Wednesday 2 July 2014

आमने - सामने


योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’ द्वारा संकलित साक्षात्कार-संग्रह ‘बात बोलेगी’ में पूछे गये प्रश्नों के उत्तर में वरिष्ठ नवगीतकार मधुकर अष्ठाना द्वारा दिए गये वक्तव्य पर समीक्षक शिवभजन ‘कमलेश’ द्वारा उठाई गयी आपत्तियों पर मधुकर अष्ठाना का प्रतिवाद प्रस्तुत करता साक्षात्कार युवा कवि राहुल देव के साथ |
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प्रश्न-1 : आप नवगीत के बड़े हस्ताक्षर हैं और पूरे देश में चर्चित हैं, किन्तु ‘बात बोलेगी’ में आपने कहा कि गीत विधा नहीं परम्परा है | क्या आप गीत को विधा नहीं मानते हैं ?

उत्तर : भाई राहुल देव जी ! जरा विचार कीजिये कि जो गीत वेदों के बहुत पहले से किसी न किसी रूप में जनमानस में रचा-बसा है, पीढ़ी दर पीढ़ी हमारे जीन्स में समाकर अविरल गतिशील है, शाश्वत है और युगानुरूप स्वतः परिशोधित- परिवर्तित होता अपनी उपस्थिति बनाये हुए है, कभी लोकमन में, कभी सरहपा की प्रार्थनाओं में, कभी भजन और पदों में, संस्कृत के पूर्व की भाषा से लेकर हिंदी तक, भोजपुरी, अवधी, बृज, बुन्देली, खड़ी बोली और देश की 28 भाषाओँ के साथ वैश्विक स्तर पर भी, जो कभी समाप्त नहीं हुआ, वह क्या मात्र विधा है ? किसी भी विधा की आयु सीमित होती है जबकि गीत की आयु असीमित है | गीत जो हमारे संस्कार में है, हमारी जीवन शैली में सम्मिलित है | गीत के विराट स्वरुप को एक विधा में सीमित करना, क्या गीत को अपमानित करना नहीं है ? मैं विधा के रूप में गीत के गौरव को कम करके आंकना उचित नहीं समझता हूँ | परम्परा का महत्त्व अधिक है जो परिवर्तनशील है जबकि विधा का स्वरुप रूढ़ है, उसमें परिवर्तन नहीं हो सकता है |
इस सम्बन्ध में मैं कन्फ्यूसियस जो कि चीन का प्रसिद्द विद्वान था का दृष्टान्त देना चाहता हूँ | कन्फ्यूसियस जब मृत्यु के निकट पहुंचे तो अपने शिष्यों को उपदेशार्थ बुलवाया | शिष्यों के आ जाने पर उन्होंने कुछ नहीं कहा केवल अपना मुख खोल दिया | शिष्य सोच रहे थे कि गुरूजी अब कुछ कहेंगें किन्तु जब वे कुछ नहीं बोले तो शिष्यों ने उनसे उपदेश का निवेदन किया | कन्फ्यूसियस ने कहा कि उपदेश तो मैंने दे दिया | शिष्यों ने पुनः कहा कि हम लोग तो कुछ नहीं समझ पाए | तब कन्फ्यूसियस ने व्याख्या की कि मैंने मुख खोला तो तुम लोगों ने देखा कि मुख में एक भी दांत शेष नहीं है किन्तु जीभ मरते दम तक साथ निभा रही है | बत्तीस दांतों के मध्य भी जीभ अपनी कोमलता के कारण सुरक्षित है और दांत कठोर थे जो अधिक दिन नहीं चल पाए | इसलिए विनम्र बनो, कोमल बनो | यदि कठोर बने तो शीघ्र नष्ट हो जाओगे | गीत हमारी जबान है और विधाएं वही कठोर दांत हैं | आप समझ ही गये होंगें कि गीत को मात्र विधा तक सीमित रखना कितना उचित है |

प्रश्न-2 : श्री शिवभजन ‘कमलेश’ की दूसरी आपत्ति, उनके शब्दों में निम्नांकित है- “नवगीत गीत का ही उत्तराधिकारी है और दोनों के मध्य जनरेशन गैप है | शायद जनरेशन गैप सिद्ध करने के लिए ही नवगीत को उत्तराधिकारी मान लिया | उत्तराधिकार क्या होता है, पहले यह जानना जरूरी है | इस दृष्टि से मैं यह कहना चाहूँगा कि उत्तराधिकारी शब्द का बेहद अनुचित प्रयोग हुआ है |” इस प्रतिक्रिया के उत्तर में आप क्या कहना चाहेंगें ?

