Sunday 28 September 2014

तमाचा (कहानी)- प्रताप दीक्षित

प्रताप दीक्षित समकालीन हिंदी कहानी के पाठकों के लिए एक सुपरिचित नाम है | वह उन कथाकारों में से हैं जो बगैर किसी शोर शराबे के चुपचाप अनवरत रूप से अपना लेखन कार्य करते रहते हैं | उनकी कहानियाँ इस कठिन समय की गहरे तक पड़ताल करती हैं | किस्सागोई शैली, पात्रों की जनसामान्य भाषा और पठनीयता उनकी कहानियों की विशेषता है | ‘स्पर्श’ पर उनकी कोई कहानी पहली बार प्रकाशित हो रही है, जिसका स्वागत करते हुए हमारे सुधी पाठकों के लिए इस हफ्ते प्रस्तुत है उनकी ऐसी ही एक बेहतरीन कहानी ‘तमाचा’ |
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तमाचा
प्रताप दीक्षित

शाम को दफ्तर से लौटने पर देखा तो घर में बिजली नहीं थी | अक्सर ऐसा होने लगा था | जैसे-जैसे मौसम के तेवर बदलते, बिजली की आँख-मिचौली बढ़ती जाती | बिजली विभाग का दफ्तर न हुआ देश की सरकार हो गयी | वह पसीने से लथपथ प्रतीक्षा करने लगा | और कोई चारा भी तो नहीं था | जब शहर का यह हाल है तो गांवों में क्या होगा | इन कष्ट के क्षणों में भी उसे देश-समाज की चिंता थी | उसे अपने आप पर गर्व हुआ | कुछ देर बाद अँधेरा घिर आया |

“आ गयी |” अचानक एक उल्लास मिश्रित शोर उभरा | लाइट आ गयी थी, जैसा कि अन्य घरों से आते प्रकाश से लग रहा था | सिवाय उसके यहाँ | अब उसे चिंता हुई | सामूहिक रूप से तो किसी कष्ट को भोगा जा सकता है | एक दूसरे के प्रति एक अव्यक्त सहानुभूति की धारा सबको एक सूत्र में बांधे रहती है | परन्तु ऐसी स्थिति में तो दूसरे से ईर्ष्या ही पैदा होती है | लगता है कि उसके यहाँ ही कुछ फाल्ट है | शायद फ्यूज उड़ा हो | उसने फ्यूज़ देखा, वह सही था | उसने स्विच, बोर्ड हिलाए-दुलाए परन्तु परिणाम ज्यों का त्यों | वह थककर बैठ गया | पत्नी ने कहा, “कुछ करो न, हाथ पर हाथ रखकर बैठने से क्या होगा ?”
वह परेशान हो गया | ये छोटे-मोटे काम, जिन्हें अन्य लोग आसानी से निपटा लेते, उनसे न सँभलते | इस तरह के कार्य उसे सदा दुःसाध्य लगते रहे थे | मजबूरी की बात तो अलग | वह अनमने ढंग से बिजली मिस्त्री की तलाश में निकला | इन बिजली वालों से भगवान् बचाए | पहले तो वह इतने छोटे से कार्य के लिए तैयार नहीं होगा | आजकल पंखें-कूलर के काम में वैसे ही व्यस्तता है | गली-मोहल्ले के मुलाहिज़े से हामी भी भर लें तो घंटों क्या एक दो दिन शक्ल नहीं दिखाते |

