Monday 21 March 2016

भगवत रावत की कविताएँ




अतिथि कथा

उस दिन
अचानक आ गए कल्लू के जजमान
ठीक ठिए पर ही जा पहुँचे जहाँ
कल्लू और रामा
करते थे सफाई
पहाड़ी के नीचे वाली
कलारी के पास
अब ऐसे में क्या करता कल्लू
उसने तुरंत अपनी पगड़ी उतार
जजमान के पाँवों से लगाई
फिर गले मिले
दोनों समधी
देखा रामा ने दूर से
तो डलिया-झाड़ू वहीं रख पहुँची पास
घूँघट किया समधी को
पूछी बेटी-जमाई की
कुसलात
फिर कलारी के पास चट्टान पर बैठे तीनों जने
बैठ गए आसपास दोनों घर दोनों गाँव
दोनों परिवार
दोनों समधी आमने-सामने
और लाज-शरम की आड़ में
बगल तरफ रामा
कल्लू ने बीड़ी सुलगाई
दाहिनी कोहनी को हाथ लगा आदर से
जजमान को गहाई
बस, इतने में
रामा पता नहीं कहाँ गई
पता नहीं कहाँ से क्या-क्या प्रबंध किया उसने
कि थोड़ी देर बाद एक हाथ में चना-मुरमुरा-खारे की पुड़िया
दूसरे हाथ में गरम-गरम
भजिए-मुँगोड़े लिए हुए आई
और फिर फैला कर अखबार का कागज
बिछा दिए उसने चट्टान पर जितने हो सकते थे
सारे पकवान
थोड़े ही देर में
मछली बेचने वाला भोई का लड़का
ला कर रख गया उनके सामने
तीन गिलास और गुलाब की अद्धी
जैसे सचमुच का
सम्मान
तीनों ने शिकवों-शिकायतों
रिश्तों-नातों की जन्म-जन्मांतरों की
मर्म भरी कथाओं के साथ
खाली की अद्धी गुलाब की
खूब-खूब हिले-जुले तीनों जने
तीनों ने खूब-खूब कसमें खाईं
बात-बात पर दी गई भगवान की दुहाई
ऐसी बही तिरबेनी प्रेम की
कि बिसर गईं पिछली भूलें-चूकें
बह गया सारा दुख
धुल गया सारा मैल
सारा मलाल
जनम सफल हुआ
बन गए बिगड़े काज
कल्लू ने समधी को खिलाया पान
एक साथ के लिए बँधवा दिया
फिर बस में बिठाया
बस चलने को हुई तो तीनों के गले भरे हुए थे
बस के हिलते ही जजमान ने भारी आवाज में कहा
हमारे मन में कौनऊँ मैल नइयाँ
आनंद से रहियौ
आप लोगन ने खूब रिश्तेदारी निभाई
प्रिय पाठको
इस तरह उस दिन भोपाल नगर में पहाड़ी के नीचे
कलारी के पास वाली चट्टान पर हुआ शानदार स्वागत
कल्लू के जजमान का
कार्यक्रम समाप्त होते-होते शाम हो चुकी थी
अँधेरा घिर आया था
चाँद-तारे और वनस्पतियाँ साक्षी हैं
देवता यह दृश्य ईर्ष्या से देख रहे थे
और आकाश से
फूल नहीं बरसा रहे थे।

आग पेटी

फिर से खाया धोखा इस बार
रत्ती भर नहीं आई समझदारी
ले आया बड़े उत्साह से
सीली हुई बुझे रोगन वाली दियासलाई घर में
समझ कर सचमुच की आग पेटी
बिल्कुल नए लेबिल नए तेवर की ऐसी आकर्षक पैकिंग
कि देखते ही आँखों में लपट-सी लगे
एक बार फिर सपने के सच हो जाने जैसे
चक्कर में आ गया
सोचा था इस बार तो
घर भर को डाल दूँगा हैरत में
साख जम जाएगी मेरी अपने घर में
जब दिखाऊँगा सबको सचमुच की लौ
और कहूँगा कि लो छुओ इसे
यह उँगलियाँ नहीं जलाती
सोचा था इस बार घर पहुँचते ही
बुझा दूँगा घर की सारी बत्तियाँ
फिर चुपके से एक काड़ी जलाऊँगा
और उसकी झिलमिल फैलती रोशनी में देखूँगा
सबके उत्सुक चेहरे
सोचा था इस बार तो निश्चय ही
बहुत थक जाने के बाद
पिता के बंडल से एक बीड़ी अपने लिए
चुपचाप निकाल कर लाऊँगा
और सुलगा कर उसे इस दियासलाई की काड़ी से
उन्हीं की तरह बेफिक्र हो कुर्सी की पीठ से टिक जाऊँगा
और भी बहुत कुछ सोचा था
लेकिन...
दुखी हो जाते हैं मुझसे घर के लोग
भीतर ही भीतर झुँझलाने लगते हैं मेरी आदत पर
उनकी आँखें और चेहरे
मुझसे कहते से लगते हैं
कि जिससे चूल्हा नहीं जला सके कभी
उसके भरोसे कब तक सपने देखोगे
मैं भी कुछ कह नहीं पाता
और घर में एक सन्नाटा छा जाता है
कोई किसी से कुछ नहीं बोलता
बड़ी देर तक यह सूरत बनी रहती है
फिर धीरे-धीरे मन ही मन सब एक दूसरे से
बोलना शुरू करते हैं
कोई एक आता है और चुपचाप एक गिलास पानी रख जाता है
थोड़ी देर बाद कोई चाय का कप हाथ में दे जाता है
इस तरह अँधेरा छँटने लगता है
मैं देखता हूँ, मैं अपने घर में हूँ
घर में दुख इसी तरह बँटता है।

