Wednesday 9 March 2016

विजेंद्र की कविताएँ



हृदय  सूखता

पृथ्वी  पर  अधिक  सुन्दर और  क्या  है
दिखता नहीं जो
मनुष्य रचते हुए
सूर्य हर रोज लाता है
वृक्षों के लिए धूप                            
हवा, कम्प, लहरें, धूल कण                           
जी उठते हैं सभी                                                           
मेरे लिए अदेखी उजास
पकता अन्न
क्यों  नहीं दिखता मुझे
खिला वन फूल घाटियों में  एकान्त
झाड़ी का नन्हा शिशु
फूटती  दूब.लौ
तीतरपंखी छितराए बादल अतीत
अंकुरित होते धान
हल-फाल ले जाता किसान खेत को
दिन बदलता है कितनी पोशाकें
शाम तक निहारता तुमको
ऋतुओं को रिझाने को
शान्त नग्न सन्ध्यायें
घरघराते वायुयान, गुम्बद, कंगूरे, रंगशालायें
मन्दिरों की झालरें
अजान मस्जिदों की
गिरजा घरों की घन्टियां
गुरुद्वारे की रागिनी
ये सब कितने बे-जान हैं
बिना लहलहाते खेतों के , खलियानों के
फलदार वृक्षों के
श्रमिक की मिटी भूख के
कितनी गन्दी नदियां, आकाश, हवा
कुहासे में बूंद-बूंद टपकता
सूर्य का धुंधलापन
ओ सुनसान बीहड़ो
गहरी घाटियों
छोड़ के चला गया तुम्हें वसन्त
छोटी छोटी मगरियां
परतदार चट्टानें
सूखी नदियों के मुहाने
प्रिय भूमा
सब कुछ जैसे खो दिया हो
मुझे किया गया हो निर्वासित
सन्तरे के छिलकों की तरह
एक रिक्त हृदय सूखता सा


अँधेरा इतना घना

देखा रात के पलक भारी हैं
देखा उसे मुझे देते दिलासा
यही सच है
दर्द की सुर्ख होती शलाकायें
अँधेरा इतना घना
किस से कहूँ
बेचैन अकुलाता
स्वयं को ही मथा, मथता रहा
कैसे कहूँ
शब्द भी हिचकिचाते हैं
वृक्षों की काँपती छायायें
खूँद कर आगे बढ़ा
ओ पहली किरण
तू आ तैरती आकाश को
आ छेद अँधेरे की
मगरमच्छी देह को
चैत आने को हुआ
दूब तू फूट  आ
मुझे मिलेगी नई रोशनी
देखने को बूँद तिनके पर
सूर्योदय भी देखा आज
धुँधलाता हुआ अंगारा
नहीं ठहरा सुनने को
गहरी हुई और पीड़ा
दर्द तीखा अैर पैना
हर कराहट में कहता अरी मैया
किस से कहूँ अपनी व्यथा
लग रहा जीवन अब भार होता
खड़ा जैसे काल आगे
फुफकारता मुझ पर न था ।