दोबारा जाने पर उत्तर मिलता है, “आप चलें, बस अभी आ रहा हूँ |” यदि बहुत फुसलाने से आ भी गये तो ज़रा से काम का, वह भी रिपेयरिंग के बाद, जो पारिश्रमिक बताते उससे तो लगता पहले की स्थिति में लौटना ज्यादा अच्छा होगा | परन्तु तब ऐसा होना संभव नहीं होता | खैर, बिजली वाले के पास जाना तो था ही | वह पास में ही स्थित बिजली वाले की दुकान पर गया | दुकान में मिस्त्री नहीं था |
दुकान वाले ने बड़ी ही नम्रता से कहा |
“आप चलें साहब ! थोड़ी देर में मिस्त्री के आने पर उसे आपके यहाँ भेजता हूँ |”
दुकानदार उसका घर जानता था, फिर भी उसने मकान नंबर, नुक्कड़ पर मंदिर की पहचान आदि भली भांति समझा दी | वह लौट आया | उसे तो पहले से ही इसी जवाब की उम्मीद थी |

काफी देर हो गयी | न किसी का आना था, न कोई आया | उसने सोचा, अब कल देखा जाएगा | परेशानियों के बाद वह परिस्थितियों से समझौता कर लेता | धीरे-धीरे उसकी अँधेरे से पहचान बनने लगी थी | परन्तु पत्नी व बच्चे चित्रहार न देख पाने के कारण बेचैन और झुंझलाए हुए थे | बिजली वाले के पास फिर जाना पड़ा | इस बार दुकान का मालिक दुकान बंद करने की तैयारी में लग रहा था |
उसने कहा, “इस समय तो मिस्त्री लौटा नहीं | अगर सुबह भेज दें...|”
“अरे नहीं भई, कुछ करो |” वह गिडगिडाता हुआ सा बोला | उसके चेहरे पर व्यग्रता और निरीहता दोनों उभर आये |
तभी दुकान में 16-17 साल का छोकरा सा दिखता लड़का आया |
“15 एम्पीयर का एक प्लग टॉप, 5 मीटर 2 बाई 4 का पी.वी.सी. तार देना |”
गोरे, बड़े बालों वाले जींस पहने छोकरे ने कहा | लड़का तेज़ दिख रहा था | उसके हाथ में एक प्लास था | यद्यपि लड़का देखने में बिजली मिस्त्री जैसा नहीं लग रहा था, परन्तु उसके हाथ में प्लास और क्रय किये जाने वाले सामान के सम्बन्ध में उसके तकनीकी विवरण के कारण उसे लगा कि शायद उसका काम निकल सके |
उससे झिझकते हुए उसे संबोधित किया |
“क्या...” उसे असमंजस हुआ, लड़के को ‘आप’ कह कर संबोधित करे या ‘तुम’ | ‘आप’ लायक उसकी उम्र नहीं थी और ‘तुम’ कहने में उसके साफ़-सुथरे कपड़े और तेज़ी बाधक थी | उसने तुम-आप गोलमोल कर दिया |
“ज़रा सा काम था |”
“क्या काम है ?” छोकरे ने प्रत्युत्तर में पूछा |
“यहीं पास में...” उसने पहले जगह बताते हुए बाद में काम बताया | कहीं दूर जाने की बात सुन कहीं वह मना न कर दे |
“चलिए |” वह तैयार हो गया |
उसने पारिश्रमिक पूछना चाहा | परन्तु हमेशा की तरह आशंका के कारण-कहीं अनजान समझ, पैसे ज्यादा बता दिए और बात न तय हो सकी, वह कतरा गया |