उत्तर : वास्तव में इस सम्बन्ध में मेरे अग्रज और ऐसे नवगीतकार जो नवगीत दशक प्रथम, द्वितीय खंड में आ चुके हैं, उनकी अभिव्यक्ति है | डॉ देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’, कुमार रवीन्द्र, डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा, डॉ राजेन्द्र गौतम, प्रो. अवधेश नारायण मिश्र और पारसनाथ गोवर्धन जैसे सुप्रसिद्ध आलोचकों, समीक्षकों और लेखकों ने इसका उल्लेख किया है | मैं तो केवल उनका अनुसरण कर रहा हूँ | अगर उक्त विद्वान गीत के उत्तराधिकारी के रूप में नवगीत का उल्लेख न किये होते तो मैं भी न किये होता | अगर उक्त विद्वानों ने यह बेहद अनुचित प्रयोग किया तो उसके उत्तरदायी भी वही हैं | उन लोगों को चाहिए कि वे लोग आकर श्री कमलेश जी से उत्तराधिकारी शब्द की परिभाषा और अर्थ समझें | फिलहाल मैं कुछ उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हूँ जिससे आदरणीय कमलेश जी मुझे दोषमुक्त करने का मन बना सकें-
प्रो. देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ ने लिखा कि “प्रत्येक नवगीत गीत ही होता है किन्तु प्रत्येक गीत नवगीत नहीं होता |” इस सूत्र वाक्य की व्याख्या करते हुए वे पुनः लिखते हैं- ‘यह एक अकाट्य सत्य है कि नवगीत और पारंपरिक गीत में जन्य-जनक का सम्बन्ध होता है | जैसे पिता के अस्तित्व से पुत्र की अपनी एक पृथक सत्ता होती है तथापि दोनों में कुछ न कुछ रूप-गुण-लक्षण और स्वभावत्व में सादृश्य रहता है, वी ही पारंपरिक गीत की भांति ही नवगीत भी छन्दाश्रित है किन्तु उनमें छान्दसिक अंतर भी स्पष्टतः लक्षित होता है | पारंपरिक गीत की भाषा से नवगीत की भाषा को भी सहजतया अलगाया जा सकता है | दोनों में स्पष्ट अंतर कथ्य को लेकर है | पारंपरिक गीत घूम-फिरकर व्यष्टिमुखी होता है तो नवगीत बहुत हद तक समष्टिमुखी | व्यष्टिमुखी दृष्टि कहीं न कहीं रचनाकार को कल्पना केन्द्रित और स्वप्नजीवी बना देती है, इसके विपरीत जब गीत समष्टिगत यथार्थ की दिशा में अग्रसर होता है तब वह नवगीत की दहलीज़ पर ठिठक कर दस्तकें देने लगता है और उसकी आंतरिक संवेदना बाह्यबोध से जुड़ जाती है और उसमें इर्द-गिर्द की सच्चाईयों का दायरा आंचलिकता से बढ़ता हुआ नगर-बोध तथा जीवन के बहुकोणीय वास्तव से वलयित होकर वैश्वीकरण तक फैलता चला जाता है |’ इस प्रकार इंद्र जी गीत-नवगीत में जन्य-जनक का सम्बन्ध मानते हैं अर्थात पिता पुत्र का सम्बन्ध जिसे सभी विद्वानों-आचार्यों, आलोचकों ने स्वीकार करते हुए, अपनी कृतियों में उल्लेख किया है | यदि पिता का उत्तराधिकारी पुत्र नहीं होगा तो क्या कोई और हो सकता है ? इस सम्बन्ध में मैं चाहूँगा कि आदरणीय कमलेश जी मार्गदर्शन करने की कृपा करें और समस्त नवगीतकारों को पत्र लिखकर बताएं कि कौन सा शब्द उपयुक्त होगा, जिससे भविष्य में सुधार हो सके |

प्रश्न- 3 : आपने यह भी लिखा है कि, ‘जो कवि मंच पर सफल हैं वे साहित्य में घोर असफल हैं | गोष्ठियों में जहाँ साहित्यिक वातावरण होता है, नवगीत ही सफल है | ऐसा क्यों है कि नवगीत मंच पर असफल है ?

