Saturday 26 December 2015

तीन कवि : तीन कविताएँ – 18

विनोद कुमार शुक्ल, रतीनाथ योगेश्वर और आरसी चौहान
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सब संख्यक / विनोद कुमार शुक्ल 


लोगों और जगहों में
मैं छूटता रहा
कभी थोड़ा कभी बहुत
और छूटा रहकर
रहा आता रहा.

मैं हृदय में जैसे अपनी ही जेब में
एक इकाई सा मनुष्य
झुकने से जैसे जब से
सिक्का गिर जाता है
हृदय से मनुष्यता गिर जाती है
सिर उठाकर
मैं बहुजातीय नहीं
सब जातीय
बहुसंख्यक नहीं
सब संख्यक होकर
एक मनुष्य
खर्च होना चाहता हूँ
एक मुश्त.


रोटी / रतीनाथ योगेश्वर 


-1-

बड़े-सबेरे जल उठा
काली ईंटों वाला चूल्हा
सिकने लगी रोटियाँ
खुले-आकाश के नीचे

नमक मिर्च
लहसुन औ धनिया
पिसकर आ गई रोटी पर

काम पर जाना है
पहूँचना है आट से पोहले
मूंसी काट लेगा मजूरी
लगा देगा अपसेन्ट

अबेर हो जाई
जल्दी करा भाई
सात मील जाना है...

हिल रही है पीठ पर
गमछे में बंधी रोटी ।


-2-

रोटी की घनात्विक शक्ति
कम कर दी है तुमने

रोटी हमारे कद से
दुगनी  ऊँचाई की छत से
टेढी़ चिपक गई है
गैस के गुब्बारे की तरह

चूल्हे में आग है
आग पर तवा है
रोटी पक रही है
चिपक रही है छत से

हमारे बौने हाथ
रोटी तक नहीं पहुँच रहे हैं
पर मुझे मालूम है
रोटी कैसे मिलेगी
मैं तवे पर चढ़कर
रोटी पा लूंगा ..

आग; बाँस के पिंजरे में
कैद नहीं होती।



लोगों की नज़र में / आरसी चौहान 

लोगों की नजर में
तुमने मुझे पेड़ कहा
पेड़ बना
टहनी कहा
टहनी बना
पत्तियाँ कहा
पत्तियाँ बना
फूल कहा
फूल बना
तुमने कहा
काँटा बनने के लिए
काँटा भी बना
जबसे लोगों की नजर में
बना हूँ काँटा
नहीं बन पा रहा हूँ अब
लोगों की नजर में
फूल पत्ती टहनी और पेड़। 

4 comments:

  1. सारी कवितायेँ बहुत सुंदर touching

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  2. धन्यवाद भाई .... अच्छा लगा ।
    आरसी चौहान

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  3. अच्छी कवितायेँ --अपर्णा बकुल

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  4. अच्छी कवितायेँ --अपर्णा बकुल

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