Sunday 4 January 2015

मणि मोहन के कविता संग्रह ‘शायद’ पर प्रेमशंकर रघुवंशी की समीक्षा



मणि मोहन की काव्य - मोहनी के मुकाम

वर्ष 2003 में युवा कवि मणि मोहन का पहला काव्य संग्रह ' क़स्बे का कवि और अन्य कविताएँ म.प्र. साहित्य अकादमी के सहयोग से छपा था । इसको वहां की चयन प्रक्रिया के दौरान पढ़कर कविता के इस पूत के पांव उस पाण्डुलिपि के पालने में देख लिए थे कि यह हिंदी के नवलेखन में अपनी निजी जगह बना सकेगा । अब 2013 में, दस वर्ष बाद उसका संग्रह  'शायद' प्रकाश में आया है तो कवि के विकास को देखने की तीव्र लालसा हुई । संग्रह का नाम पढ़कर आश्चर्य इस बात पर हुआ कि इसका इतना छोटा और एकाक्षरी नाम क्यों रखा ? फिर 'शायद' जैसे अनिश्चय वाचक शब्द से नामकरण किया ।संग्रह खोलते ही देखना शरू किया कि क्या इस शीर्षक की कोई कविता है ? तो वह मिल गई । पूरी कविता इस प्रकार है -

"कितना कुछ अनिश्चित है / यहां कविता के संसार में / किसान के हाथों / धरती पर बिखरते बीजों की तरह / यहाँ भी तो फेंके जाते हैं शब्द / और फिर एक लम्बी प्रतीक्षा / अर्थ के बाहर आने की / -कितने शब्द अंकुरित होंगे / कितने दबे रह जायेंगे / भाषा की जमीन के भीतर / पता नहीं होता कवि को / किसान की तरह / वह जीता है / एक खूबसूरत अनिश्चितता में / इसी अनिश्चितता में / कविता का आनंद है / शायद ।"   

यह पूरी कविता है जिसमे शायद शब्द की हकीकत को जानते हुए उसकी अनिश्चय घोतक अर्थ व्यंजना में कविता का आनंद खोजता है कवि मणि मोहन । और पा लेता है इस अनिश्चय के गर्भ में समाहित अपने काव्य कथन का वह निश्चय जो  'शायद' को 'अवश्य' तक पहुँचाने की क्षमता रखता है ।यह है मणि की प्रतिभा का प्रमाण ।आचार्य हेमचन्द्र ने इसे ही कवि की प्रतिभा को ही काव्य का कारण मानते हैं ।और कोई भी प्रतिभावान कवि व्युतपत्ति तथा अभ्यास द्वारा सर्जना को संस्कार देता हुआ अपने काव्य का संवर्धन करता रहता है ।मणि मोहन ने भी इस संग्रह तक आते हुए अपनी प्रतिभा का विकास किया है ।

इस सम्वर्धन में मणि मोहन की वाक् क्षमता का बड़ा योगदान है । वाक्, शब्द का वह मूल रूप होता है जो एक संस्कार की तरह व्यक्ति के अंदर विद्धमान होता है । काव्य का उत्स वाक् है । वाक् यानि शब्द के अंदर अर्थबोध की जो चेतना होती है वह शब्द की वाक् से अनन्यता होती है । इसके बिना शब्द का कोई अस्तित्व नहीं होता ।निष्कर्षतः यह कि वाक् अभिव्यक्ति की शक्ति है। अभिव्यंजना की यह सामर्थ्य किसी न किसी रूप में प्रत्येक प्राणी में होती है । रचनाकार इसी के बल पर अपना निजी सृजन संसार निर्मित करता है, जो वास्तविक जगत का न तो प्रतिरूप हो सकता है, न उसे मॉडल या आदर्श बनाकर अन्य रचना करता है । वह तो अपने काव्य की सर्जना अपनी अनुभूति के विशिष्ट उद्द्वेलन से करता है । मणि मोहन के कवि की प्रतिभा वाकशक्ति के इस मुकाम तक आकर अपनी मोहिनी का विस्तार करता जा रहा है ।

