Sunday 24 August 2014

तीन कवि : तीन कविताएं - 4

पिछले तीन हफ़्तों में तीन कवि : तीन कविताओं की श्रृंखला के अंतर्गत प्रस्तुत 3 अंकों का काफी लोगों ने स्वागत किया और कविताओं पर अपनी-अपनी राय भी दी | इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए इस बार तीन कवियों की जगह तीन कवयित्रियों की कवितायेँ लाये हैं हम आपके लिए | ‘स्पर्श’ पर इस हफ्ते प्रस्तुत है वरिष्ठ कवयित्री सुमन केसरी, युवा कवयित्री अंजू शर्मा एवं एकदम नया और युवतर स्वर शुचिता श्रीवास्तव की कवितायेँ : 
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उसके मन में उतरना / सुमन केशरी 


उसके मन में उतरना
मानो कुएँ में उतरना था
सीलन भरी
अंधेरी सुरंग में

उसने बड़े निर्विकार ढंग से
अंग से वस्त्र हटा
सलाखों के दाग दिखाए
वैसे ही जैसे कोई
किसी अजनान चित्रकार के
चित्र दिखाता है
बयान करते हुए-
एक दिन दाल में नमक डालना भूल गई
उस दिन के निशान ये हैं
एक बार बिना बताए मायके चली गई
माँ की बड़ी याद आ रही थी
उस दिन के निशान ये वाले हैं
ऐसे कई निशान थे
शरीर के इस या उस हिस्से में
सब निशान दिखा
वो यूँ मुस्कुराई
जैसे उसने तमगे दिखाए हो
किसी की हार के...

स्तब्ध देख
उसने मुझे होले से छुआ..
जानती हो ?
बेबस की जीत
आँख की कोर में बने बाँध में होती है
बाँध टूटा नहीं कि बेबस हारा
आँसुओं के नमक में सिंझा कर
मैंने यह मुस्कान पकाई है

तब मैंने जाना कि
उसके मन में
उतरना
माने कुएँ में उतरना था
सीलन भरे
अंधेरे सुरंग में
जिसके तल में
मीठा जल भरा  था...

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ईमेल- sumankeshari@gmail.com
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चालीस साला औरतें / अंजू शर्मा 


इन अलसाई आँखों ने
रात भर जाग कर खरीदे हैं
कुछ बंजारा सपने
सालों से पोस्टपोन की गई
उम्मीदें उफान पर हैं
कि पूरे होने का यही वक्त
तय हुआ होगा शायद

अभी नन्हीं उँगलियों से जरा ढीली ही हुई है
इन हाथों की पकड़
कि थिरक रहे हैं वे कीबोर्ड पर
उड़ाने लगे हैं उमंगों की पतंगे
लिखने लगे हैं बगावतों की नित नई दास्तान,
सँभालो उन्हे कि घी-तेल लगा आँचल
अब बनने को ही है परचम

कंधों को छूने लगी नौनिहालों की लंबाई
और साथ बढ़ने लगा है सुसुप्त उम्मीदों का भी कद
और जिनके जूतों में समाने लगे है नन्हें नन्हें पाँव
वे पाँव नापने को तैयार हैं
यथार्थ के धरातल का नया सफर

बेफिक्र हैं कलमों में घुलती चाँदी से
चश्मे के बदलते नंबर से
हार्मोन्स के असंतुलन से
अवसाद से अक्सर बदलते मूड से
मीनोपाज की आहट के साइड एफेक्ट्स से
किसे परवाह है,
ये मस्ती, ये बेपरवाही,
गवाह है कि बदलने लगी है ख्वाबों की लिपि

वे उठा चुकी हैं दबी हँसी से पहरे
वे मुक्त हैं अब प्रसूतिगृहों से,
मुक्त हैं जागकर कटी नेपी बदलती रातों से,
मुक्त हैं पति और बच्चों की व्यस्तताओं की चिंता से,

ये जो फैली हुई कमर का घेरा है न
ये दरअसल अनुभवों के वलयों का स्थायी पता है
और ये आँखों के इर्द गिर्द लकीरों का जाल है
वह हिसाब है उन सालों का जो अनाज बन
समाते रहे गृहस्थी की चक्की में