जब-तब ऐसा होता | रिक्शे पर बैठने से पहले पैसे तय करने में उसे डर लगता | मालूम नहीं क्या मांग बैठे | मोलभाव करने पर मना कर दे | मोलभाव उसे अपनी प्रतिष्ठा और गरिमा के प्रतिकूल भी लगता है | और जब बिना पूछे बैठ जाता तो पूरे रास्ते मन ही मन पछताता-तय कर लेना था, अब तो जो भी अनाप-शनाप मांगेगा देना पड़ेगा | वह हिसाब जोड़ता रहता | इतनी दूर का अधिकतम किराया क्या हो सकता है | उससे दो रुपये अधिक दे दें | पर नहीं यह तो मूर्खता होगी | एक रूपया ज्यादा दिया जा सकता है | वह रिक्शे वाले से संवाद आरम्भ कर देता |
“कहाँ के रहने वाले हो ?”
“कब से रिक्शा चला रहे हो ?”
आदि-आदि |
उसे लगता, इस प्रकार निकटता होने से कम से कम वह ठगेगा तो नहीं | संयोग से यदि वह उसके गाँव-जवार या आसपास का निकल आता तो वह खिल उठता |
“भाई, तुम तो अपनी ही तरफ के हो |”
गंतव्य पर पहुँच वह सोची हुई राशि उसे देता, यदि वह चुपचाप स्वीकार कर लेता तो उसे निराशा सी होती- उसने जल्दबाजी कर दी | यदि एक रूपया कम भी दिया जाता तो काम चल जाता |

हिसाब-किताब में वह सदा का पक्का रहा है | किसी रेस्टोरेंट में बैठकर खाते-पीते, वह सम्बंधित बिल का हिसाब-किताब मन ही मन में करता रहता | दोस्तों अथवा परिवार के साथ इसकी गति में तीव्रता आ जाती | खाई जाने वाली सामग्री के साथ ही बैरे को दी जाने वाली टिप की राशि वह प्रति व्यक्ति व्यय में जोड़ लेता |

उसने दूकानदार से पूछना चाहा, लड़के को क्या दे दें | लड़का वहीँ खड़ा था | उसके सामने पूछने में संकोच हुआ | उसके आगे बढ़ जाने पर उसने पलटकर पूछ ही लिया |
“साहब समझकर दे दीजिएगा |” दुकानदार ने कहा |

घर आकर लड़के ने मेन स्विच में टेस्टर से करेंट चेक किया | लाइन ठीक थी | मीटर में करेंट आ रहा था | उसने बोर्ड खोला | मेन लाइन से बोर्ड तक आये तारों में एक तार अलग था | उसने दोनों तार बाहर खींचें | तारों को छीलकर जोड़ने लगा |
वह टार्च दिखा रहा था | वह उससे लगातार बातें किये जा रहा था, “मेरे दफ्तर में तो बहुत काम निकलता है | कई मिस्त्री आगे-पीछे घूमते रहते हैं |”
फिर रूककर कहा, “यदि तुम्हें फुर्सत है तो तुम्हारे लिए बात करूँ |” लड़का अपने काम में मग्न था |
उसने मैं स्विच ऑन किया, बिजली नहीं आई | ऑफ और फिर ऑन करने पर लाइट एकबारगी चमककर चली गयी | वह फिर से तार अलग करने लगा | उसकी बेचैनी बढ़ रही थी | जितनी देर होगी, उतने ही ज्यादा पैसे मांगेगा | जल्दी काम होने पर कम से कम यह कहने का तो मौका रहता ही है, “काम ही कितनी देर का था |”

उसने कहना चाहा इससे तो पहले ही ठीक था | अगर कहीं यह ठीक न कर सका तो दूसरा व्यक्ति और ज्यादा वसूलेगा | जैसे-जैसे देर हो रही थी उसकी झुंझलाहट बढ़ रही थी | उसने मन ही मन निश्चय किया आज एक भी पैसा फालतू नहीं देना है | वह हमेशा की तरह बरगलाने या धौंस में नहीं आएगा | आखिर उसका भी तो अपना व्यक्तित्व है | सरकारी दफ्तर में बड़ा बाबू | तमाम अधीन लोगों को दबाव में रखता ही है- चाहे वे दैनिक वेतनभोगी ही क्यों न हों | क्या हुआ जो वह बड़े अधिकारियों के आगे, लोगों के कथनानुसार, ‘हें-हें’ करता रहता है | वह तो सरकारी ड्यूटी का मामला है | अब इन रिक्शे वालों, बिजली वालों जैसे दो टके के लोगों के सामने दब गया तो रह गयी मर्दानगी | अब लौ नसानी अब न नसैहों | परन्तु इससे कम में होता क्या है |

