Friday 1 April 2016

तीन कवि : तीन कविताएँ – 20


कवि की अकड़ / कुमार अम्बुज 

अपनी राह चलनेवाले कुछ कवियों के बारे में सोचते हुए

यों तो हर हाल में ही 
कवियों को जिंदा मारने की परंपरा है
हाथी तक से कुचलवाने की निर्दयता है
और समकाल में तो यह कहकर भी कि क्या पता वह जिंदा है भी या नहीं
खबर नहीं मिली कई महीनों से और मोबाइल भी है 'नॉट रीचेबल'
किसी कार्यक्रम में वह दिखता नहीं और दिख जाए तो
अचानक बीच में ही हो जाता है गायब
जब वह खुद ही रहना चाहता है मरा हुआ
तो कोई दूसरा उसे कैसे रख सकता है जीवित

और वह है कि हर किसी विषय पर लिखता है कविता
हर चीज को बदल देना चाहता है प्रतिरोध में
और कहता है यही है हमारे समय का सच्चा विलाप
वह विलाप को कहता है यथार्थ
वह इतिहास लिखता है, भविष्य लिखता है और कहता है वर्तमान
वह लिंक रोड पर भी फुटपाथ पर नहीं चलता
और हाशिये पर भी चलता है तो ऐसे जैसे चल रहा हो केंद्र में
कि हम आईएएस या एसपी या गुण्डे की
और पार्टी जिलाध्यक्ष और रिपोर्टर की अकड़ सहन करते ही आए हैं
लेकिन एक कवि की अकड़ की आदत रही नहीं
और फिर क्यों करें उसे बर्दाश्त
क्या मिलेगा या उससे क्या होगा बिगाड़

और वह कभी लिखने लगता है कहानी कभी उपन्यास
फिर अचानक निबंध या कुछ डायरीनुमा
कभी पाया जाता है कलादीर्घाओं में, भटकता है गलियों में
और न जाने कहाँ से क्या कमाता है जबकि करता कुछ नहीं
किसी से माँगता भी नहीं
इसी से संदिग्ध है वह और उसका रोजगार
संदिग्ध नहीं है सेबी और शेयर बाजार
संदिग्ध नहीं बिल्डर, विधायक और ठेकेदार
संदिग्ध नहीं मालिक, संपादक और पत्रकार
संदिग्ध नहीं आलोचक, निर्णायक और पुरस्कार
संदिग्ध नहीं पटवारी, न्यायाधीश और थानेदार
संदिग्ध नहीं कार्पोरेट, प्रमुख सचिव और सरकार
संदिग्ध है बस कवि की ठसक और उसका कविता-संसार

जबकि एक वही है जो इस वक्त में भी अकड़ रहा है 
जब चुम्मियों की तरह दिए जा रहे हैं पुरस्कार
जैसे देती हैं अकादेमियाँ और पिताओं के स्मृति-न्यास नाना-प्रकार
जैसे देते हैं वे लोग जिनका कविता से न कोई लेना-देना न कोई प्यार
तो परिषदों, संयोजकों, जलसाघरों के नहीं है कोई नियम
और मुसीबजदा होते जाते कवियों का भी नहीं कोई नियम
लेकिन वही है जो कहता है कि आपके देने के हैं कुछ नियम
तो जनाब, मेरे लेने के भी हैं कुछ नियम

वह ऐसे वक्त में अकड़ में रहता है जब चाहते हैं सब
कि कवि चुपचाप लिखे कविता और रिरियाये
          
जहाँ बुलाया जाये वहाँ तपाक से पहुँच जाये
न किराया माँगे, न भत्ता, न रॉयल्टी, न सवाल उठाये
बस सौ-डेढ़ सौ एमएल में दोहरा हो जाये
वह दुनिया भर से करे सवाल
लेकिन अपनी बिरादरी में उसकी ताकत कम हो जाये

आखिर में कहना चाहता हूँ कि यदि उसकी कविता में
हम सबकी कविता मिलाने से कुछ बेहतरी हो तो मिला दी जाये
यदि बदतरी होती हो तो हम सबकी कविता मिटा दी जाये
लेकिन एक कवि की ठसक को रहने दिया जाये
कि वही तो है जो बिलकुल ठीक अकड़ता है
कि वही तो है जिसके पास कोई अध्यादेश लाने की ताकत नहीं
कोई वर्दी या कुर्सी नहीं और मौके-बेमौके के लिए लाठी तक नहीं
फिर भी एक वही तो है जो बता रहा है
                
कि अकडऩा चाहिए कवियों को भी
इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि वह 
कविता की बची-खुची अकड़ है
जीवन पर निर्बल की सच्ची पकड़ है।

बदबू / शरद कोकास 

इसे सहज स्वभाव कहें या अज्ञान
बदबू की ज़िम्मेदारी हवाओं पर डालकर हम मुक्त
नाक अपनी जगह सही-सलामत
अपनी ख़ुशख़याली में महफ़ूज वह जगह
उठ रही है जहाँ से बदबू जमाने भर की