उत्तर : भाई राहुल देव जी, कवि सम्मलेन का अर्थ आप भी समझते हैं | आप छन्दमुक्त कवितायेँ लिखते हैं तो क्या आप समझते हैं मंच पर लोग आपको सुनेंगें ? प्रत्येक विधा का अपना वातावरण, श्रोता और पाठक अलग-अलग होते हैं | मंच पर लोक लुभावन के साथ जानदार गलेबाज़ी की दरकार होती है | मैं ऐसे भी कवियों को जानता हूँ जो देश-विदेश की अनेक बार यात्रा कर आए पर उनका एक भी संग्रह प्रकाशित नहीं है | कोई बात किसी एक व्यक्ति को लक्ष्य कर नहीं कही जाती है | जो सार्वभौम है, वही मान्य है | नवगीत न तो लोक लुभावन है न उसमें गलेबाज़ी को प्रोत्साहन मिलता है | वर्तमान में कवि सम्मलेन बाजारवाद का शिकार हैं | जो चंदा देकर कवि सम्मलेन कराते हैं उनका उद्देश्य भरपूर मनोरंजन होता है | हो सकता है कुछ कवि ऐसे हों जो मंच और गोष्ठी दोनों पर समान अधिकार रखते हों लेकिन वे दुर्लभ ही हैं | आज अगर मंच पर प्रसाद, पन्त, मैथिलीशरण गुप्त और दिनकर जैसे कवि जाएँ तो वह भी असफल हो जायेंगें | यह तो कटु सत्य है कि मंचों का युग सापेक्ष साहित्य से सम्बन्ध नहीं रह गया है | हिंदी के प्रचार-प्रसार में मंच की भूमिका महनीय है | जो सत्य है उसे स्वीकारना ही होगा | कुमार रवीन्द्र मंच के सम्बन्ध में लिखते हैं- “कविता का पारंपरिक सम्प्रेषण दो माध्यमों से होता रहा है- एक काव्यपाठ के माध्यम से तथा दूसरा पुस्तक के रूप में | काव्यपाठ का जो आम मंच था उसे तो चुटकुलेबाजों और भांडों ने हथिया लिया है | काव्य गोष्ठियों में थोड़ी-बहुत कविता अभी भी शेष है | xxx एक और बात है, आर्थिक उदारवाद एवं बाजारवाद और कविताई उसकी प्रतिरोधी मुद्रा में | एक विक्रय वस्तु के रूप में कविताई हर युग में सबसे बेकार की चीज़ रही है | यदि आज का बाज़ार कविता को नहीं स्वीकारता तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं और बिकाऊ न होना, यही तो कविता की खासियत रही है | ‘संतन को कहा सीकरी सो काम’ वाले कुम्भनदास के तेवर ही से श्रेष्ठ कविता जिंदा रही है | गीति-कविता सत्ता-प्रतिष्ठानों से उपेक्षित रही, यही तो उसके कविताई होने का प्रमाण है |” अब यदि मैंने कह दिया तो बुरा क्यों लगा ? क्या सच को सच कहना भी गुनाह है ?

प्रश्न- 4 : मधुकर जी आपने ऐसा क्यों कहा कि “मंच से होड़ करना तो नवगीतकारों को शोभा नहीं देता ? इसका कारण स्पष्ट करें |