मैं परिभाषाएँ बदलता रहा हूँ

इक्कीसवी सदी का सूर्योदय
वृक्षों की फुनगों को छूकर
अभी मेरी बरौनियों से गुजरा है
गुजरा है अनकहा, अनजान
अभी अभी मैंने देखा उसे
सूखी पत्ती को झारते
अभी अभी
घास के तिनके को हँसाते
ओह ! मैं कितनी कठोर चट्टान पर
खड़ा हूँ, औड़ी चट्टान पर
यहाँ से तेज़ ढलान दिखता है
ढुलकता पानी तलहटियों में
हिरमिची काई जमी हुई भदेस
मैं परिभाषाएँ बदलता रहा हूँ
मेरी जड़ें उखाड़ी गई हैं
मुझे विस्थापित होना पड़ा है
अपने आत्मीय नगर से
ओ वैदिककालीन महऋषियो
तुम एक पार फिर आओ
भारत की धरती से देखो
सौरमण्ल की उत्पत्ति
पृथ्वी ग्रह का उगना
तब मैं नही था
मैं भूगर्भशास्त्र की
अन्ध गुहाओं में भी घुसा हूँ
निचोड़ता रहा हूँ रस उसके खनिजों से
ऋतुविज्ञान ने अपने डैने छितराए हैं
पृथ्वी के श्यामल अधखुले वक्ष पर
तुम देखो उन्हें अपने जनपद से
तुम आओ एक बार फिर
फिर से जानों
मेरी आत्मा का भौतिक- भूगोल
हाथ मेरे जिस्म का ही हिस्सा है
वो आत्मा से अलग नहीं
कोई भी पूर्ण कहाँ है
मैं इसी अधूरेपन में ही जीकर
चढ़ कर आया हूँ चट्टाने
किये हैं पार बे-सुरे  अन्धड़
पृथ्वी का विपुल धरातल छूता अन्तरिक्ष
उसे कमाते असंख्य जन अपने हाथों से
मेरा घर
मेरे बच्चे
मेरे मन की अनन्त गहराइयाँ
उनमें छिपे बीज  वनों के
भिगोया है मुझे वर्षा ने सराबोर
सुखया है तपिश ने हर कोर
ठिठुरा हूँ कटते शीत में अछोर
अणुओं के गुण -सार जानने को
भटका हूँ सघन कुहासों में
मैं ने ही दिए है नाम
पृथ्वी की रचना को
मेरे भीतर का स्थल और तल
हिलोरे लेता जल मण्डल
गूँजता मेरे ही शब्द से सारा गगन
साँस लेने को वायु का  विस्तार 
कितना  पसरा मैदान है जहाँ तक जाती दृष्टि
यहाँ से वहाँ तक
बदलता रहा हूँ परिभाषाएँ
विश्व का सर्वहारा कितना दुखी है
कहाँ है क्रांति, परिवर्तन और उज्जवल भ्विष्य
बिना संगठन के रिक्त दिखता है दूर तक
जनसंसार को कहूँ कैसे
गणित सूत्रों में
पृथ्वी को समझूँ
उसकी परत -दर-परत
मिट्टिों के रंगो से, रबेा से, कणों से
क्यों नहीं मिला उनका देश
अभी फिलिस्तीनियों को
कौन देता है शै क्रूर इज्रायल को
कितना खून बहा है
इराक में, अफगानिस्तान, सीरिया और मिस्र में
ये भी तो जीवन्त हिस्से हैं पृथ्वी के
जलमण्डल को देखता हूँ
स्थल और जीवन के बीच
कितना रिश्ता है इन दोनों का
जैसे मेरी आँखें और कान
नहीं चाहता कोई देश
रहना साम्राज्य से दबकर
जो थेाप कर प्रतिबंध
विवश करता है मनवाने को
अपनी सनकी शर्ते
वायुमण्ल के जुडे हैं रेशे
स्थल, जल और जीवन से
कैसे हुआ है भूतल ऐसा
कितनी बारीक छलनी से
गुजरा है मेरा हृदय
मेरे रोंयों को भिगोता पसीना
पूरा धरातल है मेरा जिस्म
जल, थल, वायु के रेशे
जुड़े हैं मेरी जड़ों से
रहा है लक्ष्य खेजना अनखेाजा
दबा है मलवे में जो अतीत
छिपे हैं उसमें अग्नि कण, हीरक मणियाँ
वैज्ञानिक रीतियाँ बदलती रही हैं
जानूँ मैं अपने और वायु के रिश्ते को
जल और चट्टान के कथन को
ढलता रहा हूँ हवा से
जल से, ताप से
वर्फ से
तोड़ता रहा हूँ नियम - बन्धन
सिरजता रहा हूँ नये भवन
नये द्वार, नये गवाक्ष, नये मेहराब
धरती की अपार सम्पत्ति पर
क्यों जताता एकाधिकार अमरीका
क्यों थोपता अपनी सनक
उगते देशों पर
लोकतंत्र बहाली के नाम से
हड़पता है विपुल सम्पदा देशों की
कोई तैयार नहीं
बोलने को विरुध्द सामन्तों के
कार्पोरेट दुनिया में घुला-मिला
करता हूँ समझौते
अपनी इच्छा के विपरीत
नहीं है मेरी मुक्ति धूल कणों से
ओस की बूँदों से
स्फटिक रवों से
कभी नहीं
मेरे लिए न तो कोई स्वर्ग है
न कोई नरक
मुक्ति होगी मेरी
जब होगा मुक्त श्रमी सर्वहारा
तभी होंगी मुक्त स्त्रियाँ
सर्वहारा की मुक्ति से है नालबध्द
मुक्ति दलितों की, महिलाओं की, बुजुर्गो की
कभी नही रहा दास
जलवायु और ऋतु चक्रों का
करता रहा हूँ संहार जनविरोधी नियमों का
बिना संगठन विज्ञान जाने
क्रांति है एक छद्म दुनिया का
कितनी वेदना सही है मैने
अक्षर खोजने में
शब्द को देने में नाम वस्तु का
समय भी क्या है
मेरी उँगलियों में छटपटाते
ग्तिमय द्रव्य , ऊर्जा , प्रकाश कण
क्हाँ है कितनी छाया पृथ्वी पर
कितना है जाप कहाँ
कहाँ करता तरंगायित समुद्र गर्जनाएँ
कहाँ कितना गहरा है जीवन तल
कब कैसे रचे गये पर्वत विशाल ,
क्यों रचे गये सागर और चट्टाने 