काव्य प्रतिभा, वाक् शक्ति का नैसर्गिक रूप और अभिव्यंजना के विकास के साथ मणि की कविता में यथार्थ और कल्पना का जो मिश्रण है उसका जायका कुछ और ही है । इस दिशा में उसकी काव्य सर्जना उसका एक मुकाम खुद निर्मित कर सकेगी । संग्रह में कुल सत्तर कविताएँ हैं जिनमे लगभग पचास कविताएँ छोटे कद की हैं । मणि की इन छोटी कविताओं में करौंदी या रैनी या जंगली बैरी की झाड़ियों के जैसी वह सघन छाँव और लदालद फूल फल हैं कि वे लंबे से लम्बे वृक्षों से भी ज्यादा फल देने की क्षमता रखती हैं । मणि अपनी इन छोटी कविताओं में ही सघन संवेदनशीलता , भावात्मक सारग्रहिता और तीव्र अनुभूतियों के सहारे अपनी बात नाविक के तीर की तरह प्रस्तुत करने की साधना में संलग्न हैं । अपने और दूसरों के प्रति जितनी रफ़्तार से कवि संवेदनशील होकर रचनारत होगा उतनी ही तीव्रता से वह अपने और अपने समाज के राग - विराग, दुःख - दर्द आदि का चित्रण कर सकेगा और जब इससे भी आगे बढ़कर पूरी कायनात से दिली रिश्ते कायम करना चाहेगा तो इस फैलाव को थोड़े में भरना होगा । ऐसी अभिव्यक्ति का रचनाकार संक्षेप में अपनी बात कहकर पाठक पर यह दायित्व सौंप देता है कि वह उसका विशदीकरण करता रहे । एक बात यह भी है कि अपने आपसे जूझने वाला रचनाकार जब स्वयं को सम्पूर्ण सृष्टि से जोड़कर उसके हर स्पन्दन को स्वयं में अनुभूत करना चाहता है तब वह अपने इस अन्तर्द्वन्द को व्यापक मूल्यों से जोड़ते हुए, अपनी अभिव्यक्ति को टुकड़े टुकड़े में और कभी कभी संकेतों में पेश करने लगता है ।शायद इसी वृत्ति की वज़ह से मणि लघुकाय कविता लिखते हैं।

संग्रह में दो प्रकार की कविताएँ काफी ध्यान देने योग्य हैं । पहले वर्ग की कविताएँ कविता को लेकर हैं जिनमें - जिसे हम कविता कहते हैं , नींद , कविता भी समझ आनी चाहिए , शायद , आत्मकथ्य , तलाश , थोड़ी सी भाषा , ऐसे बनता है ' ' आदि कविताएँ हैं । दूसरे वर्ग की उल्लेखनीय कविताएँ मृत्यु को लेकर हैं जिनमें - अंत्येष्टि से लौटकर , इस तरह , मृत्यु , एक सुपर स्टार की अंतिम यात्रा , बर्बरता - 1, 2, 3 आदि कविताएँ हैं ।यदि और भी वर्गीकरण किया जाये तो परिवार , प्रकृति , गाँव , प्रेम आदि प्रकृति के अंतर्गत दो - दो , चार - चार कविताएँ आ सकती हैं लेकिन इन सबको तीसरे प्रकार में एक साथ रखकर स्फुट कथ्य और चित्रण की रचनाएँ कह सकते हैं । इन तीनो प्रकार की कविताओं पर हम बानगी के तौर पर थोड़ी थोड़ी बातें कर लें ।