ये चर्बी नहीं
ये सेलुलाइड नहीं
ये स्ट्रेच मार्क्स नहीं
ये दरअसल छुपी, दमित इच्छाओं की पोटलियाँ हैं
जिनकी पदचापें अब नई दुनिया का द्वार ठकठकाने लगीं हैं
ये अलमारी के भीतर के चोर-खाने में छुपे प्रेमपत्र हैं
जिसकी तहों में असफल प्रेम की आहें हैं
ये किसी कोने में चुपके से चखी गई शराब की घूँटें है
जिसके कड़वेपन से बँधी हैं कई अकेली रातें,
ये उपवास के दिनों का वक्त गिनता सलाद है
जिसकी निगाहें सिर्फ अब चाँद नहीं सितारों पर है,
ये अंगवस्त्रों की उधड़ी सीवनें हैं
जिनके पास कई खामोश किस्से हैं
ये भगोने में अंत में बची तरकारी है
जिसने मैगी के साथ रतजगा काटा है

अपनी पूर्ववर्तियों से ठीक अलग
वे नहीं ढूँढ़ती हैं देवालयों में
देह की अनसुनी पुकार का समाधान
अपनी कामनाओं के ज्वार पर अब वे हँस देती हैं ठठाकर,
भूल जाती हैं जिंदगी की आपाधापी
कर देती शेयर एक रोमांटिक सा गाना,
मशगूल हो जाती हैं लिखने में एक प्रेम कविता,
पढ़ पाओ तो पढ़ो उन्हें
कि वे औरतें इतनी बार दोहराई गई कहानियाँ हैं
कि उनके चेहरों पर लिखा है उनका सारांश भी,
उनके प्रोफाइल पिक सा रंगीन न भी हो उनका जीवन
तो भी वे भरने को प्रतिबद्ध हैं अपने आभासी जीवन में
इंद्रधनुष के सातों रंग,
जी हाँ, वे फेसबुक पर मौजूद चालीस साला औरतें हैं...

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प्रेम / शुचिता श्रीवास्तव 


सिर्फ कहने के लिए
नही किया गया प्रेम
निभाना भी था कहने से ज्यादा .

स्वप्न के आकाश से मन तारों सा
टूट टूट कर गिरता रहा
गर्म तवे पर गिरी पानी के बून्द से गिरे रिश्ते
और छन् से पानी से भाप में बदल गए
अब धरती पर कहीं नहीं दिखाई दे रहे
भाप हुए रिश्ते शायद छिपे हों काले पहाड़ के पीछे
या किसी डरावनी और अँधेरी गुफा में
उन्हें ढूँढ पाना नहीं सम्भव एक जन्म में

पता नहीं कौन सी लगन ख़त्म नहीं होने दे रही
वेदना की धोती लम्बी ही होती जा रही
शब्द जीवित रहे काफी दिनों तक
फिर खोते रहे अपना अर्थ ,अपना आस्तित्व
काटे जाते रहे यकीन के उजले कबूतरों के पंख
लाल होती रही धरती उनके रक्त से
उतारी गयी आस की पायल धीरे से
मगर उनके रुदन ने पहाड़ की आँखों को भी भिगोया
वो कंपकंपाते रहे पीड़ा की सर्दी से दिन रात
झीलें जमने लगी थीं आंसू हुए बर्फ की परतों से
रेगिस्तान की तरह छटपटाती रही इच्छाएं
एक बून्द नेह और एक मुठ्ठी दुलार के लिए
दो देशों की दूरियां कभी नहीं होगी ख़त्म
खाई अकेले नहीं भरी जा सकती कभी ना
सावन था मगर हरा कुछ भी नहीं हुआ
बादल बहुत बरसे लेकिन सूखा पड़ा रहा

जलाती रही कड़ी धूप सारे मौसमों को
कभी नहीं ठहरा काजल आँखों में
हर बार बस बहता रहा ,बिखरता रहा
अलग होने की घडी चुपचाप सिसकती रही
जरा ध्यान से सुना जा सकेगा उसका करुण क्रंदन
बस नहीं रखनी होगी कानों पर हथेलियाँ
उतरता जा रहा है गहरे गुलाबी दुपट्टे से रंग
पर राधा के मन से कभी नहीं उतरा
ना गहरा सांवला ना प्रेम का रंग
राधा कभी टोकी भी नहीं गयी होंगी
या टोका जाना बेमतलब हुआ होगा

जलती घूरती निगाहों का ताप
जरूर सह गयी होंगी मुस्कुराते हुए
कृष्ण ने भी कभी नहीं फेरा अपना मुंह
केवल कहा भर नहीं था हर हाल में
दोनों ने निभाया भी था प्रेम जीवन भर
भूला जाने लगा अब कृष्ण नहीं रहे
राधा बनने की चाह टूटे हुए घड़े की तरह
नहीं भरा जा सकता उसमें जुड़ाव का पानी
लेकिन टूटे घड़े को जोड़ना असंभव भी नहीं होता
क्योकि सिर्फ कहने के लिए
नही किया गया प्रेम
निभाना भी था कहने से ज्यादा !

