Sunday 19 June 2016

त्रिलोचन की कविताओं पर राजकिशोर राजन का आलेख



जीवन जिस धरती का कविता भी उसकी
राजकिशोर राजन


ताप के ताए हुए दिन (सन् 1980) में एक कविता है एक लहर फैली अनंत कीजिसकी प्रथम पंक्ति है - सीधी है भाषा वसंत की’, त्रिलोचन आगे समझाते है कि कभी आँख ने समझी तो कभी कान ने पाई, कभी रोम-रोम से वह प्राणों में भर आई यानी महसूस और अनुभव करने के माध्यम भिन्न हो सकते हैं परन्तु उससे क्या! वसंत की भाषा तो एकदम सीधी है। धनानंद भी प्रेम के बारे में यही कह गये हैं - जहाँ नैकु सयानप बाँक नहीं।कहने का आशय है कि सहज सुंदर के साधक अपने त्रिलोचन का जीवन, कविता, वसंत और प्रेम सरीखा है - बिलकुल सीधा। सपाट हम नहीं कह सकते। सीधे को सपाट वक्र लोग कहते हैं। अगर त्रिलोचन सपाट होते तो भाषा क समर्थ इंजीनियर नहीं होते। अपनी लंबी यात्रा में अध्यापन, यायावरी, पत्रिकाओं और भाषा कोशों के संपादन से लेकर कई-कई पड़ाव देखे, बहुत कुछ सीखा, समझा और मंथन किया परन्तु सीधेपन के ठाठ को कभी नहीं छोड़ा। धन-दौलत से बेपरवाह इनके फकीराना (कबीराना भी कहा जा सकता है) कवि व्यक्तित्व को वसंत ही रास आया।

            खेतिहर परिवार में जन्मे त्रिलोचन का पारिवारिक नाम वासुदेव सिंह था। शास्त्रीउपाधि मिलने के बाद अपने त्रिलोचन, त्रिलोचन शास्त्री बने, पर इस उपाधि को पॉकेट में रखकर ही आजीवन चलते रहे। शिवप्रसाद सिंह ने लिखा है शास्त्री को लोकजीवन से उत्पन्न स्नेहगंधी मानस मिला है। वे चिल्ले जाड़े में कुहरे लिपटे गँवई वातावरण में अतवरियाको देख कर लाचारी की मार का राग अलापें या भिखरियाकी की अकिंचनता पर तरस खाएं, लगेगा कि यह सारा कुछ आत्मवेदना का ही इजहार है।त्रिलोचन की पहली काव्यकृति धरतीसन् 1945 में प्रकाशित हुई जबकि अमोलासन् 1990 में प्रकशित (वाणी प्रकाशन) अंतिम काव्यकृति हैं ताप के ताए हुए दिन’ (सन् 1980) और उस जनपद का कवि हूँ (सन् 1981) उनकी सर्वाधिक लोकप्रिय कृतियाँ रहीं। ताप के ताए हुए दिनके लिए इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। देशकाल 986) कथासंग्रह और काव्य और अर्थबोध (सन् 1985) आलोचना पुस्तक हैं। प्रभूत मात्रा में लिखने के बावजूद त्रिलोचन जब-जब आत्मालोचन करते हैं। प्रभूत मात्रा में लिखने के बावजूद त्रिलोचन जब-जब आत्मालोचन करते हैं वे नयी तेजस्विता के साथ हिंदी के पाठकों के सामने आते हैं।

                        लड़ता हुआ समाज नयी आशा अभिलाषा
                        नये चित्र के साथ नयी देता हूँ भाषा (दिगंत)

त्रिलोचन के काव्य का यह महत्वपूर्ण आधार है। इस आधार को उन्होंने कभी नहीं छोड़ा और इसके लिए आम आदमी की भाषा में आम आदमी से संवाद करते रहे। यही उनकी पूँजी है। परन्तु यही पूँजी कभी-कभी उनकी सीमा रेखा भी बन सजाती है। दिगंतमें संकलित उनकी एक कविता जगदीश जी का कुत्ताउसी प्रकार साथ-साथनामक कविता जो तुम्हें सौंपता हूँसंग्रह में संकलित है जिन्हें उदाहरण के तौर पर लिया जा सकता है जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि त्रिलोचन साधारण कविताओं के कवि भी हैं -

                        मुझे आपके कुत्ते ने कल काट लिया था,
                        जगदीशजी, आपने भी क्या कुत्ता पाला।’’

                        और,
                                    प्रिय साही जी
                                                शुभकामना आपकी मुझको
                                    अभी मिली है, जहाँ व्यक्त है नए
                                    वर्ष की रम्य कल्पना .....................

