Wednesday 8 May 2013

राष्ट्रवाद बनाम धर्मनिरपेक्षता



राष्ट्र के उत्थान का प्रगतिगामी चिंतन ही राष्ट्रवाद का मूल अस्तित्व है | राष्ट्र में समन्वयवादी एकीकरण का भाव जनमानस में स्थापित करना, व्यष्टि का सुधारवाद की ओर अग्रसर होना, निजत्व के माध्यम से समूह का राष्ट्रीय मूलधारा से जोड़ा जाना ही राष्ट्रवाद की सामान्य परिभाषा है |
जहाँ तक व्यक्ति की राष्ट्रवादिता और संविधान में उल्लिखित धर्मनिरपेक्षता के सम्मिलित निर्वाह का प्रश्न है, मेरा मानना है की दोनों की एकरूपता जहाँ बाह्य रूप से एक दूसरे का पूरक है, वहीँ पर दोनों का अस्तित्व अपने आप में नितांत वैयक्तिक है |
राष्ट्रवाद में गुणग्राह्यता अधिक है, जबकि धर्मनिरपेक्षता में समानधर्मिता | राष्ट्रवाद राष्ट्र के अतीत काल की धरोहर है जिसके (हम संस्कृति कहेंगे) अन्दर विद्यमान गुणों को सवारकर निजी जीवन में ढालकर उसे इस प्रकार विकासोन्मुख बनाना है जिससे राष्ट्र के व्यक्तित्व में स्थिरता रहे |
धर्मनिरपेक्षता का सामान्य अर्थ सर्वधर्मसमभाव से है | राजनीति के क्षेत्र में राज्यवेत्ताओ द्वारा किया गया | समाजवादी चिंतन उपरोक्त धर्मनिरपेक्षता से अलग नहीं है | सच्ची धर्मनिरपेक्षता राष्ट्रवाद का ही एक रूप है |
मेरे सामने कई प्रश्न हैं जिसमे प्रथम प्रश्न यह है कि तथाकथित धर्मनिरपेक्षता से भारतीय मूलतत्वों को धक्का लगा है, क्या उक्त धर्मनिरपेक्षता से हमारी राष्ट्रीय चेतना प्रभावित हुई है? क्या हम संविधान में वर्णित धर्मनिरपेक्षता का निर्वाह भारतीय लोक समुदाय में करते हैं | क्या उपरोक्त दोनों (राष्ट्रवाद व धर्मनिरपेक्षता) भारतीय उपनिवेश में रह रहे बहुल समुदायजनों में निजी पथों के निर्वाह के विकास में बाधक हैं | उपरोक्त अधिकांश प्रश्नों के उत्तर नकारात्मक हैं | यदि सत्य बचता है तो भारतीय अतीतकालीन वैदिक युग की वह धरोहर जिसके आधार पर निर्मित सच्चे राष्ट्रवाद की शिला आज तक टूटी नहीं |

 -- श्री प्रकाश 

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