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Friday 15 August 2014

तीन कवि : तीन कवितायेँ - 3

‘स्पर्श’ पर इस महीने के आरम्भ में शुरू की गयी तीन कवि तीन कविताओं की इस नई श्रृंखला में तमाम कवियों का सहयोग हमें लगातार मिल रहा है साथ ही इन पर पाठकों की काफी अच्छी प्रतिक्रियाएं भी मिल रही हैं | इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए इस बार प्रस्तुत हैं वरिष्ठ कवि आलोक धन्वा, युवा कवि राकेश रोहित और एकदम नया युवतर स्वर करीम पठान की नवीनतम कवितायेँ :
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गोली दागो पोस्टर / आलोक धन्वा 


यह उन्नीस सौ बहत्तर की बीस अप्रैल है या
किसी पेशेवर हत्यारे का दायाँ हाथ या किसी जासूस
का चमडे का दस्ताना या किसी हमलावर की दूरबीन पर
टिका हुआ धब्बा है
जो भी हो-इसे मैं केवल एक दिन नहीं कह सकता !

जहाँ मैं लिख रहा हूँ
यह बहुत पुरानी जगह है
जहाँ आज भी शब्दों से अधिक तम्बाकू का
इस्तेमाल होता है

आकाश यहाँ एक सूअर की ऊँचाई भर है
यहाँ जीभ का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है
यहाँ आँख का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है
यहाँ कान का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है
यहाँ नाक का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है

यहाँ सिर्फ दाँत और पेट हैं
मिट्टी में धँसे हुए हाथ हैं
आदमी कहीं नहीं है
केवल एक नीला खोखल है
जो केवल अनाज माँगता रहता है-

एक मूसलधार बारिश से
दूसरी मूसलाधार बारिश तक

यह औरत मेरी माँ है या
पाँच फ़ीट लोहे की एक छड़
जिस पर दो सूखी रोटियाँ लटक रही हैं-
मरी हुई चिड़ियों की तरह
अब मेरी बेटी और मेरी हड़ताल में
बाल भर भी फ़र्क़ नहीं रह गया है
जबकि संविधान अपनी शर्तों पर
मेरी हड़ताल और मेरी बेटी को
तोड़ता जा रहा है

क्या इस आकस्मिक चुनाव के बाद
मुझे बारूद के बारे में
सोचना बंद कर देना चाहिए?
क्या उन्नीस सौ बहत्तर की इस बीस अप्रैल को
मैं अपने बच्चे के साथ
एक पिता की तरह रह सकता हूँ?
स्याही से भरी दवात की तरह-
एक गेंद की तरह
क्या मैं अपने बच्चों के साथ
एक घास भरे मैदान की तरह रह सकता हूँ?

वे लोग अगर अपनी कविता में मुझे
कभी ले भी जाते हैं तो
मेरी आँखों पर पट्टियाँ बाँधकर
मेरा इस्तेमाल करते हैं और फिर मुझे
सीमा से बाहर लाकर छोड़ देते हैं
वे मुझे राजधानी तक कभी नहीं पहुँचने देते हैं
मैं तो ज़िला-शहर तक आते-आते जकड़ लिया जाता हूँ !

सरकार ने नहीं-इस देश की सबसे
सस्ती सिगरेट ने मेरा साथ दिया

बहन के पैरों के आस-पास
पीले रेंड़ के पौधों की तरह
उगा था जो मेरा बचपन-
उसे दरोग़ा का भैंसा चर गया
आदमीयत को जीवित रखने के लिए अगर
एक दरोग़ा को गोली दागने का अधिकार है
तो मुझे क्यों नहीं ?

