Monday 1 February 2016

सुशील कुमार शैली की कविताएँ

आत्मकथन 
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कविता में हम एक ऐसे नाजुक दौर से गुजर रहे हैं कि कविता पढ़ने से ज़्यादा सुनाने की चीज़ (कान-रस) मात्र बन कर रह गई है, जिसमें वाहवाही की प्रमुख प्रतिक्रिया आवश्यक समझी जा रही है | किसी कवि की पंक्ति पर जितनी ज़्यादा वाहवाही होती है गूँज के हिसाब किताब से वो उतना ही लोकप्रिय माना जाता है | भगवान् करे कि अगर हम जैसे किसी गवार को किसी मंच पर कविता बकने के लिए धकेल दिया जाये तो और सुनने वाले चुपचाप सुनने के बाद, और हम सुनाने के अपनी सीट पर लौट आएं तो मंच अध्यक्ष मन में गालियां देता जरूर कहता 'इस साले को कहां चढ़ा दिया'| पता नहीं लोग ज़ख्म देने वाले की तरफ कलम करके बात कहने से क्यों भागते हैं? और क्या भाषा के मृदुलेपन से उनकी जीब कसलाई नहीं जाती | क्या पंक्तियों में शब्दों का हिसाब किताब किसी आदमी के चोट खाये हुये बदन से ज़्यादा महत्व रखता है| कुछ ऐसे ही प्रश्नों से जूझता मैं कविता के क्षेत्र में प्रवेश कर जाता है और भाषा के लिजलिजेपन को त्यागकर खुरदुरेपन को एक हथियार की तरह प्रयोग करते हैं |
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मेरे महबूब !        

मुझे माफ़ करना, मेरे महबूब !
मैं नहीं दे पाया तुम्हारे स्वप्नों को कोई आकार
कि तुमने चाहा था -
बादलों के पार का इक जहान
कि तुमने मांगा था -
तितली के पंखों सा कुछ खुलापन 
मुझे माफ़ करना, मेरे महबूब !
मैं कुछ ऐसा नहीं कर पाया
कि जो तुम्हारी चाहतों का कोई आकार हो सके,
मुझे माफ़ करना, मेरे महबूब !
कि मैं गिलहरी से मासूस तुम्हारेे चेहरे पर से 
नहीं हटा पाया, भविष्य की चिंताओं की सलवटें
और नहीं जुटा पाया 
कोमल भावों के जिह्वा तक का साहस,
मुझे माफ़ करना !
मैं कुछ ऐसा नहीं कर पाया कि जुटा सकूँ
कुछ ऐसे शब्द, जो मेरी मुट्ठी में साहस का पर्याय हों,
मुझे माफ़ करना, मैं गुनाहग़ार हूँ तुम्हारे
टूटे हुए स्वप्नों का, क़त्ल हुई इच्छाओं का
हाथों पर पड़े अट्टनों का, पैरों में पड़ी वेईयों का
उदास आँखों का, हतास शब्दों का
मुझे माफ़ करना, मैं नहीं दे पाया 
तुम्हारी चाहतों को, इच्छाओं को कोई आकार 
मेरे महबूब !

भूख बनाम लोकतन्त्र

कविता, भाषा से उठाकर भूख के सामने खड़ा 
कर देती है, पूछती है -
तुम्हारे पेट का कौन सा हिस्सा
लौकतन्त्र में उचित ठहरता है
और वो
आँखों में सिकुड़ते हुए देश को उठाकर,
पत्नी के फूले हुए पेट पर रख देता है,
यही इक प्रक्रिया है कि सभी पीढ़ीयों ने आँच 
पड़ोसी के चुल्हे से उधार ली है
और रोटी 
या तो माँगी है या गला रेत ली है,
और मैं कहता हूँ कि वाह !
ये लोकतन्त्र का किस्सा कितना अजीब है
कि भाषा और स्वाद के लिए 
एक ही जीभ है |