उत्तर : प्रो. देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ और कुमार रवीन्द्र के विचारों को आपके समक्ष रखने के उपरांत क्या अब भी बताना कुछ शेष रह गया है ? स्पष्ट है कि मंच के रचनाकार अधिकांश (डॉ शिवभजन कमलेश को छोड़कर) श्रोताओ का मनोरंजन करते हैं जो साहित्य का उद्देश्य नहीं है | साहित्य चिंतन की प्रेरणा देता है | गोष्ठियों में केवल साहित्यकार ही श्रोता भी होते हैं और वे आम श्रोता से निश्चय ही अधिक प्रबुद्ध और जागरूक होते हैं | साहित्यिक रचनाओं अथवा नवगीतों के लिए गोष्ठियों का वातावरण अधिक उपयुक्त होता है | अब गलेबाजों, चुटकुलेबाजों और भांडों से होड़ लेना, कहाँ तक उचित है | समस्या यह है कि आदरणीय कमलेश जी इसे व्यक्तिगत रूप से अपने ऊपर व्यंग्य समझते हैं, जैसा कि उन्हें नहीं समझना चाहिए | मैंने वक्तव्य में जो कुछ भी लिखा है, वह गुरुजनों द्वारा पूर्व में ही लिखा-कहा जा चुका है | अतः केवल मेरा ही विचार नहीं है | जिस नवगीतकार से ऐसे प्रश्न पूछे जायेंगें, वह यही उत्तर देगा, जो मैंने दिया है |

प्रश्न- 5 : आपने ग़ज़ल जैसी महत्त्वपूर्ण और लोकप्रिय विधा को कहा कि- “ग़ज़ल एक अपूर्ण विधा है” | ग़ज़ल क्यों आपकी दृष्टि में अपूर्ण विधा है, कृपया इसे स्पष्ट करें |

उत्तर : ग़ज़ल मतला, मक्ता, रदीफ़, काफ़िया से बंधी हुई गीति रचना है जिसमें प्रत्येक शेर पूर्वा पर निरपेक्ष होता है | दो मिसरों में पूरी बात कह पाना संभव नहीं होता और मूल कथ्य की ओर केवल संकेत भर ही किया जा सकता है | ग़ज़ल का प्रत्येक शेर कथ्य और विचार में स्वतंत्र होने से उसमें विरोधाभासी कहन से काम चलाया जाता है | उर्दू के विद्वानों का कहना है कि ग़ज़ल का सौन्दर्यबोध घूंघट में छिपी दुल्हन की तरह होता है जो सम्पूर्ण रूप से दिखाई नहीं पड़ती है | स्व. नीलम श्रीवास्तव से मैंने भी ऐसा ही प्रश्न किया था तो उन्होंने उत्तर दिया था कि “मैंने न तो कभी ग़ज़ल कहीं है और न लिखना चाहता हूँ क्योंकि यह एक अपूर्ण विधा है | साथ ही यह आयातित भी है | डॉ वजीर आगा जो उर्दू शायरी के सुप्रसिद्ध विद्वान हैं उन्होंने ग़ज़ल के सम्बन्ध में लिखा है कि, “ग़ज़ल के शेर में बात संकेत या प्रतीक से आगे नहीं बढ़ती | उसमें कल्पना या विश्लेषण का अभाव रहता है |” हिंदी में तो हजारों छन्द हैं, रचनाकार उनमें क्यों नहीं प्रयास करते हैं | यों भी हर विधा में सृजन करने की महत्त्वाकांक्षा से रचनाकार की ऊर्जा बिखर जाती है | किसी एक विधा में साधना रचनाकार को अधिक महत्त्वपूर्ण बनाती है |
नवगीत में दो या तीन बंद होते हैं जिसमें केन्द्रीय विचार को पूरी तरह व्यक्त किया जा सकता है अतः नवगीतकारों के लिए यही श्रेयस्कर है कि वे प्रतिबद्धता के साथ नवगीत की साधना करते रहें | जहाँ तक नवगीत के सम्मुख खतरे का प्रश्न है तो जब नई कविता के कर्णधारों/ आलोचकों/ समीक्षकों ने अपने वक्तव्यों, आलेखों में घोषित कर दिया कि गीत अप्रासंगिक हो गया, गीत मर गया तब गीत के इसी परिवर्तित, युग सापेक्ष, यथार्थपरक नवगीत ने अधुनातन भाषा, कथ्य, कहन, मिथक, प्रतीक-बिम्ब में लोकमन में व्याप्त आंचलिकता को जोड़कर नई कविता को चुनौती दी, उस समय किसी गीतकार ने विरोध प्रकट नहीं किया और पूर्ववत कवि सम्मेलनों से धन उगाहते रहे | वह चाहे रामावतार त्यागी, रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’, भारत भूषण, जानकी वल्लभ शास्त्री या ‘नीरज’ ही क्यों न रहे हों | वर्तमान में केवल लखनऊ में एक दर्जन से अधिक उदीयमान कवि नवगीत सृजन में प्रयासरत हैं जिनमें संध्या सिंह, बृजेश नीरज, राजेन्द्र शुक्ल ‘राज’, डॉ अनिल मिश्र और रामशंकर वर्मा आदि प्रमुख हैं | जो रचनाकार अध्ययनशील हैं उन्हें नवगीत के सम्बन्ध में किसी प्रकार का संशय-संदेह नहीं है कि यही वर्तमान और भविष्य की गेय भूमिका निभाने में समर्थ है |
अंत में मैं यह कहना चाहूँगा कि कोई विधा कभी भी पूरी तरह समाप्त नहीं होती है किन्तु मुख्यधारा से अलग हो जाती है | रीतिकाल समाप्त हुए लगभग 150 वर्ष से अधिक हो रहा है किन्तु घनाक्षरी, कुण्डलियाँ, सवैया आदि छन्द अब भी लिखे जा रहे हैं और अवधी क्षेत्र में तो कुछ अधिक ही ध्यान दिया जा रहा है, विशेष रूप से मंचों पर तो ज्यादा प्रचलन में है लेकिन क्या रीतिकाल वापस आ पायेगा ? इसी प्राकर छायावादी गीतों की, स्वछंदतावादी गीतों की भरमार है किन्तु क्या छायावाद लौटकर आ पायेगा ? जो समय के साथ नहीं चल पाता वह पिछड़ जाता है | साहित्य में तो तेजी से परिवर्तन हो रहा है और यदि रचनाकार गुज़रे समय में ही रूढ़ बनकर रह जाएगा तो उसे मंच पर ही स्थान मिल सकेगा | रहा प्रश्न कमलेश जी के आशय निकालने का तो वह स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक हैं जो भी चाहें आशय निकालते रहें | यद्यपि समीक्षा में यह लिखने की आवश्यकता नहीं थी कि- “किसी रचनाकार के साथ मेरा कोई पूर्वाग्रह या दुराग्रह नहीं है” मैं तो इस विचारधारा का हूँ कि “निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय” | समीक्षा निश्चित रूप से प्रशंसनीय है और इसलिए भी कि मेरे वक्तव्य पर रेखांकित किये गये प्रश्नों का उत्तर देने का मुझे अवसर मिला | समीक्षा हेतु भाई कमलेश जी को बधाई !


