Sunday 9 November 2014

तीन कवि : तीन कविताएं - 12

वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना उन समर्थ कवियों में से हैं जो बहुत कम लिखकर भी प्रसिद्धि के शिखर तक पहुंचे हैं | वह उन चुनिन्दा कवियों में से हैं जो कविता संग्रहों से ज्यादा अपनी कविताओं के कारण जाने जाते हैं | उनकी कवितायें अपनी विशिष्ट भाषा-शैली और लयात्मकता के कारण पाठक के अंतर्मन में गहरे तक उतर जातीं हैं | विविध जीवनानुभवों से संपृक्त नरेश जी की छोटी-छोटी कविताओं का बहुरंगी संसार अद्भुत है और हमें सहज ही अपनी ओर खींचता है | युवा कवि एवं कथाकार विमलेश त्रिपाठी हिंदी साहित्य के पाठकों के लिए एक युवा और सुपरिचित नाम है | नयी पीढ़ी में वह हिंदी के सजग एवं संवेदनशील कवियों में से एक हैं | मनुष्य की निरंतर खोती जाती मनुष्यता को खोजती हुई सी विमलेश की कवितायें इस कठिन समय में मनुष्य की मनुष्यता का सशक्त बयान बनती हैं | बनवारी कुमावत राज हमारे लिए एक नया और युवतर चेहरा हैं | ‘स्पर्श’ पर वह पहली बार प्रकाशित हो रहे हैं | हम उनका भी स्वागत करते है | ‘स्पर्श’ पर इस हफ्ते तीन कवि : तीन कविताओं के इस अंक में प्रस्तुत हैं इन तीनों कवियों की कवितायें :
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रंग / नरेश सक्सेना 


सुबह उठ कर देखा
तो आकाश
लाल, पीले, सिंदूरी
और गेरूए रंगों से रंग गया था

मजा आ गया, 'आकाश हिंदू हो गया है'
पड़ोसी ने चिल्लाकर कहा
'अभी तो और मजा आएगा'
मैंने कहा
बारिश आने दीजिए
सारी धरती मुसलमान हो जाएगी।


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संपर्क- विवेक खण्ड, 25-गोमती नगर, लखनऊ-226010
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अकेला आदमी / विमलेश त्रिपाठी 


उसके अकेलेपन में कई अकेली दुनियाएँ साँस लेती हैं
उन अकेली दुनियाओं के सहारे
वह उस तरह अकेला नहीं होता है

अकेले आदमी के साथ चलती हुई
कई अकेली स्मृतियाँ होती हैं

कहीं छूट गए किसी राग की
एक हल्की-सी कँपकँपी की तरह
एक टूट गया खिलौना होता है

कुछ मरियल सुबह कुछ पीले उदास दिन
कुछ धूल भरी शामें
कुछ मुश्किल से बिताई गई रातें
इत्यादि...इत्यादि...
जो हर समय उसके चेहरे पर उभरी हुई दिख सकती हैं
कि उसके चलने में अपने चलने का वैशिष्ट्य
सिद्ध करते हुए स्पष्ट कौंध सकती हैं

लेकिन शायद ही यह बात हमारी सोच में शामिल हो
कि अकेला आदमी जब बिल्कुल अकेला होता है
तब वह हमारी नज़रों में अकेला होता है
हालाँकि उस समय वह किसी अदृश्य आत्मीय से
किसी महत्वपूर्ण विषय पर
ले रहा होता है कोई कीमती मशविरा
उस समय आप उसके हुँकारी और नुकारी को
चाहें तो साफ़-साफ़ सुन सकते हैं

अकेले आदमी की उँगलियों के पोरों में
आशा और निराशा के कई अजूबे दृश्य अटके रहते हैं
एक ही समय किसी जादूगर की तरह
रोने और हँसने को साध सकता है अकेला आदमी

अकेला आदमी जब बिल्कुल अकेला दिखता है
तब वास्तव में वह अकेलेपन के विशेषण को
सामूहिक क्रिया में बदल रहा होता है
और यह काम वह इतने अकेले में करता है
कि हमारी सोच के एकांत में शामिल नहीं हो पाता
और
सहता रहता है किसी अवधूत योगी की तरह वह
हमारे हाथों से फिसलते जा रहे समय के दंश
सिर्फ़ अपनी छाती पर अकेले
और हमारी पहुँच से दूर

अकेला आदमी कत्तई नहीं होता सहानुभूति का पात्र
जैसा कि अक्सर हम सोच लेते हैं

यह हमारी सोच की एक अनपहचानी सीमा है
नहीं समझते हम
कि अकेला आदमी जब सचमुच अकेला होता है
तो वह गिन रहा होता है
पृथ्वी के असंख्य घाव
और उनके विरेचन के लिए
कोई अभूतपूर्व लेप तैयार कर रहा होता है।


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संपर्क- साहा इंस्टिट्यूट ऑफ न्युक्लियर फिजिक्स,1/ए.एफ., विधान नगर, कोलकाता-64
ईमेल-  bimleshm2001@yahoo.com
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कर्फ्यू / बनवारी कुमावत ‘राज’ 


घोर सन्नाटे के बीच
फड़फड़ाते परिंदे
घरों में कैद
रोती-बिसूरती शक्लें
घबराते कबूतरों की
गुटरगूं में
बेचैनी फैलाता ‘कर्फ्यू’

हाथगाड़ी खींचते रामलाल को
रोटी चाहिए बच्चों के लिए
‘कर्फ्यू’ नहीं

सब्जी का ठेला लगाते रहीम को
फ़िक्र है बच्चों की स्कूल फीस की

दूध और खाने को बिलखते बच्चों को
‘कर्फ्यू’ नहीं...खाना चाहिए

तो फिर
‘कर्फ्यू’ क्यों ?
किसे चाहिए
‘कर्फ्यू’ ?


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संपर्क- द्वारा बोधि प्रकाशन, जयपुर
ईमेल- banwarirj@gmail.com
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4 comments:

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  2. नरेश जी की यह एक छोटी सी कविता कितनी सशक्तता से प्रकृति के माध्यम से साम्प्रदायिक प्रवृत्तियों पर प्रहार करती है | विमलेश भी अपनी कविता के माध्यम से एक अकेले आदमी की शक्ति को पहचानने की कोशिश करते हैं | उनकी अभिव्यक्ति प्रभावी है | बनवारी कुमावत की कविता कर्फ्यू जैसे सामाजिक अभिशाप के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ बुलंद करते हुए प्रश्न करती है | तीनों ही कवितायेँ एक सम्मिलित धुन से संचालित होती हुई सी | उम्दा चयन, बढ़िया प्रस्तुति !

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  3. नरेश जी की यह कविता चर्चित रही है। विमलेश जी और कुमावत भाई की कविता भी प्रभावी है।

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  4. मेरी रचनात्मक उपलब्धि रही ... आपका तहेदिल से शुक्रिया और आभार....

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