घृणा की शुरूआत

मैं, उस समय
उस आदमी से घृणा करने लगता हूँ
जब बाईं ओर मुँह कर
वह आदर्श की जुगाली करता है
कुछ समय बाद, दीवार की बाईं ओर
जांघों को खुजलाता, आदमी चबाता
धीरे-धीरे शहर निगल जाता है
फिर भी शाकाहारी ही कहलाता है,
यह एक सोच की पूरी श्रंखला है
जो ईमारतों के पहले स्तर से शुरू हो अंतिम स्तर तक
बिल्डर और इंजीनियर की मिली-भूगत का नतीजा है
कि बसते हुये लोग शहर
शहर ईमारत , और ईमारत दीवार बनती जाती है|


जलता है दीया मुंडेर पर

हमारे घर की मुंडेर पर दीया जलता है
काली अंधियारी रात में, हर रोज़
कवितायों के लिए ओज
वहीं से लेता हूँ, मैं
ये मेरी माँ का विश्वास ही है
कि वो जलता है, दो चार होता है
पास भी फटकने नहीं देता
अंधेरे को
कि जब तलक सुबह का सूरज
दस्तक नहीं देता बंद खोलियों पर
निगल नहीं जाता
आकाश पर छाई अंधेरे की चदरिया को
वो जलता है, दो चार होता है
गिरता है, उठता है
लेकिन फिर भी तैनात है
उसके विश्वास को आकार देने के लिये |


मैं हिन्दू था तुम सिक्ख ही अब्बास मुस्लमान.  

मेरे दोस्त ! जब मेरा जन्म हुआ
मेरी माँ को दाई ने आकर ये नहीं कहा कि
"
बधाई हो आपके घर हिन्दू पैदा हुआ है "
ही मेरी माँ की पहली देखनी ने मुझे 
हिन्दू की दृष्टि से देखा 
और ही मुझे पहली गुड़ती देने कोई
हिन्दू देवता ही वहां आया
मेरी माँ के लिए मैं उसके ज़िगर का टुकड़ा था
उसकी दुनिया ..............
कि हिन्दू .........
मैं बता दूं, बताना ही पडे़गा
मेरे मुहँ से निकलना  पहला शब्द माँ था 
कि हिन्दू...........,
मेरे दोस्त ! तुम्हें याद है मासूम बचपन में 
मुहल्ले में खेलते समय आँख-मचौली 
मैं तुम्हें, तुम मुझे 
इस लिये पकड़े नहीं थे पहले 
कि तुम सिक्ख थे, या अब्बास मुस्लिम और मैं हिन्दू
हमारी तौतली ज़ुबान से निकलते शब्द 
उस समय हिन्दू थे सिक्ख ही मुस्लमान
वे मात्र प्रेम था एहसास था .....,
  
मेरे दोस्त ! हमारे घर के पास की पाठशाला की दीवारों के
भीतर तुम सिक्ख थे, मैं  हिन्दू , नहीं अब्बास मुस्लमान
मेरे दोस्त ! पाठशाला का सिखा वह पहला शब्द 
जिसे बोलने लिखने की खुशी में तुम मैं 
घण्टों उच्छले थे, वह शब्द
हिन्दू था, मुस्लिम, सिक्ख ,
तुम्हें याद है ! आधी छुट्टी के समय 
जब हमारे डिब्बे खुलते थे 
तो हम चकित रह जाते थे और एक दूसरे को शक्क की
निगाह से देखते थे
उस समय जब हम एक-दूसरे की रोटी चुरा कर 
खा जाते थे 
हां ! हां ! उसी समय
उस समय मैं हिन्दू था तुम सिक्ख ही अब्बास मुस्लमान,
मेरे दोस्त ! हमारी आपस में बदलती कापियों 
और नकल करके उतारे गए सारे प्रश्न 
उस समय हिन्दू थे सिक्ख ही मुस्लमान
और ...और तुम्हें याद होगा 
जब छुट्टी होती थी
तब घर जाते समय
बाज़ार में चलते समय, सड़क पार करते समय
वाह्नों की तेज़ रफ़तार से डरते 
जब हम एक दूसरे का हाथ कस्स के 
पकड़के सड़क पार करते थे तो डरे सहमे
एक दूसरे को डांडस देते, सहारा देते 
तुम सिक्ख थे मैं हिन्दू ही अब्बास मुस्लमान,
तो अब मेरे दोस्त ! तुम क्यों कहते हो
कि मैं हिन्दू, तुम सिक्ख और अब्बास मुस्लमान
मेरे दोस्त ! तुम्हें याद होगा बाज़ार में हुआ हमारा झगड़ा
जब हमने मिलकर पिट्टा था 
उस आततायी को जिसने 
पहले तुम्हें फिर मुझे फिर अब्बास को गाली दी थी
उस समय भी मैं हिन्दू था तुम सिक्ख ही अब्बास मुस्लमान
और हमारे लिए वो था एक दरिंदा बस
मेरे दोस्त ! तो अब क्यों तुम.........
मेरे दोस्त ! मैं आज भी पाठशाला के उसी मोड़ पर
सड़ंक पार करने के लिए
और हाथ में वही डिब्बा लिए
इसी आशा में कि हम एक दूसरे का चुराकर खाना खायेंगे
खड़ा हूँ 
कि भूल कर तुम कि
मैं हिन्दू हूं तुम सिक्ख और अब्बास मुस्लमान
आओगे और सड़क पार करते हुए 
चुपके से हम एक दूसरे का खाना खा जायेंगे |