चलें विषय के बूचड़खाने में
सभ्यता का रूमाल नाक पर रख लें
जुगुप्सा को कविता का स्थायी भाव मान लें
अतीत को याद करें उपलब्ध हवाओं में
जिनमें शामिल बदबू महसूस की थी हमने

कभी किसी सड़ी-गली लाश से दूर चंद कदम
किसी गंदे नाले पर बना पुल पार करते हुए
चित्र की जगह कूड़े का ढेर रू-ब-रू देखकर
रेल के महानगर में प्रवेश करते हुए

नाक पर जीभ की विजय के चलते
मटन-मछली बाजार में
किसी सार्वजनिक शौचालय के आसपास
अपने घर में मरा चूहा ढूँढते हुए

या उत्कट प्रेम के मशविरे पर
पायरिया से ग्रसित दाँतों भरा
प्रेमिका का मुँह चूमते हुए

क्षमा करें प्रसंगों के बखान में निहित उद्देश्य
सोई हुई खराब अनुभूतियाँ जगाना नहीं है
इसकी व्यंजना में शामिल है समय सापेक्ष जीवन
बदबू के स्थूल अर्थ से परे

पूजाघर की खुशबुओं के बीच उपस्थित है जो
जिसमें अगरबत्ती फूल माला और इत्र बनाने वाले
मज़दूरों के पसीने में महकती इच्छाएँ
हमारी जीभ के सुख के लिए
जानवरों पर छुरी चलाते कसाई की भूख
हमारे दैहिक सौंदर्य के लिए
मरे जानवरों के जिस्म से खाल उतारते

भाइयों की जिजीविषा
चलिये कवि के यह सब रूपक
दिल पर मत लीजिये
बदबू भरी व्यवस्था, बदबू भरी राजनीति जैसे
साहित्यिक शब्दों की जुगाली कीजिये

परफ्यूम लगा रूमाल नाक पर रखिये
और यहीं कविता पढ़ना बंद कर दीजिये
फिर सोचिये ऐसे लोगों के बारे में
जिनके हर कृत्य में किसी साजिश की बू है
जो किसी सोच के तहत कह रहे हैं
कि ज्यादा बदबू वाली जगह से
कम बदबू वाली जगह पर जाने में
बदबू महसूस ही नहीं होती

ढूँढिए ऐसे लोगों को जो कह रहे हैं
बदबू सहन करते रहो
धीरे-धीरे इसकी आदत पड़ जाएगी
पहचानिये ऐसे लोगों को जिनका कहना है
अब बदबू कहाँ अब तो खुशबू ही खुशबू है
सो खुश रहो और खुशबू महसूस करो

यह वे लोग हैं जिनके निजी शब्दकोश में
बदबू जैसा कोई शब्द नहीं है
हमारे जीवन से रही सही खुशबुएँ चुराकर जो
बदलना चाहते हैं सारी दुनिया को
एक बदबूदार दुनिया में।


अज्ञातवास / नीलोत्पल 


1.

माफ करें
मैं अपनी स्थिति में स्पष्ट नहीं हूँ

मैं उन लक्ष्यों की तरह हूँ
जिन्हें भुला दिया गया है

एक अधूरापन नई तस्वीर के साथ
उपस्थित होता है

मृत्यु, जीवन की अंतिम किस्त है
फुटपाथ अंतिम लोगों का केंद्र है
जहाँ पर आकर निगाहें उलट जाती है
हर कोई चिंदी-चिंदी शब्द बिखेरता है
वास्तव में अंतहीन अंत की तरह
रोज नए तर्क मिलते है

ज्यादातर कान पृथ्वी को नहीं
सुनते है अपने ही बहरेपन को
जो भीतर दफ्न है

हम सुनते हैं गहरा सन्नाटा

मेरा अज्ञातवास शाब्दिक नहीं
मैं सुनता हूँ
अपने से विदा लेता

2.

तुम कहाँ हो
खालीपन पूछता है

तुम आसान लक्ष्य हो,
एक असभ्य उपहार,
चुकाई गई पुरानी रसीद
या फ्रेम में उतारी गई कोई अंतिम तस्वीर

सुनता हूँ
एक बड़ा अवसाद
उस रेल की तरह खाली बोगदे से गुजरता हुआ
जहाँ सर्दियाँ प्रतीक्षारत है आंलिगन की

मैं छिप रहा हूँ
यह इतनी अलग बात है कि
कोई नहीं जानता वजह
सारा रोमांच अदृश्य में है

मैं नहीं जानता बारिश के बाद
रोशनी इतनी उजास भरी क्यों हो जाती है

एक फूल अभी भी झुका हुआ है
पृथ्वी का स्पर्श मीठा स्वप्न है
जीवन का अंतिम लक्ष्य तय नहीं

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गांधी जयंती पर विशेष आज जब सांप्रदायिकता अनेक रूपों में अपना वीभत्स प्रदर्शन कर रही है , आतंकवाद पूरी दुनिया में निरर्थक हत्याएं कर रहा है...