परन्तु संसार में ऐसा कौन कवि होगा जिसकी सभी कविताएं असाधारण हैं! कई-कई साधारण कविताएं ही किसी एक असाधारण कविता के लिए रास्ता बनाती है। गेहूँ के साथ भूसा नहीं हो तो फिर गेहूँ कैसा! त्रिलोचन भूसे को अलगाने वाले नहीं हैं चूँकि गाँव, किसान, खेत-बघार से उनका गहरा नाता रहा। तभी तो अपनी कविता के माध्यम से अपनी काव्य-दृष्टि का भी उद्धाटन करते हैं -

                        जीवन जिस धरती का है। कविता भी उस की
                        सूक्ष्म सत्य है, तप है, नहीं चाय की चुस्की।

कविता उनके लिए जीवन, धरती, अभाव, दुख, करूणा, गरीबी से अलग नहीं साथ त्रिलोचन की कविताई को समझने के लिए ये पंक्तियाँ महत्वपूर्ण हैं।

ध्रुव शुक्ल, त्रिभुवन संचयिता की भूमिका में लिखते हैं कि महात्मा तुलसीदास की आँखों में राम हैं। महाप्राण निराला की आँखों में तुलसी हैं और उन्नतप्राण त्रिलोचन की आँखों में निराला की आँखों में तुलसी है और उन्नतप्राण त्रिलोचन की आँखो में निराला हैं।निराला की भाँति त्रिलोचन का जीवन और काव्य बहुआयामी है। एक तरफ उनकी कविता भारतीय परंपरा सम्मत विवेक और अपने समय के विवेक दोनों को एक साथ साधती है। एक ओर इनके द्वारा गीत, बरवै गजल, चतुष्पदियाँ और कुंडलियों की रचना की वहीं दूसरी ओर मुक्त छंद की कविताएं भी लिखी। इसके अलावा यह हिंदी में सॉनेट के रचयिता के रूप में प्रसिद्ध हैं। इन्होंने कहानियाँ और आलोचना भी लिखीं साथ ही डायरी लेखन को भी अपनाया। ध्यान देने की बात है कि सॉनेटकी रचना करने वाले इस कवि ने स्वीकार किया है कि जहाँ तक भाषा का प्रश्न है तुलसी बाबा भाषा मैंने तुमसे सीखी। मेरी सजग चेतना में तुम रमे हुए हायह इस कवि की स्वीकारोक्ति है जो निराला से लेकर इतालवी कवि पेट्रार्का से लेकर शेक्सपियर तक की परंपरा को साथ ले कर चलता है मगर अपनी राह पर चलता है और अपनी दिशा स्वयं तय करता है। वह कता भी है :-

                        बनी बनाई राह मुझे कब, कहाँ, सुहाई,
                        गहन विपिनल में धॅसा, नहीं की राम दुहाई।
(कविता शीर्षक -झाड़ और झंखाड़, संग्रह - अनकहनी भी कुछ कहती है)

यह कवि अपनी नंगी पीठ पर आजीवन जमाने का कोड़ा झेलता रहा धीरज कभी नहीं छोड़ा। इसीलिए त्रिलोचन के शब्दों में कविताई में जो ताकत है वह हिंदी के बहुत कम कवियों के पास है। त्रिलोचन को पूरा भरोसा था कि कविता को ताकत, कवि के जीवन से ही मिलती है, जैसा जीवन होगा, उसके प्रभाव से कविता भी प्रभावित होगी। आज अगर कविता की ताकत क्षीण हो रही है तो इसमें कविता का क्या दोष है! दोष उस कवि जीवनका है जो आज घोर सांसारिक हो गया है। त्रिलोचन अकारण नंगी पीठ पर नहीं झेलते रहे। उनके सामने कविता थी और उसके लिए जो कुछ झेलना पड़े वह क्षुद्र था। अनकहनी भी कुछ कहनी हैनामक संगह में झेला नंगी पीठशीर्षक कविता की आखिरी पंक्तियों को देखें -