राहुल देव : मधुकर जी, मेरे प्रश्नों का आपने स्पष्ट रूप से उत्तर दिया जिससे मेरे मन से अनेक संशय दूर हो गये | आपने जो कुछ भी कहा उससे मैं व्यक्तिगत रूप से सहमत हूँ और आपके उत्तर का समर्थन करता हूँ | आपको मैंने कष्ट दिया किन्तु आवश्यकता पड़ने पर मैं आपको पुनः ऐसे कष्ट सहन करने के लिए आमंत्रित कर सकता हूँ | बहुत बहुत धन्यवाद !
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2 comments:

  1. आदरणीय मधुकर जी ने नवगीत पर बहुत बेबाकी से अपना पक्ष स्पष्ट किया ... बहुत बधाई मधुकर जी को एवं राहुल जी को भी

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  2. आदरणीय अस्थाना जी को मैं उनकी पुस्तकों के माध्यम से एक समर्थ नवगीतकार ही नहीं बल्कि ग़ज़लकार भी पाता हूँ | श्री अस्थाना जी अपने बेबाक टिपण्णी के लिए भी जाने जाते हैं | उन्हें जो सही लगा उसे बेबाकी से कहा | इसके लिए श्री अस्थाना जी बधाई के पात्र हैं | हमारे विचार उनसे भिन्न हो सकते हैं, मेरे भी कुछ बिन्दुओं पर हैं जिन्हें समय मिलने पर बाद में रखूँगा | श्रीराहुल जी ने बड़े ही सधे हुए ढंग से साक्षात्कार की प्रस्तुति दी है उन्हें भी साधुवाद !

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