चलो मेरे साथ , चलो
देखने अन्तरिक्ष हृदय सविस्तार
फड़फड़ाता आकाश पंख अपने लाचार
ऋषियों को जो लगा अनन्त

नेति, नेति, नेति
समाधान अभी शेष है
प्रश्न ज्वलित है चारों ओर
कहाँ थाह पाया तल जीवन का
जैसे अन्तरिक्ष आकाश का
तेरता रहा अँधेरे में असहाय
देखता हूँ असंख्य नक्षत्र उछरते
होते विलुप्त अछोर, कहाँ है
उसकी किनोर जो लगता है अमोघ
जैसा बाहर छाया रहता अन्धकार
मेरे भीतर भी कहता प्रकाश जिसे
विभ्रम से परेशान देख कर अगणित तारागण
गैसीय पदार्थ से रचे गये
गोलाकार गगन - पिण्ड
कुछ बड़े दैत्याकार, लघु कुछ पराधीन
अभी भी है दास इस देश में लाखों
जो समझते अपने को स्वाधीन


रात होते ही

दर्द देने लगता दस्तकें
रात होते ही
घूमता हूँ धरे पेट पर हाथ
बिन कहे ही
सब समझ लेते हैं
नहीं सकता कोई बाँट
सहना मुझे ही है
गहन पीड़ाएँ होती है
और गहरी और गहन अमुखर
याद करता हूँ जिन्हें छोड़ कर
आया यहाँ
चेहरे से नही जान पाते
दुख जीवन का कही, कोई गहरे बहुत
जैसे वृक्ष के तने में छिपी
गोलाइयाँ समय के साथ उगने की
कौन जान पाया दर्द आज तक
जड़ों का दबी पृथ्वी में
देती जीवन रस
पत्तियों को, फूलों को, फलों को
हर कराहट में छिपी हैं
असंख्य यादें कठोर जीवन की
चैखटें, दिवारें, खिड़कियाँ, रोशनदान
चुप सुंनते हैं बिना कुछ बोले
चाहता हूं वे खुलते रहें बाहर को
टूटता है एक पत्ता
दूसरा जन्म लेता उसकी जगह
सहूंगा और भी दर्द ऐसे
जाने कितने तल्ख, तीते, विष-बुझे भी
इससे भी अधिक तीखा होगा दर्द
आग न बुझ जाए कहीं
रौदी दूब का न फूटना सहसा
आदमी में मुक्त होने की लपट
न मुरझाए कभी ।
                                                                   

चित्रकार का एकालाप

समय के साथ
किसानों ने और श्रमिकों ने
उस पर यकीन करना शुरू कर दिया है
क्या किसान और श्रमिक
मेरे चित्रों को समझते हैं
उन्हें रंग अच्छे लगते हैं
और खेतों, पहाड़ों , नदियों और बादलों के भूदृश्य
तुम  मेरे चित्रों में किसानों को
नहीं देख पाओंगे
न श्रमिकों को
जो , जैसे कविता में हैं
वहाँ वैसे नहीं
पर उनके हाथों का खुरदरापन
उनकी काली तची पीठ
तँबई चेहा
खुली छाती का पाट
रंगों और स्ट्राकों मे
छिपा है उनके जीवन का सार
जितना छिपा सको कला में छिपा लो
जीवन में जो ख्ुाली किताब है
कविता में अनुगूँज
चित्र में लय बंध
मुझे वे पार्टियाँ पसन्द नहीं
जहाँ ऊँचे घरों की महिलायें
अपने वर्ग -दम्भ को
छिपा नही पाती
चित्रकार उन्हें एक बेचारा जन है-
जो सिर्फ भूख और दुख की बात करता है
जन्म दिन की पार्टियों में
सजी-.धजी महिलाओं के भीतर
रिक्त के सिवा कोई चारित्रिक दृढ़ता नहीं होती
बकवास, झूठ , फरेब, आत्म मुग्धता
ईष्र्या से भरे उनके तेवर
देखने में कचरे का ढेर
वे सब एक ही साँचे में ढली दिखती है
उनके जीवन की रिक्तता ने
उन्हे सूखी घास बना के
ढर्रे में जीने को छोड़ दिया है
जब उपभोग ही लक्ष्य हो जीवन का
तो मनुष्य के चेहरे पर
न तो प्यार का उजास होता है
न साहस के खुरदरे आँक ।

--

विजेंद्र,
503, अरावली, ओमैक्सी हिल्स,
सेक्टर 43, फरीदाबाद 121001,
ईमेल- kritioar@gmail.com

3 comments:

  1. विजेंद्र जी की कविताएं लोक सौन्दर्य से उल्लसित हैं। जन चेतना की सुंदर अभिव्यक्ति

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  2. The Amissio Formula Review


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