जिस ज़मीन पर
मैं अभी बैठकर लिख रहा हूँ
जिस ज़मीन पर मैं चलता हूँ
जिस ज़मीन को मैं जोतता हूँ
जिस ज़मीन में बीज बोता हूँ और
जिस ज़मीन से अन्न निकालकर मैं
गोदामों तक ढोता हूँ
उस ज़मीन के लिए गोली दागने का अधिकार
मुझे है या उन दोग़ले ज़मींदारों को जो पूरे देश को
सूदख़ोर का कुत्ता बना देना चाहते हैं

यह कविता नहीं है
यह गोली दागने की समझ है
जो तमाम क़लम चलानेवालों को
तमाम हल चलानेवालों से मिल रही है।
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उन्माद भरे समय में कविता की हमसे है उम्मीद / राकेश रोहित 


बहुत कमजोर स्वर में पुकारती है कविता
उन्माद भरा समय नहीं सुनता उसकी आवाज
हिंसा के विरुद्ध हर बार हारता है मनुष्य
हर बार क्रूरता के ठहाकों से काला पड़ जाता है आकाश।

सभ्यता के हजार दावों के बावजूद
एक शैतान बचा रहता है हमारे अंदर, हमारे बीच
हमारी तरह हँसता-गाता
और समय के कठिन होने पर हमारी तरह चिंता में विलाप करता।

जब मनुष्य दिखता है
नहीं दिखती है उसके भीतर की क्रूरता
और हम उसी के कंधे पर रोते हैं, कह-
हाय यह कितना कठिन समय है!

कविता फर्क नहीं कर पाती इनमें
इतने समभाव से मिलती है वह सबसे
इतनी उम्मीद बचाये रखती है कविता
मनुष्य के मनुष्य होने की!

आँखों में पानी बचाने की बात हम करते रहे
और आँसुओं में भींगती रही आधी आबादी की देह
धरती कभी इतना तेज नहीं घूम पाती कि
अँधेरे में ना डूबा रहे इसका आधा हिस्सा!

रोज शैतानी इच्छाएं नोच रही हैं धरती की देह
रोज हमारे बीच का आदमी कुटिल हँसी हँसता है
कविता कितना बचा सकती है यह प्रलयोन्मुख सृष्टि
जब तक हम रोज लड़ते न रहें अपने अंदर के दानव से!

समाज में अकेले पड़ते मनुष्य को ही
खड़ा होना होगा
अपने अकेलेपन के विरुद्ध
एक युद्ध रोज लड़ने को होना होगा तत्पर
अपने ही बीच छिपे राक्षसों से
इस सचमुच के कठिन समय में
कविता की यही हमसे आखिरी उम्मीद है।
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संपर्क- एफ़०एफ़०, क्वार्टर नं 366,7 गरचा फर्स्ट लेन, गरिया हाट, कोलकाता 700019 (प. बंगाल)
ईमेल- rkshrohit@gmail.com
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जेहाद / करीम पठान अनमोल 


क़ुरआन कहता है
लड़ो
लड़ो उनसे...जो अन्याय करते हैं
लड़ो उनसे...जो मज़लूमों पर अत्याचार करते हैं
लड़ो उनसे...जो दीन की मुख़ालफ़त करते हैं

लेकिन तुमने पढ़ा
सिर्फ़ 'लड़ो'
क्यों...कैसे...किससे
ये नहीं
और चल पड़े
जेहाद करने

अरे! क़ुरआन को अगर समझने की कोशिश करते
तो कुछ यूँ पढ़ते-
कि बिला वजह किसी चींटी तक को तक़लीफ न दो
तुम्हारा ख़ुदा तुमसे नाराज़ होगा
कि दो लोगों में सुलह कराओ
तुम्हारा ख़ुदा तुमसे राज़ी होगा
कि अपने पड़ौसी का हक़ अदा करो,
देखो तुम्हारे पड़ौस में कोई भूखा, परेशान हाल तो नहीं
वरना तुम्हें चैन से सोने का कोई हक़ नहीं

कितनी मोहब्बत और शफ़क़त है इस मज़हब में
ख़ुदाया!
ये मज़हब तुम्हें
अपने दुश्मन के लिये भी बद्दुआ करने की इज़ाज़त नहीं देता
फिर हथियार उठाने, ख़ून बहाने की इज़ाज़त क्या देगा?
मगर अफ़सोस
सद अफ़सोस
तुमने मज़हब और ज़ेहाद के नाम पर
सिर्फ़ ज़हर बोया...।
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संपर्क- बहलिमों का वास, सांचोर, (जालोर) राज. 343041
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गाँधी होने का अर्थ

गांधी जयंती पर विशेष आज जब सांप्रदायिकता अनेक रूपों में अपना वीभत्स प्रदर्शन कर रही है , आतंकवाद पूरी दुनिया में निरर्थक हत्याएं कर रहा है...