बैलगाड़ी

एक दिन औंधे मुँह गिरेंगे
हवा में धुएँ की लकीर से उड़ते
मारक क्षमता के दंभ में फूले
सारे के सारे वायुयान
एक दिन अपने ही भार से डूबेंगे
अनाप-शनाप माल-असबाब से लदे फँसे
सारे के सारे समुद्री जहाज
एक दिन अपनी ही चमक-दमक की
रफ्तार में परेशान सारे के सारे वाहनों के लिए
पृथ्वी पर जगह नहीं रह जाएगी
तब न जाने क्यों लगता है मुझे
अपनी स्वाभाविक गति से चलती हुई
पूरी विनम्रता से
सभ्यता के सारे पाप ढोती हुई
कहीं न कहीं
एक बैलगाड़ी जरूर नजर आएगी
सैकड़ों तेज-रफ्तार वाहनों के बीच
जब कभी वह महानगरों की भीड़ में भी
अकेली अलमस्त चाल से चलती दिख जाती है
तो लगता है घर बचा हुआ है
लगता है एक वही तो है
हमारी गतियों का स्वास्तिक चिह्न
लगता है एक वही है जिस पर बैठा हुआ है
हमारी सभ्यता का आखिरी मनुष्य
एक वही तो है जिसे खींच रहे हैं
मनुष्यता के पुराने भरोसेमंद साथी
दो बैल।

वह कुछ हो जाना चाहता है

वह कुछ हो जाना चाहता है
तमाम उम्र से आसपास खड़े हुए
लोगों के बीच
वह एक बड़ी कुर्सी हो जाना चाहता है
अंदर ही अंदर
पल-पल
घंटी की तरह बजना चाहता है
फोन की तरह घनघनाना चाहता है
सामने खड़े आदमी को
उसके नंबर की मार्फत
पहचानना चाहता है
वह हर झुकी आँख में
दस्तखत हो जाना चाहता है
हर लिखे कागज पर
पेपरवेट की तरह बैठ जाना चाहता है
वह कुछ हो जाना चाहता है।

मनुष्य

दिखते रहने के लिए मनुष्य
हम काटते रहते हैं अपने नाखून
छँटवा कर बनाते-सँवारते रहते हैं बाल
दाढ़ी रोज न सही तो एक दिन छोड़ कर
बनाते ही रहते हैं
जो रखते हैं लंबे बाल और
बढ़ाए रहते हैं दाढ़ी वे भी उन्हें
काट छाँट कर ऐसे रखते हैं जैसे वे
इसी तरह दिख सकते हैं सुथरे-साफ
मनुष्य दिखते भर रहने के लिए हम
करते हैं न जाने क्या-क्या उपाय
मसलन हम बिना इस्तरी किए कपड़ों में
घर से बाहर पैर तक नहीं निकालते
जूते-चप्पलों पर पालिश करवाना
कभी नहीं भूलते
गमी पर भी याद आती है हमें
मौके के मुआफिक पोशाक
अब किसी आवाज पर
दौड़ नहीं पड़ते अचानक नंगे पाँव
कमरों में आराम से बैठे-बैठे
देखते रहते हैं नरसंहार
और याद नही आता हमें अपनी मुसीबत का
वह दिन जब हम भूल गए थे
बनाना दाढ़ी
भूल गए थे खाना-पीना
भूल गए थे साफ-सुथरी पोशाक
भूल गए थे समय दिन तारीख
भूल जाते हैं हम कि बस उतने से समय में
हम हो गए थे कितने मनुष्य।