उसे अपनी दरियादिली पर स्वयं गर्व हुआ | परन्तु यदि यह न माना ! अगले ही क्षण उसके मन में आया- ठीक है दो रुपये और सही | उसने ऊपर की जेब में दस रुपये का नोट अलग रख लिया | ज्यादा पैसे देखकर ये लोग और मुँह फैलाते हैं | पहले दस, फिर न मानने पर दो और | इससे अधिक एक भी नहीं | कोई नया सामान तो लगाया/ बदला नहीं है | आखिर काम ही कितना किया है | वह मन ही मन आश्वस्त हुआ |

लेकिन बड़े बालों वाला छोकरा लग तेज़ रहा है | पूरा गुंडा नज़र आ रहा है | उसे लगा इसको नहीं बुलाना था |लगता है आज छुआ कर ही रहेगा | वह भी कैसी मूर्खता कर जाता है बाज़वक़्त | उसे परिवार वालों पर गुस्सा आने लगा | एक दिन भी बिना बिजली के नहीं रहा जा सकता था | खैर अब तो सर दे ही दिया है ओखली के बीच | जो होगा देखा जाएगा |
अब तो भुगतना ही है | देखो, कैसे चालाकी से देर किये जा रहा है | चलो दो और सही | उसने गहरी साँस ली | कुल हुए चौदह | पर कहीं 20, 30 या 50 जो, जी में आए न माँग ले ? यदि झगड़ा किया, कुछ अभद्रता न कर बैठे | जो भी हो, परन्तु किसी भी सूरत में आज दबना नहीं है | ज़रा सी बदतमीज़ी की तो वह तमाचा मुँह पर मारेगा कि सारी हेकड़ी निकल जायेगी | दो हड्डी का तो दिख रहा है | आज वह दृढ़प्रतिज्ञ हो गया था | उसने कोशिश की कि उसने पिछली बार, कब और किसकी पिटाई की थी | परन्तु मारपीट से कहीं मामला बढ़ भी तो सकता था |

उसे अख़बारों की कुछ घटनाएँ याद आईं, ज़रा सी बात पर चाकू या बम मार दिए गये थे | उसने उसे आजमाना चाहा | स्वर को रहस्यमय बनाते हुए, “गुड्डू को तो जानते ही होगे | अरे वह जिसने पिछली बार भरे बाज़ार में गोली चला दी थी | चाकू-वाकू तो मामूली सी बात है उसके लिए | मेरा भतीजा लगता है |”

तभी लाइट आ गयी | अब जौहर का अवसर आ गया | उसने सोचा | उसके हाथ-पैर काँप रहे थे | लड़के के चेहरे पर धूर्तता-भरी मुस्कराहट दिखाई पड़ी | दोनों एक दूसरे पर दांव भाँज रहे थे | पहल कौन करता है ?
लड़का हँसा |
वह हतप्रभ हुआ, यह तो नया पैंतरा है | इस पर तो उसने विचार ही नहीं किया था | वह इस दाँव की काट ढूँढता तब तक लड़का सीढ़ियों से उतर चुका था |

“अरे रुको, पैसे तो लेते जाओ |” उसने कहा | लड़का निचली सीढ़ी पर ठिठका, “साहब, देर ही कितनी लगी है | इतने से काम का क्या चार्ज ? आप परेशान थे | काम हो गया |” लड़का तेज़ी से निकल गया था |

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संपर्क सूत्र- एमडीएच 2/33, सेक्टर एच, जानकीपुरम, लखनऊ
मो. 09956398603
ईमेल- dixitpratapnarain@gmail.com
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Sunday 21 September 2014