पहले वर्ग की कविताओं पर संग्रह की पहली कविता  'जिसे हम कविता कहते हैं' को केन्द्र में रखकर बात कर लेना चाहिए ।इस कविता में कविता को लेकर जो प्रश्नाकुलता, जो अन्वेषणात्मक निष्कर्ष हैं, उनमें कविता की देह और आत्मा बल्कि कविता के स्थूल और सूक्ष्म बल्कि उसके सगुण और निर्गुण रूप का निरूपण है । यह कविता कवि के इस आत्म संवाद से शुरू होती है  - "कब से नहीं देखे सपने / कब से नहीं लिखी कोई कविता / हमारे सपनों में छुपी रहती है कविता / या कहूँ तो / सपनों से बनती है कविता ।" यह सोचते हुए कि कविता का जन्म यदि सपनों से होता है तो यहीं कवि एक सवाल के चक्र में फिर प्रवेश कर जाता है जहां से वह पूछता है - "काहे से बनते हैं सपने ?" और इस सवाल का जवाब देता हुआ वह सपनों के रचाव पर प्रकाश डालते हुए वह बताता है कि सपनों का निर्माण दृश्यों से होता है जिन्हें हमारी आँखें देखती हैं । ये हजारों लाखों वे दृश्य होते हैं जिनमें हवा , नदी , बादल , परिंदे , फूल - तितली , बच्चे , माँ - पिता , भाई - बहन , यार - दोस्त , गाँव - गली और सृष्टि के तमाम दृश्य होते हैं ।" सृष्टि का कुछ भी / इन दृश्यों से बाहर नहीं " होता लेकिन ये तमाम दृश्य जितनी सहजता से सपनो में उपस्थित होते हैं , उतनी आसानी से कविता की सृष्टि में नहीं आ पाते हैं ।आते भी हैं तो वे -  "कभी धुल धूसरित / तो कभी घने कोहरे में लिपटे हुए" आते हैं और हमें भौंचक्का कर देते हैं जिसकी वजह से इन तमाम दृश्यों को गौर से देखकर उनकी सही पहचान करना होता है । उनको इतने गौर से पहचानना होता है कि वे दृश्य हमारे अन्दर प्रवेश कर इतने एकाकार हो जाएँ कि द्रष्टा और दृश्य एक दुसरे में विचरण करने वाले लगें ।ऐसी स्थिति तक पहुंचकर कवि सपनों के इन्हीं घौसलों में कविता की चिड़िया का बसेरा करा देता है - "ऐसे ही कुछ दृश्यों से /बनता है /हमारे सपनों का घौंसला / इसी घौंसले में / एक चिड़िया रहती है / जिसे हम कविता कहते हैं ।" यह वह कविता है जो कवि मणि मोहन की कविता के उत्स, उसके उपादान और उसकी रचनात्मक प्रक्रिया को जानने समझने का संकेत देती हुई हमें उसके करीब जाने में मदद करती है ।वास्तव में कविता का जन्म सपनों से होता है और इन "सपनों के आसमान में / थमी हुई है / आसमानी रंग की / एक पतंग ।" जिनके करतब दिखाते हुए जब  "नींद के आगोश में / जाने को होते हैं / कि अचानक ज़ेहन / रोशनी से भर जाता है / और सपने तरबतर हो जाते हैं / रोशनी में .../ लफ़्ज़ों का दरिया / बहाये लिए जाता है / किसी सुबह की चट्टान पर पटकने के लिए / बेताब ।" (पृष्ठ 69) यही वह रचनात्मक मनः स्थिति है जिसके हर लम्हे में  "समझ में आनी चाहिए" कि यह कविता के रचाव की घड़ी है । इस क्षण में कविता इस तरह स्पष्टतः समझ में आनी चाहिए - "जैसे माँ के चेहरे पर लिखी चिंता / समझ में आती है / जैसे पढ़ ही लेते हैं हम / पिता की आँख का गुस्सा / जैसे दुःख में पगी बहन की आवाज़ / आ जाती है समझ में / ...सुख दुःख जैसे समझ में आते हैं / कविता भी समझ में आनी चाहिए ।" (पृष्ठ 92) जिसे जीवन और जगत की अनिश्चितता के बीच आनंद की तरह पाना ही चाहिए ।