अपने देश में

पानी जब नहीं बरसता तो नहीं बरसता
आप चाहे जितना पसीना बहाएँ
सूखे गले से चाहे जितना चीखें चिल्लाएँ
एक एक बूँद के लिए कितना भी तरस-तरस जाएँ
पानी नहीं बरसता तो नहीं बरसता
लेकिन जब बरसता है तो बरसने के पहले ही बाढ़ आ जाती है
हर बरस हमारी ब्रह्मपुत्र ही सबसे पहले खबर देती है
कि बरसात आ गई
जब तक हमें खबर होती है तब तक सैंकड़ों गाँव
जलमग्न हो चुके होते हैं
जब मैं स्कूल में पढ़ता था, उन दिनों
अखबार में छपी, बाढ़ग्रस्त इलाके का मुआयना करती
किसी हेलिकाप्टर की तस्वीर से पता चलता था
अब इधर सुविधा हुई है
अब हम घरों में कुर्सी पर बैठे-बैठे डूबते गाँवों के
जीते-जागते दृश्य देख कर जान जाते हैं
कि बरसात आ गई है
हम हर साल इसी तरह बरसात के
आने का इंतजार करते हैं

किसी तरह दिखता भर रहे थोड़ा-सा आसमान

किसी तरह दिखता भर रहे थोड़ा-सा आसमान
तो घर का छोटा-सा कमरा भी बड़ा हो जाता है
न जाने कहाँ-कहाँ से इतनी जगह निकल आती है
कि दो-चार थके-हारे और आसानी से समा जाएँ
भले ही कई बार हाथों-पैरों को उलाँघ कर निकलना पड़े
लेकिन कोई किसी से न टकराए।
जब रहता है, कमरे के भीतर थोड़ा-सा आसमान
तो कमरे का दिल आसमान हो जाता है
वरना कितना मुश्किल होता है बचा पाना
अपनी कविता भर जान!

पल-पल के हिसाब वाले इन दिनों

पल-पल के हिसाब वाले इन दिनों
यह अचरज की बात नहीं तो और क्या
कि आपकी बेटी के ब्याह में आपके बचपन का
कोई दोस्त अचानक आपके बगल में
आ कर खड़ा हो जाए।
न कोई रिश्तेदारी, न कोई मतलब
न कुछ लेना-देना, न चिट्ठी-पत्री
न कोई खबर
न कोई सेठ, न साहूकार
एक साधारण-सा आदमी
पाटता तीस-पैंतीस से भी ज्यादा बरसों की दूरी
खोजता-खोजता, पूछता-पूछता घर-मोहल्ला
वह भी अकेला नहीं, पत्नी को साथ लिए
सिर्फ दोस्त की बेटी के ब्याह में शामिल होने चला आया।
मैंने तो यूँ ही डाल दिया था निमंत्रण-पत्र
याद रहे आए पते पर जैसे एक
रख आते हैं हम गणेश जी के भी पास
कहते हैं बस इतना-सा करने से
सब काम निर्विघ्न निबट जाते हैं।
खड़े रहे हम दोनों थोड़ी देर तक
एक दूसरे का मुँह देखते
देखते एक दूसरे के चेहरे पर उग आई झुर्रियाँ
रोकते-रोकते अपने-अपने अंदर की रुलाई
हम हँस पड़े
इस तरह गले मिले
मैं लिए-लिए फिरता रहा उसे
मिलवाता एक-एक से, बताता जैसे सबको
देखो ऐसा होता है
बचपन का दोस्त।
तभी किसी सयाने ने ले जा कर अलग एक कोने में
कान में कहा मेरे
बस, बहुत हो गया, ये क्या बचपना करते हो
रिश्तेदारों पर भी ध्यान दो
लड़की वाले हो, बारात ले कर नहीं जा रहे कहीं।
फिर जरा फुसफुसाती आवाज में बोले
मंडप के नीचे लड़की का कोई मामा आया नहीं
जाओ, मनाओ उन्हें
और वे तुम्हारे बहनोई तिवारी जी
जाने किस बात पर मुँह फुलाए बैठे हैं।
तब टूटा मेरा ध्यान और यकायक लगा
कैसी होती है बासठ की उम्र और कैसा होता है
इस उम्र में तीसरी बेटी को ब्याहना।
खा-पी कर चले गए रिश्तेदार
मान-मनौवले के बाद बड़े-बूढ़े मानदान
ऊँचे घरों वाले चले गए अपनी-अपनी घोड़ा गाडि़यों
और तलवारों-भालों की शान के साथ।
बेटी को विदा कर रह गया अकेला मैं
चाहता था थोड़ी देर और रहना बिलकुल अकेला
तभी दोस्त ने हाथ रखा कंधे पर
और चुपचाप अपना बीड़ी का बंडल
बढ़ा दिया मेरी तरफ
और मेरे मुँह से निकलते-निकलते रह गया
अरे, तू कब आया?