तीन कवि : तीन कवितायेँ - 7

स्पर्शपर इस हफ्ते तीन कवि : तीन कविताओं की श्रृंखला में पढ़िए

1- विजेंद्र
2- केशव तिवारी
3- माणिक
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कामना / विजेन्द्र 


मैंने हर ढलती साँझ के समय
सदा सूर्योदय की कामना की है
जब सब छोड़ कर चले गए
वृक्ष मेरे मित्र बने रहे
खुली हवा... निरभ्र आकाश में
साँस लेता रहा
निखरी धूप में
फूलों ने अंग खोले
वह सूर्य-बिन्दु भी मुझे दिखाओ... वह नखत-पंख
जब सबसे पहले
मेरे पूर्वजों ने सहसा, अचक
मिट्टी का हरा-स्याह ढेला फेंक कर
दमकता ताँबा पा लिया
मैं हिम, पाषाण, धातु युग के पुनर्जागरण काल से
गुज़र कर यहाँ तक आया हूँ
धातुओं को रूप बदलते पहली बर देखा
ओह... जैसे अग्नि की आत्मा चमक उठी हो
कितनी हैरत में हूँ
कहाँ देख पाऊँगा उन्हें
जो चकमक के हथौड़े से धातु को पीटकर
कुल्हाड़ों के फाल...
कुदालों...बर्छियों में बदल रहे थे
कैसे हरे-भरे वृक्ष जीवाश्म बने
कुछ नष्ट नहीं हुआ
रूप और सौन्दर्य बदले हैं
मुझे खदान में उतरते किसी ने देखा
उस समय तनी रस्सियाँ...दाँतेदार बल्लियाँ
मेरी दोस्त थीं
मृत्यु का सामना थ
नीचे गाढ़े अँधेरे में उम्मीद की तीख़ी कौंध
धुएँ की कड़वी घुटन
नन्हें से तेल के दिए की रोशनी में
अपनी साँसों का ध्रुपद सुना है
पोली चट्टानों के खिसकने से
खनिज जहाँ-के-तहाँ दफ़न हुए
हर बार दानव ने मेरी आत्मा का सौदा किया है
मुझे बँधुआ बना के रखा है
बहुत पुरानी खदानों में
खनिकों की गली ठठरियाँ
बड़े-बड़े खण्डों के नीचे मिली हैं
एक युग डायनासोरों का भी था
लद्धड़ सोच ने उन्हें
प्रकृति के महागर्त में बैठाया
जब चकमक के भण्डार चुके
मैंने हरे-स्याह पत्थर को आँच में तपाया
हर क्रिया में मेरा जन्मोत्सव था
नए क्षितिज, नए द्वार, नई उषा, नया भोर
आँखों ने रोशनी की ज़ुबान सीखी
मेरा हर क़दम आगे पड़ा
आज मैं जिन अदृश्य अणुओं को
बारीक औज़ारों से तोड़ने को बैठा हूँ
उसकी शुरूआत बहुत पहले
कर चुका हूँ
न आँच बुझी है
न हाथ हारा है ।

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संपर्क-  C/o आर.एन. मणि, म.न. – 503, अरावली, ओमैक्स हिल्स, सेक्टर-43, ग्रीन लैंड के पास, फरीदाबाद (हरियाणा) 121001 
ईमेल- kritioar@gmail.com
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बाँदा / केशव तिवारी 


यह शहर मेरे लिए 
चौदह बरस पुराना है.
किन्हीं और के लिए 
और ज़्यादा 
कितना ही नामालूम और 
छोटा हो यह 
पर इसके बिना देश का 
नक्शा पूरा नहीं होता 

इसको ज़िक्र आते ही 
जब लोग 
चोरी, हत्या लूटमार
की बातें करते हैं
तब दुःख होता है मुझे 
क्यों नहीं याद आता उन्हें 
अट्ठारह सौ सत्तावन का नायक 
नवाब बांदा 
कामरेड दुर्जन, प्रहलाद 
तुलसी पद्माकर, केदार 
क्यों नहीं आते याद 