                        अगर न पीड़ा होती तो भी क्या मैं गाता
                        यदि गाता तो क्या उस में ऐसा स्वर आता।

त्रिलोचन की पीड़ा महादेवी की पीड़ नहीं है। वह समजा के एक सामान्य आदमी की पीड़ा है। कवि इन पंक्तियों के माध्यम से एक बड़ा प्रश्न भी करते हैं, अपने समकालीनों से, अपने साहित्य संसार से, साथ ही हमारी आज की पीढ़ी के लिए भी कि हाजमोला आदि खा-खा कर खाना पचाने वाले जब भूख, गरीबी, अभाव और शोषण पर लिख रहे हैं तो लिखते रहें, उन्हें कौन रोकता है परन्तु वह निष्प्राण होगा, अवास्तविकहोगा। प्रभाकर श्रोत्रिय (कवि परंपराः तुलसी से त्रिलोचन) ने लिखा है कि त्रिलोचन की प्रकृति में न निराला जैसे झकोरे हैं, न पंत जैसी वर्तुलता, न बच्चन जैसी लोच और मादकता, और तो और, उनका अलगइतना दीप्त है कि उनके सामाजिक चित्र और भाषिक लक्षण केदार, नागार्जुन और सुमन से भी नहीं मिलते। न केदार जैसी कला-प्रवीणता वे दिखाते हैं, न नागार्जुन जैसी फक्कड़लोकायती, न सुमन जैसा आवेश-आवेग। कई जगह तो त्रिलोचन धरती से, यथार्थ से बिना रूपकात्मक संबंध से जुड़े हैं, यानी सीधे गाँव से, मनुष्य के अकृत्रित, मौलिक निरीक्षक और निर्वसन प्रकृति से निर्वसन शिशु की तरह, बीच में कोई पर्दा नहीं न कोई उत्तेज। इस दृष्टि से भी वे अलग स्रष्टा हैं।

त्रिलोचन मेरे ख्याल से आधुनिक हिंदी कविता के कबीर हैं। दोनों में बहुत कुछ साम्य है। जैसे कबीर को कागज की लेखी नहीं आँखिन देखी कहनी थी उसी प्रकार त्रिलोचन को आम जन की बात कहनी थी। इससे कम दोनों को कुछ भी स्वीकार नहीं। कीमत चाहे जो और जितनी चुकानी पड़े। फूल नाम है एकसंग्रह की कविता ठोक बजा कर देख लिया हैमें वे डंके की चोट पर घोषणा करते हैं :-

                        ठोक बजा कर देख लिया, कुछ कसर न छोड़ी
                        दुनिया के सिक्के को बिलकुल खोटा पाया।

यह ठोक, बजा कर देखने का काम कबीर की भाँति त्रिलोचन ही कर सकते हैं। ऐसी सीधी और सच्ची बात वसंत का अग्रदूत ही कर सकता है। दुनिया के सिक्के को बिल्कुल खोटा कहना व्यंग्य भी है, विषाद भी ओर साथ में दुनिया से अटूट नेह-छोह भी । अपने समय और समाज से टूट कर प्रेम करने वाला कवि ही ऐसा कह सकता है। त्रिलोचन, कृत्रिमता विरोधी रहे हैं, उन्हें मिलावटी और दिखावटी नापसंद है। वे अपने को भी बरी नहीं करते। अपने ऊपर भी व्यंग्य कसते हैं, स्वयं को घोंचू भी कहते हैं कि कैसा आदमी हूँ जो भाषा, छंछ, भाव के पीछे जान खपा रहा हूँ जबकि इनका जमाना लद गया। अब कवि कहलाना बहुत सरल है, एक प्रकार से यह खेलों में नया खेल है। अगर कोई विषय नहीं सूझता तो ढेलाही लिख दो और इसके बाद लिख दो वह हँसताथा।ठहर कर विचार करने की जरूरत है कि त्रिलोचन का यह व्यंग्य कितना व्यापक है। इन दिनों जब कविता व्यापक सरोकार से जुड़ रही है उसकी दुनिया निरंतर समृद्ध हो रही है वहीं स्वयं को विस्मृत कर आलोचकों और कतिपय पत्र-पत्रिकाओं के लिए कवितायें बनाई जा रही हैं, कविता अमूर्त्तन का शिकार हो जन-जीवन से कटती जा रही हैं और हिंदी के कुछेक आलोचक ऐसी कविताओं को मथ कर युगबोध प्रकट करा रहे हैं जैसे बालू से घी निकालने की जादूगरी हो। कविता की चर्चा कम कवि की चर्चा ही सुनाई पड़ती है। मंगलेश डबराल (त्रिलोचन के बारे में - सं. गोबिन्द प्रसाद) में स्वयं त्रिलोचन ने कवि-कविता के संबंध में जो कुछ कहा है उससे हम त्रिलोचन को कुछ और करीब से समझ सकते हैं - कोई कवि सहज और स्वस्थ रहे तो समझ लीजिए कुछ कसर है। कविता तो एक जीवन को तोड़कर सकल जीवन बनाती है। और जो जीवन टूटता है वह कवि का है’, निराला को तो अपने से बाद के कवियों की कविताएं भी कंठस्थ रहती थीं। उन्होंने तो उस वर्ग तक संपर्क किया जहाँ नई पीढ़ी भी नहीं पहुँची। श्रम करने वाले, तीर्थ यात्री, नंगे पैर चलने वाले - इन लोगों के साथ जमीन पर बैठकर बात करते थे। तो ऐसा आदमी निरंतर ताजा होता जाएगा। निराला में आखिरी समय तक ताजगी है। यही ताजगी अगर बनी रहे तो आप कवि रह सकते हैं।’’