जब कहीं चोट लगती है

जब कहीं चोट लगती है, मरहम की तरह
दूर छूट गए पुराने दोस्त याद आते हैं।
पुराने दोस्त वे होते हैं जो रहे आते हैं, वहीं के वहीं
सिर्फ हम उन्हें छोड़ कर निकल आते हैं उनसे बाहर।
जब चुभते हैं हमें अपनी गुलाब बाड़ी के काँटे
तब हमें दूर छूट गया कोई पुराना
कनेर का पेड़ याद आता है।
देह और आत्मा में जब लगने लगती है दीमक
तो एक दिन दूर छूट गया पुराना खुला आँगन याद आता है
मीठे पानी वाला पुराना कुआँ याद आता है
बचपन के नीम के पेड़ की छाँव याद आती है।
हम उनके पास जाते हैं, वे हमें गले से लगा लेते हैं
हम उनके कंधे पर सिर रख कर रोना चाहते हैं
वे हमें रोने नहीं देते।
और जो रुलाई उन्हें छूट रही होती है
उसे हम कभी देख नहीं पाते।

बच्चा

अलमुनियम का वह दो डिब्बों वाला
कटोरदान
बच्चे के हाथ से छूट कर
नहीं गिरा होता सड़क पर
तो यह कैसे पता चलता
कि उनमें
चार रूखी रोटियों के साथ-साथ
प्याज की एक गाँठ
और दो हरी मिर्चें भी थीं
नमक शायद
रोटियों के अंदर रहा होगा
और स्वाद
किन्हीं हाथों और किन्हीं आँखों में
जरूर रहा होगा
बस इतनी-सी थी भाषा उसकी
जो अचानक
फूट कर फैल गई थी सड़क पर
यह सोचना
बिल्क़ुल बेकार था
कि उस भाषा में
कविता की कितनी गुंजाइश थी
या यह बच्चा
कटोरदान कहाँ लिए जाता था


कचरा बीनने वाली लड़कियाँ 

आपने अपने शहर में भी
जरूर देखी होंगी
कचरा बीनने वाली लड़कियाँ
मोहल्ले भर के कूड़े के ढेर पर
चौपायों-सी चलती-फिरती
कचरे में अपने आप पैदा हो गई
नहीं लगतीं
ये कचरा बीनने वाली लड़कियाँ?
जगह-जगह फटे
अपने कपड़ों जैसे टाट के बोरे में
भरती हैं वे बीन-बीन कर
हमारे आपके रद्द किए कागज के टुकड़े
टूटे-फूटे टीन और प्लास्टिक के डिब्बे
जब कोई छपा हुआ फोटू
या साबुत डिब्बा मिल जाता है उन्हें
तो वे रख देती हैं अलग सँभाल कर
और उस समय तो आप
उन्हें देख नहीं सकते जब वे
कचरे में से जाने क्या उठा कर
चुपचाप मुँह में रख लेती हैं
अपने आस पास
घूमते सुअरों के बीच कैसी लगती हैं
ये कचरा बीनने वाली लड़कियाँ?
यह सवाल
समाजशास्त्र के कोर्स के बाहर का है
और सौंदर्यशास्त्र उनके लिए
अभी बना नहीं
हाँ, आजकल कलात्मक फोटोग्राफी के लिए
मसाला जरूर हो जाती हैं
ये कचरा बीनने वाली लड़कियाँ
अपनी त्वचा पर
कालिख की परतों पर परतें चढ़ाती
बालों को जट-जूटों की तरह
फैलाती-बढ़ाती
बिना शरम-लिहाज
शरीर को चाहे जहाँ खुजलाती
पसीने और पानी के छीटों से बनी
मैल की लकीरों वाले चेहरे पर
पीले दाँतों से
न जाने किसको मुँह चिढ़ाती
आठ-नौ बरस से
बीस-पच्चीस तक की उमर की
पता नहीं कब कैसे
किस कूड़ेघर से
अपने पेट में
बच्चे तक उठा ले आती हैं
ये कचरा बीनने वाली लड़कियाँ
मर तो चुकी थीं सारी की सारी
चौरासी की गैस में
अब किससे पूछें
फिर कहाँ से उग आई हैं
ये कचरा बीनने वाली लड़कियाँ?
किसी रजिस्टर में इनका नाम नहीं लिखा
ढूँढने पर भी इनके बाप का पता नहीं मिलता
इनका कहीं कोई भाई नहीं दिखता
यहाँ तक कि खुद ही
अपनी माँ होती हैं
ये कचरा बीनने वाली लड़कियाँ।

1 comment:

  1. यथार्थ को दर्शाती सुन्दर कवितायेँ। खासतौर पर मनुष्य,किसी तरह दीखता भर रहे थोड़ा सा आसमान, जब कहीं चोट लगती है...संवेदनाओं को छू जाती हैं। कवि को बधाई। मॉडरेटर को धन्यवाद।

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