उन्हें दिखना चाहिए यहाँ के 
होश एवं प्रेम से लबरेज युवा 
इश्क की मद्धिम-मद्धिम आंच में 
सिकते हुए दिल 

कुछ दिनों के लिए 
होता हूँ जब बाहर 

ये आकर खड़ा हो जाता है 
सिरहाने
कहता है चलो घर चलो 
अब बहुत दिन हो गए 

महाकौशल ट्रेन से घर लौटते 
मीलों दूर से खुल जाती है 
मेरी नींद और मैं 
ताकने लगता हूँ भूरागढ़ का दुर्ग 
सुनता हूँ शहर की नींद में 
खलल डालती 
इंजन की कर्कश आवाज़ 
पर रात भर जगी 
कुछ आँखों के लिए 
इस आवाज़ का 
क्या मतलब है 
मैं यह समझ सकता हूँ 

पल-पल बदलता ये शहर 
मैं नहीं जानता मेरे बाद 
किस सूरत में होगा.
पर इतना तो अवश्य जानता हूँ कि 
मेरे बाद भी 
मेरे जैसा ही कोई कवि 
इसकी बदली हुई सूरत पर 
कविता लिखेगा.

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संपर्क - c/o पाण्डेय जनरल स्टोर, कचहरी चौक, बाँदा (उ.प्र.) 210001
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मुश्किल रास्ते पर / माणिक 


राजस्थान में रहता हूँ मैं
भीतर राजस्थान बस जाने के बाद भी
जगह बचाकर रखता हूँ हमेशा
मुज़फ्फरनगर और कोलकाता के लिए

हँसना जानता हूँ
पहाड़ों,पेड़ों और पक्षियों के बीच
जब भी होता हूँ हँसता हूँ
रोना मेरे लिए हूनर का होना नहीं है
रोना आया है जब-तब
रोया है मेरा राजनादगाँव, देवगढ़ और बैतूल

आँखें लाल हो जाती है गुस्से में मेरी
नारे उछालने लगती है ये ज़बान
दीवारों पर पोस्टर चिपकाने
लेई बनाने में जुट जाते हैं दोनों हाथ
बुद्धि भाषण गड़ने लगती है
विवेक बैठक की जाजम में पड़ी सलवटें ठीक करने लगता है
इस तरह
जब भी जलती है तुम्हारी बस्ती
उदास होता हूँ मैं भी

समझने का एक ओर सरल तरीका
कि मैं और तुम एक ही हैं भाई
गोया
तुम्हारे शहर की तरह ही
यहाँ भी ठीक उसी वक़्त
बढ़ते और उतरते हैं
पेट्रोल, डीज़ल और सिलेंडर के दाम

वे तमाम लोग एक ही हैं
एकदम हमारे विरुद्ध
अच्छे परिणामों और मुश्किल रास्तों के बीच
रोड़े अटकाते हुओं की तरह

भाई
तुम राजधानी में निकालते हो रैली जब भी
मैं यहीं से जी-भर गालियाँ बकता हूँ तख़्त को
खर्चीली कोरट-कचेरी और वकीलों के बीच
जब-जब भी तुम्हे न्याय मिला और
लफंगों से मिली निजात तुम्हें
यहाँ गाँव में मैंने भी बँटवाए हैं
जलेबी और गुड-भूंगड़े

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सम्पर्क- द्वारा जगदीश मंडोवरा,10-ए,कुम्भा नगर, स्कीम नंबर-6, चित्तौड़गढ़-312001, राजस्थान।
ई-मेल- manik@apnimaati.com
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गाँधी होने का अर्थ

गांधी जयंती पर विशेष आज जब सांप्रदायिकता अनेक रूपों में अपना वीभत्स प्रदर्शन कर रही है , आतंकवाद पूरी दुनिया में निरर्थक हत्याएं कर रहा है...