दूसरे प्रकार की कविताएँ मृत्यु के विविध प्रसंगों पर हैं । इनमें 'अंत्येष्टी से लौटकर ' कविता में संवेदना का यह साहचर्य भाव अंदर तक स्पर्श क्र जाता है जब एक दोस्त अपने दोस्त के पिता की मृत्यु पर जो चूक कर देता है , उसकी कचौट उसे गहरे से होती रहती है कि वह - "अपने मित्र को समझाने की जगह / उससे लिपटकर रो लिया होता / तो अच्छा होता / मान रह जाता मृत्यु का / और थोड़ा जी भी हल्का हो जाता ।" इस संवेदनशील मनः स्थिति और संताप का जवाब नहीं ।दूसरा दृश्य है  ' एक सुपर स्टार की अंतिम यात्रा ' का जिसमे - "अंतिम यात्रा के उस दृश्य में / सब कुछ फ़िल्मी लग रहा था / सिवाय मृत्यु के ।" बहुत ही मार्मिक कविता है ' एक चलती हुई बस में ' जहां एक चलती हुई बस में एक लड़की के साथ बलात्कार होता है और कोई प्रतिकार तक नही करता और उसका ड्रायवर तमाम चौराहों के सिग्नलों को धता दिखाता चीखों से भरी उस बस को दौड़ाता चला जा रहा है और सामूहिक बलात्कार के बाद उस पीड़िता को मार दिया जाता है और बस का ड्रायवर उन अपराधियों के लिए बस भगाये जा रहा है ।मणि का कवि अपने आपको उस ड्रायवर की तरह अपराधी महसूस करता एक संवेदनशील नागरिक की तरह प्रायःश्चित करते हुए स्वयं को एक अपराधी महसूस करता है । हद दर्जे की संवेदनशीलता है यह ।

तीसरे प्रकार की कविताओं में गाँव , वृक्ष , दोस्त , क़स्बे , पिता , बेटी , घर , बाज़ार , जुलूस आदि हैं और प्रेम को लेकर भी कुछ कविताएँ हैं । इनमे से एक वियोग की प्रेम कविता है जिसमें प्रिया के बिना घर इतना सुनसान लगता है कि - "सन्नाटा इतना / कि शर्ट का बटन टूटकर गिरता है जमीन पर / तो गूँजती है उसकी आवाज़ / तुम्हारी सृष्टि के ब्रह्मांड में ।" (पृष्ठ 43) और अब अंत में संग्रह की दो छोटी कविताएँ बानगी बतौर देखिये कि कितना घनी समवेदनात्मकता और थोड़े शब्दों में कितना गहन अर्थ है इन फर्स्ट ड्राफ्ट की कविताओं में ।छोटी कविताएँ फर्स्ट ड्राफ्ट में ही अपना आकार ले लेती हैं । उनमे जाले और शब्दों का भार कतई नहीं होता , ना ही आकार को सहेजने या सम्हालने का आभास । आप तो बानगी के बतौर दी जा रही कविताएँ पढ़कर "शायद" के संक्षिप्त का विस्तृत रूप देखिये । कविता है 'घोंसला' - 'सिर्फ तिनकों के सहारे / नहीं बनते घोंसले / देखो , जरा गौर से / कुछ टूटे हुए पंख भी / दिख जायेंगे / यहां - वहां ।'

दूसरी कविता है 'घर' - 'प्रणाम करता हूँ / भेड़ियों को / आते - जाते / सज़दा करता हूँ / कभी - कभी / लकड़बग्घों के दरबार में / क्या करूं .../ एक घने बीहड़ से होकर / गुजरता है / मेरे घर का रास्ता ।' (पृष्ठ 69)

पहले मैंने यही सोचा था कि  ‘शायद’ संग्रह की ऐसी कोई एक - दो कविताओं को केन्द्र में रखकर उनके संकेतों को विस्तार से कहूँ लेकिन उक्त दो कविताएँ आपको अपने इसी भाव को पूरा करने के आग्रह के साथ कवि मणि मोहन के इस बेहतरीन काव्य संग्रह पर उन्हें बधाई देते हुए अपनी बात पूरी करता हूँ ।


शायद (कविता संग्रह)/ मणि मोहन/ 2013/ अंतिका प्रकाशन, सी - 56 / यूजीएफ-4, शालीमार गार्डन, एक्सटेंशन -।।, गाज़ियाबाद -201005 (उ.प्र.)


2 comments:

  1. सरल शब्दों के सहारे गहरी बात कह जाते हैं दादा मणिमोहन... बेहतरीन काव्य संग्रह की सुन्दर समीक्षा

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  2. शुक्रिया राहुल भाई ।शुक्रिया स्पर्श ।शुक्रिया बनवारी भाई ।हौंसला मिला ।

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