त्रिलोचन में जो सादगी है वह कविता में क्या जीवन में भी जरा देर से गले उतरती है। इनकी काव्ययात्रा दुख और संघर्षों के बीच निरंतर आस्था और एक अनाहर स्वर की यात्रा है। इन्हें गालिब बहुत प्रिय थे और वे प्रायः उनका एक प्रसिद्ध शेर सुनाया करते थे-

                        कर्ज की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ
                        रंग लाएगी हमारी फाका-मस्ती एक दिन

त्रिलोचन को पूरा भरोसा था कि उनकी फाका मस्ती एक दिन रंग लाएगी।

मुक्तिबोध ने त्रिलोचन के काव्यसंग्रह धरतीकी समीक्षा करते लिखा है कि - कवि में नैतिक सच्चाई बहुत प्रबल होने के कारण ही वह सामाजिक लक्ष्य के प्रति उन्मुख है।मलयज ने भी दिगंतपढ़ने के बाद प्रतिक्रिया में लिख है कि चाहे जिस भी नजर से देखें घूम-फिरकर एक ही बात मन में आती है कि त्रिलोचन की कविता एक ठेठ भारतीय जन की कविता है। फणीश्वरनाथ रेणु ने त्रिलोचन के बारे में जो लिखा है उसे पढ़कर मन में हूक उठ रही है कविता मेरे लिए समझने-बूझने या समझाने का विषय नहीं, जीने का विषय है। कवि नहीं हो सका, यह कसक सदा कलेजे को सालती रहेगी। और, अगर कहीं कवि हो जाता तो, त्रिलोचन नहीं हो पाने का मलाल जीवन-भर रहता।त्रिलोचन पूरी छूट देते हैं कि आप उनकी कविता को चाहें तो कविता कह लें। मगर उन्हें यकीन है कि जो रसज्ञ हैं उनके लिए उन्होंने अपने दिल की बात लिखी है कि जो रसज्ञ हैं उनके लिए उन्होंने अपने दिल की बात लिखी है। जो अजीर्णग्रस्त हैं वे तो यकीनी तौर पर उनकी कविता को कठघरे में खड़ा करेंगेः-

                        इसमें क्या है, मेरे और आपके दिल की
                        धड़कन है, कहना चाहें तो कविता कह लें,
                        इसकी धारा में बहना चाहें तो बह लें।
                        देख सकेंगे यहाँ धूपछाँही झिलमिल की
                        जो रसज्ञ हैं, इसे उन्हीं के लिए लिखा है
                        जो अजीर्णग्रस्त है, कहेंगे इसमें क्या है।
                                    - (अनकहनी भी कुछ कहनी है)



-राजकिशोर राजन,
59, एल.आई.सी. कॉलोनी, कंकड़बाग, पटना-20
मो.- 7250042924

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