सहमा हूँ

चुप हूँ, बोलता नहीं कुछ
डर जाता हूँ, सहम जाता हूँ
छुप जाता हूँ संस्कारों की झाड़ियों में
किसी मासूम से ख़रगोश सा
क्योंकि शब्दों की वजह से 
आदमी क़त्ल हो रहे हैं,
शहर में सोये हुये आदमी से ज़्यादा
जागता आदमी असुरक्षित है,
सोचता हूँ हर बार और इतिहास की
उस घटना पर पहुंचने की कोशिश करता हूँ
जहाँ आदमी के दिमाग में 
कुछ फटे हुए पन्ने का ढेर है,
ढूंढ़ता हूँ, बार-बार ढूंढ़ता हूँ
                            
भीड़ में
आंखें दौड़ाता हूँ
लेकिन टूटे हुए स्वप्नों 
बुझी हुई इच्छाओं के सिवा कुछ नहीं मिलता,
निशान छोड़कर जाती हुई 
                                  
भीड़ में 
तलाशता हूँ, लोकसभा के सामने
आत्मदाह किये हुए युवक का 'प्रथम वाक्य'
कि 'देश प्रथम ही साक्षात्कार में मात खाया हुआ शब्द है'
कि उसने ऐसा क्यों कहा, तुम्हें पता है..…..
भागो मत ! कि ऐसे प्रश्नों से भागना अपने आप से
भागना है, लेकिन मैं ढँढ़ता हूँ 
हर जलसे में, हर जलूस में, जहाँ तक कि वित्त मंत्री के
सूटकेस मेंघरेलू मंत्री की ऐश ट्रे में पड़ी हुई राख़ के
ढेर में, लेकिन कुछ भी हाथ नहीं लगता सिवाय 
मात खाये हुए वाक्य के कि 'देश.....…........', 
क्योंकि मेरे लिए वहां कुछ नहीं था ऐसा कि
मैं उत्साहित होता और कहता कि ये देखो -
'
ये लोक है
              
ये सभा है
                          
और ये लोकसभा'
और मैं चिल्लाने लगता हूँ सभा.....सभाभाभाभा.…...स्द..
और पकड़ा जाता हूँ
निशान के तौर हाथ लगी राख़
मेरे हाथ मेरे ख़िलाफ खड़े हो जाते हैं
और मैं अपराध बोध सा खड़ा डरा, सहमा
इतिहास के फट्टे हुए पन्नों पर खड़ा 
चुप-चाप संस्कारों की झाड़ियों के पीछे 
छुप जाता हूँ............... 'ख़रगोश सा' |
               
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सुशील कुमार शैली

सम्प्रति- प्राध्यापक , एस.डी. कॉलेज ,बरनाला 

रचनात्मक कार्य - कविता संग्रह- तल्खियां (पंजाबी में ),  समय से संवाद(हिन्दी में ),  कविता अनवरत-1, काव्यांकुर-3, सारांश समय का (सांझा संकलन) विभिन्न पंजाबी, हिन्दी पत्रिकाओं में रचनाएं शोधालेख प्रकाशित

पता - एस. डी कॉलेज, बरनाला, हिन्दी   विभाग , के. सी रोड़ ,बरनाला (पंजाब) 148101मो - 9914418289

ईमेल- shellynabha01@gmail.com

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