती कीमत से. रिजर्वेशन के लिये लाइन गैस की काला बाजारी बच्चों के एडमीशन और बुजुर्गों की दवाईयों के लिये. देखता है छोटे छोटे सपने अक्सर टूटने के लिये. काँच की तरह चटख जाने के लिये. बालू के घरोन्दों की तरह बिखर जाने के लिये. ताश के पत्तों की तरह ढह जाने के लिये. फिर भी थमता नहीं है वह सच तो यह है कि उम्मीद ही जिलाये रखती है उसे एक न एक दिन सपनों के पूरा होने की. एक मामूली आदमी सुनता है महान और दिव्य लोगों के प्रवचन. सफल, समृद्ध और यशस्वियों से गुरुमंत्र. उसे दिये जाते हैं हर दिन नये उदाहरण अनुकरण के लिये प्रेरक प्रसंग. जनतंत्र का आधार स्तम्भ भी वही है. संस्कारों, परम्पराओं और नियम विधानों को ढोता पीढ़ी दर पीढ़ी पुल भी वही है. यह मामूली आदमी तंगी, बदनसीबी, बीमारी और हालात की मजबूरी के बावजूद मना ही लेता है पर्व और उत्सव. गुनगुना लेता है खास मौसम में. दोस्तों के साथ लगा लेता है ठहाके छोटी छोटी खुशियों पर तमाम उम्र घर, बाहर, दफ्तर, समाज की तमाम जिम्मेदारियां बिना शोर निभाते हुए चुपचाप एक दिन मामूली मौत मर जाता है एक मामूली आदमी. 2. ना तो मेरे मुंह में राम है और न ही बगल में छुरी न कोई दिव्यत्व, आत्मबोध चरम उत्कर्ष, परमानन्द और न ही वंचना, खलबली आत्मघात और धिक्कार है. किसी भी आका के वरद हस्त के बगैर. हाशिये पर जीये जा रही एक मामूली, औसत, महत्वहीन सी जिन्दगी है. अपनी छोटी छोटी शर्तो, सीमाओं थोडे आंसू और थोडी खुशियों के साथ. हकीकत की जमीन और उपलब्धियों के आसमान के बीच उड़ान भरने के लिये मेरे साथ है तो केवल अपने संकल्पों आशा-आकांक्षाओं महत्वाकांक्षाओं और स्वप्नों के पंख जिन्हें एक साथ सहना है हवा के घर्षण धरती के गुरुत्वाकर्षण अपकेन्द्र बल के अलावा मौसम की अनिश्चितता दिशा की अज्ञानता गति की सीमितता भूख, थकान बीमारी की चुनौतियां. किसी प्रायोजित यान में बैठकर बेशक आसान है इन अधकचरी कोशिशों का उपहास सुरक्षा और सुविधाओं का गुमान एक तयशुदा पथ और दूरी का आश्वासन. बशर्तें कि उस प्रायोजक का नाम और लेबल बन जाये अपना समूचा वजूद उसके स्वार्थ, प्रतिस्पर्धा और मानदंड निर्धारित करने लगे अपनी भी प्रतिबद्धताएं पैकेज में सिमटी विज्ञापित मुद्राएं अपने ही सामर्थ्य पर प्रश्न करने लगे कहने लगे ये वैसाखियां अपने पैरों से ज्यादा विश्वसनीय है. 3 प्रायोजित जनतंत्र में शहंशाह कुछ ज्यादा ही ऊँचा सुनने लगे है अब बमुश्किल ही पहुँच पाती है उन तक दिशाओं को थर्राने वाले धमाकों की आवाज भूख और बीमारी की कराहें आत्महत्याओं की सिसकियां. हत्या, आगजनी और बलात्कार से दहलती चीखें दीवारों से ही परावर्तित हो कर लौट आती है उनकी विश्रांति और जश्नों के दौर में व्यवधान नहीं डालती. यूँ तो राजमहल के ठीक सामने टांगी गयी है घंटी किसी भी वक्त किसी भी फरियाद के लिये मगर सुना है उसे छूने से पहले ही मुस्तैद पहरियों द्वारा हाथ काट दिये जाते हैं अक्सर तो लोग वहाँ पहुँचने से पहले ही मुठभेड़ में ढेर हो जाते हैं. शहंशाह की न्याय प्रियता में कमी नहीं आती. किसी खास मौसम में निकल पड़ते हैं वे अपने कारवां के साथ झोपड़ पट्टी में बच्चों को प्यार से दुलारते नमक रोटी का स्वाद चखते सभी चैनल्स पर दिखते हैं. जमीनी हकीकत समझने राहगीरों से बात करते हैं. किसी खास अवसर पर प्रायोजित तरीके से घंटी की आवाज पहुँचती है उनके शयन कक्ष में फरियाद पहुँचती है उन तक और शहंशाह को बेचैन बदहवास गुस्से में तो कभी नम आंखों के साथ देखा जाता है. गरजते हैं दरबारियों पर मंत्रियों पर आदेशों की गर्जना करते हैं माफी मांगते मुआवजे की घोषणा करते हैं त्वरित न्याय का आश्वासन देते जाँच कमेटी बैठाते हैं. शहंशाह के मुकुट में कुछ और नये रत्न जगमगाते हैं. अब काफी लंबे वक्त चलने वाला खामोशी का दौर आरम्भ हो चुका है. --- |
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