Friday 15 July 2011

भारत का विश्व पर ऋण (SWAMI VIVEKANAND)

सम्पूर्ण विश्व पर हमारी मातृभूमि का महान्‌ ऋण है । एक-एक देश को लें तो भी इस पृथ्वी पर दूसरी कोई जाति नहीं है, जिसका विश्व पर इतना ऋण है । जितना कि इस सहिष्णु एवं सौम्य हिन्दू का ! ‘‘निरीह हिन्दू'' कभी-कभी ये शब्द तिरस्कारस्वरुप प्रयुक्त होते है, किन्तु कभी किसी तिरस्कार-युक्त शब्द प्रयोग में भी कुछ सत्यांश रहना सम्भव हो तो वह इसी शब्द प्रयोग में है । यह ‘‘निरीह हिन्दू '' सदैव ही जगत्पिता की प्रिय संतान है ।

प्राचीन एवं अर्वाचीन कालों में शक्तिशाली एवं महान्‌ जातियों से महान्‌ विचारों का प्रादुर्भाव हुआ है । समय-समय पर आश्चर्यजनक विचार एक जाति से दूसरी के पास पहुंची हैं । राष्ट्रीय जीवन के उमड़ते हुए ज्वरों से अतीत में और वर्तमान काल में महासत्य और शक्ति के बीजों को दूर-दूर तक बिखेरा है । किन्तु मित्रो ! मेरे शब्द पर ध्यान दो । सदैव यह विचार-संक्रमण रणभेरी के घोष के साथ युद्धरत सेनाओं के माध्यम से ही हुआ है । प्रत्येक विचार को पहले रक्त की बाढ़ में डुबना पड़ा । प्रत्येक विचार को लाखों मानवो की रक्त-धारा में तैरना पड़ा । शक्ति के प्रत्येक शब्द के पीछे असंख्य लोगों का हाहाकार, अनाथों की चीत्कार एवं विधवाओं का अजस्र का अश्रुपात सदैव विद्यमान रहा । मुख्यतः इसी मार्ग से अन्य जातियों के विचार संसार में पहुंचे । जब ग्रीस का अस्तिव नहीं था । रोम भविष्य के अन्धकार के गर्भ में छिपा हुआ था, जब आधुनिक योरोपवासियों के पुरखे जंगल में रहते थे और अपने शरीरों को नीले रंगों में रंगा करते थे, उस समय भी भारत में कर्मचेतना का साम्राज्य था । उससे भी पूर्व, जिसका इतिहास के पास कोई लेखा नहीं जिस सुन्दर अतीत के गहन अन्धकार में झांकने का साहस परम्परागत किम्बदन्ती भी नहीं कर पाती, उस सुदूर अतीत से अब तक, भरतवर्ष से न जाने कितनी विचार-तरंगें निकली हैं किन्तु उनका प्रत्येक शब्द अपने आगे शांति और पीछे आशीर्वाद लेकर गया है । संसार की सभी जातियों में केवल हम ही हैं जिन्होंने कभी दूसरों पर सैनिक-विजय प्राप्ति का पथ नहीं अपनाया और इसी कारण हम आशीर्वाद के पात्र हैं ।

एक समय था-जब ग्रीक सेनाओं के सैनिक संचलन के पदाघात के धरती कांपा करती थी । किन्तु पृथ्वी तल पर उसका अस्तित्व मिट गया । अब सुनाने के लिए उसकी एक गाथा भी शेष नहीं । ग्रीकों का वह गौरव सूर्य-सर्वदा के लिए अस्त हो गया । एक समय था जब संसार की प्रत्येक उपभोग्य वस्तु पर रोम का श्येनांकित ध्वज उड़ा करता था । सर्वत्र रोम की प्रभुता का दबदबा था और वह मानवता के सर पर सवार थी पृथ्वी रोम का नाम लेते ही कांप जाती थी परन्तु आज सभी रोम का कैपिटोलिन पर्वत खण्डहारों का ढेर बना हुआ है, जहां सीजर राज्य करते थे वहीं आज मकड़ियां जाला बुनती हैं । इनके अतिरिक्त कई अन्य गौरवशाली जातियां आयीं और चली गयी, कुछ समय उन्होंने बड़ी चमक-दमक के साथ गर्व से छाती फुलाकर अपना प्रभुत्व फैलाया, अपने कलुषित जातीय जीवन से दूसरों को आक्रान्त किया; पर शीर्घ ही पानी के बुलबुलों के समान मिट गयीं । मानव जीवन पर ये जातियां केवल इतनी ही छाप डाल सकीं ।
किन्तु हम आज भी जीवित हैं और यदि आज भी हमारे पुराण-ऋषि-मुनि वापस लौट आये तो उन्हें आश्चर्य न होगा; उन्हें ऐसा नहीं लगेगा कि वे किसी नये देश में गए । वे देखेंगे कि सहस्रों वर्षो के अनुभव एवं चिन्तन से निष्पन्न वही प्राचीन विधान आज भी यहां विद्यवान है; अनन्त शताब्दियों के अनुभव एवं युगों की अभिज्ञता का परिपाक -वह सनातन आचार-विचार आज भी वर्तमान है, और इतना ही नहीं, जैसे-जैसे समय बीतता जाता है, एक के बाद दूसरे दुर्भाग्य के थपेड़े उन पर आघातों करते जाते हैं । पर उन सब आघातों का एक ही परिणम हुआ है कि वह आचार दृढ़तर और स्थायी होते जाते हैं। किन्तु इन सब विधानों एंव आचारों का केन्द्र कहां है । किस हृदय में रक्त संचलित होकर उन्हे पुष्ट बना रहा है । हमारे राष्ट्रीय जीवन का मूल स्रोत है । इन प्रश्नों के उत्तर में सम्पूर्ण संसार के पर्यटन एवं अनुभव के पश्चात मैं विश्वास पूर्वक कह सकता हूं कि उनका केन्द्र हमारा धर्म है । यह वह भारत वर्ष है जो अनेक शताब्दियों तक शत शत विदेशी आक्रमणों के आक्रमणों के आघातों को झेल चुका है । यह ही वह देश है जो संसार की किसी भी चट्टान से अधिक दृढ़ता से अपने अक्षय पौरुष एवं अमर जीवन शक्ति के साथ खड़ा हुआ है । इसकी जीवन शक्ति भी आत्मा के समान ही अनादि, अनन्त एवं अमर है और हमें ऐसे देश की संतान होने का गौरव प्राप्त है ।

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